महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-234
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति दानस्य षाङ्गुण्यप्तिपादनपूर्वकं तत्फलकथनम्।। 1 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-234-1x |
एतदर्थमवाप्नोति नरः प्रेत्य शुभेक्षणे।। | 13-234-1a |
उमोवाच। | 13-234-2x |
लोकसिद्धं तु यद्द्रव्यं सर्वसाधारणं भवेत्। तददत्सर्विसामान्यं कथं धर्मं लभेन्नरः। एवं साधारणे द्रव्ये तस्य स्वत्वं कथं भवेत्।। | 13-234-2a 13-234-2b 13-234-2c |
महेश्वर उवाच। | 13-234-3x |
लोके भूतमयं द्रव्यं सर्वसाधारणं तथा। तथैव तद्ददन्मर्त्यो लभेत्पुण्यं स तच्छृणु।। | 13-234-3a 13-234-3b |
दाता प्रतिग्रहीता च देयं सोपक्रमं तथा। देशकालौ च यत्त्वेतद्दानं षङ्गुणमुच्यते। तेषां सम्पद्विशेषांश्च कीर्त्यमानान्निबोध मे।। | 13-234-4a 13-234-4b 13-234-4c |
आदिप्रभृति यः शुद्धो मनोवाक्कायकर्मभिः। | 13-234-5a |
सत्यवादी जितक्रोधस्त्वलुब्धो नाभ्यसूयकः। | |
श्रुद्धावानास्तिकश्चैवक एवं दाता प्रशस्यते।। | |
शुद्रो दान्तो जितक्रोधस्तथा दीनकुलोद्भवः। श्रुतचारित्रसम्पन्नस्तथा बहुकलत्रवान्।। | 13-234-6a 13-234-6b |
पञ्चयज्ञपरो नित्यं निर्विकारशरीरवान्। एतान्पात्रगुणान्विद्धि तादृक्पात्रं प्रशस्यते।। | 13-234-7a 13-234-7b |
पितृदेवाग्निकार्येषु तस्य दत्तं महाफलम्। यद्यदर्हति यो लोके पात्रं तस्य भवेच्च सः। | 13-234-8a 13-234-8b |
मुच्येदापद आपन्नो येन पात्रं तदस्य तु।। | |
अन्नस्य क्षुधितं पात्रं तृषितस्तु जलस्य वै। एवं पात्रेषु नानात्वमिष्यते पुरुषं प्रति।। | 13-234-9a 13-234-9b |
जारश्चोरश्च षण्डश्च हिंस्रः समयभेदकः। लोकविघ्नकराश्चान्ये वर्जितव्याः सर्वशः प्रिये।। | 13-234-10a 13-234-10b |
परोपघाताद्यद्द्रव्यं चौर्याद्वा लभ्यते नृभिः। निर्दयाल्लभ्यते यच्च धूर्तभावेन वै तथा।। | 13-234-11a 13-234-11b |
अधर्मादर्थमोहाद्वा बहूनामुपरोधनात्। यल्लभ्यते धनं देवि तदत्यन्तविगर्हितम्।। | 13-234-12a 13-234-12b |
तादृशेन कृतं धर्मं निष्फलं विद्धि भामिनि। तस्मान्न्यायागतेनैव दातव्यं शुभमिच्छता।। | 13-234-13a 13-234-13b |
यद्यदात्मप्रियं नित्यं तत्तद्देयमिति स्थितिः। उपक्रममिमं विद्धि दातॄणां परमं हितम्।। | 13-234-14a 13-234-14b |
पात्रभूतं तु दूरस्थमभिगम्य प्रसाद्य च। दाता दानं तथा दद्याद्यथा तुष्येत तेन सः। | 13-234-15a 13-234-15b |
एष दानविधइः श्रेष्ठः समाहूय तु मध्यमः।। | |
पूर्वं च पात्रतां ज्ञात्वा समाहूय निवेद्य च। शौचाचमनसंयुक्तं दातव्यं श्रद्धया प्रिये।। | 13-234-16a 13-234-16b |
याचितॄणां तु परममाभिमुख्यं पुरस्कृतम्। संमानपूर्वं सङ्ग्राह्यं दातव्यं देशकालयो।। | 13-234-17a 13-234-17b |
अपात्रेभ्योपि चान्येभ्यो दातव्यं भूतिमिच्छता।। पात्राणि सम्परीक्ष्यैव दात्रा वै नाममात्रया। | 13-234-18a 13-234-18b |
अतिशक्तया परं दानं यथाशक्ति तु मध्यमम्। तृतीयं चापरं दानं नानुरूपमिवात्मनः।। | 13-234-19a 13-234-19b |
यथा सम्भाषितं पूर्वं दातव्यं तत्तथैव च। पुण्यिक्षेत्रेषु यद्दत्तं पुण्यकालेषु वा यथा। | 13-234-20a 13-234-20b |
तच्छोभनतरं विद्धि गौरवाद्देशकालयोः।। | |
उमोवाच। | |
यश्च पुण्यतमो देशस्तथा कालश्च शंस मे।। | 13-234-21a |
महेश्वर उवाच।।। | |
कुरुक्षेत्रं महानन्यो यश्च देवर्षिसेवितः। गिरिर्वरश्च तीर्थानि देशभागेषु पूजितः। ग्रहीतुमीप्सितो यत्र तत्र दत्तं महाफमल्।। | 13-234-22a 13-234-22b 13-234-22c |
शरद्वसन्तकालश्च पुण्यमासस्तथैव च। शुक्लपक्षश्च पक्षाणां पौर्णमासी च पर्वसु।। | 13-234-23a 13-234-23b |
पितृदैवतनक्षत्रनिर्मलो दिवसस्तथा। तच्छोभनतरं विद्धि चन्द्रसूर्यग्रहे तथा।। | 13-234-24a 13-234-24b |
प्रतिग्रहीतुर्यः कालो मनसा कीर्तितः शुभे। एवमादिष्टकालेषु दत्तं दानं महद्भवेत्।। | 13-234-25a 13-234-25b |
दाता देयं च पात्रं च उपक्रमयुता क्रिया। देशकालं तथा तेषां सम्पच्छुद्धिः प्रकीर्तिता।। | 13-234-26a 13-234-26b |
यथैव युगपत्सम्पत्तत्र दानं महद्भवेत्।। | 13-234-27a |
अत्यल्पमपि यद्दानमेभिः षड्भिर्गुणैर्युतम्। भूत्वाऽनन्तं नयेत्स्वर्गं दातारं दोषवर्जितम्।। | 13-234-28a 13-234-28b |
सुमहद्वाऽपि यद्दानं गुणैरेभिर्विनाकृतम्। अत्यल्पफलनिर्योगमफलं वा फलोद्धतम्।। | 13-234-29a 13-234-29b |
उमोवाच। | |
एवंगुणयुतं दानं दत्तं च फलतां व्रजेत्। तदस्ति चेन्महद्देयं तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-234-30a 13-234-30b |
महेश्वर उवाच।। | |
तदप्यस्ति महाभागे नराणां भावदोषतः।। | 13-234-31a |
कृत्वा धर्मं तु विधिवत्पश्चात्तापं करोति चेत्। श्लाघया वा यदि ब्रूयाद्वृथा संसदिं यत्कृतम्।। | 13-234-32a 13-234-32b |
प्रकल्पयेच्च मनसा तत्फलं प्रेत्यभावतः। कर्म धर्मकृतं यच्च सततं फलकाङ्क्षया। | 13-234-33a 13-234-33b |
एतत्कृतं वा दत्तं वा परत्र विफलं भवेत्।। | |
एते दोषा विवर्ज्याश्च दातृभिः पुण्यकाङ्क्षिभिः। सनातनमिदं वृत्तं सद्भिराचरितं तथा।। | 13-234-34a 13-234-34b |
अनुग्रहात्परेषां तु गृहस्थानामृणं हि तत्। इत्येवं मन आविश्य दातव्यं सततं बुधैः।। | 13-234-35a 13-234-35b |
एवमेव कृतं नित्यं सुकृतं तद्भवेन्महत्। सर्वसाधारणं द्रव्यमेवं दत्त्वा महत्फलम्।। | 13-234-36a 13-234-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 234 ।। |
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