महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-243
पठन सेटिंग्स
← अनुशासनपर्व-242 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-243 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-244 → |
महेश्वरेण पार्वतींप्रति नानाधर्मामामपि प्रत्येकं साफल्यकथनेन तेषु मोक्षधर्मस्यैव श्रैष्ठ्यप्रतिपादनम्।। 1 ।। तथा ज्ञानस्य मोक्षसाधनत्वकथनपूर्वकं तत्प्राप्त्युपायकथनम्।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-243-1x |
देवदेव नमस्तेऽस्तु कालसूदन शङ्कर। लोकेषु विविधा धर्मास्त्वत्प्रसादान्मया श्रुताः।। | 13-243-1a 13-243-1b |
विशिष्टं सर्वधर्मेभ्यः शाश्वतं ध्रुवमव्ययम्। श्रुतुमिच्छाम्यहं सर्वमत्र मुह्यति मे मनः।। | 13-243-2a 13-243-2b |
केचिन्मोक्षं प्रशंसन्ति केचिद्यज्ञफलं द्विजाः। वानप्रस्थं पुनः केचिद्गार्हस्थ्यं केचिदाश्रमम्।। | 13-243-3a 13-243-3b |
राजधर्माश्रयं केचित्केचित्स्वाध्यायमेव च। ब्रह्मचर्याश्रमं केचित्केचिद्वाक्संयमाश्रयम्।। | 13-243-4a 13-243-4b |
मातरं पितरं केचित्सेवमाना दिवं गताः। अहिंसया परः स्वर्गे सत्येन च महीयते।। | 13-243-5a 13-243-5b |
आहवेऽभिमुखाः केचिन्निहतास्त्रिदिवं गताः। केचिदुञ्छवृत्ते सिद्धाः स्वर्गमार्गं समाश्रिताः।। | 13-243-6a 13-243-6b |
आर्जवेनापरे युक्ता महतां पूजते रताः। ऋजवो नाकपृष्ठे तु शुद्धात्मानः प्रतिष्ठिताः।। | 13-243-7a 13-243-7b |
एवं बहुविधैर्लोके धर्मद्वारैः सुसंवृतैः। ममापि मतिराविद्धा मेघलेखेव वायुना।। | 13-243-8a 13-243-8b |
एतस्मिन्संशयस्थाने संशयच्छेदकारि यत्। वचनं ब्रूहि देवेश निश्चयज्ञानसंज्ञितम्।। | 13-243-9a 13-243-9b |
नारद उवाच। | 13-243-10x |
एवं पृष्टः स्वया देव्या महादेवः पिनाकधृक्। प्रोवाच मधुरं वाक्यं सूक्ष्ममध्यात्मसंश्रितम्।। | 13-243-10a 13-243-10b |
महेश्वर उवाच। | 13-243-11x |
न्यायतस्त्वं महाभागे श्रोतुकामाऽसि निश्चयम्। एतदेव विशिष्टं ते यत्त्वं पृच्छसि मां प्रिये।। | 13-243-11a 13-243-11b |
सर्वत्र विहितो धर्मः स्वर्गलोकफलाश्रितः। बहुद्वारस्य धर्मस्य नेहास्ति विफलाः क्रियाः।। | 13-243-12a 13-243-12b |
यस्मिन्यस्मिंश्च विषये योयो याति विनिश्चयम्। तं तमेवाभिजानाति नान्यं धर्मं शुचिस्मिते।। | 13-243-13a 13-243-13b |
शृणु देवि समासेन मोक्षद्वारसमनुत्तमम्। एतद्धि सर्वधर्माणां विशिष्टं शुभमव्ययम्।। | 13-243-14a 13-243-14b |
नास्ति मोक्षात्परं देवि मोक्ष एव परा गतिः। सुखमात्यन्तिकं श्रेष्ठमनिवृत्तं च तद्विदुः।। | 13-243-15a 13-243-15b |
नात्र देवि जरा मृत्युः शोको वा दुःखमेव वा। अनुत्तममचिन्त्यं च तद्देवि परमं सुखम्।। | 13-243-16a 13-243-16b |
ज्ञानानामुत्तमं ज्ञानं मोक्षज्ञानं विदुर्बुधाः। ऋषिभिर्देवसङ्घैश्च प्रोच्यते परमं पदम्।। | 13-243-17a 13-243-17b |
नित्यमक्षरमक्षोभ्यमजेयं शाश्वतं शिवम्। विशन्ति तत्पदं प्राज्ञाः स्पृहणीयं सुरोत्तमैः।। | 13-243-18a 13-243-18b |
दुःखादिश्च दुरन्तश्च संसारोयं प्रकीर्तितः। शोकव्याधिजरादोषैर्मरणेन च संयुतः।। | 13-243-19a 13-243-19b |
यथा ज्योतिर्गणा व्योम्नि विवर्तन्ते पुनःपुनः। तस्य मोक्षस्य मार्गोऽयं श्रुयतां शुभलक्षणे।। | 13-243-20a 13-243-20b |
ब्रह्मादिस्थावरान्तश्च संसारो यः प्रकीर्तितः। संसारे प्राणिनः सर्वे निवर्तन्ते यथा पुनः।। | 13-243-21a 13-243-21b |
तत्र संसारचक्रस्य मोक्षो ज्ञानेन दृश्यते। अध्यात्मतत्वविज्ञानं ज्ञानमित्यभिधीयते।। | 13-243-22a 13-243-22b |
ज्ञानस्य ग्रहणोपायमाचारं ज्ञानिनस्तथा। यथावत्सम्प्रवक्ष्यामि तत्त्वमेकमनाः शृणु।। | 13-243-23a 13-243-23b |
ब्राह्मणः क्षत्रियो वाऽपि भूत्वा पूर्वं गृहे स्थितः। आनृण्यं सर्वतः प्राप्य ततस्तान्संत्यजेद्गृहान्।। | 13-243-24a 13-243-24b |
ततः संत्यज्य गार्हस्थ्यं निश्चितो वनमाश्रयेत्।। | 13-243-25a |
वने गुरुं समाज्ञाय दीक्षितो विधिपूर्वकम्। दीक्षां प्राप्य यथान्यायं स्ववृत्तं परिपालयेत्।। | 13-243-26a 13-243-26b |
गृह्णीयादप्युपाध्यायान्मोक्षज्ञानमनिन्दितः। द्विविधं च पुनर्मोक्षं साङ्ख्ययोगमिति स्मृतिः।। | 13-243-27a 13-243-27b |
पञ्चविंशतिविज्ञानं साङ्ख्यमित्यभिधीयते। ऐश्वर्यं देवसारूप्यं योगशास्त्रस्य निर्णयः। तयोरन्यतरं ज्ञानं शृणुयाच्छिष्यतां गतः।। | 13-243-28a 13-243-28b 13-243-28c |
नाकालो नाप्यकाषायी नाप्यसंवत्सरोषितः। नासाङ्ख्ययोगो नाश्राद्धं गुरुणा स्नेहपूर्वकम्। समः शीतोष्णहर्षादीन्विषहेत स वै मुनिः।। | 13-243-29a 13-243-29b 13-243-29c |
अमृष्यः क्षुत्पिपासाभ्यामुचितेभ्यो निवर्तयेत्। त्यजेत्सङ्कल्पजान्ग्रन्थीन्सदा ध्यानपरो भवेत्।। | 13-243-30a 13-243-30b |
कुण्डिकाचमसं शिक्यं छत्रं यष्टिमुपानहौ। चेलमित्येव नैतेषु स्थापयेत्साम्यमात्मनः।। | 13-243-31a 13-243-31b |
गुरोः पूर्वं समुत्तिष्ठेज्जघन्यं तस्य संविशेत्। नैवाविज्ञाप्य भर्तारमावश्यकमपि व्रजेत्।। | 13-243-32a 13-243-32b |
द्विरह्नि स्नानशाटेन संध्ययोरभिषेचनम्। एककालाशनं चास् विहितं यतिभिः पुरा।। | 13-243-33a 13-243-33b |
भैक्षं सर्वत्र गृह्णीयाच्चिन्तयेत्सततं निशि। कारणे चापि सम्प्राप्ते न ज्ञाप्येत कदाचन।। | 13-243-34a 13-243-34b |
ब्रह्मिचर्यं वने वासं शौचमिन्द्रियसंयमः। दया च सर्वभूतेषु तस्य धर्मः सनातनः।। | 13-243-35a 13-243-35b |
विमुक्तः सर्वपापेभ्यो लघ्वाहारो जितेन्द्रियः। आत्मयुक्तः परां बुद्धिं लभते पापनाशिनीम्।। | 13-243-36a 13-243-36b |
यदा भावं न कुरुते सर्वभूतेषु पापकम्। कर्मणा मनसा वाचा ब्र्हम सम्पद्यते तदा।। | 13-243-37a 13-243-37b |
अनिष्ठुरोऽनहङ्कारो निर्द्वन्द्वो वीतमत्सरः। वीतशोकभयाबाधं पदं प्राप्नोत्यनुत्तमम्।। | 13-243-38a 13-243-38b |
तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी समलोष्टाश्मकाञ्चनः। समः शत्रौ च मित्रे च निर्वाणमधिगच्छति।। | 13-243-39a 13-243-39b |
एवं युक्तसमाचारस्तत्परोऽध्यात्मचिन्तकः। ज्ञानाभ्यासेन तेनैव प्राप्नोति परमां गतिम्।। | 13-243-40a 13-243-40b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 243 ।। |
अनुशासनपर्व-242 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-244 |