महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-219
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति शुभाशुभकर्मणोः सुखदुःखहेतुत्वकथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-219-1x |
भगवन्देवदेवेश मानुषेष्वेव केचन। ज्ञानविज्ञानसम्पन्ना बुद्धिमन्तो विचक्षणाः।। | 13-219-1a 13-219-1b |
दुर्गतास्तु प्रदृश्यन्ते यतमाना यथाविधि। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-219-2a 13-219-2b |
महेश्वर उवाच। | 13-219-3x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्।। | 13-219-3a |
ये पुरा मनुजा देवि श्रुतवन्तोपि केवलम्। निरा**** निरन्नाद्या भृशमात्मपरायणाः।। | 13-219-4a 13-219-4b |
ते पुनर्जन्मनि शुभे ज्ञानबुद्धियुता अपि। निष्किञ्चना भवन्त्येव अनुप्तं हि न रोहति।। | 13-219-5a 13-219-5b |
उमोवाच। | 13-219-6x |
मूर्खा लोके प्रदृश्यन्ते वृथा मूढा विचेतसः। ज्ञानविज्ञानरहिताः समृद्धाश्च समन्ततः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-219-6a 13-219-6b 13-219-6c |
महेश्वर उवाच। | 13-219-7x |
ये पुरा मनुजा देवि बालिशा अपि सर्वतः। समाचरन्ति दानानि दीनानुग्रहकारणात्।। | 13-219-7a 13-219-7b |
अबुद्धिपूर्वं वा दानं ददत्येव यतस्ततः। ते पुनर्जन्मनि शुभे प्राप्नुवन्त्येव तत्तथा।। | 13-219-8a 13-219-8b |
पण्डितोऽपण्डितो वाऽपि भुङ्क्ते दानफलं नरः। बुद्ध्याऽनपेक्षितं दानं सर्वथा तत्फलत्युत।। | 13-219-9a 13-219-9b |
उमोवाच। | 13-219-10x |
भगवन्देवदेवेश मानुषेष्वेव केचन। मेधाविनः श्रुतधरा भवन्ति विशदाक्षराः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-219-10a 13-219-10b 13-219-10c |
महेश्वर उवाच। | 13-219-11x |
ये पुरा मनुजा देवि गुरुशुश्रूषका भृशम्। ज्ञानार्थं ते तु सङ्गृह्य तीर्थतो विधिपूर्वकम्।। | 13-219-11a 13-219-11b |
विधिनैव परांश्चैव ग्राहयन्ति च नान्यथा। अश्लाघमाना ज्ञानेन प्रशान्ता यतवाचकाः। विद्यास्थानानि ये लोके स्थापयन्ति च यत्नतः।। | 13-219-12a 13-219-12b 13-219-12c |
तादृश मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने। मेधाविनः श्रुतधरा भवन्ति विशदाक्षराः।। | 13-219-13a 13-219-13b |
उमोवाच। | 13-219-14x |
अपरे मानुषा देव यतन्तोपि यतस्ततः। बहिष्कृताः प्रदृश्यन्ते श्रुतविज्ञानबुद्धितः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-219-14a 13-219-14b 13-219-14c |
महेश्वर उवाच। | 13-219-15x |
ये पुरा मनुजा देवि ज्ञानदर्पसमन्विताः। श्लाघमानाश्च तत्प्राप्य ज्ञानाहङ्कारमोहिताः।। | 13-219-15a 13-219-15b |
वदन्ति ये परान्नित्यं ज्ञानाधिक्येन दर्पिताः। ज्ञानादसूयां कुर्वन्ति न सहन्ते च चापरान्।। | 13-219-16a 13-219-16b |
तादृशा मरणं प्राप्ताः पुनर्जन्मनि शोभने। मानुष्यं सुचिरात्प्राप्य तत्र बोधविवर्जिताः। भवन्ति सततं देवि यतन्तो हीनमेधसः।। | 13-219-17a 13-219-17b 13-219-17c |
उमोवाच। | 13-219-18x |
भगवन्मानुषाः केचित्सर्वकल्याणसंयुताः। पुत्रैर्दारैर्गुणयुतैर्दासीदासपरिच्छदैः।। | 13-219-18a 13-219-18b |
परमं बुद्धिसंयुक्ताः स्थानैश्वर्यपरिग्रहैः। व्याधिहीना नबाधाश्च रूपारोग्यबलैर्युताः।। | 13-219-19a 13-219-19b |
धनधान्येन सम्पन्नाः प्रासादैर्यानवाहनैः। सर्वोपभोगसंयुक्ता नानाचित्रैर्मनोहरैः।। | 13-219-20a 13-219-20b |
ज्ञातिभिः सह मोदन्ते अविघ्नं तु दिनेदिने। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-219-21a 13-219-21b |
महेश्वर उवाच। | 13-219-22x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वं समाहिता।। | 13-219-22a |
ये पुरा मनुजा देवि आढ्या वा इतरेऽपि वा। श्रुतवृत्तसमायुक्ता दानकामाः श्रुतप्रियाः।। | 13-219-23a 13-219-23b |
परेङ्गितपरा नित्यं दातव्यमिति निश्चिताः। सत्यसन्धाः क्षमाशीला लोभमोहविवर्जिताः।। | 13-219-24a 13-219-24b |
दातारः पात्रतो दानं व्रतैर्नियमसंयुताः। स्वदुःखमिव संस्मृत्य परदुःखविवर्जिताः। सौम्यशीलाः शुभाचारा देवब्राह्मणपूजकाः।। | 13-219-25a 13-219-25b 13-219-25c |
एवंशीलसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। दिवि वा भुवि वा देवि जायन्ते कर्मभोगिनः।। | 13-219-26a 13-219-26b |
मानुषेष्वपि ये जातास्तादृशाः सम्भवन्ति ते। यादृशास्तु तथा प्रोक्ताः सर्वे कल्याणसंयुताः।। | 13-219-27a 13-219-27b |
रूपं द्रव्यं बलं चायुर्भोगैश्वर्यं बलं श्रुतम्। इत्येतत्सर्वसाद्गुण्यं दानाद्भवति नान्यथा। तपोदानमयं सर्वमिति विद्धि शुभानने।। | 13-219-28a 13-219-28b 13-219-28c |
उमोवाच। | 13-219-29x |
अथ केचित्प्रदृश्यन्ते मानुषेष्वेव मानुषाः। दुर्गताः क्लेशभूयिष्ठा दानभोगविवर्जिताः।। | 13-219-29a 13-219-29b |
भयैस्त्रिभिः समाजुष्टा व्याधिक्षुद्भयसंयुताः। दुष्कलत्राभिभूताश्च सततं विघ्नदर्शकाः। केन कर्मविपाकेन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-219-30a 13-219-30b 13-219-30c |
महेश्वर उवाच। | 13-219-31x |
ये पुरा मनुजा देवि आसुरं भावमाश्रिताः। क्रोधलोभसमायुक्ता निरन्नाद्याश्च निष्क्रियाः।। | 13-219-31a 13-219-31b |
नास्तिकाश्चैव धूर्ताश्च मूर्खाश्चात्मपरायणाः। परोपतापिनो देवि प्रायशः प्राणिनिर्दयाः।। | 13-219-32a 13-219-32b |
एवंयुक्तसमाचाराः पुनर्जन्मनि शोभने। कथंचित्प्राप्य मानुष्यं तत्र ते दुःखपीडिताः।। | 13-219-33a 13-219-33b |
सर्वतः सम्भवन्त्येव पूर्वमात्मप्रमादतः। यथा ते पूर्वकथितास्तथा ते सम्भवन्त्युत।। | 13-219-34a 13-219-34b |
शुभाशुभं कृतं कर्म सुखदुःखफलोदयम्। इति ते कथितं देवि भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-219-35a 13-219-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 219 ।। |
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