सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-173

विकिस्रोतः तः
← अनुशासनपर्व-172 महाभारतम्
त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-173
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-174 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
  261. 261
  262. 262
  263. 263
  264. 264
  265. 265
  266. 266
  267. 267
  268. 268
  269. 269
  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274

बृहस्पतिना युधिष्ठिरंप्रति देहिनां जननादिप्रकारनिरूपणम्।। 1 ।। तथा प्राणिनां दुष्कर्मविशेषफलतया तिर्यग्योनिविशेषेषु जननकथनम्।। 2 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 13-173-1x
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
श्रोतुमिच्छामि मर्त्यानां संसारविधिमुत्तमम्।।
13-173-1a
13-173-1b
केन वृत्तेन राजेन्द्र वर्तमाना नरा भुवि।
प्राप्नुवन्त्युत्तमं स्वर्गं कथं च नरकं नृप।।
13-173-2a
13-173-2b
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः।
प्रयान्त्यमुं लोकमितः को वै ताननुगच्छति।।
13-173-3a
13-173-3b
भीष्म उवाच
दूरादायाति भगवान्बृहस्पतिरुदारधीः।
पृच्छैनं सुमहाभागमेतद्गुह्यं सनातनम्।।
13-173-4a
13-173-4b
नैतदन्येन शक्यं हि वक्तुं केनचिदद्य वै।
वक्ता बृहस्पतिसमो न ह्यन्यो विद्यते क्वचित्।।
13-173-5a
13-173-5b
वैशम्पायन उवाच
तयोः संवदतोरेवं पार्थगाङ्गेययोस्तदा।
आजगाम विशुद्धात्मा भगवान्स बृहस्पतिः।।
13-173-6a
13-173-6b
ततो राजा समुत्थाय धृतराष्ट्रपुरोगमः।
पूजामनुषमां चक्रे सर्वे ते च सभासदः।।
13-173-7a
13-173-7b
ततो धर्मसुतो राजा भगवन्तं बृहस्पतिम्।
उपगम्य यथान्यायं प्रश्नं पप्रच्छ तत्त्वतः।।
13-173-8a
13-173-8b
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
मर्त्यस्य कः सहायो वै पिता माता सुतो गुरुः।
13-173-9a
13-173-9b
ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च।।
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः।
गच्छन्त्यमुं च लोकं वै क एताननुगच्छति।।
13-173-10a
13-173-10b
बृहस्पतिरुवाच।
एकः प्रसूयते राजन्नेक एव विनश्यति।
एकस्तरति दुर्गाणि गच्छत्येकस्तु दुर्गतिम्।।
13-173-11a
13-173-11b
न सहायः पिता माता तथा भ्राता सुतो गुरुः।
ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च।।
13-173-12a
13-173-12b
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः।
मुहूर्तमुपयुञ्ज्याथ ततो यान्ति पराङ्मुखाः।।
13-173-13a
13-173-13b
तैस्तच्छरीरमुत्सृष्टं धर्मि एकोऽनुगच्छति।
तस्माद्धर्मः सहायार्थे सेवितव्यः सदा नृपः।।
13-173-14a
13-173-14b
प्राणी धर्मसमायुक्तो गच्छेत्स्वर्गगतिं पराम्।
तथैवाधर्मसंयुक्तो नरकं चोपपद्यते।।
13-173-15a
13-173-15b
तस्मान्न्यायागतैरर्थैर्धर्मं सेवेत पण्डितः।
धर्म एको मनुष्याणां सहायः पारलौकिकः।।
13-173-16a
13-173-16b
लोभान्मोहादनुक्रोशाद्भयाद्वाऽप्यबहुश्रुतः।
नरः करोत्यकार्याणि परार्थे लोभमोहितः।।
13-173-17a
13-173-17b
धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रितयं जीविते फलम्।
एतत्त्रयमवाप्तव्यमधर्मपरिवर्जितम्।।
13-173-18a
13-173-18b
युधिष्ठिर उवाच।
श्रुतं भगवतो वाक्यं धर्मयुक्तं परं हितम्।
शरीरनिश्चयं ज्ञातुं बुद्धिस्तु मम जायते।।
13-173-19a
13-173-19b
मृतं शरीरं हि नृणां सूक्ष्ममव्यक्ततां गतम्।
अचक्षुर्विषयं प्राप्तं कथं धर्मोऽनुगच्छति।।
13-173-20a
13-173-20b
बृहस्पतिरुवाच।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिरनन्तरम्।
बुद्धिरात्मा च सहिता धर्मं पश्यन्ति नित्यदा।।
13-173-21a
13-173-21b
प्राणिनामिह सर्वेषां साक्षिभूतं दिवानिशम्।
एतैश्च सह धर्मोऽपि तं जीवमनुगच्छति।।
13-173-22a
13-173-22b
त्वगस्थि मांसं शुक्रं च शोणितं च महामते।
शरीरं वर्जयन्त्येते जीवितेन विवर्जितम्।।
13-173-23a
13-173-23b
ततो धर्मसमायुक्तः स जीवः सुखमेधते।
इह लोके परे चैव किं भूयः कथयामि ते।।
13-173-24a
13-173-24b
युधिष्ठिर उवाच।
तद्दर्शितं भगवता यथा धर्मोऽनुगच्छति।
एतत्तु ज्ञातुमिच्छामि कथं रेतः प्रवर्तते।।
13-173-25a
13-173-25b
बृहस्पतिरुवाच।
अन्नमश्नन्ति यद्देवाः शरीरस्था नरेश्वर।
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिर्मनस्तथा।।
13-173-26a
13-173-26b
ततस्तृप्तेषु राजेन्द्र तेषु भूतेषु पञ्चसु।
मनःषष्ठेषु शुद्धात्मन्रेतः सम्पद्यते महत्।।
13-173-27a
13-173-27b
ततो गर्भः सम्भवति श्लेषात्स्त्रीपुंसयोर्नृप।
एतत्ते सर्वमाख्यातं भूयः किं श्रोतुमिच्छसि।।
13-173-28a
13-173-28b
युधिष्ठिर उवाच।
आख्यातं मे भगवता गर्भः सञ्जायते यथा।
यथा जातस्तु पुरुषः प्रपद्यति तदुच्यताम्।।
13-173-29a
13-173-29b
बृहस्पतिरुवाच।
आसन्नमात्रः पुरुषस्तैर्भूतैरभिभूयते।
विप्रयुक्तश्च तैर्भूतैः पुनर्यात्यपरां गतिम्।
स च भूतसमायुक्तः प्राप्नुते जीव एव हि।।
13-173-30a
13-173-30b
13-173-30c
ततोऽस्य कर्म पश्यन्ति शुभं वा यदि वाशुभम्।
देवताः पञ्चभूतस्थाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।।
13-173-31a
13-173-31b
युधिष्ठिर उवाच।
त्वगस्थिमांसमुत्सृज्य तैश्च भूतैर्विवर्जितः।
जीवः सह वसन्कृत्स्नं सुखदुःखसहः प्रभो।।
13-173-32a
13-173-32b
बृहस्पतिरुवाच।
`भोगवश्यं कर्मवश्यं यातनावश्यमित्यपि।
एतत्त्रयाणामासाद्य कर्मतः सोऽश्नुते फलम्।।
13-173-33a
13-173-33b
जीवः कर्मसमायुक्तः शीघ्रं रेतस्त्वमागतः।
स्त्रीणां पुष्पं समासाद्य सूतिकाले लभेत तत्।।
13-173-34a
13-173-34b
यमस्य पुरुषैः क्लेसं यमस्य पुरुषैर्वधम्।
दुःखं संसारचक्रं च नरः क्लेशं स विन्दति।।
13-173-35a
13-173-35b
इह लोके स च प्राणी जन्मप्रभृति पार्थिव।
सुकृतं कर्म वै भुङ्क्ते धर्मस्य फलमाश्रितः।।
13-173-36a
13-173-36b
यदि धर्मं यथाशक्ति जन्मप्रभृति सेवते।
ततः स पुरुषो भूत्वा सेवते नियतं सुखम्।।
13-173-37a
13-173-37b
अथान्तरा तु धर्मस्याप्यधर्ममुपसेवते।
सुखस्यानन्तरं दुःखं स जीवोऽप्यधिगच्छति।।
13-173-38a
13-173-38b
अधर्मेण समायुक्तो यमस्य विषयं गतः।
महद्दुःखं समासाद्य तिर्यग्योनौ प्रजायते।।
13-173-39a
13-173-39b
कर्मणा येन येनेह यस्यां योनौ प्रजायते।
जीवो मोहसमायुक्तस्तन्मे निगदतः शृणु।।
13-173-40a
13-173-40b
यदेतदुच्यते शास्त्रे सेतिहासे च च्छन्दसि।
यमस्य विषयं घोरं मर्त्यो लोकः प्रपद्यते।।
13-173-41a
13-173-41b
इह स्थानानि पुण्यानि देवतुल्यानि भूपते।
तिर्यग्योन्यतिरिक्तानि गतिमन्ति च सर्वशः।।
13-173-42a
13-173-42b
यमस्य भवने दिव्ये ब्रह्मलोकसमे गुणैः।
कर्मभिर्नियतैर्बद्धो जन्तुर्दुःखान्युपाश्नुते।।
13-173-43a
13-173-43b
येनयेन तु भावेन कर्मणा पुरुषो गतिम्।
प्रयाति परुषां घोरां तत्ते वक्ष्याम्यतः परम्।।
13-173-44a
13-173-44b
अधीत्य चतुरो वेदान्द्विजो मोहसमन्वितः।
पतितात्प्रतिगृह्याथ खरयोनौ प्रजायते।।
13-173-45a
13-173-45b
खरो जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
खरो मृतो बलीवर्दः सप्तवर्षाणि जीवति।।
13-173-46a
13-173-46b
बलीवर्दो मृतश्चापि जायते ब्रह्मराक्षसः।
ब्रह्मरक्षश्च मासांस्त्रींस्ततो जायेत ब्राह्मणः।।
13-173-47a
13-173-47b
पतितं याजयित्वा तु कृमियोनौ प्रजायते।
तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।।
13-173-48a
13-173-48b
कृमिभावाद्विमुक्तस्तु ततो जायेत गर्दभः।
गर्दभः पञ्चवर्षाणि पञ्चवर्षाणि सूकरः।।
13-173-49a
13-173-49b
कुक्कुटः पञ्चवर्षाणि पञ्चवर्षाणि जम्बुकः।
श्वा वर्षमेकं भवति ततो जायेत मानवः।।
13-173-50a
13-173-50b
उपाध्यायस्त्रियः पापं शिष्यः कुर्यादबुद्धिमान्।
स जीव इह संसारांस्त्रीनाप्नोति न संशयः।।
13-173-51a
13-173-51b
वृको भवति राजेन्द्र ततः क्रव्यात्ततः खरः।
ततः प्रेतः परिक्लिष्टः पश्चाज्जायेत ब्राह्मणः।।
13-173-52a
13-173-52b
मनसाऽपि गुरोर्भार्यां यः शिष्यो याति पापकृत्।
स उग्रान्प्रैति संसारानधर्मेणेह चेतसा।।
13-173-53a
13-173-53b
श्वयोनौ तु स सम्भूतस्त्रीणि वर्षाणि जीवति।
तत्रापि निधनं प्राप्तः कृमियोनौ प्रजायते।।
13-173-54a
13-173-54b
कृमिभावमनुप्राप्तो वर्षमेकं तु जीवति।
ततस्तु निधनं प्राप्तो ब्रह्मयोनौ प्रजायते।।
13-173-55a
13-173-55b
यदि पुत्रसमं शिष्यं गुरुर्हन्यादकारणे।
आत्मनः कामकारेण सोपि हिंस्रः प्रजायते।।
13-173-56a
13-173-56b
पितरं मातरं चैव यस्तु पुत्रोऽवमन्यते।
सोऽपि राजन्मृतो जन्तुः पूर्वं जायेत गर्दभः।।
13-173-57a
13-173-57b
गर्दभत्वं तु सम्प्राप्य दशवर्षाणि जीवति।
संवत्सरं तु कुम्भीरस्ततो जायेत मानवः।।
13-173-58a
13-173-58b
पुत्रस्य मातापितरौ यस्य रुष्टावुभावपि।
गुर्वपध्यानतः सोपि मृतो जायति गर्दभः।।
13-173-59a
13-173-59b
खरो जीवति मासांस्तु दश श्वा च चतुर्दशः।
बिडालः सप्तमासांस्तु ततो जायेत मानवः।।
13-173-60a
13-173-60b
मातापितरावाक्रुश्य शारिका सम्प्रजायते।
ताडयित्वा तु तावेव जायते कच्छपो नृप।।
13-173-61a
13-173-61b
कच्छपो दशवर्षाणि त्रीणि वर्षाणि शल्यकः।
व्यालो भूत्वा च षण्मासांस्ततो जायति मानुषः।।
13-173-62a
13-173-62b
भर्तृपिण्डमुपाश्नन्यो राजद्विष्टानि सेवते।
सोपि मोहसमापन्नो मृतो जायति वानरः।।
13-173-63a
13-173-63b
वानरो दशवर्षाणि पञ्चवर्षाणि सूकरः।
श्वाऽथ भूत्वा तु षण्मासांस्ततो जायति मानुषः।।
13-173-64a
13-173-64b
न्यासापहर्ता तु नरो यमस्य विषयं गतः।
यातनानां शतं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते।।
13-173-65a
13-173-65b
तत्र जीवति वर्षाणि दशपञ्च च भारत।
दुष्कृतस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः।।
13-173-66a
13-173-66b
असूयकः कुत्सितश्च चण्डालो दुःखमश्नुते।
विश्वासहर्ता तु नरो मीनो जायति दुर्मतिः।।
13-173-67a
13-173-67b
भूत्वा मीनोऽष्टमासांस्तु मृगो जायति भारत।
मृगस्तु चतुरो मासांस्ततश्छागः प्रजायते।।
13-173-68a
13-173-68b
छागस्तु निधनं प्राप्य पूर्णे संवत्सरे ततः।
गौः स सञ्जायते जन्तुस्ततो जायति मानुषः।।
13-173-69a
13-173-69b
धान्यान्यवांस्तिलान्माषान्कुलत्थान्सर्षपांश्चणान्।
कलायानथ मुद्गांश्च गोधूमानतसीस्तथा।।
13-173-70a
13-173-70b
यस्तु धान्यापहर्ता च मोहाज्जन्तुरचेतनः।
स जायते महाराज मूषिको निरपत्रपः।।
13-173-71a
13-173-71b
ततः प्रेत्य महाराज मृतो जायति सूकरः।
सूकरो जातमात्रस्तु रोगेणि म्रियते नृप।।
13-173-72a
13-173-72b
श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव।
भूत्वा श्वा पञ्चवर्षाणि ततो जायति मानवः।।
13-173-73a
13-173-73b
परदाराभिमर्शं तु कृत्वा जायति वै वृकः।
श्वा शृगालस्ततो गृध्रो व्यालः कङ्को बकस्तथा।।
13-173-74a
13-173-74b
भ्रातुर्भार्यां तु पापात्मा यो धर्मयति मोहितः।
पुंस्कोकिलत्वमाप्नोति सोऽपि संवत्सरं नृप।।
13-173-75a
13-173-75b
सखिभार्यां गुरोर्भार्यां राजभार्यां तथैव च।
प्रधर्षयित्वा कामाद्यो मृतो जायति सूकरः।।
13-173-76a
13-173-76b
सूकरः पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि श्वाविधः।
बिडालः पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि कुक्कुटः।।
13-173-77a
13-173-77b
पिपीलिका तु मासांस्त्रीन्वानरो मासमेव तु।
एतानासाद्य संसारान्कृमियोनौ प्रजायते।।
13-173-78a
13-173-78b
तत्र जीवति मासांस्तु कृमियोनौ चतुर्दश।
ततोऽधर्मक्षयं कृत्वा पुनर्जायति मानवः।।
13-173-79a
13-173-79b
उपस्थिते विवाहे तु यज्ञे दानेऽपि वा विभो।
मोहात्करोति यो विघ्नं स मृतो जायते कृमिः।।
13-173-80a
13-173-80b
कृमिर्जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।
अधर्मिस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानवः।।
13-173-81a
13-173-81b
पूर्वं दत्त्वा तु यः कन्यां द्वितीये दातुमिच्छति।
सोपि राजन्मृतो जन्तुः कृमियोनौ प्रजायते।।
13-173-82a
13-173-82b
तत्र जीवति वर्षाणि त्रयोदश युधिष्ठिर।
अधर्मसंक्षये युक्तस्ततो जायति मानवः।।
13-173-83a
13-173-83b
देवकार्यमकृत्वा तु पितृकार्यमथापि वा।
अनिर्वाप्य समश्नन्वै मृतो जायति वायसः।।
13-173-84a
13-173-84b
वायसः शतवर्षाणि ततो जायति कुक्कुटः।
जायते व्यालकश्चापि मासं तस्मात्तु मानुषः।।
13-173-85a
13-173-85b
ज्येष्ठं पितृसमं चापि भ्रातरं योऽवमन्यते।
सोऽपि मृत्युमुपागम्य क्रौञ्चयोनौ प्रजायते।।
13-173-86a
13-173-86b
क्रौञ्चो जीवति वर्षं तु ततो जायति चीरकः।
ततो निधनमापन्नो मानुषत्वमुपाश्नुते।।
13-173-87a
13-173-87b
वृषलो ब्राह्मणीं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते।
[ततः सम्प्राप्य निधनं जायते सूकरः पुनः।।
13-173-88a
13-173-88b
सूकरो जातमात्रस्तु रोगेण म्रियते नृप।
श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव।।
13-173-89a
13-173-89b
श्वा भूत्वा कृतकर्माऽसौ जायते मानुषस्ततः।
तत्रापत्यं समुत्पाद्य मृतो जायति मूषिकः।।
13-173-90a
13-173-90b
कृतघ्नस्तु मृतो राजन्यमस्य विषयं गतः।
यमस्य पुरुषैः क्रुद्धैर्वधं प्राप्नोति दारणम्।।
13-173-91a
13-173-91b
दण्‍डं समुद्गरं शूलमग्निकुम्भं च दारुणम्।
असिपत्रवनं घोरवालुकं कूटशाल्मलीम्।।
13-173-92a
13-173-92b
एताश्चान्याश्च बह्वीश्च यमस्य विषयं गतः।
यातनाः प्राप्य तत्रोग्रास्ततो वध्यति भारत।।
13-173-93a
13-173-93b
ततो हतः कृतघ्नः स तत्रोग्रैर्भरतर्षभ।
संसारचक्रमासाद्य कृमियोनौ प्रजायते।।
13-173-94a
13-173-94b
कृमिर्भवति वर्षाणि दशपञ्च च भारत।
ततो गर्भं समासाद्य तत्रैव म्रियते शिशुः।।
13-173-95a
13-173-95b
ततो गर्भशतैर्जन्तुर्बहुभि सम्प्रपद्यते।
संसारांश्च बहून्गत्वा ततस्मिर्यक्षु जायते।।
13-173-96a
13-173-96b
ततो दुःखमनुप्राप्य बहुवर्षगणानिह।
स पुनर्भवसंयुक्तस्ततः कूर्मः प्रजायते।।
13-173-97a
13-173-97b
दधि हृत्वा बकश्चापि प्लवो मत्स्यानसंस्कृतान्।
चोरयित्वा तु दुर्बुद्धिर्मधुदंशः प्रजायते।।
13-173-98a
13-173-98b
फलं वा मूलकं हृत्वा अपूपं वा पिपीलिकाः।
चोरयित्वा च निष्पावं जायते हलगोलकः।।
13-173-99a
13-173-99b
पायसं चोरयित्वा तु तित्तिरित्वमवाप्नुते।
हृत्वा पिष्टमयं पूपं कुम्भोलूकः प्रजायते।।
13-173-100a
13-173-100b
अयो हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्वायसो जायते नरः।
कांस्यं हृत्वा तु दुर्बद्धिर्हारितो जायते नरः।।
13-173-101a
13-173-101b
राजतं भाजनं हृत्वा कपोतः सम्प्रजायते।
हृत्वा तु काञ्चनं भाण्डं कृमियोनौ प्रजायते।।
13-173-102a
13-173-102b
पत्रोर्णं चोरयित्वा तु कृकलत्वं निगच्छति।
कौशिकं तु ततो हृत्वा नरो जायति वर्तकः।।
13-173-103a
13-173-103b
अंशुकं चोरयित्वा तु शुक्रो जायति मानवः।
चोरयित्वा दुकूलं तु मृतो हंसः प्रजायते।।
13-173-104a
13-173-104b
क्रौञ्चः कार्पासिकं हृत्वा मृतो जायति मानवः।
चोरयित्वा नरः पट्टं त्वाविकं चैव भारत।
13-173-105a
13-173-105b
क्षौमं च वस्त्रमादाय शशो जन्तुः प्रजायते।।
वर्णान्हृत्वा तु पुरुषो मृतो जायति बर्हिणः।
हृत्वा रक्तानि वस्त्राणि जायते जीवजीवकः।।
13-173-106a
13-173-106b
वर्णकादींस्तथा गन्धांश्चोरयित्वेह मानवः।
छुन्दुन्दरित्वमाप्नोति राजँल्लोभपरायणः।।
13-173-107a
13-173-107b
तत्र जीवति वर्षाणि ततो दश च पञ्च च।
अधर्मस्य क्षयं गत्वा ततो जायति मानुषः।।
13-173-108a
13-173-108b
चोरयित्वा पयश्चापि बलाका सम्प्रजायते।। 13-173-109a
यस्तु चोरयते तैलं नरो मोहसमन्वितः।
सोपि राजन्मृतो जन्तुस्तैलपायी प्रजायते।।
13-173-110a
13-173-110b
अशस्त्रं पुरुषं हत्वा सशस्त्रः पुरुषाधमः।
अर्थार्थी यदि वा वैरी स मृतो जायते स्वरः।।
13-173-111a
13-173-111b
खरो जीवति वर्षे द्वे ततः शस्त्रेण वध्यते।
स मृतो मृगयोनौ तु नित्योद्विग्नोऽभिजायते।।
13-173-112a
13-173-112b
मृगो वध्यति शस्त्रेण गते संवत्सरे तु सः।
हतो मृगस्ततो मीनः सोपि जालेन बध्यते।।
13-173-113a
13-173-113b
मासे चतुर्थे सम्प्राप्ते श्वापदः सम्प्रजायते।
श्वापदो दशवर्षाणि द्वीपी वर्षाणि पञ्च च।।
13-173-114a
13-173-114b
ततस्तु निधनं प्राप्तः कालपर्यायचोदितः।
अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः।।
13-173-115a
13-173-115b
स्त्रियं हत्वा तु दुर्बुद्धिर्यमस्य विषयं गतः।
बहून्क्लेशान्समासाद्य नरकानेकविंशतिम्।।
13-173-116a
13-173-116b
ततः पश्चान्महाराज कृमियोनौ प्रजायते।
कृमिर्विंशतिवर्षाणि भूत्वा जायति मानुषः।।
13-173-117a
13-173-117b
भोजनं चोरयित्वा तु मक्षिका जायते नरः।
मक्षिकासङ्घवशगो बहून्मासान्भवत्युत।।
13-173-118a
13-173-118b
ततः पापक्षयं कृत्वा मानुषत्वमवाप्नुते।
`भक्ष्यं हृत्वा तु पुरुषो जालपाशः प्रजायते।।
13-173-119a
13-173-119b
स्वाद्यं हृत्वा तु पुरुषश्चीरपाशः प्रजायते।'
धान्यं हृत्वा तु पुरुषो लोमशः सम्प्रजायते।।
13-173-120a
13-173-120b
तथा पिण्याकसम्मिश्रमशनं चोरयेन्नरः।
स जायते भृतिधनो दारुणो मूषिको नरः।।
13-173-121a
13-173-121b
दशन्वै मानुषान्नित्यं पापात्मा स विशाम्पते।
घृतं हृत्वा तु दुर्बुद्धिः काकमद्गुः प्रजायते।।
13-173-122a
13-173-122b
मत्स्यमांसमथो हृत्वा काको जायति| दुर्मतिः
लवणं चोरयित्वा तु चिरिकाकः प्रजायते||
13-173-123a
13-173-123b
विश्वासेन तु निक्षिप्तं यो विनिह्नोति मानवः|
स गतायुर्नरस्तात मत्स्ययोनौ प्रजायते||
13-173-124a
13-173-124b
मत्स्ययोनिमनुप्राप्य मृतो जायति मानुषः|
मानुषत्वमनुप्राप्य क्षीणायुरुपपद्यते||
13-173-125a
13-173-125b
पापानि तु नराः कृत्वा तिर्यग्जायन्ति भारत।
न चात्मनः प्रयाणान्ते धर्मं जानन्ति कञ्चन।।
13-173-126a
13-173-126b
ये पापानि नराः कृत्वा निरस्यन्ति व्रतैः सदा।
सुखदुःखसमायुक्ता व्यथितास्ते भवन्त्युत।।
13-173-127a
13-173-127b
अपुमांसः प्रजायन्ते म्लेच्छाश्चापि न संशयः
नराः पापसमाचारा लोभमोहसमन्विताः।।
13-173-128a
13-173-128b
वर्जयन्ति च पापानि जन्मप्रभृति ये नराः।
अरोगा रूपवन्तस्ते धनिनश्च भवन्त्युत।।
13-173-129a
13-173-129b
स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन कृत्वा पापमवाप्नुयुः।
एतेषामेव जन्तूनां भार्यात्वमुपयान्ति ताः।।
13-173-130a
13-173-130b
परस्वहरणे दोषाः सर्व एव प्रकीर्तिताः।
एतद्धि लेशमात्रेण कथितं ते मयाऽनघ।।
13-173-131a
13-173-131b
अपरस्मिन्कथायोगे भूयः श्रोष्यसि भारत।
एतन्मया महाराज ब्रह्मणो गदतः पुरा।।
13-173-132a
13-173-132b
सुरर्षीणां श्रुतं मध्ये पृष्टश्चापि यथातथम्।
मयाऽपि तच्च कार्त्स्न्येन यथावदनुवर्णितम्।
एतच्छ्रुत्वा महाराज धर्मे कुरु मनः सदा।।
13-173-133a
13-173-133b
13-173-133c
इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 173 ।।

13-173-13 मुहूर्तमिव रोदित्वेति झ.पाठः।। 13-173-32 जीवः स भगवन्क्वस्थः सुखदुःखे समश्नुते इति झ.पाठः।। 13-173-51 उपाध्यायस्य यः पापं इति झ.पाठः।। 13-173-52 प्राक् श्वा भवति इति झ.पाठः।। 13-173-58 कुम्भीरो नक्रः।। 13-173-64 पञ्चवर्षाणि मूषिकः इति झ.पाठः।। 13-173-65 संसाराणां शतं इति झ.पाठः।। 13-173-99 निष्पावं राजमाषम्। हलगोलकः दीर्घपुच्छो गोलरूपी कीटविशेषः।। 13-173-100 कुम्भोलूक उलूकजातिभेदः।। 13-173-101 हारितः पक्षिविशेषः।। 13-173-103 पत्रोर्मं धौतकौशेयम्।। 13-173-106 वर्णान् हरितालादीन्।। 13-173-122 काकमद्गुः शृङ्गवान् जलपक्षी।। 13-173-128 असंवासाः प्रजायन्ते इति झ.पाठः।।

अनुशासनपर्व-172 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-174