महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-226
दिखावट
← अनुशासनपर्व-225 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-226 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-227 → |
परमेश्वरेण पार्वतींप्रति प्राणिनां स्त्रीत्वपुंस्त्वयोः स्वाभाविकत्वनिषेधेन कर्मायत्तत्वोक्तिः।। 1 ।। तथा सात्विकादिधर्मादिप्रतिपादनम्।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-226-1x |
देवदेव महादेव श्रुतं मे भगवन्निदम्। आत्मनो जातिसम्बन्धं ब्रूहि स्त्रीपुरुषान्तरम्।। | 13-226-1a 13-226-1b |
स्त्रीप्राणाः पुरुषप्राणा एकतः पृथगेव वा। एष मे संशयो देव तं मे छेत्तुं त्वमर्हसि।। | 13-226-2a 13-226-2b |
महेश्वर उवाच। | 13-226-3x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सर्वं समाहिता। स्त्रीत्वं पुंस्त्वमिति प्राणे स्थितिर्नास्ति शुभेक्षणे।। | 13-226-3a 13-226-3b |
निर्विकारः सदैवात्मा स्त्रीत्वं पुंस्त्वं न चात्मनि। कर्मप्रकारेण तथा जात्यां जात्यां प्रजायते।। | 13-226-4a 13-226-4b |
कृत्वा कर्म पुमान्स्त्री वा स्त्री पुमानपि जायते। स्त्रीभावं यत्पुमान्कृत्वा कर्मणा प्रमदा भवेत्।। | 13-226-5a 13-226-5b |
उमोवाच। | 13-226-6x |
भगवन्सर्वलोकेश कर्मात्मा न करोति चेत्। कोऽन्यः कर्मकरो देहे तन्मे त्वं वक्तुमर्हसि।। | 13-226-6a 13-226-6b |
महेश्वर उवाच। | 13-226-7x |
शृणु भामिनि कर्तारमात्मा हि न च कर्मकृत्। प्रकृत्या गुणयुक्तेन क्रियते कर्म नित्यशः।। | 13-226-7a 13-226-7b |
शरीरं प्राणिनां लोके यथा पित्तकफानिलैः। व्याप्तमेभिस्त्रिभिर्दोषैस्तथा व्याप्तं त्रिभिर्गुणैः।। | 13-226-8a 13-226-8b |
सत्वं रजस्तमश्चैव गुणास्त्वेते शरीरिणः। प्रकाशात्मकमेतेषां सत्वं सततमिष्यते।। | 13-226-9a 13-226-9b |
रजो दुःखत्मकं तत्र तमो मोहात्मकं स्मृतम्। त्रिभिरेतैर्गुणैर्युक्तं लोके कर्म प्रवर्तते।। | 13-226-10a 13-226-10b |
सत्यं प्राणिदया शौचं श्रेयः प्रीतिः क्षमा दमः। एवमादि तथाऽन्यश्च कर्म सात्विकमुच्यते।। | 13-226-11a 13-226-11b |
दाक्ष्यं कर्मपरत्वं च लोभो मोहो विधिं प्रति। कलत्रसङ्गो माधुर्यं नित्यमैश्वर्यलुब्धता। रजसश्चोद्भवं चैतत्कर्म नानाविधं सदा।। | 13-226-12a 13-226-12b 13-226-12c |
अनृतं चैव पारुष्यं धृतिर्विद्वेषिता भृशम्। हिंसाऽसत्यं च नास्तिक्यं निद्रालस्यभयानि च। तमसश्चोद्भवं चैतत्कर्म पापयुतं तथा।। | 13-226-13a 13-226-13b 13-226-13c |
तस्माद्गुणमयः सर्वः कार्यारम्भः शुभाशुभः। तस्मादात्मानमव्यग्रं विद्ध्यकर्तारमव्ययम्।। | 13-226-14a 13-226-14b |
सात्विकाः पुण्यलोकेषु राजसा मानुषे पदे। तिर्यग्योनौ च नरके तिष्ठेयुस्तामसा नराः।। | 13-226-15a 13-226-15b |
उमोवाच। | 13-226-16x |
किमर्थमात्मा भिन्नेऽस्मिन्देहे शस्त्रेण वा हते। स्वयं प्रयास्यति तदा तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-226-16a 13-226-16b |
महेश्वर उवाच। | 13-226-17x |
तदहं ते प्रक्ष्यामि शृणु कल्याणि कारणम्। एतन्निर्णायकैश्चापि मुह्यन्ते सूक्ष्मबुद्धिभिः।। | 13-226-17a 13-226-17b |
कर्मक्षये तु सम्प्राप्ते प्राणिनां जन्मधारिणाम्। उपद्रवो भवेद्देहे येन केनापि हेतुना।। | 13-226-18a 13-226-18b |
तन्निमित्तं शरीरी तु शरीरं प्राप्य संक्षयम्। अपयाति परित्यज्य ततः कर्मवशेन सः।। | 13-226-19a 13-226-19b |
देहक्षयेपि नैवात्मा वेदनाभिर्न चाल्यते। तिष्ठेत्कर्मफलं यावद्व्रजेत्कर्मक्षये पुनः।। | 13-226-20a 13-226-20b |
आदिप्रभृति लोकेऽस्मिन्नेवमात्मगतिः स्मृता। एतत्ते कथितं देवि किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-226-21a 13-226-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षड्विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 226 ।। |
अनुशासनपर्व-225 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-227 |