महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-102
दिखावट
← अनुशासनपर्व-101 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-102 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-103 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति जलप्रभाववर्णनपूर्वकं तद्दानप्रशंसनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-102-1x |
श्रुतं दानफलं तात यत्त्वया परिकीर्तितम्। अन्नदानं विशेषेण प्रशस्तमिह भारत।। | 13-102-1a 13-102-1b |
पानीयदानमेवैतत्कथं चेह महाफलम्। इत्येतच्छ्रोतुमिच्छामि विस्तरेण पितामह।। | 13-102-2a 13-102-2b |
भीष्म उवाच। | 13-102-3x |
हन्त ते वर्तयिष्यामि यथावद्भरतर्षभ। गदतस्तन्ममाद्येह शृणु सत्यपराक्रम। पानीयदानात्प्रभृति सर्वं वक्ष्यामि तेऽनघ।। | 13-102-3a 13-102-3b 13-102-3c |
यदन्नं यच्च पानीयं सम्प्रदायाश्नुते फलम्। न ताभ्यां परमं दानं किञ्चिदस्तीति मे मनः।। | 13-102-4a 13-102-4b |
अन्नात्प्राणभृतस्तात प्रवर्तन्ते हि सर्वशः। तस्मादन्नं परं लोके सर्वदानेषु कथ्यते।। | 13-102-5a 13-102-5b |
अन्नाद्बलं च तेजश्च प्राणिनां वर्धते सदा। अन्नादानमतस्तस्माच्छ्रेष्ठमाह प्रजापतिः।। | 13-102-6a 13-102-6b |
सावित्र्या ह्यपि कौन्तेय श्रूयते वचनं शुभम्। यच्चेदं नान्यथा चैतद्देव सत्रे महामखे।। | 13-102-7a 13-102-7b |
अन्ने दत्ते नरेणेह प्राणा दत्ता भवन्त्युत। प्राणदानाद्धि परमं न दानमिह विद्यते।। | 13-102-8a 13-102-8b |
श्रुतं हि ते महाबाहो लोमशस्यापि तद्वचः। प्राणान्दत्त्वा कपोताय यत्प्राप्तं शिबिना पुरा।। | 13-102-9a 13-102-9b |
यां गतिं लभते दत्त्वा द्विजस्यान्न विशाम्पते। ततो विशिष्टां गच्छन्ति प्राणदा इति नः श्रुतं।। | 13-102-10a 13-102-10b |
अन्नं चापि प्रभवति पानीयात्कुरुसत्तम। नीरजातेन हि विना न किञ्चित्सम्प्रवर्तते।। | 13-102-11a 13-102-11b |
नीरजातश्च भगवान्सोमो ग्रहगणेश्वरः। अमृतं च सुधा चैव सुधा चैवामृतं तथा।। | 13-102-12a 13-102-12b |
अन्नौषध्यो महाराज वीरुधश्च जलोद्भवाः। यतः प्राणभृतां प्राणाः सम्भवन्ति विशाम्पते।। | 13-102-13a 13-102-13b |
देवानाममृतं ह्यन्नं नागानां च सुधा तथा। पितॄणां च स्वधा प्रोक्ता पशूनां चापि वीरुधः।। | 13-102-14a 13-102-14b |
अन्नमेव मनुष्याणां प्राणानाहुर्मनीषिणः। तच्च सर्वं नरव्याघ्र पानीयात्सम्प्रवर्तते।। | 13-102-15a 13-102-15b |
तस्मात्पानीयदानाद्वै न परं विद्यते क्वचित्। तच्च दद्यान्नरो नित्यं यदीच्छेद्भूतिमात्मनः।। | 13-102-16a 13-102-16b |
धन्यं यशस्यमायुष्यं जलदानमिहोच्यते। शत्रूंश्चाप्यधि कौन्तेय सदा तिष्ठति तोयदः।। | 13-102-17a 13-102-17b |
सर्वकामानवाप्नोति कीर्तिं चैव हि शाश्वतीम्। प्रेत्य चानन्त्यमश्नाति पापेभ्यश्च प्रमुच्यते।। | 13-102-18a 13-102-18b |
तोयदो मनुजव्याघ्र स्वर्गं गत्वा महाद्युते। अक्षयान्समवाप्नोति लोकानित्यब्रवीन्मनुः।। | 13-102-19a 13-102-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्व्यधिकशततमोऽध्यायः।। 102 ।। |
13-102-11 नीरजातेन जलोद्भवेन धान्यादिना।। 13-102-12 स्वधा चैव सुरा तथेति ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-101 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-103 |