महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-073
दिखावट
← अनुशासनपर्व-072 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-073 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-074 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति स्त्रीस्वभावप्रतिपादकनारदपञ्चचूडासंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-73-1x |
स्त्रीणां स्वभावमिच्छामि श्रोतुं भरतसत्तम। स्त्रियो हि मूलं दोषाणां लघुचित्ता हि ताः स्मृताः? | 13-73-1a 13-73-1b |
भीष्म उवाच। | 13-73-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। नारदस्य च संवादं पुंश्चल्या पञ्चचूडाया।। | 13-73-2a 13-73-2b |
लोकाननुचरन्सर्वान्देवर्षिर्नारदः पुरा। ददर्शाप्सरसं ब्राह्मीं पञ्चचूडामनिन्दिताम्।। | 13-73-3a 13-73-3b |
तां दृष्ट्वा चारुसर्वाङ्गीं पप्रच्चाप्सरसं मुनिः। संशयो हृदि कश्चिन्मे ब्रूहि तन्मे सुमध्यमे।। | 13-73-4a 13-73-4b |
एवमुक्ताऽथ सा विप्रं प्रत्युवाचाथ नारदम्। विषये सति वक्ष्यामि समर्थां मन्यसे च माम्।। | 13-73-5a 13-73-5b |
नारद उवाच। | 13-73-6x |
न त्वामविषये भद्रे नियोक्ष्यामि कथञ्चन। स्त्रीणां स्वभावमिच्छामि त्वत्तः श्रोतुं वरानने।। | 13-73-6a 13-73-6b |
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य देवर्षेरप्सरोत्तमा। प्रत्युवाच न शक्ष्यामि स्त्री सती निन्दितुं स्त्रियः।। | 13-73-7a 13-73-7b |
विदितास्ते स्त्रियो याश्च यादृशाश्च स्वभावतः। न मामर्हसि देवर्षे नियोक्तुं कार्य ईदृशे।। | 13-73-8a 13-73-8b |
तामुवाच स देवर्षिः सत्यं वद सुमध्यमे। मृषावादे भवेद्दोषः सत्ये दोषो न विद्यते।। | 13-73-9a 13-73-9b |
इत्युक्ता सा कृतमतिरभवच्चारुहासिनी। स्त्रीदोषाञ्शाश्वतान्सत्यान्भाषितुं सम्प्रचक्रमे।। | 13-73-10a 13-73-10b |
कुलीना रूपवत्यश्च नाथवत्यश्च योषितः। मर्यादासु न तिष्ठन्ति स दोषः स्त्रीषु नारद | 13-73-11a 13-73-11b |
न स्त्रीभ्यः किञ्चिदन्यद्वै पापीयस्तरमस्ति वै। स्त्रियो हि मूलं दोषाणां तथा त्वमपि वेत्थ ह।। | 13-73-12a 13-73-12b |
समाज्ञातानृद्धिमतः प्रतिरूपान्वशे स्थितान्। पतीनन्तरमासाद्य नालं नार्यः परीक्षितुम्।। | 13-73-13a 13-73-13b |
असद्धर्मस्त्वयं स्त्रीणामस्माकं भवति प्रभो। पापीयसो नरान्यद्वै लज्जां त्यक्त्वा भजामहे।। | 13-73-14a 13-73-14b |
स्त्रियं हि यः प्रार्थयते सन्निकर्षं च गच्छति। ईषच्च कुरुते सेवां तमेवेच्छन्ति योषितः।। | 13-73-15a 13-73-15b |
अनर्थित्वान्मनुष्याणां भयात्परिजनस्य च। मर्यादायाममर्यादाः स्त्रियस्तिष्ठन्ति भर्तृषु।। | 13-73-16a 13-73-16b |
नासां कश्चिदगम्योस्ति नासां वयसि निश्चयः।। विरूपं रूपवन्तं वा पुमानित्येव भुञ्जते।। | 13-73-17a 13-73-17b |
न भयान्नाप्यनुक्रोशान्नार्थहेतोः कथञ्चन। न ज्ञातिकुलसम्बन्धात्स्त्रियस्तिष्ठन्ति भर्तृषु।। | 13-73-18a 13-73-18b |
यौवने वर्तमानानां मृष्टाभरणवाससाम्। नारीणां खैरवृत्तीनां स्पृहयन्ति कुलस्त्रियः।। | 13-73-19a 13-73-19b |
याश्च शश्वद्बहुमता रक्ष्यन्ते दयिताः स्त्रियः। अपि ताः सम्प्रसज्जन्ते कुब्जान्धजडवामनैः।। | 13-73-20a 13-73-20b |
पङ्गुष्वथ च देवर्षे ये चान्ये कुत्सिता नराः। स्त्रीणामगम्यो लोकेऽस्मिन्नास्ति कश्चिन्महामुने।। | 13-73-21a 13-73-21b |
यदि पुंसां गतिर्ब्रह्मन्कथंचिन्नोपपद्यते। अप्यन्योन्यं प्रवर्तन्ते न हि तिष्ठन्ति भर्तृषु।। | 13-73-22a 13-73-22b |
`दुष्टाचाराः पापरता असत्या मायया वृताः। अदृष्टबुद्धिबहुलाः प्रायेणेत्यवगम्यताम्।। | 13-73-23a 13-73-23b |
अलाभात्पुरुषाणां हि भयात्परिजनस्य च। वधबन्धभयाच्चापि स्वयं गुप्ता भवन्ति ताः।। | 13-73-24a 13-73-24b |
चलस्वभावा दुःसेव्या दुर्ग्राह्या भावतस्तथा। प्राज्ञस्य पुरुषस्येह यथाभावास्तथा स्त्रियः।। | 13-73-25a 13-73-25b |
नाग्निस्तृप्यति काष्ठानां नापगानां महोदधिः। नान्तकः सर्वभूतानां न पुंसां वामलोचनाः।। | 13-73-26a 13-73-26b |
इदमन्यच्च देवर्षे रहस्यं सर्वयोषिताम्। दृष्ट्वैव पुरुषं ह्यन्यं योनिः प्रक्लिद्यते स्त्रियाः।। | 13-73-27a 13-73-27b |
कामानामपि दातारं कर्तारं मानसान्त्वयोः। रक्षितारं न मृष्यन्ति स्वभर्तारमसत्स्त्रियः।। | 13-73-28a 13-73-28b |
न कामभोगान्विपुलान्नालङ्कारार्थसञ्चयान्। तथैव बहुमन्वन्ते यथा रत्यामनुग्रहम्।। | 13-73-29a 13-73-29b |
अन्तकः शमनो मृत्युः पातालं बडबामुखम्। क्षुरधारा विषं सर्पो वह्निरित्येकतः स्त्रियः।। | 13-73-30a 13-73-30b |
यतश्च भूतानि महान्ति पञ्च यतश्च लोका विहिता विधात्रा। यतः पुमांसः प्रमदाश्च निर्मिता- स्ततश्च दोषाः प्रमदासु नारद।। | 13-73-31a 13-73-31b 13-73-31c 13-73-31d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिसप्ततितमोऽध्यायः।। 73 ।। |
13-73-1 लघुचित्ताः वायुवत् चलचित्ताः।। 13-73-3 ब्राह्मीं ब्रह्मलोकस्थाम्।। 13-73-5 विषये वक्तुं योग्यत्वे।। 13-73-8 नियोक्तुं प्रश्न ईदृशे इति ट.थ.ध.पाठः।। 13-73-10 कृतमतिः वक्ष्यामीति कृतनिश्चयाऽभवत्।। 13-73-22 गतिः प्राप्तिः। अन्योन्यं कृत्रिमलिङ्गधारिण्यो भूत्वा मैथुनार्थं प्रवर्तन्ते। एतच्च लोकप्रसिद्धम्। भर्तृषु दूरस्थेषु इति शेषः। नहि तिष्ठन्ति धैर्ये इति शेषः।। 13-73-24 भयात्परिभवस्य चेति थ.ध. पाठः।। 13-73-26 काष्ठानां काष्ठैः।।
अनुशासनपर्व-072 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-074 |