महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-086
पठन सेटिंग्स
← अनुशासनपर्व-085 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-086 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-087 → |
दाशैश्च्यवनवृत्तान्तं निवेदितेन नहुषेण तंप्रति तदभीष्टकरणप्रतिज्ञानम्।। 1 ।। च्यवनेन नहुषंप्रति दाशेभ्यः स्वोचितमूल्यदानेनात्ममोचनचोदना।। 2 ।। नहुषेण संपूर्णराज्यस्य मूल्यतापरिकल्पनेपि मुनिता तदनङ्गीकरणे गवि जातेन मुनिना गोः प्रतिनिधीकरणम्।। 3 ।। च्यवनेन गोप्रतिग्रहणेन स्वसहवासिभिर्मत्स्यैः सह दाशानां स्वर्गप्रापणम्।। 4 ।।
भीष्म उवाच। | 13-86-1x |
नहुषस्तु ततः श्रुत्वा च्यवनं तं तथाऽऽगतम्। त्वरितः प्रययौ तत्रि सहामात्यपुरोहितः।। | 13-86-1a 13-86-1b |
शौचं कृत्वा यथान्यायं प्राञ्जलिः प्रयतो नृपः। आत्मानमाचचक्षे च च्यवनाय महात्मने।। | 13-86-2a 13-86-2b |
अर्चयामास तं चापि तस्य राज्ञः पुरोहितः। सत्यव्रतं महात्मानं देवकल्पं विशाम्पते।। | 13-86-3a 13-86-3b |
नहुष उवाच। | 13-86-4x |
करवाणि प्रियं किं ते तन्मे ब्रूहि द्विजोत्तम। सर्वं कर्ताऽस्मि भगवन्यद्यपि स्यात्सुदुष्करम्।। | 13-86-4a 13-86-4b |
च्यवन उवाच। | 13-86-5x |
श्रमेणि महता युक्ताः कैवर्ता मत्स्यजीविनः। मम मूल्यं प्रयच्छैभ्यो मत्स्यानां विक्रयैः सह।। | 13-86-5a 13-86-5b |
नहुष उवाच। | 13-86-6x |
सहस्रं दीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहित। निष्क्रयार्थे भगवतो यथाऽऽह भृगुनन्दनः।। | 13-86-6a 13-86-6b |
च्यवन उवाच। | 13-86-7x |
आत्ममूल्यं च वक्तव्यं न तल्लोकः प्रशंसति। तस्मादहं प्रवक्ष्यामि न चात्मस्तुतिम्मवृतः।। | 13-86-7a 13-86-7b |
सहस्रं नाहमर्हामि किं वा त्वं मन्यसे नृप। सदृशं दीयतां मूल्यं स्वबुद्ध्या निश्चयं कुरु।। | 13-86-8a 13-86-8b |
नहुष उवाच। | 13-86-9x |
सहस्राणां शतं विप्र निषोदेभ्यः प्रदीयताम्। स्यादिदं भगवन्मूल्यं किं वाऽन्यन्मन्यते भवान्।। | 13-86-9a 13-86-9b |
च्यवन उवाच। | 13-86-10x |
नाहं शतसहस्रेण निमेयः पार्थिवर्षभ। दीयतां सदृशं मूल्यममात्यैः सह चिन्तय।। | 13-86-10a 13-86-10b |
नहुष उवाच। | 13-86-11x |
कोटिः प्रदीयतां मूल्यं निषादेभ्यः पुरोहित। यदेतदपि नो मूल्यमतो भूयः प्रदीयताम्।। | 13-86-11a 13-86-11b |
च्यवन उवाच। | 13-86-12x |
राजन्नार्हाम्यहं कोटिं भूयो वाऽपि महाद्युते। सदृशं दीयतां मूल्यं ब्राह्मणैः सह चिन्तय।। | 13-86-12a 13-86-12b |
नहुष उवाच। | 13-86-13x |
अर्दं राज्यं समग्रं वा निषादेभ्यः प्रदीयताम्। एतत्तुल्यमहं मन्ये किं वाऽन्यन्मन्यसे द्विज।। | 13-86-13a 13-86-13b |
च्यवन उवाच। | 13-86-14x |
अर्धं राज्यं समग्रं च मूल्यं नार्हामि पार्थिव। सदृशं दीयतां मूल्यमृषिभिः सह चिन्त्यताम्।। | 13-86-14a 13-86-14b |
भीष्म उवाच। | 13-86-15x |
महर्षेर्वचनं श्रुत्वा नहुषो दुःखकर्शितः। स चिन्तयामास तदा सहामात्यपुरोहितः।। | 13-86-15a 13-86-15b |
तत्र त्वन्यो वनचरः कश्चिन्मूलफलाशनः। नहुषस्य समीपस्थो गविजातोऽभवन्मुनिः।। | 13-86-16a 13-86-16b |
स तमाभाष्य राजानमब्रवीद्द्विजसत्तमः। तोषयिष्याम्यहं क्षिप्तं यथा तुष्टो भविष्यति।। | 13-86-17a 13-86-17b |
नाहं मिथ्यावचो ब्रूयां खैरेष्वपि कुतोऽन्यथा। भवतो यदहं ब्रयां तत्कार्यमविशङ्कया।। | 13-86-18a 13-86-18b |
नहुष उवाच। | 13-86-19x |
व्रवीतु भगवान्मूल्यं महर्षेः सदृशं भृगोः। परित्रायस्व मामस्मद्विषयं च कुलं च मे।। | 13-86-19a 13-86-19b |
हन्याद्धि भगवान्क्रुद्धस्त्रैलोक्यमपि केवलम्। किं पुनर्मां तपोहीनं बाहुवीर्यपरायणम्। | 13-86-20a 13-86-20b |
अगाधाम्भसि मग्नस्य सामात्यस्य सऋत्विजः। प्लवो भव महर्षे त्वं कुरु मूल्यविनिश्चयम्।। | 13-86-21a 13-86-21b |
भीष्म उवाच। | 13-86-22x |
नहुषस्य वचः श्रुत्वा गविजातः प्रतापवान्। उवाच हर्षयन्सर्वानमात्यान्पार्थिवं च तम्।। | 13-86-22a 13-86-22b |
`ब्राह्मणानां गवां चैव कुलमेकं द्विधा कृतम्। एकत्र मन्त्रास्तिष्ठन्ति हविरन्यत्र तिष्ठति।।' | 13-86-23a 13-86-23b |
अनर्घेया महाराज द्विजा वर्णेषु चोत्तमाः। गावश्च पुरुषव्याग्र गौर्मूल्यं परिकल्प्यताम्।। | 13-86-24a 13-86-24b |
नहुषस्तु ततः श्रुत्वा महर्षेर्वचनं नृप। हर्षेण महता युक्तः सहामात्यपुरोहितः।। | 13-86-25a 13-86-25b |
अभिगम्य भृगोः पुत्रं च्यवनं संशितव्रतम्। इदं प्रोवाच नृपते वाचा सन्तर्पयन्निव।। | 13-86-26a 13-86-26b |
उत्तिष्ठोत्तिष्ठ विप्रर्षे गवा क्रीतोसि भार्गव। एतन्मूल्यमहं मन्ये तव धर्मभृतांवर।। | 13-86-27a 13-86-27b |
च्यवन उवाच। | 13-86-28x |
उत्तिष्ठाम्येष राजेन्द्र सम्यक् क्रीतोस्मि तेऽनघ। गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किञ्चिदिहाच्युत।। | 13-86-28a 13-86-28b |
कीर्तनं श्रवणं दानं दर्शनं चापि पार्थिव। गवां प्रशस्यते वीर सर्वपापहरं शिवम्।। | 13-86-29a 13-86-29b |
गावो लक्ष्म्याः सदा मूलं गोषु पाप्मा न विद्यते। अन्नमेव सदा गावो देवानां परमं हविः।। | 13-86-30a 13-86-30b |
स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ। गावो यज्ञस्य नेत्र्यो वै तथा यज्ञस्य ता मुखम्।। | 13-86-31a 13-86-31b |
अमृतं ह्यव्ययं दिव्यं क्षरन्ति च वहन्ति च। अमृतायतनं चैताः सर्वलोकनमस्कृताः।। | 13-86-32a 13-86-32b |
तेजसा वपुषा चैव गावो वह्निसमा भुवि। गावो हि सुमहत्तेजः प्राणिनां च सुखप्रदाः।। | 13-86-33a 13-86-33b |
निविष्टं गोकुलं यत्र श्वासं मुञ्चति निर्भयम्। विराजयति तं देशं पापं चास्यापकर्षति।। | 13-86-34a 13-86-34b |
गावः स्वर्गस्य सोपानं गावः स्वर्गेऽपि पूजिताः। गावः कामदुहोदेव्यो नान्यत्किञ्चित्परं स्मृतम्।। | 13-86-35a 13-86-35b |
इत्येतद्गोषु मे प्रोक्तं महात्म्यं भरतर्षभ। गुणैकदेशवचनं शक्यं पारायणं न तु।। | 13-86-36a 13-86-36b |
निषादा ऊचुः। | 13-86-37x |
दर्शनं कथनं चैव सहास्माभिः कृतं मुने। सतां साप्तपदं मैत्रं प्रसादं न कुरु प्रभो।। | 13-86-37a 13-86-37b |
हवींषि सर्वाणि यथा ह्युपभुङ्क्ते हुताशनः। एवं त्वमपि धर्मात्मन्पुरुषाग्निः प्रतापवान्।। | 13-86-38a 13-86-38b |
प्रसादयामहे विद्वन्भवन्तं प्रणता वयम्। अनुग्रहार्थमस्माकमियं गौः प्रतिगृह्यताम्।। | 13-86-39a 13-86-39b |
`अत्यन्तापदि शक्तानां परित्राणं हि कुर्वताम्। या गतिर्विदिता त्वद्य नरके शरणं भवान्।। | 13-86-40a 13-86-40b |
च्यवन उवाच। | 13-86-40x |
कृपणस्य च यच्चक्षुर्मुनेराशीविषस्य च। नरं समूलं दहति कक्षमग्निरिव ज्वलन्।। | 13-86-41a 13-86-41b |
प्रतिगृह्णामि वो धेनुं कैवर्ता मुक्तकिल्बिषाः। दिवं गच्छत वै क्षिप्रं मत्स्यैर्जालोद्धृतैः सह।। | 13-86-42a 13-86-42b |
भीष्म उवाच। | 13-86-43x |
ततस्तस्य प्रभावात्ते महर्षेर्भावितात्मनः। निषादास्तेन वाक्येन सह मत्स्यैर्दिवं ययुः।। | 13-86-43a 13-86-43b |
ततः स राजा नहुषो विस्मितः प्रेक्ष्य धीवरान्। आरोहमाणांस्त्रिदिवं मत्स्यांश्च भरतर्षभ।। | 13-86-44a 13-86-44b |
ततस्तौ गविजश्चैव च्यवनश्च भृगूद्वहः। वराभ्यामनुरूपाभ्यां छन्दयामासतुर्नृपम्।। | 13-86-45a 13-86-45b |
ततो राजा महावीर्यो नहुषः पृथिवीपतिः। परमित्यब्रवीत्प्रीतस्तदा भरतसत्तम।। | 13-86-46a 13-86-46b |
ततो जग्राह धर्मे स स्थितिमिन्द्रनिभो नृपः। तथेति चोदितः प्रीतस्तावृषी प्रत्यपूजयत्।। | 13-86-47a 13-86-47b |
समाप्तदीक्षश्च्यवनस्ततोऽगच्छत्स्वमाश्रमम्। गविजश्च महातेजाः स्वमाश्रमपदं ययौ।। | 13-86-48a 13-86-48b |
निषादाश्च दिवं जग्मुस्ते च मत्स्या जनाधिप। नहुषोपि वरं लब्ध्वा प्रविवेश स्वकं पुरम्।। | 13-86-49a 13-86-49b |
एतत्ते कथितं तात यन्मां त्वं परिपृच्छसि। दर्शने यादृशः स्नेहः संवासे वा युधिष्ठिर।। | 13-86-50a 13-86-50b |
महाभाग्यं गवां चैव तता धर्मविनिश्चयम्। किं भूयः कथ्यतां वीर किं ते हृदि विवक्षितम्।। | 13-86-51a 13-86-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षडशीतितमोऽध्यायः।। 86 ।। |
अनुशासनपर्व-085 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-087 |