महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-122
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फेनपस्य गोभक्तयुद्रेकसन्तुष्टाभिर्गोलोकादागतगोमातृभिः योगप्रभावेण शरीराद्वियोजनेन स्वलोकप्रापणपूर्वकं तस्मिन्कपिलानिश्चयनिवेदनम्।। 1 ।। ततः कपिलाभिर्यथाप्रतिज्ञं शृङ्गाघातादिना फेनपस्य कुणपशरीरविभेदनम्।। 2 ।।
भीष्म उवाच। | 13-122-1x |
यास्तु गोमातरस्तस्य कामचारिण्य आगताः। समीपं हि सुमित्रस्य कृतज्ञाः समुपस्थिताः।। | 13-122-1a 13-122-1b |
अभिप्रशस्य चैवाहुस्तमृषिं पुण्यदर्शनाः। गोलोकादागता वेद वृषगोमातरो वयम्।। | 13-122-2a 13-122-2b |
सुप्रीताः स्म वरं गृह्ण यमिच्छसि महामुने। यद्भि गोषु परां बुद्धिं कृतवानसि नित्यदा।। | 13-122-3a 13-122-3b |
सुमित्र उवाच। | 13-122-4x |
प्रीतोस्म्यनुगृहीतोस्मि यन्मां गोमातरः शुभाः। सुप्रीतमनसः सर्वास्तिष्ठन्ते च वरप्रदाः।। | 13-122-4a 13-122-4b |
भवेद्गोष्वेव मे भक्तिर्यथैवाद्य तथा सदा। गोघ्नाश्चैवावसीदन्तु नरा ब्रह्मद्विषश्च ये।। | 13-122-5a 13-122-5b |
गोमातर ऊचुः। | 13-122-6x |
एवमेतदृषिश्रेष्ठ हितं वदसि नः प्रियम्। एहि गच्छ सहाऽस्माभिर्गोलोकमृषिसत्तम।। | 13-122-6a 13-122-6b |
सुमित्र उवाच। | 13-122-7x |
यूयमिष्टां गतिं यान्तु न ह्यहं गन्तुमुत्सहे। इमा गावः समुत्सृज्य तपस्विन्यो मम प्रियाः।। | 13-122-7a 13-122-7b |
भीष्म उवाच। | 13-122-8x |
तास्तु तस्य वचः श्रुत्वा कपिलानां सुदारुणम्। नित्युस्तमृषिमुत्क्षिप्य भार्गवं नभ उद्वहन्।। | 13-122-8a 13-122-8b |
कलेवरं तु तत्रैव तस्य संन्यस्य मातरः। निष्कृष्य करणं योगादानयन्भार्गवस्य वै।। | 13-122-9a 13-122-9b |
सर्वं चास्य तदाचख्युः कपिलानां विचेष्टितम्। यदर्थं हरणं गोभिर्गोलोकं लोकमातरः।। | 13-122-10a 13-122-10b |
ततस्तु कपिलास्तत्र तस्य दृष्ट्वा कलेवरम्। तथाप्रतिज्ञं शृङ्गैश्च खुरैश्चाप्यवचूर्णयन्।। | 13-122-11a 13-122-11b |
ततः संछिद्य बहुधा भार्गवं नृपसत्तम। युयुर्यत्रेतरा गावस्तच्च सर्वं न्यवेदयन्।। | 13-122-12a 13-122-12b |
अथ गोमातृभिः शप्तास्ता गावः पृथिवीचराः। अमेध्यवदनाः क्षिप्रं भवध्वं ब्रह्मघातकाः।। | 13-122-13a 13-122-13b |
एवं कृतज्ञा गावो हि यता गोमातरो नृप। ऋषिश्च प्राप्तवाँल्लोकं गावश्च परिमोक्षिताः।।' | 13-122-14a 13-122-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्वाविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 122 ।। |
13-122-2 वेद विद्धि। ऋषे गोमातरो वयमिति थ.पाठः।। 13-122-8 कपिलानां सुदारुणं सुमित्रवधप्रतिज्ञानं च श्रुत्वा।।
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