महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-095
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति ब्राह्मणमहिमानुवर्णनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-95-1x |
यौ च स्यातां चरणेनोपपन्नौ यौ विद्यया सदृशौ जन्मना च। ताभ्यां दानं कतरस्मै विशिष्ट- मयाचमानाय च याचते च।। | 13-95-1a 13-95-1b 13-95-1c 13-95-1d |
भीष्म उवाच। | 13-95-2x |
श्रेयो वै याचतः पार्थ दानमाहुरयाचते। अर्हत्तमो वै धृतिमान्कृपणादकृतात्मनः।। | 13-95-2a 13-95-2b |
क्षत्रियो रक्षणधृतिर्ब्राह्मणोऽनर्थनाधृतिः। ब्राह्मणो धृतिमान्विद्वान्देवान्प्रीणाति तुष्टिमान्।। | 13-95-3a 13-95-3b |
याच्यमाहुरनीशस्य अतिहारं च भारत। उद्वेजयन्ति याचन्ति यदा भूतानि दस्युवत्।। | 13-95-4a 13-95-4b |
म्रियते याचमानो वै तमनु म्रियतेऽददत्। ददत्संजीवयत्येनमात्मानं च युधिष्ठिर।। | 13-95-5a 13-95-5b |
आनृशंस्यं परो धर्मो याचते यत्प्रदीयते। अयाचतः सीदमानान्सर्वोपायैर्निमन्त्रयेत्।। | 13-95-6a 13-95-6b |
यदि वै तादृशा राष्ट्रे वसेयुस्ते द्विजोत्तमाः। भस्मच्छन्नानिवाग्नींस्तान्बुध्येथास्त्वं प्रयत्नतः।। | 13-95-7a 13-95-7b |
तपसा दीप्यमानास्ते दहेयुः पृथिवीमपि। अपूज्यमानाः कौरव्य पूजार्हास्तु तथाविधाः।। | 13-95-8a 13-95-8b |
पूज्या हि ज्ञानविज्ञानतपोयोगसमन्विताः। तेभ्यः पूजां प्रयुञ्जीथा ब्राह्मणेभ्यः परन्तपः | 13-95-9a 13-95-9b |
ददद्बहुविधान्देयानुपच्छन्दयते च तान्।। | 13-95-10a |
यदग्निहोत्रे सुहुते सायंप्रातर्भवेत्फलम्। विद्यावेदव्रतवति तद्दानफलमुच्यते।। | 13-95-11a 13-95-11b |
विद्यावेदव्रतस्नाता न व्यापाश्रयजीविनः। गूढस्वाध्यायतपसो ब्राह्मणान्संशितव्रतान्।। | 13-95-12a 13-95-12b |
कृतैरावसथैर्हृद्यैः सप्रेष्यैः सपरिच्छदैः। निमन्त्रयेथाः कौरव्य कामैश्चान्यैर्द्विजोत्तमान्।। | 13-95-13a 13-95-13b |
अपि ते प्रतिगृह्णीयुः श्रद्धोपेतं युधिष्ठिर। कार्यमित्येव मन्वाना धर्मज्ञाः सूक्ष्मदर्शिनः।। | 13-95-14a 13-95-14b |
अपि ते ब्राह्मणा भुक्त्वा गताः सोद्धरणान्गृहान्। येषां दाराः प्रतीक्षन्ते पर्जन्यमिव कर्षकाः।। | 13-95-15a 13-95-15b |
अन्नानि प्रातःसवने नियता ब्रह्मचारिणः। ब्राह्मणास्तात भुञ्जानास्त्रेताग्निं प्रीणयन्त्युत।। | 13-95-16a 13-95-16b |
माध्यंदिनं ते सवनं ददतस्तात वर्तताम्। गोहिरण्यानि वासांसि तेनेन्द्रः प्रीयतां तव।। | 13-95-17a 13-95-17b |
तृतीयं सवनं ते वै वैश्वदेवं युधिष्ठिर। यद्देवेभ्यः पितृभ्यश्च विप्रेभ्यश्च प्रयच्छसि।। | 13-95-18a 13-95-18b |
अहिंसा सर्वभूतेभ्यः संविभागश्च सर्वशः। दमस्त्यागो धृतिः सत्यं भवत्यवभृथाय ते।। | 13-95-19a 13-95-19b |
एथ ते चिततो यज्ञः श्रद्धापूतः सदक्षिणः। विशिष्टः सर्वयज्ञानां नित्यं तात प्रवर्तताम्।। | 13-95-20a 13-95-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चनवतितमोऽध्यायः।। 95 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
13-95-1 चरणेनाचरणेन।। 13-95-2 याचतः याचकात् तद्दानादिस्यर्थः।। 13-95-3 अनर्थना अयाच्चा। 13-95-4 याच्यं याचनारूपं कर्म। अनीशस्य दरिद्रस्यातिहारं तिरस्कारमाहुः। यदा यतः याचन्ति याचमानानि भूतानि दस्युवल्लोकानुद्वेजयन्ति।। 13-95-10 उपच्छन्दयते उपच्छन्दयेत। ददद्बहुविधान्दायानुपागच्छन्नयाचतामिति झ.पाठः। अयाचतां अयाचमानानाम्। उपागच्छन्समीपमुपसर्पन् दायान्धनादीन्ददत् दाता भवेति शेषः।। 13-95-15 सोद्धरणान्स्वामिन्यागते दास्यामीति याचमानेभ्यो बालकेभ्य आशाप्रदर्शनमुद्धरणं तत्सहितान्।।
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