महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-173
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बृहस्पतिना युधिष्ठिरंप्रति देहिनां जननादिप्रकारनिरूपणम्।। 1 ।। तथा प्राणिनां दुष्कर्मविशेषफलतया तिर्यग्योनिविशेषेषु जननकथनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-173-1x |
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद। श्रोतुमिच्छामि मर्त्यानां संसारविधिमुत्तमम्।। | 13-173-1a 13-173-1b |
केन वृत्तेन राजेन्द्र वर्तमाना नरा भुवि। प्राप्नुवन्त्युत्तमं स्वर्गं कथं च नरकं नृप।। | 13-173-2a 13-173-2b |
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः। प्रयान्त्यमुं लोकमितः को वै ताननुगच्छति।। | 13-173-3a 13-173-3b |
भीष्म उवाच। | |
दूरादायाति भगवान्बृहस्पतिरुदारधीः। पृच्छैनं सुमहाभागमेतद्गुह्यं सनातनम्।। | 13-173-4a 13-173-4b |
नैतदन्येन शक्यं हि वक्तुं केनचिदद्य वै। वक्ता बृहस्पतिसमो न ह्यन्यो विद्यते क्वचित्।। | 13-173-5a 13-173-5b |
वैशम्पायन उवाच। | |
तयोः संवदतोरेवं पार्थगाङ्गेययोस्तदा। आजगाम विशुद्धात्मा भगवान्स बृहस्पतिः।। | 13-173-6a 13-173-6b |
ततो राजा समुत्थाय धृतराष्ट्रपुरोगमः। पूजामनुषमां चक्रे सर्वे ते च सभासदः।। | 13-173-7a 13-173-7b |
ततो धर्मसुतो राजा भगवन्तं बृहस्पतिम्। उपगम्य यथान्यायं प्रश्नं पप्रच्छ तत्त्वतः।। | 13-173-8a 13-173-8b |
भगवन्सर्वधर्मज्ञ सर्वशास्त्रविशारद। मर्त्यस्य कः सहायो वै पिता माता सुतो गुरुः। | 13-173-9a 13-173-9b |
ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च।। | |
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः। गच्छन्त्यमुं च लोकं वै क एताननुगच्छति।। | 13-173-10a 13-173-10b |
बृहस्पतिरुवाच। | |
एकः प्रसूयते राजन्नेक एव विनश्यति। एकस्तरति दुर्गाणि गच्छत्येकस्तु दुर्गतिम्।। | 13-173-11a 13-173-11b |
न सहायः पिता माता तथा भ्राता सुतो गुरुः। ज्ञातिसम्बन्धिवर्गश्च मित्रवर्गस्तथैव च।। | 13-173-12a 13-173-12b |
मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्टसमं जनाः। मुहूर्तमुपयुञ्ज्याथ ततो यान्ति पराङ्मुखाः।। | 13-173-13a 13-173-13b |
तैस्तच्छरीरमुत्सृष्टं धर्मि एकोऽनुगच्छति। तस्माद्धर्मः सहायार्थे सेवितव्यः सदा नृपः।। | 13-173-14a 13-173-14b |
प्राणी धर्मसमायुक्तो गच्छेत्स्वर्गगतिं पराम्। तथैवाधर्मसंयुक्तो नरकं चोपपद्यते।। | 13-173-15a 13-173-15b |
तस्मान्न्यायागतैरर्थैर्धर्मं सेवेत पण्डितः। धर्म एको मनुष्याणां सहायः पारलौकिकः।। | 13-173-16a 13-173-16b |
लोभान्मोहादनुक्रोशाद्भयाद्वाऽप्यबहुश्रुतः। नरः करोत्यकार्याणि परार्थे लोभमोहितः।। | 13-173-17a 13-173-17b |
धर्मश्चार्थश्च कामश्च त्रितयं जीविते फलम्। एतत्त्रयमवाप्तव्यमधर्मपरिवर्जितम्।। | 13-173-18a 13-173-18b |
युधिष्ठिर उवाच। | |
श्रुतं भगवतो वाक्यं धर्मयुक्तं परं हितम्। शरीरनिश्चयं ज्ञातुं बुद्धिस्तु मम जायते।। | 13-173-19a 13-173-19b |
मृतं शरीरं हि नृणां सूक्ष्ममव्यक्ततां गतम्। अचक्षुर्विषयं प्राप्तं कथं धर्मोऽनुगच्छति।। | 13-173-20a 13-173-20b |
बृहस्पतिरुवाच। | |
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिरनन्तरम्। बुद्धिरात्मा च सहिता धर्मं पश्यन्ति नित्यदा।। | 13-173-21a 13-173-21b |
प्राणिनामिह सर्वेषां साक्षिभूतं दिवानिशम्। एतैश्च सह धर्मोऽपि तं जीवमनुगच्छति।। | 13-173-22a 13-173-22b |
त्वगस्थि मांसं शुक्रं च शोणितं च महामते। शरीरं वर्जयन्त्येते जीवितेन विवर्जितम्।। | 13-173-23a 13-173-23b |
ततो धर्मसमायुक्तः स जीवः सुखमेधते। इह लोके परे चैव किं भूयः कथयामि ते।। | 13-173-24a 13-173-24b |
युधिष्ठिर उवाच। | |
तद्दर्शितं भगवता यथा धर्मोऽनुगच्छति। एतत्तु ज्ञातुमिच्छामि कथं रेतः प्रवर्तते।। | 13-173-25a 13-173-25b |
बृहस्पतिरुवाच। | |
अन्नमश्नन्ति यद्देवाः शरीरस्था नरेश्वर। पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिर्मनस्तथा।। | 13-173-26a 13-173-26b |
ततस्तृप्तेषु राजेन्द्र तेषु भूतेषु पञ्चसु। मनःषष्ठेषु शुद्धात्मन्रेतः सम्पद्यते महत्।। | 13-173-27a 13-173-27b |
ततो गर्भः सम्भवति श्लेषात्स्त्रीपुंसयोर्नृप। एतत्ते सर्वमाख्यातं भूयः किं श्रोतुमिच्छसि।। | 13-173-28a 13-173-28b |
युधिष्ठिर उवाच। | |
आख्यातं मे भगवता गर्भः सञ्जायते यथा। यथा जातस्तु पुरुषः प्रपद्यति तदुच्यताम्।। | 13-173-29a 13-173-29b |
बृहस्पतिरुवाच। | |
आसन्नमात्रः पुरुषस्तैर्भूतैरभिभूयते। विप्रयुक्तश्च तैर्भूतैः पुनर्यात्यपरां गतिम्। स च भूतसमायुक्तः प्राप्नुते जीव एव हि।। | 13-173-30a 13-173-30b 13-173-30c |
ततोऽस्य कर्म पश्यन्ति शुभं वा यदि वाशुभम्। देवताः पञ्चभूतस्थाः किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-173-31a 13-173-31b |
युधिष्ठिर उवाच। | |
त्वगस्थिमांसमुत्सृज्य तैश्च भूतैर्विवर्जितः। जीवः सह वसन्कृत्स्नं सुखदुःखसहः प्रभो।। | 13-173-32a 13-173-32b |
बृहस्पतिरुवाच। | |
`भोगवश्यं कर्मवश्यं यातनावश्यमित्यपि। एतत्त्रयाणामासाद्य कर्मतः सोऽश्नुते फलम्।। | 13-173-33a 13-173-33b |
जीवः कर्मसमायुक्तः शीघ्रं रेतस्त्वमागतः। स्त्रीणां पुष्पं समासाद्य सूतिकाले लभेत तत्।। | 13-173-34a 13-173-34b |
यमस्य पुरुषैः क्लेसं यमस्य पुरुषैर्वधम्। दुःखं संसारचक्रं च नरः क्लेशं स विन्दति।। | 13-173-35a 13-173-35b |
इह लोके स च प्राणी जन्मप्रभृति पार्थिव। सुकृतं कर्म वै भुङ्क्ते धर्मस्य फलमाश्रितः।। | 13-173-36a 13-173-36b |
यदि धर्मं यथाशक्ति जन्मप्रभृति सेवते। ततः स पुरुषो भूत्वा सेवते नियतं सुखम्।। | 13-173-37a 13-173-37b |
अथान्तरा तु धर्मस्याप्यधर्ममुपसेवते। सुखस्यानन्तरं दुःखं स जीवोऽप्यधिगच्छति।। | 13-173-38a 13-173-38b |
अधर्मेण समायुक्तो यमस्य विषयं गतः। महद्दुःखं समासाद्य तिर्यग्योनौ प्रजायते।। | 13-173-39a 13-173-39b |
कर्मणा येन येनेह यस्यां योनौ प्रजायते। जीवो मोहसमायुक्तस्तन्मे निगदतः शृणु।। | 13-173-40a 13-173-40b |
यदेतदुच्यते शास्त्रे सेतिहासे च च्छन्दसि। यमस्य विषयं घोरं मर्त्यो लोकः प्रपद्यते।। | 13-173-41a 13-173-41b |
इह स्थानानि पुण्यानि देवतुल्यानि भूपते। तिर्यग्योन्यतिरिक्तानि गतिमन्ति च सर्वशः।। | 13-173-42a 13-173-42b |
यमस्य भवने दिव्ये ब्रह्मलोकसमे गुणैः। कर्मभिर्नियतैर्बद्धो जन्तुर्दुःखान्युपाश्नुते।। | 13-173-43a 13-173-43b |
येनयेन तु भावेन कर्मणा पुरुषो गतिम्। प्रयाति परुषां घोरां तत्ते वक्ष्याम्यतः परम्।। | 13-173-44a 13-173-44b |
अधीत्य चतुरो वेदान्द्विजो मोहसमन्वितः। पतितात्प्रतिगृह्याथ खरयोनौ प्रजायते।। | 13-173-45a 13-173-45b |
खरो जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत। खरो मृतो बलीवर्दः सप्तवर्षाणि जीवति।। | 13-173-46a 13-173-46b |
बलीवर्दो मृतश्चापि जायते ब्रह्मराक्षसः। ब्रह्मरक्षश्च मासांस्त्रींस्ततो जायेत ब्राह्मणः।। | 13-173-47a 13-173-47b |
पतितं याजयित्वा तु कृमियोनौ प्रजायते। तत्र जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत।। | 13-173-48a 13-173-48b |
कृमिभावाद्विमुक्तस्तु ततो जायेत गर्दभः। गर्दभः पञ्चवर्षाणि पञ्चवर्षाणि सूकरः।। | 13-173-49a 13-173-49b |
कुक्कुटः पञ्चवर्षाणि पञ्चवर्षाणि जम्बुकः। श्वा वर्षमेकं भवति ततो जायेत मानवः।। | 13-173-50a 13-173-50b |
उपाध्यायस्त्रियः पापं शिष्यः कुर्यादबुद्धिमान्। स जीव इह संसारांस्त्रीनाप्नोति न संशयः।। | 13-173-51a 13-173-51b |
वृको भवति राजेन्द्र ततः क्रव्यात्ततः खरः। ततः प्रेतः परिक्लिष्टः पश्चाज्जायेत ब्राह्मणः।। | 13-173-52a 13-173-52b |
मनसाऽपि गुरोर्भार्यां यः शिष्यो याति पापकृत्। स उग्रान्प्रैति संसारानधर्मेणेह चेतसा।। | 13-173-53a 13-173-53b |
श्वयोनौ तु स सम्भूतस्त्रीणि वर्षाणि जीवति। तत्रापि निधनं प्राप्तः कृमियोनौ प्रजायते।। | 13-173-54a 13-173-54b |
कृमिभावमनुप्राप्तो वर्षमेकं तु जीवति। ततस्तु निधनं प्राप्तो ब्रह्मयोनौ प्रजायते।। | 13-173-55a 13-173-55b |
यदि पुत्रसमं शिष्यं गुरुर्हन्यादकारणे। आत्मनः कामकारेण सोपि हिंस्रः प्रजायते।। | 13-173-56a 13-173-56b |
पितरं मातरं चैव यस्तु पुत्रोऽवमन्यते। सोऽपि राजन्मृतो जन्तुः पूर्वं जायेत गर्दभः।। | 13-173-57a 13-173-57b |
गर्दभत्वं तु सम्प्राप्य दशवर्षाणि जीवति। संवत्सरं तु कुम्भीरस्ततो जायेत मानवः।। | 13-173-58a 13-173-58b |
पुत्रस्य मातापितरौ यस्य रुष्टावुभावपि। गुर्वपध्यानतः सोपि मृतो जायति गर्दभः।। | 13-173-59a 13-173-59b |
खरो जीवति मासांस्तु दश श्वा च चतुर्दशः। बिडालः सप्तमासांस्तु ततो जायेत मानवः।। | 13-173-60a 13-173-60b |
मातापितरावाक्रुश्य शारिका सम्प्रजायते। ताडयित्वा तु तावेव जायते कच्छपो नृप।। | 13-173-61a 13-173-61b |
कच्छपो दशवर्षाणि त्रीणि वर्षाणि शल्यकः। व्यालो भूत्वा च षण्मासांस्ततो जायति मानुषः।। | 13-173-62a 13-173-62b |
भर्तृपिण्डमुपाश्नन्यो राजद्विष्टानि सेवते। सोपि मोहसमापन्नो मृतो जायति वानरः।। | 13-173-63a 13-173-63b |
वानरो दशवर्षाणि पञ्चवर्षाणि सूकरः। श्वाऽथ भूत्वा तु षण्मासांस्ततो जायति मानुषः।। | 13-173-64a 13-173-64b |
न्यासापहर्ता तु नरो यमस्य विषयं गतः। यातनानां शतं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते।। | 13-173-65a 13-173-65b |
तत्र जीवति वर्षाणि दशपञ्च च भारत। दुष्कृतस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः।। | 13-173-66a 13-173-66b |
असूयकः कुत्सितश्च चण्डालो दुःखमश्नुते। विश्वासहर्ता तु नरो मीनो जायति दुर्मतिः।। | 13-173-67a 13-173-67b |
भूत्वा मीनोऽष्टमासांस्तु मृगो जायति भारत। मृगस्तु चतुरो मासांस्ततश्छागः प्रजायते।। | 13-173-68a 13-173-68b |
छागस्तु निधनं प्राप्य पूर्णे संवत्सरे ततः। गौः स सञ्जायते जन्तुस्ततो जायति मानुषः।। | 13-173-69a 13-173-69b |
धान्यान्यवांस्तिलान्माषान्कुलत्थान्सर्षपांश्चणान्। कलायानथ मुद्गांश्च गोधूमानतसीस्तथा।। | 13-173-70a 13-173-70b |
यस्तु धान्यापहर्ता च मोहाज्जन्तुरचेतनः। स जायते महाराज मूषिको निरपत्रपः।। | 13-173-71a 13-173-71b |
ततः प्रेत्य महाराज मृतो जायति सूकरः। सूकरो जातमात्रस्तु रोगेणि म्रियते नृप।। | 13-173-72a 13-173-72b |
श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव। भूत्वा श्वा पञ्चवर्षाणि ततो जायति मानवः।। | 13-173-73a 13-173-73b |
परदाराभिमर्शं तु कृत्वा जायति वै वृकः। श्वा शृगालस्ततो गृध्रो व्यालः कङ्को बकस्तथा।। | 13-173-74a 13-173-74b |
भ्रातुर्भार्यां तु पापात्मा यो धर्मयति मोहितः। पुंस्कोकिलत्वमाप्नोति सोऽपि संवत्सरं नृप।। | 13-173-75a 13-173-75b |
सखिभार्यां गुरोर्भार्यां राजभार्यां तथैव च। प्रधर्षयित्वा कामाद्यो मृतो जायति सूकरः।। | 13-173-76a 13-173-76b |
सूकरः पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि श्वाविधः। बिडालः पञ्चवर्षाणि दशवर्षाणि कुक्कुटः।। | 13-173-77a 13-173-77b |
पिपीलिका तु मासांस्त्रीन्वानरो मासमेव तु। एतानासाद्य संसारान्कृमियोनौ प्रजायते।। | 13-173-78a 13-173-78b |
तत्र जीवति मासांस्तु कृमियोनौ चतुर्दश। ततोऽधर्मक्षयं कृत्वा पुनर्जायति मानवः।। | 13-173-79a 13-173-79b |
उपस्थिते विवाहे तु यज्ञे दानेऽपि वा विभो। मोहात्करोति यो विघ्नं स मृतो जायते कृमिः।। | 13-173-80a 13-173-80b |
कृमिर्जीवति वर्षाणि दश पञ्च च भारत। अधर्मिस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानवः।। | 13-173-81a 13-173-81b |
पूर्वं दत्त्वा तु यः कन्यां द्वितीये दातुमिच्छति। सोपि राजन्मृतो जन्तुः कृमियोनौ प्रजायते।। | 13-173-82a 13-173-82b |
तत्र जीवति वर्षाणि त्रयोदश युधिष्ठिर। अधर्मसंक्षये युक्तस्ततो जायति मानवः।। | 13-173-83a 13-173-83b |
देवकार्यमकृत्वा तु पितृकार्यमथापि वा। अनिर्वाप्य समश्नन्वै मृतो जायति वायसः।। | 13-173-84a 13-173-84b |
वायसः शतवर्षाणि ततो जायति कुक्कुटः। जायते व्यालकश्चापि मासं तस्मात्तु मानुषः।। | 13-173-85a 13-173-85b |
ज्येष्ठं पितृसमं चापि भ्रातरं योऽवमन्यते। सोऽपि मृत्युमुपागम्य क्रौञ्चयोनौ प्रजायते।। | 13-173-86a 13-173-86b |
क्रौञ्चो जीवति वर्षं तु ततो जायति चीरकः। ततो निधनमापन्नो मानुषत्वमुपाश्नुते।। | 13-173-87a 13-173-87b |
वृषलो ब्राह्मणीं गत्वा कृमियोनौ प्रजायते। [ततः सम्प्राप्य निधनं जायते सूकरः पुनः।। | 13-173-88a 13-173-88b |
सूकरो जातमात्रस्तु रोगेण म्रियते नृप। श्वा ततो जायते मूढः कर्मणा तेन पार्थिव।। | 13-173-89a 13-173-89b |
श्वा भूत्वा कृतकर्माऽसौ जायते मानुषस्ततः। तत्रापत्यं समुत्पाद्य मृतो जायति मूषिकः।। | 13-173-90a 13-173-90b |
कृतघ्नस्तु मृतो राजन्यमस्य विषयं गतः। यमस्य पुरुषैः क्रुद्धैर्वधं प्राप्नोति दारणम्।। | 13-173-91a 13-173-91b |
दण्डं समुद्गरं शूलमग्निकुम्भं च दारुणम्। असिपत्रवनं घोरवालुकं कूटशाल्मलीम्।। | 13-173-92a 13-173-92b |
एताश्चान्याश्च बह्वीश्च यमस्य विषयं गतः। यातनाः प्राप्य तत्रोग्रास्ततो वध्यति भारत।। | 13-173-93a 13-173-93b |
ततो हतः कृतघ्नः स तत्रोग्रैर्भरतर्षभ। संसारचक्रमासाद्य कृमियोनौ प्रजायते।। | 13-173-94a 13-173-94b |
कृमिर्भवति वर्षाणि दशपञ्च च भारत। ततो गर्भं समासाद्य तत्रैव म्रियते शिशुः।। | 13-173-95a 13-173-95b |
ततो गर्भशतैर्जन्तुर्बहुभि सम्प्रपद्यते। संसारांश्च बहून्गत्वा ततस्मिर्यक्षु जायते।। | 13-173-96a 13-173-96b |
ततो दुःखमनुप्राप्य बहुवर्षगणानिह। स पुनर्भवसंयुक्तस्ततः कूर्मः प्रजायते।। | 13-173-97a 13-173-97b |
दधि हृत्वा बकश्चापि प्लवो मत्स्यानसंस्कृतान्। चोरयित्वा तु दुर्बुद्धिर्मधुदंशः प्रजायते।। | 13-173-98a 13-173-98b |
फलं वा मूलकं हृत्वा अपूपं वा पिपीलिकाः। चोरयित्वा च निष्पावं जायते हलगोलकः।। | 13-173-99a 13-173-99b |
पायसं चोरयित्वा तु तित्तिरित्वमवाप्नुते। हृत्वा पिष्टमयं पूपं कुम्भोलूकः प्रजायते।। | 13-173-100a 13-173-100b |
अयो हृत्वा तु दुर्बुद्धिर्वायसो जायते नरः। कांस्यं हृत्वा तु दुर्बद्धिर्हारितो जायते नरः।। | 13-173-101a 13-173-101b |
राजतं भाजनं हृत्वा कपोतः सम्प्रजायते। हृत्वा तु काञ्चनं भाण्डं कृमियोनौ प्रजायते।। | 13-173-102a 13-173-102b |
पत्रोर्णं चोरयित्वा तु कृकलत्वं निगच्छति। कौशिकं तु ततो हृत्वा नरो जायति वर्तकः।। | 13-173-103a 13-173-103b |
अंशुकं चोरयित्वा तु शुक्रो जायति मानवः। चोरयित्वा दुकूलं तु मृतो हंसः प्रजायते।। | 13-173-104a 13-173-104b |
क्रौञ्चः कार्पासिकं हृत्वा मृतो जायति मानवः। चोरयित्वा नरः पट्टं त्वाविकं चैव भारत। | 13-173-105a 13-173-105b |
क्षौमं च वस्त्रमादाय शशो जन्तुः प्रजायते।। | |
वर्णान्हृत्वा तु पुरुषो मृतो जायति बर्हिणः। हृत्वा रक्तानि वस्त्राणि जायते जीवजीवकः।। | 13-173-106a 13-173-106b |
वर्णकादींस्तथा गन्धांश्चोरयित्वेह मानवः। छुन्दुन्दरित्वमाप्नोति राजँल्लोभपरायणः।। | 13-173-107a 13-173-107b |
तत्र जीवति वर्षाणि ततो दश च पञ्च च। अधर्मस्य क्षयं गत्वा ततो जायति मानुषः।। | 13-173-108a 13-173-108b |
चोरयित्वा पयश्चापि बलाका सम्प्रजायते।। | 13-173-109a |
यस्तु चोरयते तैलं नरो मोहसमन्वितः। सोपि राजन्मृतो जन्तुस्तैलपायी प्रजायते।। | 13-173-110a 13-173-110b |
अशस्त्रं पुरुषं हत्वा सशस्त्रः पुरुषाधमः। अर्थार्थी यदि वा वैरी स मृतो जायते स्वरः।। | 13-173-111a 13-173-111b |
खरो जीवति वर्षे द्वे ततः शस्त्रेण वध्यते। स मृतो मृगयोनौ तु नित्योद्विग्नोऽभिजायते।। | 13-173-112a 13-173-112b |
मृगो वध्यति शस्त्रेण गते संवत्सरे तु सः। हतो मृगस्ततो मीनः सोपि जालेन बध्यते।। | 13-173-113a 13-173-113b |
मासे चतुर्थे सम्प्राप्ते श्वापदः सम्प्रजायते। श्वापदो दशवर्षाणि द्वीपी वर्षाणि पञ्च च।। | 13-173-114a 13-173-114b |
ततस्तु निधनं प्राप्तः कालपर्यायचोदितः। अधर्मस्य क्षयं कृत्वा ततो जायति मानुषः।। | 13-173-115a 13-173-115b |
स्त्रियं हत्वा तु दुर्बुद्धिर्यमस्य विषयं गतः। बहून्क्लेशान्समासाद्य नरकानेकविंशतिम्।। | 13-173-116a 13-173-116b |
ततः पश्चान्महाराज कृमियोनौ प्रजायते। कृमिर्विंशतिवर्षाणि भूत्वा जायति मानुषः।। | 13-173-117a 13-173-117b |
भोजनं चोरयित्वा तु मक्षिका जायते नरः। मक्षिकासङ्घवशगो बहून्मासान्भवत्युत।। | 13-173-118a 13-173-118b |
ततः पापक्षयं कृत्वा मानुषत्वमवाप्नुते। `भक्ष्यं हृत्वा तु पुरुषो जालपाशः प्रजायते।। | 13-173-119a 13-173-119b |
स्वाद्यं हृत्वा तु पुरुषश्चीरपाशः प्रजायते।' धान्यं हृत्वा तु पुरुषो लोमशः सम्प्रजायते।। | 13-173-120a 13-173-120b |
तथा पिण्याकसम्मिश्रमशनं चोरयेन्नरः। स जायते भृतिधनो दारुणो मूषिको नरः।। | 13-173-121a 13-173-121b |
दशन्वै मानुषान्नित्यं पापात्मा स विशाम्पते। घृतं हृत्वा तु दुर्बुद्धिः काकमद्गुः प्रजायते।। | 13-173-122a 13-173-122b |
मत्स्यमांसमथो हृत्वा काको जायति| दुर्मतिः लवणं चोरयित्वा तु चिरिकाकः प्रजायते|| | 13-173-123a 13-173-123b |
विश्वासेन तु निक्षिप्तं यो विनिह्नोति मानवः| स गतायुर्नरस्तात मत्स्ययोनौ प्रजायते|| | 13-173-124a 13-173-124b |
मत्स्ययोनिमनुप्राप्य मृतो जायति मानुषः| मानुषत्वमनुप्राप्य क्षीणायुरुपपद्यते|| | 13-173-125a 13-173-125b |
पापानि तु नराः कृत्वा तिर्यग्जायन्ति भारत। न चात्मनः प्रयाणान्ते धर्मं जानन्ति कञ्चन।। | 13-173-126a 13-173-126b |
ये पापानि नराः कृत्वा निरस्यन्ति व्रतैः सदा। सुखदुःखसमायुक्ता व्यथितास्ते भवन्त्युत।। | 13-173-127a 13-173-127b |
अपुमांसः प्रजायन्ते म्लेच्छाश्चापि न संशयः नराः पापसमाचारा लोभमोहसमन्विताः।। | 13-173-128a 13-173-128b |
वर्जयन्ति च पापानि जन्मप्रभृति ये नराः। अरोगा रूपवन्तस्ते धनिनश्च भवन्त्युत।। | 13-173-129a 13-173-129b |
स्त्रियोऽप्येतेन कल्पेन कृत्वा पापमवाप्नुयुः। एतेषामेव जन्तूनां भार्यात्वमुपयान्ति ताः।। | 13-173-130a 13-173-130b |
परस्वहरणे दोषाः सर्व एव प्रकीर्तिताः। एतद्धि लेशमात्रेण कथितं ते मयाऽनघ।। | 13-173-131a 13-173-131b |
अपरस्मिन्कथायोगे भूयः श्रोष्यसि भारत। एतन्मया महाराज ब्रह्मणो गदतः पुरा।। | 13-173-132a 13-173-132b |
सुरर्षीणां श्रुतं मध्ये पृष्टश्चापि यथातथम्। मयाऽपि तच्च कार्त्स्न्येन यथावदनुवर्णितम्। एतच्छ्रुत्वा महाराज धर्मे कुरु मनः सदा।। | 13-173-133a 13-173-133b 13-173-133c |
इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 173 ।। |
13-173-13 मुहूर्तमिव रोदित्वेति झ.पाठः।। 13-173-32 जीवः स भगवन्क्वस्थः सुखदुःखे समश्नुते इति झ.पाठः।। 13-173-51 उपाध्यायस्य यः पापं इति झ.पाठः।। 13-173-52 प्राक् श्वा भवति इति झ.पाठः।। 13-173-58 कुम्भीरो नक्रः।। 13-173-64 पञ्चवर्षाणि मूषिकः इति झ.पाठः।। 13-173-65 संसाराणां शतं इति झ.पाठः।। 13-173-99 निष्पावं राजमाषम्। हलगोलकः दीर्घपुच्छो गोलरूपी कीटविशेषः।। 13-173-100 कुम्भोलूक उलूकजातिभेदः।। 13-173-101 हारितः पक्षिविशेषः।। 13-173-103 पत्रोर्मं धौतकौशेयम्।। 13-173-106 वर्णान् हरितालादीन्।। 13-173-122 काकमद्गुः शृङ्गवान् जलपक्षी।। 13-173-128 असंवासाः प्रजायन्ते इति झ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-172 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-174 |