महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-245
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति साङ्ख्यज्ञानप्रतिपादनपूर्वकमव्यक्तादिचतुर्विंशतितत्वानामुत्पत्तिप्रकारादिकथनम्।। 1 ।। तथा सत्त्वादिगुणानां कार्यविशेषनिरूपणम्।। 2 ।। तथा भूतपञ्चकादिगुणप्रतिपादनम्।। 3 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-245-1x |
साङ्ख्यज्ञानं प्रवक्ष्यामि यथावत्ते शुचिस्मिते। यज्ज्ञात्वा न पुनर्मर्त्यः संसारेषु प्रवर्तते।। | 13-245-1a 13-245-1b |
ज्ञानेनैव विमुक्तास्ते साङ्ख्याः संन्यासकोविदाः। शरीरं तु तपो घोरं साङ्ख्याः प्राहुर्निरर्थकम्। | 13-245-2a 13-245-2b |
पञ्चविंशतिकं ज्ञानं तेषां ज्ञानमिति स्मृतम्। मूलप्रकृतिरव्यक्तमव्यक्ताज्जायते महान्।। | 13-245-3a 13-245-3b |
महतोऽभूदहङ्कारस्तस्मात्तन्मात्रपञ्चकम्। इन्द्रियाणि दशैकं च तन्मात्रेभ्यो भवन्त्युत।। | 13-245-4a 13-245-4b |
तेभ्यो भूतानि पञ्चास्य शरीरं यैः प्रवर्तते। इति क्षेत्रस्य संक्षेपं चतुर्विंशतिरिष्यते। पञ्चविंशतित्याहुः पुरुषेणेह सङ्ख्यया।। | 13-245-5a 13-245-5b 13-245-5c |
सत्वं रजस्तमश्चेति गुणाः प्रकृतिसम्भवाः। तैः सृजत्यखिलं लोकं प्रकृतिः स्वात्मकैर्गुणैः।। | 13-245-6a 13-245-6b |
इच्छा द्वेषः सुखं दुःखं संघातश्चेतना धृतिः। विकाराः प्रकृतेश्चैते वेदितव्या मनीषिभिः।। | 13-245-7a 13-245-7b |
लक्षणं चापि सर्वेषां विकल्पं चादितः पृथक्। विस्तरेणैव वक्ष्यामि तस्य व्याख्यामहं शृणु।। | 13-245-8a 13-245-8b |
नित्यमेकमणु व्यापि क्रियाहीनमहेतुकम्। अग्राह्यमिन्द्रियैः सर्वैरेतदव्यक्तलक्षणम्।। | 13-245-9a 13-245-9b |
अव्यक्तं प्रकृतिर्मूलं प्रधानं योनिरव्ययम्। अव्यक्तस्यैव नामानि शब्दैः पर्यायवाचकैः।। | 13-245-10a 13-245-10b |
तत्सूक्ष्मत्वादनिर्देश्यं तत्सदित्यभिधीयते। तन्मूलं च जगत्सर्वं तन्मूला सृष्टिरिष्यते।। | 13-245-11a 13-245-11b |
सत्वादयः प्रकृतिजा गुणास्तान्प्रब्रवीम्यहम्।। | 13-245-12a |
सुखं तुष्टिः प्रकाशश्च त्रयस्ते सात्विका गुणाः। रागद्वेषौ सुखं दुःखं स्तम्भश्च रजसो गुणाः। अप्रकाशो भयं मोहस्तन्द्री च तमसो गुणाः।। | 13-245-13a 13-245-13b 13-245-13c |
श्रद्धा प्रहर्षो विज्ञानमसंमोहो दया धृतिः। सत्वे प्रवृत्ते वर्धन्ते विपरीते विपर्ययः।। | 13-245-14a 13-245-14b |
कामक्रोधौ मनस्तापो लोभो मोहस्तथामृषा। प्रवृद्धे परिवर्धन्ते रजस्येतानि सर्वशः।। | 13-245-15a 13-245-15b |
विषादः संशयो मोहस्तन्द्री निद्रा भयं तथा। तमस्येतानि वर्धन्ते प्रवृद्धे हेत्वहेतुकम्।। | 13-245-16a 13-245-16b |
एवमन्योन्यमेतानि वर्धन्ते च पुनःपुनः। हीयन्ते च तथा नित्यमभिभूतानि भूरिशः।। | 13-245-17a 13-245-17b |
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं कायेन मनसाऽपि वा। वर्तते सात्विको भाव इत्युपेक्षेत तत्तथा।। | 13-245-18a 13-245-18b |
यदा सन्तापसंयुक्तं चित्तक्षोभकरं भवेत्। वर्तते रज इत्येव तदा तदभिचिन्तयेत्।। | 13-245-19a 13-245-19b |
यदा सम्मोहसंयुक्तं यद्विषादकरं भवेत्। अप्रतार्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्।। | 13-245-20a 13-245-20b |
समासात्सात्विको धर्मः समासाद्राजसं धनम्। समासात्तामसः कामस्त्रिवर्गे त्रिगुणाः क्रमात्।। | 13-245-21a 13-245-21b |
ब्रह्मादिदेवसृष्टिर्या सात्विकीति प्रकीर्त्यते। राजसी मानवी सृष्टिस्तिर्यग्योनिस्तु तामिसी।। | 13-245-22a 13-245-22b |
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसाः। जघन्यगुणवृतच्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसाः।। | 13-245-23a 13-245-23b |
देवमानुषतिर्यक्षु यद्भूतं सचराचरम्। आदिप्रभृति संयुक्तं व्याप्तमेभिस्त्रिभिर्गुणैः।। | 13-245-24a 13-245-24b |
अतः परं प्रवक्ष्यामि महदादीनि लिङ्गतः। विज्ञानं च विवेकश्च महतो लक्षणं भवेत्।। | 13-245-25a 13-245-25b |
महान्बुद्धिर्मतिः प्रज्ञा नामानि महतो विदुः। अहङ्कारः स विज्ञेयो लक्षणेन समासतः।। | 13-245-26a 13-245-26b |
अहङ्कारेण भूतानां सर्गो नानाविधो भवेत्। अहङ्कारनिवृत्तिर्हि निर्वाणायोपपद्यते।। | 13-245-27a 13-245-27b |
खं वायुरग्निः सलिलं पृथिवी चेति पञ्चमी। महाभूतानि भूतानां सर्वेषां प्रभवाप्ययौ।। | 13-245-28a 13-245-28b |
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशसम्भवम्। स्पर्शवत्प्राणिनां चेष्टा पवनस्य गुणाः स्मृताः।। | 13-245-29a 13-245-29b |
रूपं पाकोक्षिणी ज्योतिश्चत्वारस्तेजसो गुणाः। रसः स्नेहस्तथा जिह्वा शैत्यं च जलजा गुणाः।। | 13-245-30a 13-245-30b |
गन्धो घ्राणं शरीरं च पृथिव्यास्ते गुणास्त्रयः। इति सर्वगुणा देवि विख्याताः पाञ्चभौतिकाः।। | 13-245-31a 13-245-31b |
गुणान्पूर्वस्यपूर्वस्य प्राप्नुवन्त्युत्तराणि तु। तस्मान्नैकगुणाश्चेह दृश्यन्ते बूतसृष्टयः।। | 13-245-32a 13-245-32b |
उपलभ्याप्सु ये गन्धं केचिद्ब्रूयुरनैपुणाः। अपां गन्धगुणं प्राज्ञा नेच्छन्ति कमलेक्षणे।। | 13-245-33a 13-245-33b |
तद्गन्धत्वमपां नास्ति पृथिव्या एव तद्गुणः। भूमिर्गन्धे रसे स्नेहो ज्योतिश्चक्षुषि संस्थितम्। प्राणापानाश्रयोः वायुः खेष्वाकाशः शरीरिणां | 13-245-34a 13-245-34b 13-245-34c |
केशास्थिनखदन्तत्वक्पाणिपादशिरांसि च। पृष्ठोदरकटिग्रीवाः सर्वं भूम्यात्मकं स्मृतम्।। | 13-245-35a 13-245-35b |
यत्किञ्चिदपि कायेऽस्मिन्धातुदोषमलाश्रितम्। तत्सर्वं भौतिकं विद्धि देहैरेवास्य स्वामिकम्।। | 13-245-36a 13-245-36b |
बुद्धीन्द्रियाणि कर्णत्वक्चक्षुर्जिह्वाऽथ नासिका। कर्मेन्द्रियाणि वाक्पाणिपादौ मेढ्रं गुदस्तथा।। | 13-245-37a 13-245-37b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः। बुद्धीन्द्रियार्थाञ्जानीयाद्भूतेभ्यस्त्वभिनिःसृतान्।। | 13-245-38a 13-245-38b |
वाक्यं क्रिया गतिः प्रीतिरुत्सर्गश्चेति पञ्चधा। कर्मेन्द्रियार्थाञ्जानीयात्ते च भूतोद्भवा मताः।। | 13-245-39a 13-245-39b |
इन्द्रियाणां तु सर्वेषामीश्वरं मन उच्यते। प्रार्थनालक्षणं तच्च इन्द्रियं तु मनः स्मृतम्।। | 13-245-40a 13-245-40b |
नियुङ्क्ते च सदा तानि भूतानि मनसा सह। नियमे च विसर्गे च मनसः कारणं प्रभुः।। | 13-245-41a 13-245-41b |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना धृतिः। भूताभूतविकारश्च शरीरमिति संस्मृतम्।। | 13-245-42a 13-245-42b |
शरीराच्च परो देही शरीरं च व्यपाश्रितः। शरीरिणः शरीरस्य सोऽन्तरं वेत्ति वै मुनिः।। | 13-245-43a 13-245-43b |
रसः स्पर्शस्च गन्धश्च रूपं शब्दविवर्जितम्। अशरीरं शरीरेषु दिदृक्षेत निरिन्द्रियम्। | 13-245-44a 13-245-44b |
अव्यक्तं सर्वदेहेषु मर्त्येष्वमरमाश्रितम्। यः पश्येत्परमात्मानं बन्धनैः स विमुच्यते।। | 13-245-45a 13-245-45b |
नैवायं चक्षुषां ग्राह्यो नापरैरिन्द्रियैरपि। मनसैव प्रदीप्तेन महानात्मा प्रदृश्यते।। | 13-245-46a 13-245-46b |
स हि सर्वेषु भूतेषु स्थावरेषु चरेषु च। वसत्येको महावीर्यो नानाभावसमन्वितः।। | 13-245-47a 13-245-47b |
नैव चोर्ध्वं न तिर्यक्च नाधस्तान्न कदाचन। इन्द्रियैरिव बुद्ध्या वा न दृश्येत कदाचन।। | 13-245-48a 13-245-48b |
नवद्वारं पुरं गत्वा स्थितोऽसौ नियतो वशी। ईश्वरः सर्वलोकेषु स्थावरस्य चरस्य च।। | 13-245-49a 13-245-49b |
तमेवाहुरणुभ्योऽणुं तु महद्भ्यो महत्तरम्। बहुधा सर्वभूतानि व्याप्य तिष्ठति शाश्वतम्।। | 13-245-50a 13-245-50b |
क्षेत्रज्ञमेकतः कृत्वा सर्वं क्षेत्रमथैकतः। एवं स विमृशेज्ज्ञानी संयतः सततं हृदि।। | 13-245-51a 13-245-51b |
पुरुषः प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्। अकर्ता लेपको नित्यो मध्यस्थः सर्वकर्मणाम्।। | 13-245-52a 13-245-52b |
कार्यकारणकर्तृत्वे हेतुः प्रकृतिरुच्यते। पुरुषः सुखदुःखानां भोक्तृत्वे हेतुरुच्यते।। | 13-245-53a 13-245-53b |
अजय्योऽयमचिन्त्योऽयमव्यक्तोऽयं सनातनः। देही तेजोमयो देहि तिष्ठतीत्यपरे विदुः।। | 13-245-54a 13-245-54b |
ज्ञानमूष्मा च वायुश्च शरीरे जीवसंज्ञकः। इत्येते निश्चिता बुद्ध्या तत्रैते बुद्धिचिन्तकाः।। | 13-245-55a 13-245-55b |
अपरे सर्वलोकांश्च व्याप्य तिष्ठन्तमीश्वरम्। ब्रुवते केचिदत्रैव तिलतैलवदास्थितम्।। | 13-245-56a 13-245-56b |
अपरे नास्तिका मूढा हीनत्वात्स्थूललक्षणैः। नास्त्यात्मेति विनिश्चित्याप्रज्ञास्ते निरयालयाः।। | 13-245-57a 13-245-57b |
एवं नानाविधा नैव विमृशन्ति महेश्वरम्।। | 13-245-58a |
उमोवाच। | 13-245-59x |
भगवन्ब्राह्मणो लोके नित्यमक्षरमव्ययम्। अस्त्यात्मा सर्वभूतेषु हेतुस्तत्र सुदुर्गमः।। | 13-245-59a 13-245-59b |
महेश्वर उवाच। | 13-245-60x |
ऋषिभिश्चापि देवैश्च व्यक्तमेष न दृश्यते। दृष्ट्वा तु तं महात्मानं पुनस्तु न निवर्तते।। | 13-245-60a 13-245-60b |
तस्मात्तद्दर्शनादेव विन्दते परमां गतिम्। इति ते कथितो देवि साङ्ख्यधर्मः सनातनः। कपिलादिभिराचार्यैः सेवितः परमर्षिभिः।। | 13-245-61a 13-245-61b 13-245-61c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 245 ।। |
13-245-59 अस्त्यात्मा सर्वदेहेष्विति ङ. पाठः।।
अनुशासनपर्व-244 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-246 |