महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-209
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ईश्वरेण पार्वतींप्रति ऋषिधर्मकथनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-209-1x |
भगवन्देवदेवेश त्रिपुरान्तक शङ्कर। अयं त्वृषिगणो देव तपस्तप इति प्रभो।। | 13-209-1a 13-209-1b |
तपसा कर्शितो नित्यं तपोऽर्जनपरायणः। अस्य किंलक्षणो धर्मः कीदृशश्चागमस्तथा। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तन्मे वद वरप्रद।। | 13-209-2a 13-209-2b 13-209-2c |
नारद उवाच। | 13-209-3x |
एवं ब्रुवन्त्यां रुद्राण्यामृषयः साधुसाध्विति। अब्रुवन्हृष्टमनसः सर्वे तद्गतमानसाः।। | 13-209-3a 13-209-3b |
शृण्वन्तीमृषिधर्मांस्तु ऋषयश्चाभ्यपूजयन्।। | 13-209-4a |
ऋषय ऊचुः। | 13-209-5x |
त्वत्प्रसादद्वयं देवि श्रोष्यामः परमं हितम्। धन्याः खलु वयं सर्वे पादमूलं तवाश्रिताः। इति सर्वे तदा देवीं वाचा समभिपूजयन्।। | 13-209-5a 13-209-5b 13-209-5c |
महेश्वर उवाच। | 13-209-6x |
न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामा मनस्विनि। हन्त ते कथयिष्यामि मुनिधर्मं शुचिस्मिते।। | 13-209-6a 13-209-6b |
वानप्रस्थं समाश्रित्य क्रियते बहुधा नरैः। बहुशाखो बहुविधो ऋषिधर्मः सनातनः।। | 13-209-7a 13-209-7b |
प्रायशः सर्वभोगार्थमृषिभिः क्रियते तपः। तथा सञ्चरतां तेषां देवि धर्मविधिं शृणु।। | 13-209-8a 13-209-8b |
भूत्वा पूर्वं गृहस्थस्तु पुत्रानृण्यमवाप्य च। कलत्रकार्यं संस्थाप्य कारणात्संत्यजेद्गृहम्।। | 13-209-9a 13-209-9b |
अवस्थाप्य मनो धृत्या व्यवसायपुरःसरः। निर्दारो वा सदारो वा वनवासाय संव्रजेत्।। | 13-209-10a 13-209-10b |
देशाः परमपुण्या ये नदीवनसमन्विताः। अबोधमुक्ताः प्रायेण तीर्थायतनसंयुताः।। | 13-209-11a 13-209-11b |
तत्र गत्वा विधिं ज्ञात्वा दीक्षां कुर्याद्यथागमम्। दीक्षित्वैकमना भूत्वा परिचर्यां समाचरेत्।। | 13-209-12a 13-209-12b |
काल्योत्थानं च शौचं च सर्वदेवप्रणामनम्। सकृदालेपनं काये त्यक्तदोषोऽप्रमादिता।। | 13-209-13a 13-209-13b |
सायंप्रातश्चाभिषेकं चाग्निहोत्रं यथाविधि। काले शौचं च कार्यं च जटावल्कलधारणम्।। | 13-209-14a 13-209-14b |
सततं वनचर्या च समित्कुसुमकारणात्। नीवाराग्रयणं काले शाकमूलोपचायनम्।। | 13-209-15a 13-209-15b |
सदायतनशौचं च तस्य धर्माय चेष्यते। अतिथीनामाभिमुख्यं तत्परत्वं च सर्वदा।। | 13-209-16a 13-209-16b |
पाद्यासनाभ्यां सम्पूज्य तथाऽऽहारनिमन्त्रणम्। अग्राम्यपचनं काले पितृदेवार्चनं तथा।। | 13-209-17a 13-209-17b |
पश्चादतिथिसत्कारस्तस्य धर्मः सनातनः। शिष्टैर्धर्मासने चैव धर्मार्थसहिताः कथाः।। | 13-209-18a 13-209-18b |
प्रतिश्रयविभागश्च भूमिशय्या शिलासु वा। व्रतोपवासयोगश्च क्षमा चेन्द्रियनिग्रहः।। | 13-209-19a 13-209-19b |
दिवारात्रं यथायोगं शौचं धर्मस्य चिन्तनम्। एवं धर्माः पुरा दृष्टाः सामान्या वनवासिनाम्।। | 13-209-20a 13-209-20b |
एवं वै यतमानस्य कालधर्मो यथा भवेत्। तथैव सोऽभिजयति स्वर्गलोकं शुचिस्मिते।। | 13-209-21a 13-209-21b |
तत्र संविदिता भोगाः स्वर्गस्त्रीभिरनिन्दिते। परिभ्रष्टो यथा स्वर्गाद्विशिष्टस्तु भवेन्नृषु।। | 13-209-22a 13-209-22b |
एवं धर्मस्तथा देवि सर्वेषां वनवासिनाम्। एतत्ते कथितं सर्वं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-209-23a 13-209-23b |
उमोवाच। | 13-209-24x |
भगवन्देवदेवेश ऋषीणां चरितं शुभम्। विशेषधर्मानिच्छामि श्रोतुं कौतूहलं हि मे।। | 13-209-24a 13-209-24b |
महेश्वर उवाच। | 13-209-25x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु देवि समाहिता।। | 13-209-25a |
वननित्यैर्वनरतैर्वानप्रस्थैर्महर्षिभिः। वनं गुरुमिवालम्ब्य वस्तुव्यमिति निश्चयः।। | 13-209-26a 13-209-26b |
वीरशय्यामुपासद्भिर्वारस्थानोपसेविभिः। व्रतोपवासैर्बहुलैर्ग्रीष्मे पञ्चतपैस्तथा।। | 13-209-27a 13-209-27b |
पञ्चयज्ञपरैर्नित्यं पौर्णमास्यापरायणैः। मण्डूकशायैर्हेमन्ते शैवालाङ्कुरभोजनैः।। | 13-209-28a 13-209-28b |
चीरवल्कलसंवीतैर्मृगाजिनधरैस्तथा। चातुर्मास्यपरैः कैश्चिद्देवधर्मपरायणैः।। | 13-209-29a 13-209-29b |
एवंविधैर्वनेवासैस्तप्यते सुमहत्तपः। एवं कृत्वा शुभं कर्म पश्चाद्याति त्रिविष्टपम्।। | 13-209-30a 13-209-30b |
तत्रापि सुमहत्कालं संविहृत्यि यथासुखम्। जायते मानुषे लोके दानभोगसमन्वितः।। | 13-209-31a 13-209-31b |
तपोविशेषसंयुक्ताः कथितास्ते शुचिस्मिते।। | 13-209-32a |
उमोवाच। | 13-209-33x |
भगवन्देवदेवेश तेषु ये दारसंयुताः। कीदृशं चरितं तेषां तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-209-33a 13-209-33b |
महेश्व उवाच। | 13-209-34x |
य एकपत्नीधर्माणश्चरन्ति विपुलं तपः। विंध्यपादेषु ये केचिद्ये च नैमिशवासिनः।। | 13-209-34a 13-209-34b |
पुष्करेषु च ये चान्ये नदीवनसमाश्रिताः। सर्वे ते विधिदृष्टेन चरन्ति विपुलं तपः।। | 13-209-35a 13-209-35b |
हिंसाद्रोहविमुक्ताश्च सर्वभूतानुकम्पिनः। शान्ता दान्ता जितक्रोधाः सर्वातिथ्यपरायणाः।। | 13-209-36a 13-209-36b |
प्राणिष्वात्मोपमा नित्यमृतुकालाभिगामिनः। स्वदारसहिता देवि चरन्ति व्रतमुत्तमम्।। | 13-209-37a 13-209-37b |
वसन्ति सुखमव्यग्राः पुत्रदारसमन्विताः। तेषां परिच्छदारम्भाः कृतोपकरणानि च।। | 13-209-38a 13-209-38b |
गृहस्थवद्द्वितीयं ते यथायोगं प्रमाणतः। पोषणार्थं स्वदाराणामग्निकार्यार्थमेव च। गावश्च कर्षणं चैव सर्वमेतद्विधीयते। | 13-209-39a 13-209-39b 13-209-39c |
एवं वनगतैर्देवि कर्तव्यं दारसङ्ग्रहैः। ते स्वदारैः समायान्ति पुण्याँल्लोकान्द्दढव्रताः।। | 13-209-40a 13-209-40b |
पतिभिः सह ये दाराश्चरन्ति विपुलं तपः। अव्यग्रभावादैकात्म्यात्ताश्च गच्छन्ति वै दिवम्। एतत्ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-209-41a 13-209-41b 13-209-41c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि नवाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 209 ।। |
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