महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-115
दिखावट
← अनुशासनपर्व-114 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-115 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-116 → |
भीष्मेणि युधिष्ठिरम्प्रति गोदानफलप्रशंसनपूर्वकं वसिष्ठवचनाद्गोमहिमावगमेन तद्दातुः सौदासस्य पुण्यलोकप्राप्तिकथनम्।। 1 ।।
वसिष्ठ उवाच। | 13-115-1x |
घृतक्षीरप्रदा गावो घृतयोन्यो घृतोद्भवाः। घृतनद्यो घृतावर्तास्ता मे सन्तु सदा गृहे।। | 13-115-1a 13-115-1b |
घृतं मे हृदये नित्यं घृतं नाभ्यां प्रतिष्ठितम्। घृतं सर्वेषु गात्रेषु घृतं मे मनसि स्थितम्।। | 13-115-2a 13-115-2b |
गावो ममाग्रतो नित्यं गावः पृष्ठत एव च। गावो मे सर्वतश्चैव गवां मध्ये वसाम्यहम्।। | 13-115-3a 13-115-3b |
इत्याचम्य जपेत्सायं प्रातश्च पुरुषः सदा। यदह्ना कुरुते पापं तस्मात्स परिमुच्यते।। | 13-115-4a 13-115-4b |
प्रासादा यत्र सौवर्णा वसोर्धाराश्च कामदाः। गन्धर्वाप्सरसो यत्र तत्र यान्ति सहस्रदाः।। | 13-115-5a 13-115-5b |
नवनीतपङ्काः क्षीरोदा दधिशैवलसङ्कुलाः। वहन्ति यत्र वै नद्यस्तत्र यान्ति सहस्रदाः।। | 13-115-6a 13-115-6b |
गवां शतसहस्रं तु यः प्रच्छेद्यथाविधि। परां वृद्धिमवाप्याथ स्वर्गलोके महीयते।। | 13-115-7a 13-115-7b |
दश चोभयतः प्रेत्य मातापित्रोः पितामहान्। दधाति सुकृताँल्लोकान्पुनाति च कुलं नरः।। | 13-115-8a 13-115-8b |
धेन्वाः प्रमाणेन समप्रमाणां धेनुं तिलानामपि च प्रदाय। पानीयवापीः स यमस्य लोके न यातनां काञ्चिदुपैति तत्र।। | 13-115-9a 13-115-9b 13-115-9c 13-115-9d |
पवित्रमग्र्यं जगतः प्रतिष्ठा दिवौकसां मातरोऽथाप्रमेयाः। अन्वालभेद्दक्षिणतो व्रजेच्च दद्याच्च पात्रे प्रसमीक्ष्य कालम्।। | 13-115-10a 13-115-10b 13-115-10c 13-115-10d |
धेनुं सवत्सां कपिलां भूरिशृङ्गीं कांस्योपदोहां वसनोत्तरीयाम्। प्रदाय तां गाहति दुर्विगाह्यां याम्यां सभां वीतभयो मनुष्यः।। | 13-115-11a 13-115-11b 13-115-11c 13-115-11d |
सुरूपा बहुरूपाश्चि विश्वरूपाश्च मातरः। गावो मामुपतिष्ठन्तामिति नित्यं प्रकीर्तयेत्।। | 13-115-12a 13-115-12b |
नातः पुण्यतरं दानं नातः पुण्यतरं फलम्। नातो विशिष्टं लोकेषु भूतं भवितुमर्हति।। | 13-115-13a 13-115-13b |
त्वचा लोम्नाऽथ शृङ्गैर्वा वालैः क्षीरेण मेदसा। यज्ञं वहति सम्भूय किमस्त्यभ्यधिकं ततः।। | 13-115-14a 13-115-14b |
यया सर्वमिदं व्याप्तं जगत्स्थावरजङ्गमम्। तां धेनुं शिरसा वन्दे भूतभव्यस्य मातरम्।। | 13-115-15a 13-115-15b |
गुणवचनसमुच्चयैकदेशो नृवर मयैष गवां प्रकीर्तितस्ते। न च परमिह दानमस्ति गोभ्यो भवति न चापि परायणं ततोऽन्यम्।। | 13-115-16a 13-115-16b 13-115-16c 13-115-16d |
भीष्म उवाच। | 13-115-17x |
वरमिदमिति भूमिपो विचिन्त्य प्रवरमृषेर्वचनं ततो महात्मा। व्यसृजत नियतात्मवान्द्विजेभ्यः सुबहु च गोधनमाप्तवांश्च लोकान्।। | 13-115-17a 13-115-17b 13-115-17c 13-115-17d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चदशाधिकशततमोऽध्यायः।। 115 |
अनुशासनपर्व-114 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-116 |