महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-076
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इन्द्रेण देवशर्ममुन्यसन्निधाने तद्भार्याविलोभनाय तदाश्रमाभिगमनम्।। 1 ।। तथा विपुलतपोऽभिभूतेन भयात्ततो निर्गमनम्।। 2 ।। विपुलेन शक्रवृत्तान्तनिवेदनतुष्टाद्गुरोर्वरग्रहणपूर्वकं तपश्चरणम्।। 3 ।।
भीष्म उवाच। | 13-76-1x |
ततः कदाचिद्देवेन्द्रो दिव्यरूपवपुर्धरः। इदमन्तरमित्येवमभ्यगात्तमथाश्रमम्।। | 13-76-1a 13-76-1b |
रूपमप्रतिमं कृत्वा लोभनीयं जनाधिपः। दर्शनीयतमो भूत्वा प्रविवेश तमाश्रमम्।। | 13-76-2a 13-76-2b |
स ददर्श तमासीनं विपुलस्य कलेबरम्। निश्चेष्टं स्तब्धनयनं यताऽऽलेख्यगतं तथा।। | 13-76-3a 13-76-3b |
रुचिं च रुचिरापाङ्गीं पीनश्रोणिपयोधराम्। पद्मपत्रविशालाक्षीं सम्पूर्णेन्दुनिभाननाम्।। | 13-76-4a 13-76-4b |
सा तमालोक्य सहसा प्रत्युत्तातुमियेष ह। रूपेण विस्मिता कोऽसीत्यथ वक्तुमिवेच्छती।। | 13-76-5a 13-76-5b |
उत्थातुकामा तु सती विष्टव्धा विपुलेन सा। निगृहीता मनुष्येन्द्र न शशाक विचेष्टितुम्।। | 13-76-6a 13-76-6b |
तामाबभाषे देवेन्द्रः साम्ना परमवल्*******। त्वदर्थमागतं विद्धि देवेन्द्र मां शुचिस्मिते।। | 13-76-7a 13-76-7b |
क्लिश्यमानमनङ्गेन त्वत्सङ्कल्पभवेन ह। तत्पर्याप्नुहि मां सुभ्रु पुरा कालोऽतिवर्तते।। | 13-76-8a 13-76-8b |
तमेवंवादिनं शक्रं शुश्राव विपुलो मुनिः। गुरुपत्नयाः शरीरस्थो ददर्श त्रिदसाधिपम्।। | 13-76-9a 13-76-9b |
न शशाक च सा राजन्प्रत्युत्थातुमनिन्दिता। वक्तुं च नाशकद्राजन्विष्टब्दा विपुलेन सा।। | 13-76-10a 13-76-10b |
आकारं गुरुपत्न्यास्तु स विज्ञाय भृगूद्वहः। निजय्नाह महातेजा योगेन बलवत्प्रभो। बबन्ध योगबन्धैश्च तस्याः सर्वेन्द्रियाणि सः।। | 13-76-11a 13-76-11b 13-76-11c |
तां निर्विकारां दृष्ट्वा तु पुनरेव शचीपतिः। उवाच व्रीहितो राजंस्तां योगबलमोहिताम्।। | 13-76-12a 13-76-12b |
एह्येहीति ततः सा तु प्रतिवक्तुमियेष तम्। स तां वाच्यं गुरोः पत्न्या विपुलः पर्यवर्तयत्।। | 13-76-13a 13-76-13b |
भोः किमागमने कृत्यमिति तस्यास्तु निःसृता। वक्त्राच्छशाङ्कसदृशाद्वाणी संस्कारभूषणा।। | 13-76-14a 13-76-14b |
वीडिता सा तु तद्वाक्यमुक्त्वा परवशा तदा। पुरन्दरश्च संत्रस्तो बभूव विमना भृशम्।। | 13-76-15a 13-76-15b |
स तद्वैकृतमालक्ष्य देवराजो विशांपते। अवैक्षत सहस्राक्षस्तदा दिव्येन चक्षुषा।। | 13-76-16a 13-76-16b |
स ददर्श मुनिं तस्याः शरीरान्तरगोचरम्। प्रतिबिम्बमिवादर्शे गुरुपत्न्याः शरीरगम्।। | 13-76-17a 13-76-17b |
स तं घोरेण तपसा युक्तं दृष्ट्वा पुरंदरः। प्रावेपत सुसंत्रस्तो व्रीडितश्च तदा विभो।। | 13-76-18a 13-76-18b |
विमुच्य गुरुपत्नीं तु विपुलः सुमहातपाः। स्वकलेबरमाविश्य शक्रं भीतमथाब्रवीत्।। | 13-76-19a 13-76-19b |
अजितेन्द्रिय दुर्बुद्धे पापात्मक पुरंदर। न चिरं पूजयिष्यन्ति देवास्त्वां मानुषास्तथा।। | 13-76-20a 13-76-20b |
किन्नु तद्विस्मृतं शक्र न तन्मनसि ते स्थितम्। गौतमेनासि यन्मुक्तो भगाङ्कपरिचिह्नितः।। | 13-76-21a 13-76-21b |
जाने त्वां बालिशमतिमकृतात्मानमस्थिरम्। मयेयं रक्ष्यते मूढ गच्छ पाप यथागतम्।। | 13-76-22a 13-76-22b |
नाहं त्वामद्य मूढात्मन्दहेयं हि स्वतेजसा। कृपायमानस्तु न ते दग्धुमिच्छामि वासव।। | 13-76-23a 13-76-23b |
स च घोरतमो धीमान्गुरुर्मे पापचेतसम्। दृष्ट्वा त्वां निर्दहेदद्य क्रोधदीप्तेन चक्षुषा।। | 13-76-24a 13-76-24b |
नैवं तु शक्र कर्तव्यं पुनर्मान्याश्च ते द्विजाः। मा गमः ससुतामात्यः क्षयं ब्रह्मबलार्दितः।। | 13-76-25a 13-76-25b |
अमरोस्मीति यद्बुद्धिं समास्थाय प्रवर्तते। मावमंस्था न तपसा न साध्यं नाम किञ्चन।। | 13-76-26a 13-76-26b |
भीष्म उवाच। | 13-76-27x |
तच्छ्रुत्वा वचनं शक्रो विपुलस्य महात्मनः। न किञ्चिदुक्त्वा व्रीडार्तस्तत्रैवान्तरधीयत।। | 13-76-27a 13-76-27b |
मुहूर्तयाते तस्मिंस्तु देवशर्मा महातपाः। कृत्वा यज्ञं यथाकाममाजगाम स्वमाश्रमम्।। | 13-76-28a 13-76-28b |
आगतेऽथ गुरौ राजन्विपुलः प्रियकर्मकृत्। रक्षितां गुरेव भार्यां न्यवेदयदनिन्दिताम्।। | 13-76-29a 13-76-29b |
अभिवाद्य च शान्तात्मा स गुरुं गुरुवत्सलः। विपुलः पर्युपातिष्ठद्यथापूर्वमशङ्कितः।। | 13-76-30a 13-76-30b |
विश्रान्ताय ततस्तस्मै सहासीनाय भार्यया। निवेदयामास तदा विपुलः शक्रकर्म तत्।। | 13-76-31a 13-76-31b |
तच्छुत्वा स मुनिस्तुष्टों विपुलस्य प्रतापवान्। बभूव शीलवृत्ताभ्यां तपसा नियमेन च।। | 13-76-32a 13-76-32b |
विपुलस्य गुरौ वृत्तिं भक्तिमात्मनि तत्प्रभुः। धर्मे च स्थिरतां दृष्ट्वा साधुसाध्वित्यभाषत।। | 13-76-33a 13-76-33b |
प्रतिनन्द्य च धर्मात्मा शिष्यं धर्मपरायणम्। वरेण च्छन्दयामास देवशर्मा महामतिः।। | 13-76-34a 13-76-34b |
स्थितिं च धर्मे जग्राह स तस्माद्गुरुवत्सलः। अनुज्ञातश्च गुरुणा चचारानुत्तमं तपः।। | 13-76-35a 13-76-35b |
तथैव देवशर्मापि सभार्यः स महातपाः। निर्भयो बलवृत्रघ्नाच्चचार विजने वने।। | 13-76-36a 13-76-36b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्सप्ततितमोऽध्यायः।। 76 ।। |
13-76-20 कामात्मक पुरन्दरेति ध.पाठः।।
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