महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-110
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति सत्यदमादिप्रशंसनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-110-1x |
विस्रम्भितोऽहं भवता धर्मान्प्रवदता विभो। प्रवक्ष्यामि तु संदेहं तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-110-1a 13-110-1b |
व्रतानां किं फलं प्रोक्तं कीदृशं वा महाद्युते। नियमानां फलं किं च स्वधीतस्य च किं फलम्।। | 13-110-2a 13-110-2b |
दमस्येह फलं किं च वेदानां धारणे च किम्। अध्यापने फलं किं च सर्वमिच्छामि वेदितुम्।। | 13-110-3a 13-110-3b |
अप्रतिग्राहके किं च फलं लोके पितामह। तस्य किञ्च फलं दृष्टं श्रुतं यस्तु प्रयच्छति।। | 13-110-4a 13-110-4b |
स्वकर्मनिरतानां च शूराणां चापि किं फलम्। सत्ये च किं फलं प्रोक्तं ब्रह्मचर्ये च किं फलम्। | 13-110-5a 13-110-5b |
पितृशुश्रूषणे किञ्च मातृशुश्रूषणे तथा। आचार्यगुरुशुश्रूषा स्वनुक्रोशानुकम्पने।। | 13-110-6a 13-110-6b |
एतत्सर्वमशेषेण पितामह यथातथम्। वेतुमिच्छामि धर्मज्ञ परं कौतूहलं हि मे।। | 13-110-7a 13-110-7b |
भीष्म उवाच। | 13-110-8x |
यो व्रतं वै यथोद्दिष्टं तथा सम्प्रतिपद्यते। अखण्डं सम्यगारभ्य तस्य लोकाः सनातनाः।। | 13-110-8a 13-110-8b |
नियमानां फलं राजन्प्रत्यक्षमिह दृश्यते। नियमानां क्रतूनां च त्वयाऽवाप्तमिदं फलम्।। | 13-110-9a 13-110-9b |
स्वधीतस्यापि च फलं दृश्यतेऽमुत्र चेह च। इह लोकेऽर्थवान्नित्यं ब्रह्मलोके च मोदते।। | 13-110-10a 13-110-10b |
दमस्य तु फलं राजञ्शृणु त्वं विस्तरेण मे। दान्ताः सर्वत्र सुखिनो दान्ताः सर्वत्र निर्वृताः। यत्रेच्छागामिनो दान्ताः सर्वशत्रुनिषूदनाः।। | 13-110-11a 13-110-11b 13-110-11c |
प्रार्थयन्ति च यद्दान्ता लभन्ते तन्न संशयः। युज्यन्ते सर्वकामैर्हि दान्ताः सर्वत्र पाण्डव।। | 13-110-12a 13-110-12b |
स्वर्गे यथा प्रमोदन्ते तपसा विक्रमेण च। दानैर्यज्ञैश्च विविधैस्तथा दान्ताः क्षमान्विताः।। | 13-110-13a 13-110-13b |
दानाद्दमो विशिष्टो हि ददत्किञ्चिद्द्विजातये। दाता कुप्यति नो दान्तस्तस्माद्दानात्परंदमः।। यस्तु दद्यादकुप्यन्हि तस्य लोकाः सनातनाः। क्रोधो हन्ति हि यद्दानं तस्माद्दानाद्वरो दमः।। | 13-110-14a 13-110-14b 13-110-15c 13-110-15b |
अदृश्यानि महाराज स्थानान्ययुतशो दिवि। ऋषीणां सर्वलोकषु यानि ते यान्ति देवताः।। | 13-110-16a 13-110-16b |
दमेन यानि नृपते गच्छन्ति परमर्षयः। कामयाना महत्स्थानं तस्माद्दानात्परं दमः।। | 13-110-17a 13-110-17b |
`विद्यादानाद्वरं नास्ति वेदविद्या महाफलाः। अध्यापकः परिक्लेशादक्षयं फलमश्नुते।। | 13-110-18a 13-110-18b |
विधिवत्पावकं हुत्वा ब्रह्मलोके नराधिप। अधीत्यापि हि यो वेदान्न्यायविद्भ्यः प्रयच्छति। गुरुकर्मप्रशंसी तु सोपि स्वर्गे महीयते।। | 13-110-19a 13-110-19b 13-110-19c |
क्षत्रियोऽध्ययने युक्तो यजने दानकर्मणि। युद्धे यश्च परित्राता सोपि स्वर्गे महीयते।। | 13-110-20a 13-110-20b |
वैश्यः स्वकर्मनिरतः प्रदानाल्लभते महत्। शूद्रः स्वकर्मनिरतः स्वर्गं शुश्रूषयाऽऽर्च्छति।। | 13-110-21a 13-110-21b |
शूरा बहुविधाः प्रोक्तास्तेषामर्थास्तु मे शृणु। शूरान्वयानां निर्दिष्टं फलं शूरस्य चैव हि।। | 13-110-22a 13-110-22b |
यज्ञशूरा दमे शूराः सत्यशूरास्तथा परे। युद्धशूरास्तथैवोक्ता दानशूराश्च मानवाः।। | 13-110-23a 13-110-23b |
`बुद्धिशूरास्तथैवान्ये क्षमाशूरास्तथा परे। साङ्ख्यशूराश्च बहवो योगशूरास्तथा परे। अरण्ये गृहवासे च त्यागे शूरास्तथा परे।। | 13-110-24a 13-110-24b 13-110-24c |
आर्जवे च तथा शूराः शमे वर्तन्ति मानवाः। तैस्तैश्च नियमैः शूरा बहवः सन्ति चापरे। वेदाध्ययनशूराश्च शूराश्चाध्यापने रताः।। | 13-110-25a 13-110-25b 13-110-25c |
गुरुशुश्रूषया शूराः पितृशुश्रूषया परे। मातृशुश्रूषया शूरा भैक्ष्यशूरास्तथा परे।। | 13-110-26a 13-110-26b |
अरण्ये गृहवासे च शूराश्चातिथिपूजने। सर्वे यान्ति पराँल्लोकान्स्वकर्मफलनिर्जितान्।। | 13-110-27a 13-110-27b |
धारणं सर्ववेदानां सर्वतीर्थावगाहनम्। सत्यं च ब्रुवतो नित्यं समं वा स्यान्नवा समम्।। | 13-110-28a 13-110-28b |
अश्वमेधसहस्रं च सत्यं च तुलया धृतम्। अश्वमेधसहस्राद्धि सत्यमेव विशिष्यते।। | 13-110-29a 13-110-29b |
सत्येन सूर्यस्तपति सत्येनाग्निः प्रदीप्यते। सत्येन मरुतो वान्ति सर्वं सत्ये प्रतिष्ठितम्।। | 13-110-30a 13-110-30b |
सत्येन देवाः प्रीयन्ते पितरो ब्राह्मणास्तथा। सत्यमाहुः परो धर्मस्तस्मात्सत्यं न लोपयेत्।। | 13-110-31a 13-110-31b |
मुनयः सत्यनिरता मुनयः सत्यविक्रमाः। मुनयः सत्यशपथास्तस्मात्सत्यं विशिष्यते।। | 13-110-32a 13-110-32b |
सत्यवन्तः सत्यलोके मोदन्ते भरतर्षभ। दमः सत्यफलावाप्तिरुक्ता सर्वात्मना मया।। | 13-110-33a 13-110-33b |
असंशयं विनीतात्मा स वै स्वर्गे महीयते। ब्रह्मचर्यस्य च गुणं शृणु त्वं वसुधाधिप।। | 13-110-34a 13-110-34b |
आजन्ममरणाद्यस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह। न तस्य किञ्चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप।। | 13-110-35a 13-110-35b |
बह्व्यः कोट्यस्त्वषीणां तु ब्रह्मलोके वसन्त्युत सत्ये रतानां सततं दान्तानामूर्ध्वरेतसाम्।। | 13-110-36a 13-110-36b |
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन्सर्वपापान्युपासितम्। ब्राह्मणेन विशेषेण ब्राह्ममो ह्यग्निरुच्यते।। | 13-110-37a 13-110-37b |
प्रत्यक्षं हि तथा ह्येतद्ब्राह्मणेषु तपस्विषु। बिभेति हि यथा शक्रो ब्रह्मचारिप्रधर्षितः।। | 13-110-38a 13-110-38b |
तद्ब्रह्मचर्यस्य फलमृषीणामिह दृश्यते। मातापित्रोः पूजने यो धर्मस्तमपि मे शृणु।। | 13-110-39a 13-110-39b |
शुश्रूषते यः पितरं न चासूयेत्कदाचन। मातरं भ्रातरं वाऽपि गुरुमाचार्यमेव च।। | 13-110-40a 13-110-40b |
तस्य राजन्फलं विद्धि स्वर्लोके स्थानमर्चितम्। न च पश्येत नरकं गुरुशुश्रूषयाऽऽत्मवान्।। | 13-110-41a 13-110-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 110 ।। |
13-110-6 अनुक्रोशः परदुःखेन दुःखितत्वम्। अनुकम्पा तत्प्रतीकारकरणम्।। 13-110-9 फलमैश्वर्यमेव प्रत्यक्षम्।।
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