महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-106
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोदानप्रशंसापरनाचिकेतोपाख्यानकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-106-1x |
दत्तानां फलसम्प्राप्तिं गवां प्रब्रूहि मेऽनघ। विस्तरेण महाबाहो न हि तृप्यामि कथ्यताम्।। | 13-106-1a 13-106-1b |
भीष्म उवाच। | 13-106-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ऋषेरौद्दालकेर्वाक्यं नाचिकेतस्य चोभयोः।। | 13-106-2a 13-106-2b |
ऋषिरौद्दालकिर्दीक्षामुपगम्य ततः सुतम्। त्वं मामुपचरस्वेति नाचिकेतमभाषत।। | 13-106-3a 13-106-3b |
समाप्ते नियमे तस्मिन्महर्षिः पुत्रमब्रवीत्। उपस्पर्शनसक्तस्य स्वाध्यायाभिरतस्य च।। | 13-106-4a 13-106-4b |
इध्मा दर्भाः सुमनसः कलशश्चाभितो जलम्। विस्मृतं मे तदादाय नदीतीरादिहाव्रज।। | 13-106-5a 13-106-5b |
गत्वानवाप्य तत्सर्वं नदीवेगसमाप्लुतम्। न पश्यामि तदित्येवं पितरं सोऽब्रवीन्मुनिः।। | 13-106-6a 13-106-6b |
क्षुत्पिपासाश्रमाविष्टो मुनिरौद्दालकिस्तदा। यमं पश्येति तं पुत्रमशपत्क्रोधमूर्च्छितः।। | 13-106-7a 13-106-7b |
तथा स पित्राऽभिहतो वाग्वज्रेण कृताञ्जलिः। प्रसीदेति ब्रुवन्नेव गतसत्वोऽपतद्भुवि।। | 13-106-8a 13-106-8b |
नाचिकेतं प्रिता दृष्ट्वा पतितं दुःखमूर्च्छितः। किं मया कृतमित्युक्त्वा निपपात महीतले।। | 13-106-9a 13-106-9b |
तस्य दुःखपरीतस्य स्वं पुत्रमनुशोचतः। व्यतीतं तदहःशेषं सा चोग्रा तत्र शर्वरी।। | 13-106-10a 13-106-10b |
पित्र्येणाश्रुप्रपातेन नाचिकेतः कुरूद्वह। प्रास्यन्दच्छयने कौश्ये वृष्ट्या सस्यमिवाप्लुतम्।। | 13-106-11a 13-106-11b |
स पर्यपृच्छत्तं पुत्रं श्लाघ्यं पर्यागतं पुनः। दिव्यैर्गन्धैः समादिग्धं क्षीणस्वप्नमिवोत्थितम्।। | 13-106-12a 13-106-12b |
अपि पुत्र जिता लोकाः शुभास्ते स्वेन कर्मणा। दिष्ट्या चासि पुनः प्राप्तो न हि ते मानुषं वपुः।। | 13-106-13a 13-106-13b |
प्रत्यक्षदार्शी सर्वस्य वित्रा पृष्टो महात्मना। अभ्युत्थाय पितुर्मध्ये महर्षीणां न्यवेदयत्।। | 13-106-14a 13-106-14b |
कुर्वन्मवच्छासनमाशु यातो ह्यहं विशालां रुचिरप्रभासाम्। वैवस्वतीं प्राप्य सभामवश्यं सहस्रशो योजनहैमभौमाम्।। | 13-106-15a 13-106-15b 13-106-15c 13-105-15d |
दृष्टैव मामभिमुखमापतन्तं गृहं निवेद्यासनमादिदेश। वैवस्वतोऽर्घ्यादिभिरर्हणैश्च भवत्कृते पूजयामास मां साः।। | 13-106-16a 13-106-16b 13-106-16c 13-106-16d |
ततस्त्वहं तं शनकैरवोचं वृतः सदस्यैरभिपूज्यमानः। प्राप्तोऽस्मि ते विषयं धर्मराज लोकानर्हो यानहं तान्विधत्स्व।। | 13-106-17a 13-106-17b 13-106-17c 13-106-17d |
यमोऽब्रवीन्मां न मृतोसि सौम्य यमं पश्येत्याह स त्वां तपस्वी। पिता प्रदीप्ताग्निसमानतेजा न तत्छक्यमनृतं विप्र कर्तुम्।। | 13-106-18a 13-106-18b 13-106-18c 13-106-18d |
दृष्टस्तेऽहं प्रतिगच्छस्व तात शोचत्यसौ तव देहस्य कर्ता। ददानि किञ्चापि मनःप्रणीतं प्रियातिथेस्तव कामान्वृणीष्व।। | 13-106-19a 13-106-19b 13-106-19c 13-106-19d |
तेनैवमुक्तस्तमहं प्रत्यवोचं प्राप्तोस्मि ते विषयं दुर्निवर्त्यम्। इच्छाम्यहं पुण्यकृतां समृद्धाँ- ल्लोकान्द्रष्टुं यदि तेऽहं वरार्हः।। | 13-106-20a 13-106-20b 13-106-20c 13-106-20d |
यानं समारोप्य तु मां स देवो वाहैर्युक्तं सुप्रभं भानुमत्तम्। संदर्शयामास तदाऽऽत्मलोका- न्सर्वास्तथा पुण्यकृतां द्विजेन्द्र।। | 13-106-21a 13-106-21b 13-106-21c 13-106-21d |
अपश्यं तत्र वेश्मानि तैजसानि महात्मनाम्। नानासंस्थानरूपाणि सर्वरत्नमयानि च।। | 13-106-22a 13-106-22b |
चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किंकिणीजालवन्ति च। अनेकशतभौमानि सान्तर्जलवनानि च।। | 13-106-23a 13-106-23b |
वैडूर्यार्कप्रकाशानि रूप्यरुक्ममयानि च। तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च।। | 13-106-24a 13-106-24b |
भक्ष्यभोज्यमयाञ्शैलान्वासांसि शयनानि च। सर्वकामफलांश्चैव वृक्षान्भवनसंस्थितान्।। | 13-106-25a 13-106-25b |
नद्यो वीथ्यः सभा वाप्यो दीर्घिकाश्चैव सर्वशः। घोषवन्ति च यानानि युक्तान्धथ सहस्रशः।। | 13-106-26a 13-106-26b |
क्षीरस्रवा वै सरितो गिरींश्च सर्पिस्तथा विमलं चापि तोयम्। वैवस्वतस्यानुमतांश्च देशा- नदृष्टपूर्वान्सुबहूनपश्यम्।। | 13-106-27a 13-106-27b 13-106-27c 13-106-27d |
सर्वान्दृष्ट्वा तदहं धर्मराज- मवोचं वै सर्वदेवं सहिष्णुम्। क्षीरस्यैताः सर्पिषश्चैव नद्यः शश्वत्स्रोताः कस्य भोज्याः प्रवृत्ताः।। | 13-106-28a 13-106-28b 13-106-28c 13-106-28d |
यमोऽब्रवीद्विद्धि भोज्यांस्त्वमेता- न्ये दातारः साधवो गोरसानाम्। अन्ये लोकाः शाश्वता वीतशोकैः समाकीर्णा गोप्रदाने रतानाम्।। | 13-106-29a 13-106-29b 13-106-29c 13-106-29d |
न त्वेतासां दानमात्रं प्रशस्तं पात्रं कालो गोविशेषो विधिश्च। ज्ञात्वा देयं विप्र गवान्तरं हि दुःखं ज्ञातुं पावकादित्यभूतम्।। | 13-106-30a 13-106-30b 13-106-30c 13-106-30d |
स्वाध्यायवान्योऽतिमात्रं तपस्वी वैतानस्थो ब्राह्मणः पात्रमासाम्। गोषु क्षान्तं गोशरण्यं कृतज्ञं वृत्तिग्लानं तादृशं पात्रमाहुः।। | 13-106-31a 13-106-31b 13-106-31c 13-106-31d |
कृच्छ्रोत्सृष्टाः पोष्णाभ्यागताश्च द्वारैरेतैर्गोविशेषाः प्रशस्ताः। अन्तर्जाताः सुक्रयज्ञानलब्धाः प्राणक्रीताः सोदकाः सोद्वहाश्च।। | 13-106-32a 13-106-32b 13-106-32c 13-106-32d |
तिस्रो रात्र्यस्त्वद्भिरुपोष्य भूमौ तृप्ता गावस्तर्पितेभ्यः प्रदेयाः। वत्सैः प्रीताः सुप्रजाः सोपचारा- स्त्र्यहं दत्त्वा गोरसैर्वर्तितव्यम्।। | 13-106-33a 13-106-33b 13-106-33c 13-106-33d |
दत्त्वा धेनुं सुव्रतां साधुदोहां कल्याणवत्सामपलायिनीं च। यावन्ति रोमाणि भवन्ति तस्या- स्तावद्वर्षाण्यश्नुते स्वर्गलोकम्।। | 13-106-34a 13-106-34b 13-106-34c 13-106-34d |
तथाऽनड्वाहं ब्राह्मणेभ्यः प्रदाय दान्तं धुर्यं बलवन्तं युवानम्। कुलानुजीव्यं वीर्यवन्तं बृहन्तं भुङ्क्ते लोकान्सम्मितान्धेनुदस्य।। | 13-106-35a 13-106-35b 13-106-35c 13-106-35d |
वृद्धे ग्लाने सम्भ्रमे वा महार्थे कृष्यर्थं वा हौम्यहेतोः प्रमूत्याम्। गुर्वर्थं वा यज्ञसमाप्तये वा गां वै दातुं देशकालोऽविशिष्टः।। | 13-106-36a 13-106-36b 13-106-36c 13-106-36d |
नाचिकेत उवाच। | 13-106-37x |
श्रुत्वा वैवस्वतवचस्तमहं पुनरब्रवम्। अगोमी गोप्रदातॄणां कथं लोकान्हि गच्छति।। | 13-106-37a 13-106-37b |
ततोऽब्रवीद्यमो धीमान्गोप्रदानं ततो गतिम्। गोप्रदानानुकल्पात्तु गामृते सन्तु गोप्रदाः।। | 13-106-38a 13-106-38b |
अलाभे यो गवां दद्याद्धृतधेनुं यतव्रतः। तस्यैता घृतवाहिन्यः क्षरन्ते वत्सला इव।। | 13-106-39a 13-106-39b |
घृतालाभे तु यो दद्यात्तिलधेनुं यतव्रतः। स दुर्गात्तारितो धेन्वा क्षीरनद्यां प्रमोदते।। | 13-106-40a 13-106-40b |
तिलालाभे तु यो दद्याज्जलधेनुं यतव्रतः। स कामप्रवहां शीतीं नदीमेतामुपाश्नुते।। | 13-106-41a 13-106-41b |
एवमेतानि मे तत्र धर्मराजो न्यदर्शयत्। दृष्ट्वा च परमं हर्षमवापमहमच्युत।। | 13-106-42a 13-106-42b |
निवेदये चाहमिमं प्रियं ते क्रतुर्महानल्पधनप्रचारः। प्राप्तो मया तात स मत्प्रसूतः प्रपत्स्यते वेदविधिप्रवृत्तः।। | 13-106-43a 13-106-43b 13-106-43c 13-106-43d |
शापो ह्ययं भवतोऽनुग्रहाय प्राप्तो मया यत्र दृष्टो यमो वै। दानव्युष्टिं तत्र दृष्ट्वा महात्म- न्निःसंदिग्धान्दानधर्मांश्चरिष्ये।। | 13-106-44a 13-106-44b 13-106-44c 13-106-44d |
इदं च मामब्रवीद्धर्मराजः पुनः पुनः सम्प्रहृष्टो महर्षे। दानेन यः प्रयतोऽभूत्सदैव विशेषतो गोप्रदानं च कुर्याम्।। | 13-106-45a 13-106-45b 13-106-45c 13-106-45d |
शुद्धो ह्यर्थो नावमन्यस्व धर्मा- न्पात्रे देयं देशकालोपपन्ने। तस्माद्गावस्ते नित्यमेव प्रदेया माभूच्च ते संशयः कश्चिदत्र।। | 13-106-46a 13-106-46b 13-106-46c 13-106-46d |
एताः पुरा ह्यददन्नित्यमेव सान्तात्मानो दानपथे निविष्टाः। तपांस्युग्राण्यप्रतिशङ्कमाना- स्ते वै दानं प्रददुश्चैव शक्त्या।। | 13-106-47a 13-106-47b 13-106-47c 13-106-47d |
काले च शक्त्या मत्सरं वर्जयित्वा शुद्धात्मानः श्रद्धिनः पुण्यशीलाः। दत्त्वा गा वै लोकममुं प्रपन्ना देदीप्यन्ते पुण्यशीलास्तु नाके।। | 13-106-48a 13-106-48b 13-106-48c 13-106-48d |
एतद्दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः पात्रे दत्तं प्रापणीयं परीक्ष्य। काम्याष्टम्यां वर्तितव्यं दशाहं रसैर्गवां शकृता प्रस्नवैर्वा।। | 13-106-49a 13-106-49b 13-106-49c 13-106-49d |
देवव्रती स्याद्वृषभप्रदानै- र्वेदावाप्तिर्गोयुगस्य प्रदाने। तीर्थावाप्तिर्गोप्रयुक्तप्रदाने पापोत्सर्गः कपिलायाः प्रदाने।। | 13-106-50a 13-106-50b 13-106-50c 13-106-50d |
गामप्येकां कपिलां सम्प्रदाय न्यायोपेतां कलुषाद्विप्रमुच्येत्। गवां रसात्परमं नास्ति किञ्चि- द्गवां प्रदानं सुमहद्वदन्ति।। | 13-106-51a 13-106-51b 13-106-51c 13-106-51d |
गावो लोकांस्तारयन्ति क्षरन्त्यो गावश्चान्नं संजनयन्ति लोके। यस्तं जानन्न गवां हार्दमेति स वै गन्ता निरयं पापचेताः।। | 13-106-52a 13-106-52b 13-106-52c 13-106-52d |
यैस्तद्दत्तं गोसहस्रं शतं वा दशार्धं वा दश वा साधुवत्सम्। अप्येका वै साधवे ब्राह्मणाय सास्यामुष्मिन्पुण्यतीर्था नदी वै।। | 13-106-53a 13-106-53b 13-106-53c 13-106-53d |
प्राप्त्या पुष्ट्या लोकसंरक्षणेन गावस्तुल्याः सूर्यपादैः पृथिव्याम्। शब्दश्चैकः संनतिश्चोपभोगा- स्तस्माद्गोदः सूर्य इवावभाति।। | 13-106-54a 13-106-54b 13-106-54c 13-106-54d |
गुरुं शिष्यो वरयेद्गोप्रदाने स वै गन्ता नियतं स्वर्गमेव। विधिज्ञानां सुमहान्धर्म एष विधिं ह्याद्यं विधयः संविशन्ति।। | 13-106-55a 13-106-55b 13-106-55c 13-106-55d |
इदं दानं न्यायलब्धं द्विजेभ्यः पात्रे दत्त्वा प्रापयेथाः परीक्ष्य। त्वय्याशंसन्त्यमरा दानवाश्च वयं चापि प्रसृते पुण्यशीले।। | 13-106-56a 13-106-56b 13-106-56c 13-106-56d |
इत्युक्तोऽहं धर्मराजं द्विजर्षे धर्मात्मानं शिरसाऽभिप्रणम्य। अनुज्ञातस्तेन वैवस्वतेन प्रत्यागमं भगवत्पादमूलम्।। | 13-106-57a 13-106-57b 13-106-57c 13-106-57d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षडधिकशततमोऽध्यायः।। 106 ।। |
13-106-5 कलशश्चातिभोजनम् इति झ.पाठ.। तत्र अतिभोजनं भोजनसामग्रिकं शाकादि।। 13-106-8 गतसत्वो मृतः।। 13-106-11 सस्यं शुष्यमाणम्।। 13-106-15 योजनेति लुप्ततृतीयान्तं पदम्। योजनैः सहस्रशः सम्मितामिति शेषः।। 13-106-23 अनेकशतानि भौमानि उपर्युपरि भूमिसमूहा येषु तानि प्रासादमण्डलानि।। 13-106-30 गवामन्तरमन्योन्यतारतम्यं। अवङ्।। 13-106-31 कृच्छ्रोत्सृष्टाः सङ्कटात् निरोधात् मुक्ताः। पोषणार्थं दरिद्रागारादागताः। तादृशीनां पालनं प्रशस्ततरमित्यर्थः।। 13-106-33 त्र्यहमम्मात्राहारो भूमिशायी भूत्वा चतुर्थं दिनमारभ्य त्र्यहमेकैकां गां दत्त्वा गोरसैर्वृत्तिं कुर्यात्। एवं व्रतपूर्वकं गोत्रयं ददत उक्तं वक्ष्यमाणं च फलं भवतीत्यर्थः।। 13-106-36 वृद्धे ग्लाने रोगिणि पथ्याशनार्थं सम्भ्रमे दुर्भिक्षे। महार्थे यज्ञाद्यर्थे च। प्रसूत्यां पुत्रजन्मनि।। 13-106-43 क्रतुः गोदानरूपः।। 13-106-49 प्रापणीयं गोः आहारादि। कामे इच्छापूरणे साधुः काम्या या अष्टमी शुक्लकृष्णान्यतरा तस्यां।।
अनुशासनपर्व-105 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-107 |