महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-261
दिखावट
← अनुशासनपर्व-260 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-261 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-262 → |
वायुना हैहयार्जुनंप्रति देवासुरयुद्धे राहुणा चन्द्रसूर्यपराभवेनान्धकारप्राप्तौ देवानां प्रार्थनया चन्द्रीभूय तमोनिरसनरूपात्रिमहिमोक्तिः।। 1 ।। तथा सवज्रेन्द्रहस्तस्तम्भनेनाश्विनोः सोमपानदापनरूपच्यवनमहिमोक्तिः।। 2 ।।
भीष्म उवाच। | 13-261-1x |
इत्युक्तस्त्वर्जुनस्तूष्णीमभूद्वायुस्तमब्रवीत्। शृणु मे हैहयश्रेष्ठ कर्मात्रेः सुमहात्मनः।। | 13-261-1a 13-261-1b |
घोरे तमस्ययुध्यन्त सहिता देवदानवाः। अविद्यत शरैस्तत्र स्वर्भानुः सोमभास्करौ।। | 13-261-2a 13-261-2b |
अथ ते तमसा ग्रस्ता निहन्यन्ते स्म दानवैः। देवा नृपतिशार्दूल सहैव बलिभिस्तदा।। | 13-261-3a 13-261-3b |
असुरेर्वध्यमानास्ते क्षीणप्राणा दिवौकसः। अपश्यन्त तपस्यन्तमत्रिं विप्रं तपोधनम्।। | 13-261-4a 13-261-4b |
अथैनमब्रुवन्देवाः शान्तक्रोधं जितेन्द्रियम्। असुरेरिषुभिर्विद्धौ चन्द्रादित्याविमावुभौ।। | 13-261-5a 13-261-5b |
वयं वध्यामहे चापि शत्रुभिस्तमसा वृते। नाधिगच्छाम शान्तिं च भयात्त्रायस्व नः प्रभो।। | 13-261-6a 13-261-6b |
अत्रिरुवाच। | 13-261-7x |
कथं रक्षामि भवतस्तेऽब्रुवंश्चन्द्रमा भव। तिमिरघ्नश्च सविता दस्युहन्ता च नो भव।। | 13-261-7a 13-261-7b |
एवमुक्तस्तदात्रिर्वै तमोनुदभवच्छशी। अपश्यत्सौम्यभावाच्च सोमवत्प्रियदर्शनः।। | 13-261-8a 13-261-8b |
दृष्ट्वा नातिप्रभं सोमं तथा सूर्यं च पार्थिव। प्रकाशमकरोदत्रिस्तपसा स्वेन संयुगे।। | 13-261-9a 13-261-9b |
जगद्वितिमिरं चापि प्रदीप्तमकरोत्तदा। व्यजयच्छत्रुसङ्घांश्च देवानां स्वेन तेजसा।। | 13-261-10a 13-261-10b |
अत्रिणा दह्यमानांस्तान्दृष्ट्वा देवा महासुरान्। पराक्रमैस्तेऽपिं तदा व्यघ्नन्नत्रिसुरक्षिताः। उद्भासितश्च सविता देवास्त्राता हतासुराः।। | 13-261-11a 13-261-11b 13-261-11c |
अत्रिणा त्वथ सोमत्वं कृतमुत्तमतेजसा। द्विजेनाग्निद्वितीयेनि जपता चर्मवाससा।। | 13-261-12a 13-261-12b |
फलभक्षेण राजर्षे पश्य कर्मात्रिणा कृतम्। तस्यापि विस्तरेणोक्तं कर्मात्रेः सुमहात्मनः। ब्रवीम्यन्यं ब्रूहि वा त्वमत्रितः क्षत्रियं वरम्।। | 13-261-13a 13-261-13b 13-261-13c |
इत्युक्तस्त्वर्जुनस्तूष्णीमभूद्वायुस्ततोऽब्रवीत्। शृणु राजन्महत्कर्म च्यवनस्य महात्मनः।। | 13-261-14a 13-261-14b |
अश्विनोः प्रतिसंश्रुत्य च्यवनः पाकशासनम्। प्रोवाच सहितो देवैः सोमपावश्विनौ कुरु।। | 13-261-15a 13-261-15b |
इन्द्र उवाच। | 13-261-16x |
अस्माभिर्निन्दितावेतौ भवेतां सोमपौ कथम्। देवैर्न सम्मितावेतौ तस्मान्मैवं वदस्व नः।। | 13-261-16a 13-261-16b |
अश्विभ्यां सह नेच्छामः सोमं पातुं महाव्रत। यदन्यद्वक्ष्यसे विप्र तत्करिष्याम ते वचः।। | 13-261-17a 13-261-17b |
च्यवन उवाच। | 13-261-18x |
पिबेतामश्विनौ सोमं भवद्भिः सहिताविमौ। उभावेतावपि सुरौ सूर्यपुत्रौ सुरेश्वर।। | 13-261-18a 13-261-18b |
क्रियतां मद्वचो देवा यथा वै समुदाहृतम्। एतद्वः कुर्वतां श्रेयो भवेन्नैतदकुर्वताम्।। | 13-261-19a 13-261-19b |
इन्द्र उवाच। | 13-261-20x |
अश्विभ्यां सह सोमं वै न पास्यामि द्विजोत्तम। पिबन्त्वन्ये यथाकामं नाहं पातुमिहोत्सहे।। | 13-261-20a 13-261-20b |
च्यवन उवाच। | 13-261-21x |
न चेत्करिष्यसि वचो मयोक्तं बलसूदन। मया प्रमथितः सद्यः सोमं पास्यसि वै मखे।। | 13-261-21a 13-261-21b |
वायुरुवाच। | 13-261-22x |
ततः कर्म समारब्धं हिताय सहसाऽश्विनोः। च्यवनेनि ततो मन्त्रैरभिभूताः सुराऽभवन्।। | 13-261-22a 13-261-22b |
तत्तु कर्म समारब्धं दृष्ट्वेन्द्रः क्रोधमूर्च्छितः। उद्यम्य विपुलं शैलं च्यवनं समुपाद्रवत्।। | 13-261-23a 13-261-23b |
तथा वज्रेम भगवानमर्षाकुललोचनः। तमापतन्तं दृष्ट्वैव च्यवनस्तपसाऽन्वितः।। | 13-261-24a 13-261-24b |
अद्भिः सिक्त्वाऽस्तम्ययतं सवज्रं सहपर्वतम्। अथेन्द्रस्य महाघोरं सोऽसृजच्छत्रुमेव हि।। | 13-261-25a 13-261-25b |
मदं नामाहुतिमयं व्यादितास्यं महामुनिः। तस्य दन्तसहस्रं तु बभूव शतयोजनम्।। | 13-261-26a 13-261-26b |
द्वियोजनशतास्तस्य दंष्ट्राः परमदारुणाः। हनुस्तस्याभवद्भूमावास्यं चास्यास्पृशद्दिवम्।। | 13-261-27a 13-261-27b |
जिह्वामूले स्थितास्तस्य सर्वे देवाः सवासवाः। तिमेरास्यमनुप्राप्ता यथा मत्स्या महार्णवे।। | 13-261-28a 13-261-28b |
ते सम्मन्त्र्य ततो देवा मदस्यास्य समीपगाः। अब्रुवन्सहिताः शक्रं प्रणमास्मै द्विजातये।। | 13-261-29a 13-261-29b |
अश्विभ्यां सह सोमं च पिबाम विगतज्वराः। ततः स प्रणतः शक्रश्चकार च्यवनस्य तत्।। | 13-261-30a 13-261-30b |
च्यवनः कृतवानेतावश्विनौ सोमपायिनौ। ततः प्रत्याहरत्कर्म मदं च व्यभजन्मुनिः।। | 13-261-31a 13-261-31b |
अक्षेषु मृगयायां च पाने स्त्रीषु च वीर्यवान्। एतैर्दोषैर्नरा राजन्क्षयं यान्ति न संशयः।। | 13-261-32a 13-261-32b |
तस्मादेतान्नरो नित्यं दूरतः परिवर्जयेतद्।। | 13-261-33a |
एतत्ते च्यवनस्यापि कर्मि राजन्प्रकीर्तितम्। ब्रवीम्यन्यं ब्रूहि वा त्वं क्षत्रियं ब्राह्मणाद्वरम्।। | 13-261-34a 13-261-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 261 ।। |
अनुशासनपर्व-260 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-262 |