महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-182
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति विद्यातपोदानानां मध्ये दानप्रशंसनपरव्यासमैत्रेयसंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-182-1x |
विद्या तपश्च दानं च किमेतेषां विशिष्यते। पृच्छामि त्वां सतां श्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-182-1a 13-182-1b |
भीष्म उवाच। | 13-182-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। मैत्रेयस्य च संवादं कृष्णद्वैपायनस्य च।। | 13-182-2a 13-182-2b |
कृष्णद्वैपायनो राजन्नज्ञातचरितं चरन्। वाराणस्यामुपातिष्ठन्मैत्रेयं स्वैरिणीकुले।। | 13-182-3a 13-182-3b |
तमुपच्छन्नमासीनं ज्ञात्वा स मुनिसत्तमः। अर्चित्वा भोजयामास मैत्रेयोऽशनमुत्तमम्।। | 13-182-4a 13-182-4b |
तदन्नमुत्तमं भुक्त्वा गुणवत्सार्वकामिकम्। उत्तिष्ठमानोऽस्मयत प्रीतः कृष्णो महामनाः।। | 13-182-5a 13-182-5b |
तमुत्स्मयन्तं सम्प्रेक्ष्य मैत्रेयः कृष्णमब्रवीत्। कारणं ब्रूहि धर्मात्मन्व्यस्मयिष्ठाः कुतश्च ते। तपस्विनो धृतिमतः प्रमोदः समुपागतः।। | 13-182-6a 13-182-6b 13-182-6c |
एतदिच्छामि ते विद्वन्नभिवाद्य प्रणम्य च। आत्मनश्च तपोभाग्यं सुखभाग्यं ममेह च।। | 13-182-7a 13-182-7b |
`तपोभाग्यान्महाभाग सुखभाग्यात्तथैव च। पृथगाचरितं तात पृथगाचरितात्मनः। अल्पान्तरमहं मन्ये विशिष्टमपि चान्वयात्।। | 13-182-8a 13-182-8b 13-182-8c |
व्यास उवाच। | 13-182-9x |
अतिच्छेदातिवादाभ्यां स्मयोऽयं समुपागतः। असत्यं वेदवचनं कस्माद्वेदोऽनृतं वदेत्।। | 13-182-9a 13-182-9b |
त्रीण्येव तु पदान्याहुः पुरुषस्योत्तमं प्रति। न द्रुह्येच्चैव दद्याच्च सत्यं चैव परान्वदेत्।। | 13-182-10a 13-182-10b |
इति वेदोक्तमृषिभिः पुरस्तात्परिकल्पितम्। इदानीं चैव नः कृत्यं पुरस्ताच्च परिश्रुतम्।। | 13-182-11a 13-182-11b |
अल्पोऽपि तादृशो न्यासो भवत्युत महाफलः। तृषिताय च यद्दत्तं हृदयेनानसूयता।। | 13-182-12a 13-182-12b |
तोषितास्त्रिदशा यत्ते दत्त्वैतद्दर्शनं मम। अजैषीर्महतो लोकान्महायज्ञैरिव प्रभो।। | 13-182-13a 13-182-13b |
ततो दानपवित्रेण प्रीतोऽस्मि तपसैव च। दूरात्पुण्यवतो गन्धः पुण्यस्यैव च दर्शनात्।। | 13-182-14a 13-182-14b |
पुण्यश्च वातिगन्धस्ते मन्ये कर्म विधानजम्। अथ कर्मार्जितस्तात यथाचैवानुलेपनात्।। | 13-182-15a 13-182-15b |
शुभं सर्वपवित्रेब्यो दानमेव परं द्विज। [नोचेत्सर्वपवित्रेभ्यो दानमेव परं भवेत्।।] | 13-182-16a 13-182-16b |
यानीमान्युत्तमानीह वेदोक्तानि प्रशंसति। तेषां श्रेष्ठतरं दानमिति मे नात्र संशयः।। | 13-182-17a 13-182-17b |
दानवद्भिः कृतः पन्था येन यान्ति मनीषिणः। ते हि प्राणस्य दातारस्तेषु धर्मः प्रतिष्ठितः।। | 13-182-18a 13-182-18b |
यथा वेदाः स्वधीताश्च यथा चेन्द्रियसंयमः। सर्वत्यागो यता चेह तता दानमनुत्तमम्।। | 13-182-19a 13-182-19b |
त्वं हि तात सुखादेव शुभमेष्यसि शोभनम्। सुखात्सुखतरप्राप्तिमाप्नुते मतिमान्नरः।। | 13-182-20a 13-182-20b |
तन्नः प्रत्यक्षमेवेदमुपलक्ष्यमसंशयम्। श्रीमन्तः प्राप्नुवन्त्यर्थान्दानं यज्ञं तथा सुखम्।। | 13-182-21a 13-182-21b |
सुखादेव परं दुःखं दुःखादन्यत्परं सुखम्। दृश्यते हि महाप्राज्ञ नियतं वै स्वभावतः।। | 13-182-22a 13-182-22b |
विविधानीह वृत्तानि नरस्याहुर्मनीषिणः। पुण्यमन्यत्पापमन्यन्न पुण्यं न च पापकम्।। | 13-182-23a 13-182-23b |
न वृत्तं मन्यतेऽन्यस्य मन्यतेऽन्यस्य पातकम्। यथा स्वकर्मनिर्वृत्तं न पुण्यं न च पापकम्।। | 13-182-24a 13-182-24b |
यज्ञदानतपःशीला नरा वै पुण्यकर्मिणः। येऽभिद्रुह्यन्ति भूतानि ते वै पापकृतो जनाः।। | 13-182-25a 13-182-25b |
द्रव्याण्याददते चैव दुःखं यान्ति पतन्ति च। ततोऽन्यत्कर्म यत्किंचिन्न पुण्यं न च पातकम्।। | 13-182-26a 13-182-26b |
`नित्यं चाकृपणो भुङ्क्ते स्वजनैर्देहि याचतः। भाग्यक्षयेण क्षीयन्ते नोपभोगेन सञ्चयाः।। | 13-182-27a 13-182-27b |
रमस्वैधस्व मोदस्व देहि दाने रमस्व च। न त्वामतिभविष्यन्ति वैद्या न च तपस्विनः।। | 13-182-28a 13-182-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्व्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 182 ।। |
13-182-3 मैत्रेयमपि अज्ञातचरितं चरन्तमित्यर्थः। स्वं ईरयति धर्माय प्रेरयति स्वैरिणी मुनिश्रेणी तस्याः कुले गृहे। स्वैरिणं कुल इति थ. पाठः।। 13-182-5 अस्मयत विस्मयं प्राप्तवान्।। 13-182-6 कुतश्च ते प्रमोद इति सम्बन्धः।। 13-182-7 इच्छामि ज्ञातुमिति शेषः।। 13-182-9 अतिच्छेदोऽत्यन्तमन्तरं मशकेन समुद्रशोषणमिव अतिवादस्तस्यैवार्थस्य कथनं लोके ताभ्यां विस्मयो मे भवेत्। इदं स्थानं क्रतुशतं विना न प्राप्यत इति वेदवचनमसत्यम्। जलमात्रदानेन तव तत्प्राप्तिदर्शनात्। देशकालपात्रश्रद्धाविशेषादल्पमपि महत्तमत्वं जलमौक्तिकन्यायेन प्राप्नोतीति दर्शनात्। कस्माद्वेदोऽनृतं वदेदिति उक्तम्।।
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