महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-103
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति तिलजलदीपादिदानप्रशंसापरयमब्राह्मणसंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-103-1x |
तिलानां कीदृशं दानमथ दीपस्य चैव हि। अन्नानां वाससा चैव भूय एव ब्रवीहि मे।। | 13-103-1a 13-103-1b |
भीष्म उवाच। | 13-103-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ब्राह्मणस्य च संवादं यमस्य च युधिष्ठिर।। | 13-103-2a 13-103-2b |
मध्यदेशे महान्ग्रामो ब्राह्मणानां बभूव ह। गङ्गायमुनयोर्मध्ये यामुनस्य गिरेरधः।। | 13-103-3a 13-103-3b |
पर्णशालेति विख्यातो रमणीयो नराधिप। विद्वांशस्तत्र भूयिष्ठा ब्राह्मणाश्चावसंस्तथा।। | 13-103-4a 13-103-4b |
अथ प्राह यमः कञ्चित्पुरुषं कृष्णवाससम्। रक्ताक्षमूर्ध्वरोमाणं काकजङ्घाक्षिनासिकम्।। | 13-103-5a 13-103-5b |
गच्छ त्वं ब्राह्मणग्रामं ततो गत्वा तमानय। अगस्त्यं गोत्रतश्चापि नामतश्चापि शर्मिणम्।। | 13-103-6a 13-103-6b |
शमे निविष्टं विद्वांसमध्यापकमनावृतम्। मा चान्यमानयेथास्त्वं सगोत्रं तस्य पार्श्वतः।। | 13-103-7a 13-103-7b |
स हि तादृग्गुणस्तेन तुल्योऽध्ययनजन्मना। अपत्येषु तथा वृत्ते समस्तेनैव धीमता। तमानय यथोद्दिष्टं पूजा कार्या हि तस्य मे।। | 13-103-8a 13-103-8b 13-103-8c |
स गत्वा प्रतिकूलं तच्चकार यमशासनम्। तमाक्रम्यानयामास प्रतिषिद्धो यमेन यः।। | 13-103-9a 13-103-9b |
तस्मै यमः समुत्थाय पूजा कृत्वा च वीर्यवान्। प्रोवाच नीयतामेष सोऽन्य आनीयतामिति।। | 13-103-10a 13-103-10b |
एवमुक्ते तु वचने धर्मराजेन स द्विजः। उवाच धर्मराजानं निर्विण्णोऽध्ययनेन वै। यो मे कालो भवेच्छेषस्तं वसेयमिहाच्युत।। | 13-103-11a 13-103-11b 13-103-11c |
यम उवाच। | 13-103-12x |
नाहं कालस्य विहितं प्राप्नोमीह कथञ्चन। यो हि धर्मं चरति वै तं तु जानामि केवलम्।। | 13-103-12a 13-103-12b |
गच्छ विप्र त्वमद्यैव आलयं स्वं महाद्युते। ब्रूहि सर्वं यथा स्वैरं करवाणि किमच्युत।। | 13-103-13a 13-103-13b |
ब्राह्मण उवाच। | 13-103-14x |
शुद्धदानं च सुमहत्पुण्यं स्यात्तद्ब्रवीहि मे। सर्वस्य हि प्रमाणं त्वं त्रैलोक्यस्यापि सत्तम।। | 13-103-14a 13-103-14b |
यम उवाच। | 13-103-15x |
शृणु तत्त्वेन विप्रर्पे प्रदानविधिमुत्तमम्। तिलाः परमकं दानं पुण्यं चैवेह शाश्वतम्।। | 13-103-15a 13-103-15b |
तिलाश्च सम्प्रदातव्या यथाशक्ति द्विजर्षभ। नित्यदानात्सर्वकामांस्तिला निर्वर्तयन्त्युत।। | 13-103-16a 13-103-16b |
तिलाञ्श्राद्धे प्रशंसन्ति दानमेतद्ध्यनुत्तमम्। तान्प्रयच्छस्व विप्रेभअयो विधिदृष्टेन कर्मणाः।। | 13-103-17a 13-103-17b |
वैशाख्यां पौर्णमास्यां तु तिलान्दद्याद्द्विजातिषु। तिला भक्षयितव्याश्च सदा त्वालम्भं च तैः | 13-103-18a 13-103-18b |
कार्यं सततमिच्छद्भिः श्रेयः सर्वात्मना गृहे। तथाऽऽपः सर्वदा देयाः पेयाश्चैव न संशयः।। | 13-103-19a 13-103-19b |
पुष्करिण्यस्तटाकानि कूपांश्चैवात्र खानयेत्। एतत्सुदुर्लभतरमिह लोके द्विजोत्तम।। | 13-103-20a 13-103-20b |
आपो नित्यं प्रदेयास्ते पुण्यं ह्येतदनुत्तमम्। प्रपाश्च कार्या दानार्थं नित्यं ते द्विजसत्तम। भुक्तेऽप्यथ प्रदेयं तु पानीयं वै विशेषतः।। | 13-103-21a 13-103-21b 13-103-21c |
`पानीयाभ्यर्थिनं दृष्ट्वा प्रीत्या दत्त्वा त्वरान्वितः। वस्त्रे तन्तुप्रमाणेन दीपे निमिषवत्सरम्।। | 13-103-22a 13-103-22b |
गवां रोमप्रमाणेन स्वर्गभोगमुपाश्नुते। जलबिन्दुप्रमाणेन तदेतान्युपवर्तय।।'।। | 13-103-23a 13-103-23b |
भीष्म उवाच। | 13-103-24x |
इत्युक्ते स तदा तेन यमदूतेन वै गृहान्। नीतश्च कारयामास सर्वं तद्यमशासनम्।। | 13-103-24a 13-103-24b |
नीत्वा तं यमदूतोऽपि गृहीत्वा शर्मिणं तदा। ययौ स धर्मराजाय न्यवेदयत चापि तम्।। | 13-103-25a 13-103-25b |
तं धर्मराजो धर्मज्ञं पूजयित्वा प्रतापवान्। कृत्वा च संविदं तेन विससर्ज यथागतम्।। | 13-103-26a 13-103-26b |
तस्यापि च यमः सर्वमुपदेशं चकार ह। प्रेत्यैत्य च ततः सर्वं चकारोक्तं यमेन तत्।। | 13-103-27a 13-103-27b |
तथा प्रशंसने दीपान्यमः पितृहितेप्सया। तस्माद्दीपप्रदो नित्यं सन्तारति वै पितॄन्।। | 13-103-28a 13-103-28b |
दातव्याः सततं दीपास्तस्माद्भरतसत्तम। देवतानां पितॄणां च चक्षुष्यं चात्मनां विभो।। | 13-103-29a 13-103-29b |
रत्नदानं च सुमहत्पुण्यमुक्तं जनाधिप। यस्तान्विक्रीय यजते ब्राह्मणो ह्यभयंकरम्।। | 13-103-30a 13-103-30b |
यद्वै ददाति विप्रेभ्यो ब्राह्मणः प्रतिगृह्य वै। उभयोः स्यात्तदक्षय्यं दातुरादातुरेव च।। | 13-103-31a 13-103-31b |
यो ददाति स्थितः स्थित्यां तादृशाय प्रतिग्रहम्। उभयोरक्षयं धर्मं तं मनुः प्राह धर्मवित्।। | 13-103-32a 13-103-32b |
वाससां सम्प्रदानेनि स्वदारनिरतो नरः। सुवस्त्रश्च सुवेषश्च भवतीत्यनुशुश्रुम।। | 13-103-33a 13-103-33b |
गावः सुवर्णं च तथा तिलाश्चैवानुवर्णिताः। बहुशः पुरुषव्याघ्र वेदप्रामाण्यदर्शनात्।। | 13-103-34a 13-103-34b |
विवाहांश्चैव कुर्वीत पुत्रानुत्पादयेत च। पुत्रलाभो हि कौरव्य सर्वलाभाद्विशिष्यते।। | 13-103-35a 13-103-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्र्यधिकशततमोऽध्यायः।। 103 ।। |
13-103-7 अध्यापकमनानृतमिति थ.पाठः। अध्यापकमनारतमिति ध.पाठः।। 13-103-9 चकारचयमाश्रय इति थ.ध.पाठः।। 13-103-11 इह यमलोके।। 13-103-13 कालस्य विहितं आयुःप्रमाणं न प्राप्नोमि न जानामि। कालेनाप्रवर्तितं त्वामिह स्थापयितुं न शक्नोमीत्यर्थः। विहितं प्रापयामीह कञ्चनेति थ.पाठः।। 13-103-14 बृहि पृच्छ।। 13-103-17 निर्घर्तयन्ति साधयन्ति।। 13-103-18 आलम्भनं सर्वतः स्पर्शनं उद्वर्तनमित्यर्थः।। 13-103-32 एतद्दि तस्याऽभयङ्करं प्रतिग्रहविक्रयजदोषघ्नम्।।
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