महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-032
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महीलक्ष्या रुक्मिणींप्रति स्वावासस्थलनिर्देशः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-32-1x |
कीदृशे पुरुषे तात स्त्रीषु भरतर्षभ। श्रीः पद्मा वसते नित्यं तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-32-1a 13-32-1b |
भीष्म उवाच। | 13-32-2x |
अत्र ते वर्णयिष्यामि यथावृत्तं यथाश्रुतम्। रुक्मिणी देवकीपुत्रसन्निधौ पर्यपृच्छत।। | 13-32-2a 13-32-2b |
नारायणस्याङ्कगतां ज्वलन्तीं दृष्ट्वा श्रियं पद्मसमानवक्त्राम्। | 13-32-3a 13-32-3b |
कौतूहलाद्विस्मितचारुनेत्रा पप्रच्छ माता मकरध्वजस्यष।। | 13-32-4a 13-32-3d |
कानीह भूतान्युपसेवसे त्वं सन्तिष्ठसे कानि च सेवसे त्वम्। तानि त्रिलोकेश्वरभूतकान्ते तत्त्वेन मे ब्रूहि महर्षिकन्ये।। | 13-32-4a 13-32-4b 13-32-4c 13-32-4d |
एवं तदा श्रीराभिभाष्यमाणा देव्या समक्षं गरुडध्वजस्य। उवाच वाक्यं मधुराभिधानं मनोहरं चन्द्रमुखी प्रसन्ना।। | 13-32-5a 13-32-5b 13-32-5c 13-32-5d |
श्रीरुवाच। | 13-32-6x |
वसामि नित्यं सुभगे प्रगल्भे दक्षे नरे कर्मणि वर्तमाने। अक्रोधने देवपरे कृतज्ञे जितेन्द्रिये नित्यमुदीर्णसत्वे।। | 13-32-6a 13-32-6b 13-32-6c 13-32-6d |
नाकर्मशीले पुरुषे वसामि न नास्तिके साङ्करिके कृतघ्ने। न भिन्नवृत्ते न नृशंसवृत्ते न चाविनीते न गुरुष्वसूयके।। | 13-32-7a 13-32-7b 13-32-7c 13-32-7d |
ये चाल्पतेजोबलसत्त्वमानाः क्लिश्यन्ति कुप्यन्ति च यत्रतत्र। न चैव तिष्ठामि तथाविधेषु नरेषु सङ्गुप्तमनोरथेषु।। | 13-32-8a 13-32-8b 13-32-8c 13-32-8d |
यश्चात्मनि प्रार्थयते न किञ्चि- द्यश्च स्वभावोपहतान्तरात्मा। द्यश्च स्वभावोपहतान्तरात्मा। नरेषु नाहं निवसामि स्म्यक्।। | 13-32-9a 13-32-9b 13-32-9c 13-32-9d |
वसामि धर्मशीलेषु धर्मज्ञेषु महात्मसु। वृद्धसेविषु दान्तेषु सत्वज्ञेषु महात्मसु।। | 13-32-10a 13-32-10b |
अवन्ध्यकालेषु सदा दानशौचरतषु च। ब्रह्मचर्यतपोज्ञानगोद्विजातिप्रियेषु च।। | 13-32-11a 13-32-11b |
स्त्रीषु कान्तासु शान्तासु देवद्विजपरासु च। विशुद्धगृहभाण्डासु गोधान्याभिरतासु च।। | 13-32-12a 13-32-12b |
वसागि देवद्विजपूजिकासु।। | 13-32-13f |
प्रकीर्णभाण्डामनवेक्ष्यकारिणीं सदा च भर्तुः प्रतिकूलवादिनीम्। | 13-32-14a 13-32-14b |
लोलामदक्षामवलेपिनीं च व्यपेतशौचां कलहप्रियां च। निद्राभिभूतां सततं शयाना- मेवंविधां स्त्रीं परिवर्जयामि।। | 13-32-15a 13-32-15b 13-32-15c 13-32-15d |
सत्यासु नित्यं प्रियदर्शनासु सौभाग्ययुक्तासु गुणान्वितासु। वसामि नारीषु पतिव्रतासु कल्याणशीलासु विभूषितासु।। | 13-32-16a 13-32-16b 13-13-16c 13-13-16d |
यानेषु कन्यासु विभूषणेषु यज्ञेषु मेघेषु च वृष्टिमत्सु। वसामि फुल्लासु च पद्मिनीषु नक्षत्रवीथीषु च शारदीषु।। | 13-32-17a 13-32-17b 13-32-17c 13-32-17d |
गजेषु गोष्ठेषु तथाऽऽसनेषु सरःसु फुल्लोत्पलपङ्कजेषु। नदीषु हंसस्वननादितासु क्रौञ्चावघुष्टस्वरशोभितासु।। | 13-32-18a 13-32-18b 13-32-18c 13-32-18d |
विकीर्णकूलद्रुमराजितासु तपस्विसिद्धद्विजसेवितासु। वसामि नित्यं सुबहूदकासु सिम्हैर्गजैश्चाकुलितोदकासु।। | 13-32-19a 13-32-19b 13-32-19c 13-32-19d |
मत्ते गजे गोवृषभे नरेन्द्रे सिम्हासने सत्पुरुषेषु नित्यम्।। | 13-32-20a 13-32-20b |
यस्मिञ्चनो हव्यभुजं जुहोति गोब्राह्मणं चार्चति देवताश्च काले च पुष्पैर्बलयः क्रियन्ते तस्मिन्गृहे नित्यमुपैमि वासम्।। | 13-32-21a 13-32-21b 13-32-21c 13-32-21d |
स्वाध्यायनित्येषु सदा द्विजेषु क्षत्रे च धर्माभिरते सदैव। वैश्ये च कृष्याभिरते वसामि शूद्रे च शुश्रूषणनित्ययुक्ते।। | 13-32-22a 13-32-22b 13-32-22c 13-32-22d |
नारायणे त्वेकमना वसामि सर्वेण भावेन शरीरभूता। तस्मिन्हि धर्मः सुमहान्निविष्टो ब्रह्मिण्यता चात्र तथा प्रियत्वम्।। | 13-32-23a 13-32-23b 13-32-23c 13-32-23d |
नाहं शरीरेण वसामि देवि नैवं मया शक्यमिहाभिधातुम्। भावेन यस्मिन्निवसामि पुंसि स वर्धते धर्मयशोर्थकामैः।। | 13-32-24a 13-32-24b 13-32-24c 13-32-24d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्वात्रिंशोऽध्यायः।। 32 ।। |
13-32-2 पर्यपृच्छत श्रियमित्यपकृष्यते।। 13-32-4 उपसेवसे गजतुरगादिरूपेण। संतिष्ठसे शौर्यादिरूपेण पुरुषे वससि।। 13-32-5 देव्या रुक्मिण्या।। 13-32-6 प्रगल्भे वाग्मिनि। दक्षे अनरुसे। वसामि सत्त्वे इति ट.थ.ध.पाठः।। 13-32-8 तेजः शौर्यं। सत्वं बुद्धिः। यत्र तत्र विशिष्टपुरुषे। सङ्गुप्तमनोरथेषु अन्यत् घ्यायन्त्यन्यद्दर्शयन्ति तादृशेषु।। 13-32-23 भावेन आदरेण शरीरभूता शरीरवती।। 13-32-24 नारायणादन्यत्र धर्मादिवृद्धिरूपेणैव वसामि न शरीरेणेत्यर्थः।। 13-32-32 द्वात्रिंशोऽध्यायः।।
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