महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-098
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रत्यन्नदानप्रशंसनपूर्वकं तत्फलकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-98-1x |
कानि दानानि लोकेऽस्मिन्दातुकामो महीपतिः। गुणाधिकेभ्यो विप्रेभ्यो दद्याद्भरतसत्तम।। | 13-98-1a 13-98-1b |
केन तुष्यन्ति ते सद्यः किं तुष्टाः प्रदिशन्ति च। शंस मे तन्महाबाहो फलं पुण्यकृतं महत्।। | 13-98-2a 13-98-2b |
दत्तं किं फलवद्राजन्निह लोकें परत्र च। भवतः श्रोतुमिच्छामि तन्मे विस्तरतो वद।। | 13-98-3a 13-98-3b |
भीष्म उवाच। | 13-98-4x |
इममर्थं पुरा पृष्टो नारदो देवदर्शनः। यदुक्तवानसौ वाक्यं तन्मे निगदतः शृणु।। | 13-98-4a 13-98-4b |
नारद उवाच। | 13-98-5x |
अन्नमेव प्रशंसन्ति देवा ऋषिगणास्तथा। लोकतन्त्रं हि यज्ञाश्च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्।। | 13-98-5a 13-98-5b |
अन्नेन सदृशं दानं न भूतं न भविष्यति। तस्मादन्नं विशेषेणि दातुमिच्छन्ति मानवाः।। | 13-98-6a 13-98-6b |
अन्नमूर्जस्करं लोके प्राणाश्चान्ने प्रतिष्ठिताः। अन्नेन धार्यते सर्वं विश्वं जगदिदं प्रभो।। | 13-98-7a 13-98-7b |
अन्नाद्गृहस्था लोकेऽस्मिन्भिक्षवस्तापसास्तथा।। अन्नाद्भवन्ति वै प्राणाः प्रत्यक्षं नात्र संशयः।। | 13-98-8a 13-98-8b |
कटुम्बिने सीदते च ब्राह्मणाय महात्मने। दातव्यं भिक्षवे चान्नमात्मनो भूतिमिच्छता।। | 13-98-9a 13-98-9b |
ब्राह्मणायाभिरूपाय यो दद्यादन्नमर्थिने। निदधाति निधिं श्रेष्ठं पारलौकिकमात्मनः।। | 13-98-10a 13-98-10b |
श्रान्तमध्वनि वर्तन्तं वृद्धमर्हमुपस्थितम्। अर्ययेद्भूतिमन्विच्छन्गृहस्थो गृहमागतम्।। | 13-98-11a 13-98-11b |
क्रोधमुत्पतितं हित्वा सुशीलो वीतमत्सरः। अन्नदः प्राप्नुते राजन्दिवि चेह च यत्सुखम्।। | 13-98-12a 13-98-12b |
नावमन्येदभिगतं न प्रणुद्यात्कदाचन। अपि श्वपाके शुनि वा नान्नदानं प्रणश्यति।। | 13-98-13a 13-98-13b |
यो दद्यादपरिक्लिष्टमन्नमध्वनि वर्तते। आर्तायादृष्टपूर्वाय स महद्धर्ममाप्नुयात्।। | 13-98-14a 13-98-14b |
पितॄन्देवानृपीन्विप्रानतिथींश्च जनाधिप। यो नरः प्रीणयत्यन्नैस्तस्य पुण्यफलं महत्।। | 13-98-15a 13-98-15b |
कृत्वाऽतिपातकं कर्म यो दद्यादन्नमर्थिने। ब्राह्मणाय विशेषेण न स पापेन मुह्यते।। | 13-98-16a 13-98-16b |
ब्राह्मणेष्वक्षयं दानमन्नं शूद्रे महाफलम्। अन्नदानं हि शूद्रे च ब्राह्मणे च विशिष्यते।। | 13-98-17a 13-98-17b |
न पृच्छेद्गोत्रचरणं स्वाध्यायं देशमेव च। भिक्षितो ब्राह्मणेनान्नं दद्यादेवाविचारतः।। | 13-98-18a 13-98-18b |
अन्नदस्यान्नदा वृक्षाः सर्वकामफलप्रदाः। भवन्ति चेह चामुत्र नृपते नात्र संशयः।। | 13-98-19a 13-98-19b |
आशंसन्ते हि पितरः सुवृष्टिमिव कर्षकाः। अस्माकमपि पुत्रो वा पौत्रो वाऽन्नं प्रदास्यति।। | 13-98-20a 13-98-20b |
ब्राह्मणो हि महद्भूतं स्वयं देहीति याचते। अकामो वा सकामो वा दत्त्वा पुण्यमवाप्नुयात्।। | 13-98-21a 13-98-21b |
ब्राह्मणः सर्वभूतानामतिथिः प्रसृताग्रभुक्। विप्रा यदधिगच्छन्ति भिक्षमाणा गृहं सदा।। | 13-98-22a 13-98-22b |
सत्कताश्च निवर्तन्ते तदतीव प्रवर्धते। महाभागे कुले प्रेत्य जन्म चाप्नोति भारत।। | 13-98-23a 13-98-23b |
दत्त्वा त्वन्नं नरो लोके तथा स्थानमनुत्तमम्। स्विष्टमृष्टान्नदायी तु स्वर्गे वसति सत्कृतः।। | 13-98-24a 13-98-24b |
अन्नं प्राणा नराणां हि सर्वमन्ने प्रतिष्ठिम्। अन्नदः पशुमान्पुत्री धनवान्भोगवानपि।। | 13-98-25a 13-98-25b |
प्राणवांश्चापि भवति रूपवांश्च तथा नृप। अन्नदः प्राणदो लोके सर्वदः प्रोच्यते तु सः।। | 13-98-26a 13-98-26b |
अन्नं हि दत्त्वाऽतिथये ब्राह्मणाय यथाविधि। प्रदाता सुखमाप्नोति दैवतैश्चापि पूज्यते।। | 13-98-27a 13-98-27b |
ब्राह्मणो हि महद्भूतं क्षेत्रभूतं युधिष्ठिर। उप्यते तत्रि यद्बीजं तद्धि पुण्यफलं महत्।। | 13-98-28a 13-98-28b |
प्रत्यक्षं प्रीतिजननं भोक्तुर्दातुर्भवत्युत। सर्वाण्यन्यानि दानानि परोक्षफलवन्त्युत।। | 13-98-29a 13-98-29b |
अन्नाद्धि प्रसवं यान्ति रतिरन्नाद्धि भारत। धर्मार्थावन्नतो विद्धि रोगनाशं तथाऽन्नतः।। | 13-98-30a 13-98-30b |
अन्नं ह्यमृतमित्याह पुरा कल्पे प्रजापतिः। अन्नं भुवं दिवं खं च सर्वमन्ने प्रतिष्ठितम्।। | 13-98-31a 13-98-3ab |
अन्नप्रणाशे भिद्यन्ते शरीरे पञ्च धातवः। बलं बलवतोपीह प्रणश्यत्यन्नहानितः।। | 13-98-32a 13-98-32b |
आवाहाश्च विवाहाश्च यज्ञाश्चान्नमृते तथा। निवर्तन्ते नरश्रेष्ठ ब्रह्म चात्र प्रलीयते।। | 13-98-33a 13-98-33b |
अन्नतः सर्वमेतद्धि यत्किञ्चित्स्थाणु जङ्गमम्। त्रिषु लोकेषु धर्मार्थमन्नं देयमतो बुधैः।। | 13-98-34a 13-98-34b |
अन्नदस्य मनुष्यस्य बलमोजो यशांसि च। कीर्तिश्च वर्धते शश्वत्त्रिषु लोकेषु पार्थिव।। | 13-98-35a 13-98-35b |
मेघेषूर्ध्वं सन्निधत्ते प्राणानां पवनः पतिः। तच्च मेघगतं वारि शक्रो वर्षति भारत।। | 13-98-36a 13-98-36b |
आदत्ते च रसान्भौनानादित्यः स्वगभस्तिभिः। वायुरादित्यतस्तांश्च रसान्देवः प्रवर्षति।। | 13-98-37a 13-98-37b |
तद्यदा मेघतो वारि पतितं भवति क्षितौ। तदा वसुमती देवी स्निग्धा भवति भारत।। | 13-98-38a 13-98-38b |
ततः सस्यानि रोहन्ति येन वर्तयते जगत्। मांसमेदोस्थिशुक्राणां प्रादुर्भावस्ततः पुनः।। | 13-98-39a 13-98-39b |
सम्भवन्ति ततः शुक्रात्प्राणिनः पृथिवीपते। अग्नीषोमौ हि तच्छुक्रं सृजतः पुष्यतश्च ह।। | 13-98-40a 13-98-40b |
एवमन्नाद्धि सूर्यश्च पवनः शक्रमेव च। एक एव स्मृतो राशिस्ततो भूतानि जज्ञिरे।। | 13-98-41a 13-98-41b |
प्राणान्ददाति भूतानां तेजश्च भरतर्षभ। गृहमभ्यागतायाथ यो दद्यादन्नमर्थिने।। | 13-98-42a 13-98-42b |
भीष्म उवाच। | 13-98-43x |
नारदेनैवमुक्तोऽहमन्नदानं सदा नृप। अनसूयुस्त्वमप्यन्नं तस्माद्देहि गतज्वरः।। | 13-98-43a 13-98-43b |
दत्त्वाऽन्नं विधिवद्राजन्विप्रेभ्यस्त्वमपि प्रभो। यथावदनुरूपेभ्यस्ततः स्वर्गमवाप्स्यसि।। | 13-98-44a 13-98-44b |
अन्नदानां हि ये लोकास्तांस्त्वं शृणु जनाधिप। भवनानि प्रकाशन्ते दिवि तेषां महात्मनाम्।। | 13-98-45a 13-98-45b |
नानासंस्थानि रूपाणि नानास्तम्भान्वितानि च। चन्द्रमण्डलशुभ्राणि किंकिणीजालवन्ति च।। | 13-98-46a 13-98-46b |
तरुणादित्यवर्णानि स्थावराणि चराणि च। अनेकशतभौमानि सान्तर्जलचराणि च।। | 13-98-47a 13-98-47b |
वैदूर्यार्कप्रकाशानि रौप्यरुक्ममयानि च। सर्वकामफलाश्चापि वृक्षा भवनसंस्थिताः।। | 13-98-48a 13-98-48b |
वाप्यो वीथ्यः सभाः कूपा दीर्घिकाश्चैव सर्वशः। घोषवन्ति च यानानि युक्तान्यथ सहस्रशः।। | 13-98-49a 13-98-49b |
भक्ष्यभोज्यमयाः शैला वासांस्याभरणानि च। क्षीरं स्रवन्ति सरितस्तथा चैवान्नपर्वताः।। | 13-98-50a 13-98-50b |
प्रासादाः पाण्डुराभ्राभाः शय्याश्च कनकोञ्ज्वलाः। तान्यन्नदाः प्रपद्यन्ते तस्मादन्नप्रदो भव।। | 13-98-51a 13-98-51b |
एते लोकाः पुण्यकृता अन्नदानां महात्मनाम्। तस्मादन्नं प्रयत्नेन दातव्यं मानवैर्भुवि।। | 13-98-52a 13-98-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टनवतितमोऽध्यायः।। 98 ।। |
13-98-9 कुटुम्बं पीडयित्वापि ब्राह्मणायेति ट.ध.पाठः।। 13-98-19 अन्नदस्यान्नवृक्षाश्चेति झ.पाठः।। 13-98-28 क्षेत्र चरति पादवत् इति थ.ध.पाठः।। 13-98-33 ब्रह्म वेदः।। 13-98-36 मेघेषूदकमादत्ते प्राणानां पवनः शिव इति थ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-097 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-099 |