महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-270
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति धर्मप्रशंसनम्।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-270-1x |
कार्यते यच्च क्रियते सच्चासच्च कृताकृतम्। तत्राश्वसीत सत्कृत्वा असत्कृत्वा न विश्वसेत्।। | 13-270-1a 13-270-1b |
काल एवान्तराशक्तिर्निग्रहानुग्रहौ ददत्। बुद्धिमाविश्य भूतानां धर्माधर्मौ प्रवर्तते।। | 13-270-2a 13-270-2b |
यदा त्वस्य भवेद्बुद्धिर्धर्मार्थस्य प्रदर्शनात्। तदाश्वसीत धर्मात्मा दृढबुद्धिर्न विश्वसेत्।। | 13-270-3a 13-270-3b |
एतावन्मात्रमेतद्धि भूतानां प्राज्ञलक्षणम्। कालयुक्तोऽप्युभयविच्छेषं युक्तं समाचरेत्।। | 13-270-4a 13-270-4b |
यथा ह्युपस्थितैश्वर्याः पूजयन्ति नरा जनान्। एवमेवात्मनाऽऽत्मानं पूजयन्तीह धार्मिकाः।। | 13-270-5a 13-270-5b |
`भावशुद्धिस्तु तपसा देवतानां च मूजया। सनातनेन शुद्ध्या च श्रुतदानजपैरपि। न ह्यशुद्धस्तु तां दद्याद्धर्मकाले कथञ्चन।।' | 13-270-6a 13-270-6b 13-270-6c |
न ह्यधर्मतया धर्मं दद्यात्कालः कथञ्चन। तस्माद्विशुद्धमात्मानं जानीयाद्धर्मचारिणम्।। | 13-270-7a 13-270-7b |
स्प्रष्टुमप्यसमर्थो हि ज्वलन्तमिव पावकम्। अधर्मः सन्ततो धर्मं कालेन परिरक्षितम्।। | 13-270-8a 13-270-8b |
कार्यावेतौ हि धर्मोणि धर्मो हि विजयावहः। त्रयाणामपि लोकानामालोकः कारणं भवेत्।। | 13-270-9a 13-270-9b |
न तु कश्चिन्नयेत्प्राज्ञो गृहीत्वैव करे नरम्। ऊह्यमानस्तु धर्मेण प्राप्नुयात्परमच्युतम्। विश्वास एव कर्तव्यो बहुधर्मे शुभच्छले।। | 13-270-10a 13-270-10b 13-270-10c |
शूद्रोऽहं नाधिकारो मे चातुराश्रम्यसेवने। इति विज्ञानमपरे नात्मन्युपदधत्युत।। | 13-270-11a 13-270-11b |
विशेषेण च वक्ष्यामि चातुर्वर्ण्यस्य लिङ्गतः। पञ्चभूतशरीराणां सर्वेषां सदृशात्मनाम्।। | 13-270-12a 13-270-12b |
लोकधर्मे च धर्मे च विशेषकरणं कृतम्। यथैकत्वं पुनर्यान्ति प्राणिनस्तत्र विस्तरः।। | 13-270-13a 13-270-13b |
अध्रुवो हि कथं लोकः स्मृतो धर्मः कथं ध्रुवः। यत्र कालो ध्रुवस्तात तत्र धर्मः सनातनः।। | 13-270-14a 13-270-14b |
सर्वेषां तुल्यदेहानां सर्वेषां सदृशात्मनाम्। कालो धर्मेण संयुक्तः शेष एव स्वयं गुरुः।। | 13-270-15a 13-270-15b |
एवं सति न दोषोऽस्ति भूतानां धर्मसेवने। तिर्यग्योनावपि सतां लोक एव मतो गुरुः।। | 13-270-16a 13-270-16b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 270 ।। |
13-270-2 प्रवर्तते प्रवर्तयति।। 13-270-3 धर्मार्थस्य धर्मफलस्य प्रदर्शनात्। यदा धर्म एव श्रेयस्कर इति बुद्धिर्भवेत्तदायं धर्मात्मा धर्मचित्तः धर्मे आश्वसीत विश्वासं कुर्वीत। अदृढबुद्धिस्तु न विश्वसेत् धर्मफले।। 13-270-4 एतावद्धर्मे विश्वासवत्त्वम्। उभयवित्कर्तव्याकर्तव्यवित्।। 13-270-7 धर्मः कदाप्यधर्मो न भवेदित्याह नहीति। अधर्मतया दुःखहेतुतया।। 13-270-8 अधर्मसन्ततौ धर्मं कुरुते परकारणात् इति क.पाठः।। 13-270-9 एतौ विशुद्धताऽधर्मास्पर्शौ।। 13-270-11 उच्यमानस्तु धर्मेण धर्मलोकभयच्छले इति झ.पाठः।। 13-270-14 विशेषेणेति युग्मम्। सर्वेषां प्राणिनां पाञ्चभौतिकत्वे प्रत्यक्षेपि विशेषकरणमिदं पवित्रमिदमपवित्रमिति व्यवस्थापनं लोकधर्मे शास्त्रीयधर्मे च निमित्ते सति कृतम्।। 13-270-15 अत्र शङ्कते अध्रुव इति। लोकस्य धर्मस्य च कार्यकारणबावात्कार्यस्याध्रुवत्वं कारणस्य ध्रुवत्वं च न युक्तं तन्तुनाशमन्तरेण पटनाशायोगादित्यर्थः। उत्तरमाह। कालः सङ्कल्पः। निष्कामधर्म एव ध्रुवस्तत्फलं नतु सकामि इत्यर्थः।। 13-270-16 स्वयं गुरुरिति। धर्मबलात्स्वयमेव च स उदेति शिक्षयेदित्यर्तः।। 13-270-17 यदि भूतानां प्राक्कर्मैव तत्रतत्र सुखदुःखसाधने प्रवर्तकमतो धर्मसेवने कर्मफलभोगे असमञ्जसेपि भूतानां दोषो नास्ति। यतः तिर्यग्योनावपि सतां विद्यमानानां भूतानां सदस्रत्प्रवृत्तौ पूर्वकर्मानुसाराल्लोक एव गुरुर्दृष्टः।।
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