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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-130

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युधिष्ठिरेण सुवणोत्पत्तिप्रकारं पृष्टेन भीष्मेण तत्प्रतिपादकवसिष्ठपरसुरामसंवादानुवादारम्भः।। 1 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 13-130-1x
उक्तं पितामहेनेदं गवां दानमनुत्तमम्।
विशेषेण नरेन्द्राणामिह धर्ममवेक्षताम्।।
13-130-1a
13-130-1b
राज्यं हि सततं दुःखमाश्रमाश्च सुदुर्विदाः।
परिचारेषु वै दुःखं दुर्धरं चाकृतात्मभिः।
भूयिष्ठं च नरेन्द्राणां विद्यते न शुभा गतिः।।
13-130-2a
13-130-2b
13-130-2c
पूयन्ते तत्र नियतं प्रयच्छन्तो वसुन्धराम्।
सर्वे च कथिता धर्मास्त्वया मे कुरुनन्दन।।
13-130-3a
13-130-3b
एवमेव गवामुक्तं प्रदानं ते नृगेण ह।
ऋषिणा नाचिकेतेन पूर्वमेव निदर्शितम्।।
13-130-4a
13-130-4b
वेदोपनिषदे चैव सर्वकर्मसु दक्षिणाः।
सर्वक्रतुषु चोद्दिष्टा भूमिर्गावोऽथ काञ्चनम्।।
13-130-5a
13-130-5b
तत्र श्रुतिस्तु परमा सुवर्णं दक्षिणेति वै।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं पितामह यथातथम्।।
13-130-6a
13-130-6b
किं सुवर्णं कथं जातं कस्मिन्काले किमात्मकम्।
किंदैव किंफलं चैव कस्माच्च परमुच्यते।।
13-130-7a
13-130-7b
कस्माद्दानं सुवर्णस्य पूजयन्ति मनीषिणः।
कस्माच्च दक्षिणार्थं तद्यज्ञकर्मसु शस्यते।।
13-130-8a
13-130-8b
कस्माच्च पावनं श्रेष्ठं भूमेर्गोभ्यश्च काञ्चनम्।
परमं दक्षिणार्थे च तद्ब्रवीहि पितामह।।
13-130-9a
13-130-9b
भीष्म उवाच। 13-130-10x
शृणु राजन्नवहितो बहुकारणविस्तरम्।
जातरूपसमुत्पत्तिमनुभूतं च यन्मया।।
13-130-10a
13-130-10b
पिता मम महातेजाः श्तनुर्निधनं गतः।
तस्य दित्सुरहं श्राद्धं गङ्गाद्वारमुपागमम्।।
13-130-11a
13-130-11b
तत्रागम्य पितुः पुत्र श्राद्धकर्म समारभम्।
मातो मे जाह्नवी चात्र साहाय्यमकरोत्तदा।।
13-130-12a
13-130-12b
तत्रागतांस्तपस्सिद्धानुपवेश्य बहूनृषीन्।
तोयप्रदानात्प्रभृति कार्याण्यहमथारभम्।।
13-130-13a
13-130-13b
तत्समाप्य यथोद्दिष्टं पूर्वकर्म समाहितः।
दातुं निर्वपणं सम्यग्यथावदहमारभम्।।
13-130-14a
13-130-14b
ततस्तं दर्भविन्यासं भित्त्वा सुरुचिराङ्गदः।
प्रलम्बाभरणो बाहुरुदतिष्ठद्विशाम्पते।।
13-130-15a
13-130-15b
मुहूर्तमपि तं दृष्ट्वा परं विस्मयमागमम्।
प्रतिग्रहीता साक्षान्मे पितेति भरतर्षभ।।
13-130-16a
13-130-16b
ततो मे पुनरेवासीत्संज्ञा सञ्चिन्त्य शास्त्रतः।
नायं वेदेषु विहितो विधिर्हस्त इति प्रभो।
पिण्डो देयो नरेणेह ततो मतिरभून्मम।।
13-130-17a
13-130-17b
13-130-17c
साक्षान्नेह मनुष्यस्य पिण्डं हि पितरः क्वचित्।
गृह्णन्ति विहितं चेत्थं पिण्डो देयः कुशेष्विति।।
13-130-18a
13-130-18b
ततोऽहं तदनादृत्य पितुर्हस्तनिदर्शनम्।
शास्त्रप्रामाण्यसूक्ष्मं तु विधइं पिण्डस्य संस्मरन्।।
13-130-19a
13-130-19b
ततो दर्भेषु तत्सर्वमददं भरतर्षभ।
शास्त्रमार्गानुसारेण तद्विद्धि मनुजर्षभ।।
13-130-20a
13-130-20b
ततः सोऽन्तर्हितो बाहुः पितुर्मम जनाधिप।
ततो मां दर्शयामासुः स्वप्नान्ते पितरस्तथा।।
13-130-21a
13-130-21b
प्रीयमाणास्तु मामूचुः प्रीताः स्म भरतर्षभ।
विज्ञानेन तवानेन यन्न मुह्यसि धर्मतः।।
13-130-22a
13-130-22b
त्वया हि कुर्वता शास्त्रं प्रमाणमिह पार्थिव।
आत्मा धर्मः श्रुतं वेदाः पितरश्चर्षिभिः सह।।
13-130-23a
13-130-23b
साक्षात्पितामहो ब्रह्मा गुरवोऽथ प्रजापतिः।
प्रमाणमुपनीता वै स्थिताश्च न विचालिताः।।
13-130-24a
13-130-24b
तदिदं सम्यगारब्धं त्वयाऽद्य भरतर्षभ।
किन्तु भूमेर्गवां चार्थे सुवर्णं दीयतामिति।।
13-130-25a
13-130-25b
एवं वयं च धर्मश्च सर्वे चास्मत्पितामहाः।
पाविता वै भविष्यन्ति पावनं हि परं हि तत्।।
13-130-26a
13-130-26b
दश पूर्वान्दशैवान्यांस्तथा सन्तारयन्ति ते।
सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति एवं मत्पितरोऽब्रुवन्।।
13-130-27a
13-130-27b
ततोऽहं विस्मितो राजन्प्रतिबुद्धो विशाम्पते।
सुवर्णदानेऽकरवं मतिं च भरतर्षभ।।
13-130-28a
13-130-28b
इतिहासमिमं चापि शृणु राजन्पुरातनम्।
जामदग्न्यं प्रति विभो धन्यमायुष्यमेव च।।
13-130-29a
13-130-29b
जामदग्न्येन रामेण तीव्ररोषान्वितेन वै।
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा।।
13-130-30a
13-130-30b
ततो जित्वा महीं कृत्स्नां रामो राजीवलोचनः।
आजहार क्रतुं वीरो ब्रह्मक्षत्रेण पूजितम्।।
13-130-31a
13-130-31b
वाजिमेधं महाराज सर्वकामसमन्वितम्।
पावनं सर्वभूतानां तेजोद्युतिविवर्धनम्।।
13-130-32a
13-130-32b
विपाप्मा च स तेजस्वी तेन क्रतुफलेन च।
नैवात्मनोऽथ लघुतां जामदग्न्योऽध्यगच्छत।।
13-130-33a
13-130-33b
स तु क्रतुवरेणेष्ट्वा महात्मा दक्षिणावता।
पप्रच्छागमसम्पन्नानृषीन्देवांश्च भारत।।
13-130-34a
13-130-34b
पावनं यत्परं नॄणामुग्रे कर्मणि वर्तताम्।
तदुच्यतां महाभागा इति जागघृणोऽब्रवीत्।।
13-130-35a
13-130-35b
इत्युक्ता वेदशास्त्रज्ञास्तमूचुस्ते महर्षयः।
राम विप्राः सत्क्रियन्तां वेदप्रामाण्यदर्शनात्।।
13-130-36a
13-130-36b
भूयश्च विप्रर्षिगणाः प्रष्टव्याः पावनं प्रति।
ते यद्ब्रूर्महाप्राज्ञास्तच्चैव समुदाचर।।
13-130-37a
13-130-37b
ततो वसिष्ठं देवर्षिमगस्त्यमथ काश्यपम्।
तमेवार्तं महातेजाः पप्रच्छ भृगुनन्दनः।।
13-130-38a
13-130-38b
जाता मतिर्मे विप्रेन्द्राः कथं पूयेयमित्युत।
केन वा कर्मयोगेन प्रदानेनेह केन वा।।
13-130-39a
13-130-39b
यदि वोऽनुग्रहकृता बुद्धिर्मां प्रति सत्तमाः।
प्रबूत पावनं किं मे भवेदिति तपोधनाः।।
13-130-40a
13-130-40b
ऋषय ऊचुः। 13-130-41x
गाश्च भूमिं च वित्तं च दत्त्वेह भृगुनन्दन।
पापकृत्पूयते मर्त्य इति भार्गव शुश्रुम।।
13-130-41a
13-130-41b
अन्यद्दानं तु विप्रर्षे श्रूयतां पावनं महत्।
दिव्यमत्यद्भुताकारमपत्यं जातवेदसः।।
13-130-42a
13-130-42b
दग्ध्वा लोकान्पुरा वीर्यात्सम्भूतमिह शुश्रुम।
सुवर्णमिति विख्यातं तद्ददत्सिद्धिमेष्यसि।।
13-130-43a
13-130-43b
ततोऽब्रवीद्वसिष्ठस्तं भगवान्संशितव्रतः।
शृणु राम यथोत्पन्नं सुवर्णमनलप्रभम्।।
13-130-44a
13-130-44b
फलं दास्यति ते यत्तु दाने परमिहोच्यते।
सुवर्णं यच्च यस्माच्च यथा च गुणवत्तमम्।।
13-130-45a
13-130-45b
तन्निबोध महाबाहो सर्वं निगदतो मम।
अग्निषोमात्मकमिदं सुवर्णं विद्दि निश्चये।।
13-130-46a
13-130-46b
अजोऽग्निर्वरुणो मेषः सूर्योऽश्च इति दर्शनम्।
कुञ्जराश्च मृगा नागा महिषाश्चासुरा इति।।
13-130-47a
13-130-47b
कुक्कुटाश्च वराहाश्च राक्षसा भृगुनन्दन।
इडा गावः पयः सोमो भूमिरित्येव च स्मृतिः।।
13-130-48a
13-130-48b
जगत्सर्वं च निर्मथ्य तेजोराशिः समुत्थितः।
सुवर्णमेभ्यो विप्रर्षे रत्नं परममुत्तमम्।।
13-130-49a
13-130-49b
एतस्मात्कारणाद्देवा गन्धर्वोरगराक्षसाः।
मनुष्याश्च पिशाचाश्च प्रयता धारयन्ति तत्।।
13-130-50a
13-130-50b
मुकुटैरङ्गदयुतैरलङ्कारैः पृथग्विधैः।
सुवर्णविकृतैस्तत्र विराजन्ते भृगूत्तम।।
13-130-51a
13-130-51b
तस्मात्सर्वपवित्रेभ्यः पवित्रं परमं स्मृतम्।
भूमेर्गोभ्योऽथ रत्नेभ्यस्तद्विद्धि मनुजर्षभ।।
13-130-52a
13-130-52b
पृथिवीं गाश्च दत्त्वेह यच्चान्यदपि किञ्चन।
विशिष्यते सुवर्णस्य दानं परमकं विभो।।
13-130-53a
13-130-53b
अक्षयं पावनं चैव सुवर्णममरद्युते।
प्रयच्छ द्विजमुख्येभ्यः पावनं ह्येतदुत्तमम्।।
13-130-54a
13-130-54b
सुवर्णमेव सर्वासु दक्षिणासु विधीयते।
सुवर्णं ये प्रयच्छन्ति सर्वदास्ते भवन्त्युत।।
13-130-55a
13-130-55b
देवतास्ते प्रयच्छन्ति ये सुवर्णं ददत्यथ।
अग्निर्हि देवताः सर्वाः सुवर्णं च तदात्मकम्।।
13-130-56a
13-130-56b
तस्मात्सुवर्णं ददता दत्ताः सर्वाः स्म देवताः।
भवन्ति पुरुषव्याघ्र न ह्यतः परमं विदुः।।
13-130-57a
13-130-57b
भूय एव च महात्म्यं सुवर्णस्य निबोध मे।
गदतो मम विप्रर्षे सर्वशस्त्रभृतांवर।।
13-130-58a
13-130-58b
मया श्रुतमिदं पूर्वं पुराणे भृगुनन्दन।
प्रजापतेः कथयतो मनोः स्वायंभुवस्य वै।।
13-130-59a
13-130-59b
शूलपाणेर्भगवतो रुद्रस्य च महात्मनः।
गिरौ हिमवति श्रेष्ठे तदा भृगुकुलोद्वह।।
13-130-60a
13-130-60b
देव्या विवाहे निर्वृत्ते रुद्राण्या भृगुनन्दन।
समागमे भगवतो देव्या सह महात्मनः।।
13-130-61a
13-130-61b
ततः सर्वे समुद्विग्रा देवा रुद्रमुपागमन्।।
ते महादेवमासीनं देवीं च वरदामुमाम्।
13-130-62a
13-130-62b
प्रसाद्य शिरसा सर्वे रुद्रमूचुर्भृगूद्वह।।
अयं समागमो देव देव्या सह तवानघ।
13-130-63a
13-130-63b
तपस्विनस्तपस्विन्या तेजस्विन्याऽतितेजसः।।
अमोघतेजास्त्वं देव देवी चेयमुमा तथा।
13-130-64a
13-130-64b
अपत्यं युवयोर्देव बलवद्भविता विभो।
तन्नूनं त्रिषु लोकेषु न किञ्चिच्छेषयिष्यति।।
13-130-65a
13-130-65b
तदेभ्यः प्रणतेभ्यस्त्वं देवेभ्यः पृथुलोचन।
वरं प्रयच्छ लोकेश त्रैलोक्यहितकाम्यया।।
13-130-66a
13-130-66b
अपत्यार्थं निगृह्णीष्व तेजः परमकं विभो।
[त्रैलोक्यसारौ हि युवां लोकं सन्तापयिष्यथ।।
13-130-67a
13-130-67b
तदपत्यं हि युवयोर्देवानभिभवेद्ध्रुवम्।
न हि ते पृथिवी देवी न च द्यौर्न दिवं विभो।।
13-130-68a
13-130-68b
नेदं धारयितुं शक्ताः समस्ता इति मे मतिः।
तेजःप्रभावनिर्दग्धं तस्मात्सर्वमिदं जगत्।।
13-130-69a
13-130-69b
तस्मात्प्रसादं भगवन्कर्तुमर्हसि नः प्रभो।
न देव्यां सम्भवेत्पुत्रो भवतः सुरसत्तम।
धैर्यादेव निगृह्णीष्व तेजो ज्वलितमुत्तमम्।।
13-130-70a
13-130-70b
13-130-70c
इति तेषां कथयतां भगवान्वृषभध्वजः]।
एवमस्त्विति देवांस्तान्विप्रर्षे प्रत्यभाषत।।
13-130-71a
13-130-71b
इत्युक्त्वा चोर्ध्वमनयद्रेतो वृषभवाहनः।
ऊर्ध्वरेषः समभवत्ततः प्रभृति चापि सः।।
13-130-72a
13-130-72b
रुद्राणीति ततः क्रुद्धा प्रजोच्छेद तदा कृते।
देवानथाब्रवीत्तत्र स्त्रीभावात्परुषं वचः।।
13-130-73a
13-130-73b
यस्मादपत्यकामो वै भर्ता मे विनिवर्तितः।
तस्मात्सर्वे सुरा भूयमनपत्या भविष्यथ।।
13-130-74a
13-130-74b
प्रजोच्छेदो मम कृतो यस्माद्युष्माभिरद्य वै।
तस्मात्प्रजा वः खगमाः सर्वेषां न भविष्यति।।
13-130-75a
13-130-75b
पावकस्तु न तत्रासीच्छापकाले भृगूद्वह।
देवा देव्यास्तथा शापादनपत्यास्ततोऽभवन्।।
13-130-76a
13-130-76b
रुद्रस्तु तेजोऽप्रतिमं धारयामास वै तदा।
प्रस्कन्नं तु ततस्तस्मात्किंचित्तत्रापतद्भुवि।।
13-130-77a
13-130-77b
उत्पपात तदा वह्नौ ववृधे चाद्भुतोपमम्।
तेजस्तेजसि संयुक्तमेकयोनित्वमागतम्।।
13-130-78a
13-130-78b
एतस्मिन्नेव काले तु देवाः शक्रपुरोगमाः।
असुरस्तारको नाम तेन सन्तापिता भृशम्।।
13-130-79a
13-130-79b
आदित्या वसवो रुद्रा मरुतोऽथाश्विनावपि।
साध्याश्च सर्वे संत्रस्ता दैतेयस्य पराक्रमात्।।
13-130-80a
13-130-80b
स्थानानि देवतानां हि विमानानि पुराणि च।
ऋषीणां चाश्रमाश्चैव बभूवुरसुरैर्हृताः।।
13-130-81a
13-130-81b
ते दीनमनसः सर्वे देवता ऋषयश्च ये।
प्रजग्मुः शरणं देवं ब्रह्माणमजरं विभुम्।।
13-130-82a
13-130-82b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 130 ।।

13-130-3 पूयन्ते शुध्यन्ति।। 13-130-21 तृप्तास्ते पितरस्तथेति थ.ध.पाठः।। 13-130-27 नवपूर्वानधश्चान्यान्नव सन्तारयन्ति ते इति थ.ध.पाठः।। 13-130-33 लघुतां निष्पापताम्।।

अनुशासनपर्व-129 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-131