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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-045

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भीष्मनियोगात्कृष्णेन युधिष्ठिरम्प्रति महादेवमहिमकथनम्।। 1 ।।

युधिष्ठिर उवाच।
पितामह महेशाय नामान्याचक्ष्व शम्भवे।
विदुषे विश्वमायाय महाभाग्यं च तत्वतः।। 13-45-1

भीष्म उवाच।
सुरासुरगुरो देव विष्णो त्वं वक्तुमर्हसि।
शिवाय शिवरूपाय यन्माऽपृच्छद्युधिष्ठिरः।। 13-45-2

नाम्नां सहस्रं देवस्य तण्डिना ब्रह्मवादिना।
निवेदितं ब्रह्मलोके ब्रह्मणो यत्पुराऽभवत्।। 13-45-3

द्वैपायनप्रभृतयस्तथा चेमे तपोधनाः।
ऋषयः सुव्रता दान्ताः शृण्वन्तु गदतस्तव।। 13-45-4

ध्रुवाय नन्दिने होत्रे गोप्त्रे विश्वसृजेऽग्नये।
महाभाग्यं विभोर्ब्रूहि मुण्डिनेऽथ कपर्दिने।। 13-45-5

वासुदेव उवाच।
न गतिः कर्मणां शक्या वेत्तुमीशस्य तत्त्वतः।
हिरण्यगर्भप्रमुखा देवाः सेन्द्रा महर्षयः।। 13-45-6

न विदुर्यस्य निधनमादिं वा सूक्ष्मदर्शिनः।
स कथं नाममात्रेण शक्यो ज्ञातुं सतां गतिः।। 13-45-7

तस्याहमसुरघ्नस्य कांश्चिद्भगवतो गुणान्।
भवतां कीर्तयिष्यामि व्रतेशाय यथातथम्।। 13-45-8

वैशम्पायन उवाच।
एवमुक्त्वा तु भगवान्गुणांस्तस्य महात्मनः।
उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा कथयामास धीमतः।। 13-45-9

वासुदेव उवाच।
शुश्रूषध्वं ब्राह्मणेन्द्रास्त्वं च तात युधिष्ठिर।
त्वं चापगेय नामानि निशामय जगत्पतेः।। 13-45-10

यदवाप्तं च मे पूर्वं साम्बहेतोः सुदुष्करम्।
यथावद्भगवान्दृष्टो मया पूर्वं समाधिना।। 13-45-11

शम्बरे निहते पूर्वं रौक्मिणेयेन धीमता।
अतीते द्वादशे वर्षे जाम्बवत्यब्रवीद्धि माम्।। 13-45-12

प्रद्युम्नचारुदेष्णादीन्रुक्मिण्या वीक्ष्य पुत्रकान्।
पुत्रार्थिनी मामुपेत्य वाक्यमाह युधिष्ठिर।। 13-45-13

शूरं बलवतां श्रेष्ठं कान्तरूपमकल्मषम्।
आत्मतुल्यं मम सुतं प्रयच्छाच्युत माचिरम्।। 13-45-14

न हि तेऽप्राप्यमस्तीह त्रिषु लोकेषु किञ्चन।
लोकान्सृजेस्त्वमपरानिच्छन्यदुकुलोद्वह।। 13-45-15

त्वया द्वादशवर्षाणि व्रतीभूतेन शुष्यता।
आराध्य पशुभर्तारं रुक्मिण्यां जनिताः सुताः।। 13-45-16

चारुदेष्णः सुचारुश्च चारुवेशो यशोधरः।
चारुश्रवाश्चारुयशाः प्रद्युम्नः सम्भुरेव च।। 13-45-17

यथा ते जनिताः पुत्रा रुक्मिण्यां चारुविक्रमाः।
तथा ममापि तनयं प्रयच्छ मधुसूदन।। 13-45-18

इत्येवं चोदितो देव्या तामवोचं सुमध्यमाम्।
अनुजानीहि मां राज्ञि करिष्ये वचनं तव।। 13-45-19

सा च मामब्रवीद्गच्छ शिवाय विजयाय च।
ब्रह्मा शिवः काश्यपश्च नद्यो देवा मनोऽनुगाः। 13-45-20

क्षेत्रौषध्यो यज्ञवाहाश्छन्दास्यृषिगणाध्वराः।
समुद्रा दक्षिणा स्तोभा ऋक्षाणि पितरो ग्रहाः।। 13-45-21

देवपत्न्यो देवकन्या देवमातर एव च।
मन्वन्तराणि गावश्च चन्द्रमाः सविता हरिः।। 13-45-22

सावित्री ब्रह्मविद्या च ऋतवो वत्सरास्तथा।
क्षणा लवा मुहूर्ताश्च निमेषा युगपर्ययाः।। 13-45-23

रक्षन्तु सर्वत्र गतं त्वां यादव सुखाय च।
अरिष्टं गच्छ पन्थानमप्रमत्तो भवानघ।। 13-45-24

एवं कृतस्वस्त्ययनस्तयाऽहं
ततोऽभ्यनुज्ञाय नरेन्द्रपुत्रीम्।
पितुः समीपं नरसत्तमस्य
मातुश्च राज्ञश्च तथाऽऽहुकस्य।। 13-45-25



ततःसमृद्धिर्भवतोऽस्त्वविघ्नम्।।
प्राप्यानुज्ञां गुरुजनादहं तार्क्ष्यमचिन्तयम्।
सोवहद्धिमवन्तं मां प्राप्य चैनं व्यसर्जयम्।। 13-45-27

तत्राहमद्बुतान्भावानपश्यं गिरिसत्तमे।
क्षेत्रं च तपसां श्रेष्ठं पश्याम्यद्भुतमुत्तमम्।। 13-45-28

दिव्यं वैयाघ्रपद्यस्य उपमन्योर्महात्मनः।
पूजितं देवगन्धर्वैर्ब्राह्मया लक्ष्म्या समावृतम्।। 13-45-29

धवककुभकदम्बनारिकेलैः
कुरवककेतकजम्बुपाटलाभिः।
वटवरुणकवत्सनाभविल्वैः
सरलकपित्थप्रियालसालतालैः।। 13-45-30



बदरीकुन्दपुन्नागरैशोकाम्रातिमुक्तकैः।
मधूकैः कोविदारैश्च चम्पकैः पनसैस्तथा।। 13-45-31

वन्यैर्बहुविधैर्वृक्षैः फलपुष्पप्रदैर्युतम्।
पुष्पगुल्मलताकीर्णं कदलीषण्डशोभितम्।। 13-45-32

नानाशकुनिसम्भोज्यैः फलैर्वृक्षैरलङ्कृतम्।
यथास्थानविनिक्षिप्तैर्भूषितं भस्मराशिभिः।। 13-45-33

रुरुवानरशार्दूलसिंहद्वीपिसमाकुलम्।
कुरङ्गबर्हिणाकीर्णं मार्जारभुजगावृतम्।
पूगैश्च मृगजातीनां महिषर्क्षनिषेवितम्।। 13-45-34


सकृत्प्रभिन्नैश्च गजैर्विभूषितं
प्रहृष्टनानाविधपक्षिसेवितम्।
सुपुष्पितैरम्बुधरप्रकाशै-
र्महीरुहाणां च वनैर्विचित्रैः।। 13-45-35


नानापुष्परजोमिश्रो गजदानाधइवासितः।
दिव्यस्त्रीगीतबहुलो मारुतोऽभिमुखो ववौ 13-45-36

धारानिनादैर्विहगप्राणादैः
शुभैस्तथा बृंहितैः कुञ्जराणाम्।
गीतैस्तथा किन्नराणामुदारैः
शुभैः स्वनैः सामगानां च वीर।। 13-45-37

अचिन्त्यं मनसाऽप्यन्यैः सरोभिः समलङ्कृतम्।
विशालैश्चाग्निशरणैर्भूषितं कुसुमावृतैः।। 13-45-38

विभूषितं पुण्ययवित्रतोयया
सदा च जुष्टं नृप जह्नुकन्यया।
विभूषितं धर्मभृतां वरिष्ठै-
र्महात्मभिर्वह्निसमानकल्पैः।। 13-45-39


वाय्वाहारैरम्बुपैर्जप्यनित्यैः
सम्प्रक्षालैर्योगिभिर्ध्याननित्यैः।
धूमप्राशैरूष्मपैः क्षीरपैश्च
संजुष्टं च ब्राह्मणेन्द्रैः समन्तात्।। 13-45-40

गोचारिणोऽर्थाश्मकुट्टा दन्तोलूखलिकास्तथा।
मरीचिपाः फेनपाश्च तथैव मृगचारिणः।। 13-45-41

अश्वत्थफलभक्षाश्च तथा ह्युदकशायिनः।
चीचचर्माम्बरधरास्तथा वल्कलधारिणः।। 13-45-42

सुदुःखान्नियमांस्तांस्तान्वहतः सुतपोधनान्।
पश्यन्मुनीन्बहुविधानप्रवेष्टुमुपचक्रमे।। 13-45-43

सूपूजितं देवगणैर्महात्मभिः
शिवादिभिर्भारतपुण्यकर्मभिः।
रराज तच्चाश्रममण्डलं सदा
दिवीव राजञ्शशिमण्डलं यथा।। 13-45-44

क्रीडन्ति सर्पैर्नकुला मृगैर्व्याघ्राश्च मित्रवत्।
प्रभावाद्दीप्ततपसां सन्निकर्षान्महात्मनाम्।। 13-45-45

तत्राश्रमपदे श्रेष्ठे सर्वभूतमनोरम।
सेविते द्विजशार्दूलैर्वेदवेदाङ्गपारगैः।। 13-45-46

नानानियमविख्यातैर्ऋषिभि सुमहान्मभिः।
प्रविशन्नेव चापश्यं जटाचीरधरं प्रभुम्।। 13-45-47

तेजसा तपसा चैव दीप्यमानं यथाऽनलम्।
शिष्यैरनुगतं शान्तं युवानं ब्राह्मणर्वभम्।। 13-45-48

शिरसा वन्दमानं मामुपमन्युरभाषत।। 13-45-49
स्वागतं पुण्डरीकाक्ष सफलानि तपांसि नः।
यः पूज्यः पूजयसि मां द्रष्टव्यो द्रष्टुमिच्छसि।। 13-45-50

मनुष्यतानुवृत्त्या त्वा ज्ञात्वा तिष्ठाम सर्वगम्।'
तमहं प्राञ्जलिर्भूत्वा मृगपक्षिष्वथाग्निषु।
धर्मे च शिष्यवर्गे च समपृच्छमनामयम्।। 13-45-51

ततो मां भगवानाह साम्ना परमवल्गुना।
लप्स्यसे तनयं कृष्णि आत्मतुल्यमसंशयम्।। 13-45-52

तपः सुमहदास्थाय तोषयेशानमीश्वरम्।
इह देवः सपत्नीकः समाक्रीडत्यधोक्षज।। 13-45-53

इहैनं दैवतश्रेष्ठं देवाः सर्षिगणाः पुरा।
तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च दमेन च।। 13-45-54

तोषयित्वा शुभान्कामान्प्राप्तवन्तो जनार्दन।
तेजसां सपसां चैव निधिः स भगवानिह।। 13-45-55

शुभाशुभान्वितान्भावान्विसृजन्स क्षिपन्नपि।
आस्ते देव्या सहाचिन्त्यो यं प्रार्थयसि शत्रुहन्।। 13-45-56

हिरण्यकशिपुर्योऽभूद्दानवो मेरुकम्पनः।
तेन सर्वामरैश्वर्यं शर्वात्प्राप्तं समार्बुदम्।। 13-45-57

तस्यैव पुत्रप्रवरो दमनो नाम विश्रुतः।
महादेववराच्छक्रं वर्षार्बुदमयोधयम्।। 13-45-58

विष्णोश्चक्रं च तद्धोरं वज्रमाखण्डलस्य च।
शीर्णं पुराऽभवत्तात ग्रहस्याङ्गेषु केशव।। 13-45-59

[यत्तद्भगवता पूर्वं दत्तं चक्रं तवानघ।
जलान्तरचरं हत्वा दैत्यं च बलगर्वितम्।। 13-45-60

उत्पादितं वृषाङ्केन दीप्तज्वलनसन्निभम्।
दत्तं भगवता तुभ्यं दुर्धषं तेजसाऽद्भुतम्।। 13-45-61

न शक्यं द्रष्टुमन्येन वर्जयित्वा पिनाकिनम्।
सुदर्शनं भवत्येवं भवेनोक्तं तदा तु तत्।। 13-45-62

सुदर्शनं तदा तस्य लोके नाम प्रतिष्ठितम्।
तज्जीर्णमभावत्तात ग्रहस्याङ्गेषु केशव। 13-45-63

ग्रहस्यातिवलस्याङ्गे वरदत्तस्य धीमतः।
न शस्त्राणि वहन्त्यङ्गे चक्रवज्रशतान्यपि।।] 13-45-64

अर्द्यमानाश्च विबुधा ग्रहेणि सुबलीयसा।
शिवदत्तवराञ्जघ्नुरसुरेन्द्रान्सुरा भृशम्।। 13-45-65

तृष्टो विद्युत्प्रभस्यापि त्रिलोकेश्वरतां ददौ।
शतं वर्षसहस्राणां सर्वलोकेश्वरोऽभवत्।। 13-45-66

ममैवानुचरो नित्यं भवितासीति चाब्रवीत्।
तथा पुत्रसहस्राणामयुतं च ददौ प्रभुः।। 13-45-67

कुशद्वीपं च स ददौ राज्येन भगवानजः।
[तथा शतमुखो नाम धात्रा सृष्टो महासुरः। 13-45-68

येन वर्षशतं साग्रमात्ममांसैर्हुतोऽनलः।
तं प्राह भववांस्तुष्टः किंकरोमीति शंकरः।। 13-45-69

तं वै शतमुखः प्राह योगो भवतु मेऽद्भुतः।
बलं च दैवतश्रेष्ठ शाश्वतं सम्प्रयच्छ मे।। 13-45-70

तथेति भगवानाह तस्य तद्वचनं प्रभुः।
स्वायंभुवः क्रतुश्चापि पुत्रार्थमभवत्पुरा।। 13-45-71

आविश्य योगेनात्मानं त्रीणि वर्षशतान्यपि।
तस्य चोपददौ पुत्रान्सहस्रं क्रतुसम्मितान्।]
योगेश्वरं देवगीतं वेत्थ कृष्ण न संशयः।। 13-45-72

याज्ञवल्क्य इति ख्यात ऋषिः परमधार्मिकः।
आराध्य स महादेवं प्राप्तवानतुलं यशः।। 13-45-73

वेदव्यासश्च योगात्मा पराशरसुतो मुनिः।
सोऽपि शंकरमाराध्य प्राप्तवानतुलं यशः।। 13-45-74

वालखिल्या मघवता ह्यवज्ञाताः पुरा किल।
तैः क्रुद्धैर्भगवान्रुद्रस्तपसा तोषितो ह्यभूत्।। 13-45-75

तांश्चापि दैवतश्रेष्ठः प्राह प्रीतो जगत्पतिः।
सुपर्णं सोमहर्तारं तपसोत्पादयिष्यथ।। 13-45-76

महादेवस्य रोषाच्च आपो नष्टाः पुराऽभवन्।
ताश्च सप्तकपालेन देवैरन्याः प्रवर्तिताः।। 13-45-77

ततः पानीयमभवत्प्रसन्ने त्र्यम्बके भुवि।
अत्रिभार्या सुतं दत्तं सोमं दुर्वाससं प्रभो।। 13-45-78

अत्रेर्भार्याऽपि भर्तारं संत्यज्य ब्रह्मवादिनी।
नाहं तव मुने भूयो वशगा स्यां कथञ्चन।। 13-45-79

इत्युक्त्वा सा महादेवमगमच्छरणं किल।
निराहास भयादत्रेस्त्रीणि वर्षशतान्यपि।। 13-45-80

अशेत मुसलेष्वेव प्रसादार्थं भवस्य सा।
तामब्रवीद्धसन्देवो भविता वै सुतस्तव।। 13-45-81

विना भर्त्रा चरुद्रेण भविष्यति न संशयः।
वंशे तवैव नाम्ना तु ख्यातिं यास्यति चेप्सिताम्।। 13-45-82

विकर्णश्च महादेवं तथा भक्तसुखावहम्।
प्रसाद्य भगवान्सिद्धिं प्राप्तवान्मधुसूदन।। 13-45-83

शाकल्यः संशितात्मा वै नववर्षशतान्यपि।
आराधयामास भवं मनोयज्ञेन केशव।। 13-45-84

तं चाह भगवांस्तुष्टो ग्रन्थकारो भविष्यसि।
वत्साक्षया च ते कीतिस्त्रेलोक्ये वै भविष्यति।। 13-45-85

अक्षयं च कुलं तेऽस्तु महर्षिभिरलंकृतम्।
भविष्यति द्विजश्रेष्ठः सूत्रकर्ता सुतस्तव।। 13-45-86

सावर्णिश्चापि विख्यात ऋषिरासीत्कृते युगे।
इह तेन तपस्तप्तं षष्टिवर्षशतान्यथ।। 13-45-87

तमाह भगवान्रुद्रः साक्षात्तुष्टोस्मि तेऽनघ।
ग्रन्थकृल्लोकविख्यातो भवितास्यजरामरः।। 13-45-88

शक्रेणि तु पुरा देवो वाराणस्यां जनार्दन।
आराधितोऽभूद्भक्तेन दिग्वासा भस्मगुष्ठितः।।
आराध्य स महादेवं देवराज्यमवाप्तवान्।। 13-45-89


नारदेन तु भक्त्याऽसौ भव आराधितः पुरा।
तस्य तुष्टो महादेवो जगौ देवगुरुर्गुरुः।। 13-45-90

तेजसा तपसा कीर्त्या त्वत्समो न भविष्यति।
गीतेन वादितव्येन नित्यं मामनुयास्यसि।। 13-45-91

`बाणः स्कन्दसमत्वं च कामो दर्पविमोक्षणम्।
लवणोऽवध्यतामन्यैर्दशास्यश्च पुनर्बलम्।
अन्तकोऽन्तमनुप्राप्तस्तस्मात्कोऽन्यः परः प्रभुः।। 13-45-92


मयाऽपि च यथा दृष्टो देवदेवः पुरा विभो।
साक्षात्पशुपतिस्तात तच्चापि शृणु माधव।। 13-45-93

यदर्थं च मया देवः प्रयतेन तथा विभो।
आराधितो महातेजास्तच्चापि शृणु विस्तरात्।। 13-45-94

यदवाप्तं च मे पूर्वं देवदेवान्महेश्वरात्।
तत्सर्वं निखिलेनाद्य कथयिष्यामि तेऽनघ 13-45-95

पुरा कृतयुगे तात ऋषिरासीन्महायशाः।
व्याघ्रपाद इति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः।
तस्याहमभवं पुत्रो धौम्यश्चापि ममानुजः।। 13-45-96

कस्यचित्त्थ कालस्य धौम्येन सह माधव।
आगच्छमाश्रमं क्रीडन्मुनीनां भावितात्मनाम्।। 13-45-97

तत्रापि च मया दृष्टा दुह्यमाना पयस्विनी।
लक्षितं च मया क्षीरं स्वादुतो ह्यमृतोपमम्।। 13-45-98

तदाप्रभृति चैवाहमरुदं मधुसूदन।
दीयतां दीयतां क्षीरं मम मातरितीरिता।। 13-45-99

अभावाच्चैव दुग्धस्य दुःखिता जननी तदा।। 13-45-100
ततः पिष्टं समालोड्य तोयेन सह माधव।
आवयोः क्षीरमित्येव पानार्थं समुपानयत्।। 13-45-101

अथ गव्यं पयस्तात कदाचित्प्राशितं मया। 13-45-102
पित्राऽहं यज्ञकाले हि नीतो ज्ञातिकुलं महत्।
तत्र सा क्षरते देवी दिव्या गौः सुरनन्दिनी।। 13-45-103

यस्ताहं तत्पयः पीत्वा रसेन ह्यमृतोपमम्।
ज्ञात्वा क्षीरगुणांश्चैव उपलभ्य हि सम्भवम्।
स च पिष्टरसस्तात न मे प्रीतिमुपावहत्।। 13-45-104

ततोऽहमब्रुवं बाल्याज्जननीमात्मनस्तदा।
नेदं क्षीरोदनं मातर्यत्त्वं मे दत्तवत्यसि।। 13-45-105

ततो मामब्रवीन्माता दुःखशोकसमन्विता।
पुत्रस्नेहात्परिष्वज्य मूर्ध्नि चाघ्राय माधव।। 13-45-106

कुतः क्षीरोदनं वत्स मुनीनां भावितात्मनम्।
वने निवसतां नित्यं कन्दमूलफलाशिनाम्।। 13-45-107

आस्थितानां नदीं दिव्यां वालखिल्यैर्निषेविताम्
कुत क्षीरं वनस्थानां मुनीनां गिरिवासिनाम्।। 13-45-108

पावनानां वनाशानां वनाश्रमनिवासिनाम्।
ग्राम्याहारनिवृत्तानामारण्यफलभोजिनाम्।
नास्ति पुत्र पयोऽरण्ये सुरभीगोत्रवर्जिते।। 13-45-109

नदीगह्वरशैलेषु तीर्थेषु विविधेषु च।
तपसा जप्यनित्यानां शिवो नः परमा गतिः।। 13-45-110

अप्रसाद्य विरूपाक्षं वरदं स्थाणुमव्ययम्।
कुतः क्षीरोदनं वत्स सुखानि वसनानि च।। 13-45-111

तं प्रपद्य सदा वत्स सर्वभावेन शङ्करम्।
तत्प्रसादाच्च कामेभ्यः फलं प्राप्स्यसि पुत्रक।। 13-45-112

जनन्यास्तद्वचः श्रुत्वा तदाप्रभृति शत्रुहन्।
[प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा इदमम्बामवोचयं।। 13-45-113

कोऽयमम्ब महादेवः स कथं च प्रसीदति।
कुत्र वा वसते देवो द्रष्टव्यो वा कथञ्चन।। 13-45-114

तुष्यते वा कथं शर्वो रूपं तस्य च कीदृशम्।
कथं ज्ञेयः प्रसन्नो वा दर्शयेज्जननी मम।। 13-45-115

एवमुक्ता तदा कृष्ण माता मे सुतवत्सला।
मूर्घन्याध्राय गोविन्द सबाष्पाकुललोचना।। 13-45-116

प्रमार्जन्ती च गात्राणि मम वै मधुसूदन।।
दैन्यमालम्ब्य जननी इदमाह सुरोत्तम।। 13-45-117

दुर्विज्ञेयो महादेवो दुराधारो दुरन्तकः।
दुराबाधश्च दुर्ग्राह्यो दुर्द्दश्यो ह्यकृतात्मभिः।। 13-45-118

यस्य रूपाण्यनेकानि प्रवदन्ति मनीषिणः।
स्थानानि च विचित्राणि प्रासादाश्चाप्यनेकशः।। 13-45-119

को हि तत्त्वेन तद्वेद ईशस्य चरितं शुभम्।
कृतवान्यानि रूपाणि देवदेवः पुरा किल।
क्रीडते च तथा शर्वः प्रसीदति यथाच वै।। 13-45-120

हृदिस्थः सर्वभूतानां विश्वरूपो महेश्वरः।
भक्तानामनुकम्पार्थं दर्शनं च यथाश्रुतम्।
मुनीनां ब्रुवतां दिव्यमीशानचरितं शुभम्।। 13-45-121

कृतवान्यानि रूपाणि कथितानि दिवौकसैः।
अनुग्रहार्थं विप्राणां शृणु वत्स समासतः।। 13-45-122

तानि ते कीर्तयिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। 13-45-123
ब्रह्मविष्णुसुरेन्द्राणां रुद्रादित्याश्विनामपि।
विश्वेषामपि देवानां वपुर्धारयते भवः।। 13-45-124

नराणां देवनारीणां तथा प्रेतपिशाचयोः।
किरातशबराणां च जलजानामनेकशः।। 13-45-125

करोति भगवान्रूपमाटव्यशबराण्यपि।
कूर्मो मत्स्यस्तथा शङ्खः प्रवालाङ्कुरभूषणः।। 13-45-126

यक्षराक्षससर्पाणां दैत्यदानवयोरपि।
वपुर्धारयते देवो भूयश्च बिलवासिनाम्।। 13-45-127

व्याघ्रसिंहमृगाणां च तरक्ष्वृक्षपतत्त्रिणाम्।
उलूकश्वशृगालानां रूपाणि कुरुतेऽपि च।। 13-45-128

हंसकाकमयूराणां कृकलासकसारसाम्।
रूपाणि च बलाकानां गृध्रचक्राङ्गयोरपि।। 13-45-129

करोति वा स रूपाणि धारयत्यपि पर्वतम्।
गोरूपं च महादेवो हस्त्यश्वोष्ट्रखराकृतिः।। 13-45-130

छागशार्दूलरूपश्च अनेकमृगरूपधृक्।
अण्डजानां च दिव्यानां वपुर्धारयते भवः।। 13-45-131

दण्डी छत्री च कुण्डी च द्विजानां वारणस्तथा।
षण्मुखो वै बहुमुखस्त्रिनेत्रो बहुशीर्षकः।। 13-45-132

अनेककटिपादश्च अनेकोदरवक्त्रधृत्।
अनेकपाणिपार्श्वश्च अनेकगपसंवृतः।। 13-45-133

ऋषिगन्धर्वरूपश्च सिद्धचारणरूपधृत्।
भस्पपाण्डुरगात्रश्च चन्द्रार्धकृतभूषणः।। 13-45-134

अनेकरावसंघुष्टश्चानेकस्तुतिसंस्कृतः।
सर्वभूतान्तकः सर्वः सर्वलोकप्रतिष्ठितः।। 13-45-135

सर्वलोकान्तरात्मा च सर्वगः सर्ववाद्यपि।
सर्वत्र भगवान्ज्ञेयो हृदिस्थः सर्वदेहिनाम्।। 13-45-136

यो हि यं कामयेत्कामं यस्मिन्नर्थऽर्च्यते पुनः।
तत्सर्वं वेत्ति देवेशस्तं प्रपद्य यदीच्छसि।। 13-45-137

नन्दते कुप्यते चापि तथा हुंकारयत्यपि।
चक्री शूली गदापाणिर्मुसली खड्गपट्टसी।। 13-45-138

भूधरो नागमौञ्जी च नागकुण्डलकुण्डली।
नागयज्ञोपवीती य नागचर्मोत्तरच्छदः।। 13-45-139

हसते गायते चैव नृत्यते च मनोहरम्।
वादयत्यपि वाद्यानि विचित्राणि गणैर्युतः।। 13-45-140

वल्गते जृम्बते चैव रुदते रोदयत्यपि।
उन्मत्तमत्तरूपं च भाषते चापि सुस्वरः।। 13-45-141

अतीव हसते रौद्रस्त्रासयन्नयनैर्जनम्।
जागर्ति चैव स्वपिति जृम्भते च यथासुवम्।। 13-45-142

जपते जप्यते चैव तपते तप्यते पुनः।
ददाति प्रतिगृह्णाति युञ्जते ध्यायतेऽपि च।। 13-45-143

वेदीमध्ये तथा यूपे गोष्ठमध्ये हुताशने।
दृश्यते दृश्यते चापि बालो वृद्धो युवा तथा।। 13-45-144

क्रीडते ऋषिकन्याभिर्ऋषिपत्नीभिरेव च।
ऊर्ध्वकेशो महाशेफो नग्नो विकृतलोचनः।। 13-45-145

गौरः श्यामस्तथा कृष्णः पाण्डुरो धूमलोहितः।
विकृताक्षो विशालाक्षो दिग्वासाः सर्ववासकः।। 13-45-146

अरूपस्याद्यरूपस्य अतिरूपाद्यरूपिणः।
अनाद्यन्तमजस्यान्तं वेत्स्यते कोस्य तत्त्वतः।। 13-45-147

हृदि प्राणो मनो जीवो योगात्मा योगसंज्ञितः।
ध्यानं तत्परमात्मा च भावग्राह्यो महेश्वरः।। 13-45-148

वादको गायनश्चैव सहस्रशतलोचनः।
एकवक्त्रो द्विवक्त्रश्च त्रिवक्त्रोऽनेकवक्त्रकः।। 13-45-149

तद्भक्तस्तद्गतो नित्यं तन्निष्ठस्तत्परायणः।
भज पुत्र महादेवं ततः प्राप्स्यसि चेप्सितं।। 13-45-150

जनन्यास्तद्वचः श्रुत्वा तदाप्रभृति शत्रुहन्।]
मम भक्तिर्महादेवे नैष्ठिकी समपद्यत।। 13-45-151

ततोऽहं तप आस्थाय तोषयामास शंकरम्।
दिव्यं वर्षसहस्रं तु वामाङ्गुष्ठाग्रविष्ठितः।। 13-45-152

एकं वर्षशतं चैव फलाहारस्ततोऽभवम्।
द्वितीयं शीर्णपर्णाशी तृतीयं चाम्बुभोजनः।। 13-45-153

शतानि सप्त चैवाहं वायुभक्षस्तदाऽभवम्।
एकं वर्षसहस्रं तु दिव्यमाराधितो मया।। 13-45-154

ततस्तुष्टो महादेवः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः।
एकभक्त इति ज्ञात्वा जिज्ञासां कुरुते तदा।। 13-45-155

शक्ररूपं स कृत्वा तु सर्वैर्देवगणैर्वृतः।
सहस्राक्षस्तदा भूत्वा वज्रपाणिर्महायशाः।। 13-45-156

सुधावदातं रक्ताक्षं स्तब्धकर्णं मदोत्कटम्।
आवेष्टतकरं घोरं चतुर्दष्ट्रं महागजम्।। 13-45-157

समास्थितः स भगवान्दीप्यमानः स्वतेजसा।
आजगाम किरीटी तु हारकेयूरभूषितः।। 13-45-158

पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि।
सेव्यभानोप्सरोभिश्च दिव्यगन्धर्वनादितैः।। 13-45-159

ततो मामाह देवेन्द्रस्तुष्टस्तेऽहं द्विजोत्तम।
वरं वृणीष्व मत्तस्त्वं यत्ते मनसि वर्तते।। 13-45-160

शक्रस्य तु वचः श्रुत्वा नाहं प्रीतमनाऽभवम्।
अब्रवं च तदा कृष्ण देवराजमिदं वचः।। 13-45-161

नाहं त्वत्तो वरं काङ्क्षे नान्यस्मादपि दैवतात्।
महादेवादृते सौम्य सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। 13-45-162

सत्यंसत्यं हि नः शक्र वाक्यमेतत्सुनिश्चितम्।
न यन्मिहेश्वरं मुक्त्वा कथाऽन्या मम रोचते।। 13-45-163

पशुपतिवचनाद्भवामि सद्यः
कृमिरथवा तरुरप्यनेकशाखः।
अपशुपतिवरप्रसादजा मे
त्रिभुवनराज्यविभूतिरप्यनिष्टा।। 13-45-164

[जन्मश्वपाकमध्येऽ-
पि मेऽस्तु हरचरणवन्दनरतस्य।
मा वाऽनीश्वरभक्तो
भवानि भवनेऽपि शक्रस्य।। 13-45-165

वाय्वम्बुभुजोऽपि सतो।
नरस्य दुःखक्षयः कुतस्तस्य।
भवति हि सुरासुरगुरौ
यस्य न विश्वेश्वरे भक्तिः।। 13-45-166

अलमन्याभिस्तेषां
कथाभिरप्यन्यधर्मयुक्ताभिः।
येषां न क्षणमपि रुचितो
हरचरणस्मरणविच्छेदः।। 13-45-167

हरचरणनिरतमतिना
भवितव्यमनार्जवं युगं प्राप्य।
संसारभयं न भवति
हरभक्तिरसायनं पीत्वा।। 13-45-168

दिवसं दिवसार्धं वा मुहूर्तं वा क्षणं लवम्।
न ह्यलब्धप्रसादस्य भक्तिर्भवति शङ्करे।।] 13-45-169

अपि कीटः पतङ्गो वा भवेयं शङ्कराज्ञया।
न तु शक्र त्वया दत्तं त्रैलोक्यमपि कामये।। 13-45-170

[श्वाऽपि महेश्वरवचना-
द्भवामि स हि नः परः कामः।
त्रिदशगणराज्यमपि खलु
नेच्छाम्यमहेश्वराज्ञप्तम्।। 13-45-171

न नाकपृष्ठं न च देवराज्यं
न ब्रह्मलोकं न च निष्कलत्वम्।
न सर्वकामानखिलान्वृणोमि
हरस्य दासत्वमहं वृणोमि।।] 13-45-172

यावच्छशाङ्कधवलामलबद्धमौलि-
र्न प्रीयते पशुपतिर्भगवान्ममेशः।
तावज्जरामरणजन्मशताभिघातै-
र्दुःखानि देहविहितानि समुद्वहामि।। 13-45-173

दिवसकरशशाङ्कवह्निदीप्तं
त्रिभुवनसारमसारमाद्यमेकम्।
अजरममरमप्रसाद्य रुद्रं
जगति पुमानिह को लभेत शान्तिं।। 13-45-174

धिक्तेषां धिक्तेषां
पुनरपि च धिगस्तु धिक्तेषाम्।
येषां न वसति हृदये
कुपथगतिविमोक्षको रुद्रः'।। 13-45-175

यदि नाम जन्म भूयो
भवति मदीयैः पुनर्दोषैः।
तस्मिंस्तस्मिञ्जन्मनि
भवे भवेन्मेऽक्षया भक्तिः।। 13-45-176

शक्र उवाच।
कः पुनर्भवने हेतुरीशे कारणकारणे।
येन शर्वादृतेऽन्यस्मात्प्रसादं नाभिकाङ्क्षसि।। 13-45-177

[उपमन्युरुवाच।
सदसद्व्यक्तमव्यक्तं यमाहुर्ब्रह्मवादिनः।
नित्यमेकमनेकं च वरं तस्माद्वृणीमहे।। 13-45-178

अनादिमध्यपर्यन्तं ज्ञानैश्वर्यमचिन्तितम्।
आत्मानं परमं यस्माद्वरं तस्माद्वृणीमहे।। 13-45-179

ऐश्वर्यं सकलं यस्मादनुत्पादितमव्ययम्।
अबीजाद्बीजसम्भूतं वरं तस्माद्वृणीमहे।। 13-45-180

तमसः परमं ज्योतिस्तपस्तद्वृत्तिनां परम्।
यं ज्ञात्वा नानुशोचन्ति वरं तस्माद्वृणीमहे।। 13-45-181

भूतभावनभावज्ञं सर्वभूताभिभावनम्।
सर्वगं सर्वदं देवं पूजयामि पुरंदर।। 13-45-182

हेतुवादैर्विनिर्मुक्तं साङ्ख्ययोगार्थदं परम्।
यमुपासन्ति तत्त्वज्ञा वरं तस्माद्वृणीमहे।। 13-45-183

मघवन्मघवात्मानं यं वदन्ति सुरेश्वरम्।
सर्वभूतगुरुं देवं वरं तस्माद्वृणीमहे।। 13-45-184

यत्पूर्वमसृजद्देवं ब्रह्माणं लोकभावनम्।
अण्डमाकाशमापूर्य वरं तस्माद्वृणीमहे।। 13-45-185

अग्निरापोऽनिलः पृथ्वी खं बुद्धिश्च मनो महान्।
स्रष्टा चैषां भवेद्योऽन्यो ब्रूहि कः परमेश्वरात्।। 13-45-186

मनो मतिरहङ्कारस्तन्मात्राणीन्द्रियाणि च।
ब्रूहि चैषां भवेच्छक्र कोऽन्योस्ति परमं शिवात्।। 13-45-187

स्रष्टारं भुवनस्येह वदन्तीह पितामहम्।
आराध्य स तु देवेशमश्नुते महतीं क्षियम्।। 13-45-188

भगवत्युत्तमैश्वर्यं ब्रह्मविष्णुपुरोगमम्।
विद्यते वै महादेवाद्ब्रूहि कः परमेश्वरात्।। 13-45-189

दैत्यदानवमुख्यानामाधिपत्यारिमर्दनात्।
कोऽन्यः शक्रोति देवेशाद्दितेः सम्पादितुं सुतान्।। 13-45-190

दिक्कालसूर्यतेजांसि ग्रहवाय्विन्दुतारकाः।
विद्धि त्वेते महादेवाद्ब्रूहि कः परमेश्वरात्।। 13-45-191

अथोत्पत्तिविनाशे वा यज्ञस्य त्रिपुरस्य वा।
दैत्यदानवमुख्यानामाधिपत्यारिमर्दनः।। 13-45-192

किं चात्र बहुभिः सूक्तैर्हेतुवादैः पुरंदर।
सहस्रनयनं दृष्ट्वा त्वामेव सुरसत्तम।। 13-45-193

पूजितं सिद्धगन्धर्वैर्देवैश्च ऋषिभिस्तथा।
देवदेवप्रसादेन तत्सर्वं कुशिकोत्तम।। 13-45-194

अव्यक्तमुक्तकेशाय सर्वगस्येदमात्मकम्।
चेतनाचेतनाद्येषु शक्र विद्धि महेश्वरात्।। 13-45-195

भुवाद्येषु महान्तेषु लोकालोकान्तरेषु च।
द्वीपस्थानेषु मेरोश्च विभवेष्वन्तरेषु च। 13-45-196

भगवन्मघवन्देवं वदन्ते तत्त्वदर्शिनः।।
यदि देवाः सुराः शक्र पश्यन्त्यन्यां भवाकृतिम्। 13-45-197

किं न गच्छन्ति शरणं मर्दिताश्चासुरैः सुराः।।
अभिघातेषु देवानां सयक्षोरगरक्षसाम्। 13-45-198

परस्परविनाशीषु स्वस्थानैश्वर्यदो भवः।।
अन्धकस्याथ शुक्रस्य दुन्दुभेर्महिषस्य च।
यक्षेन्द्रबलरक्षःसु निवातकवचेषु च।
वरदानावघाताय ब्रूहि कोऽन्यो महेश्वरात्।। 13-45-199

सुरासुरगुरोर्वक्त्रे कस्य रेतः पुरा हुतम्।
कस्य वाऽन्यस्य रेतस्तद्येन हैमो गिरिः कृतः।। 13-45-200

दिग्वासाः कीर्त्यते कोऽन्यो लोके कश्चोर्ध्वरेतसः।
कस्य चार्धे स्थिता कान्ता अनङ्गः केन निर्जितः।। 13-45-201

ब्रूहीन्द्र परमं स्थानं कस्य देवैः प्रशस्यते।
श्मशाने कस्य क्रीडार्थं नृत्ते वा कोऽभिभाष्यते।। 13-45-202

कस्यैश्वर्यं समानं च भूतैः को वाऽपि क्रीडते।
कस्य तुल्यबला देवगणाश्चैश्वर्यदर्पिताः।। 13-45-203

घुष्यते ह्यचलं स्थानं कस्य त्रैलोक्यपूजितम्।
वर्षते तपते कोऽन्यो ज्वलते तेजसा च कः।। 13-45-204

कस्मादोषधिसम्पत्तिः को वा धारयते वसु।
प्रकामं क्रीडते को वा त्रैलोक्ये सचराचरे।। 13-45-205

ज्ञानसिद्धिक्रियायोगैः सेव्यमानश्च योगिभिः।
ऋषिगन्धर्वसिद्धैश्च विहितं कारणं परम्।। 13-45-206

कर्मयज्ञक्रियायोगैः सेव्यमानः सुरासुरैः।
नित्यं कर्मफलैर्हीनं तमहं कारणं वदे।। 13-45-207

स्थूलं सूक्ष्ममनौपम्यमग्राह्यं गुणगोचरम्।
गुणहीनं गुणाध्यक्षं परं माहेश्वरं पदम्।। 13-45-208

विश्वेशं कारणगुरुं लोककालोकान्तकारणम्।
भूताभूतभविष्यच्च जनकं सर्वकारणम्। 13-45-209

अक्षराक्षरमव्यक्तं विद्याविद्ये कृताकृते।
धर्माधर्मौ यतः शक्र तमहं कारणं ब्रुवे।। 13-45-210

प्रत्यक्षमिह देवेन्द्र पश्य लिङ्गं भगाङ्कितम्।
देवदेवेन रुद्रेण सृष्टिसंहारहेतुना।। 13-45-211

मात्रा पूर्वं ममाख्यातं कारणं लोकलक्षणम्।
नास्ति चेशात्परं शक्र तं प्रपद्य यदीच्छसि।। 13-45-212

प्रत्यक्षं ननु ते सुरेश विदितं संयोगलिङ्गोद्भवं
त्रैलोक्यं सविकारनिर्गुणगणं ब्रह्मादिरेतोद्भवम्।
यद्ब्रह्मेन्द्रहुताशविष्णुसहिता देवाश्च दैत्येश्वरा
नान्यत्कामसहस्रकल्पितधियः शंसन्ति ईशात्परं।। 13-45-213

तं देवं सचराचरस्य जगतो व्याख्यातवेद्योत्तमं
कामार्थी वरयामि संयतमना मोक्षाय सद्यः शिवम्
हेतुभिर्वा किमन्यैस्तैरीशः कारणकारणम्।
न शुश्रुम यदन्यस्य लिङ्गमभ्यर्चितं सुरैः।। 13-45-214

कस्यान्यस्य सुरैः सर्वैर्लिङ्गं मुक्त्वा महेश्वरम्।
अर्च्यतेऽर्चितपूर्वं वा ब्रूहि यद्यस्ति ते श्रुतिः।। 13-45-215

यस्य ब्रह्म च विष्णुश्च त्वं चापि सहदैवतैः।
अर्चयध्वं सदा लिङ्गं तस्माच्छ्रेष्ठतमो हि सः।। 13-45-216

न पद्माङ्गा न चक्राङ्का न वज्राङ्का यतः प्रजाः।
लिङ्गाङ्का च भगाङ्का च तस्मान्माहेश्वरी प्रजा।। 13-45-217

देव्याःकरणरूपभावजनिताःसर्वाभगाङ्काः स्त्रियो
लिङ्गेनापि हरस्य सर्वपुरुषाः प्रत्यक्षचिह्नीकृताः।
योऽन्यत्कारणमीश्वरात्प्रवदते देव्या च यन्नाङ्कितं
त्रैलोक्ये सचराचरे स तु पुमान्बाह्यो भवेद्दुर्मतिः।। 13-45-218

पुल्लिङ्गं सर्वमीशानं स्त्रीलिङ्गं विद्धि चाप्यमाम्।
द्वाभ्यां तनुभ्यां व्याप्तं हि चराचरमिदं जगत्।।] 13-45-219

तस्माद्वरमहं काङ्क्षे निधनं वाऽपि कौशिक।
गच्छ वा तिष्ठ वा शक्र यथेष्टं बलसूदन।। 13-45-220

काममेष वरो मेस्तु शापो वाऽथ महेश्वरात्।
न चान्यां देवतां काङ्क्षे सर्वकामफलामपि।। 13-45-221

एवमुक्त्वा तु देवेन्द्रं दुःखादाकुलितेन्द्रियः।
न प्रसीदति मे देवः किमेतदिति चिन्तयन्।। 13-45-222

अथापश्यं क्षणेनैव तमेवैरावतं पुनः।
हंसकुन्देन्दुसदृशं मृणालरजतप्रभम्।। 13-45-223

वृषरूपधरं साक्षात्क्षीरोदमिव सागरम्।
कृष्णपुच्छं महाकायं मधुपिङ्गललोचनम्।। 13-45-224

वज्रसारमयैः शृङ्गैर्निष्टप्तकनकप्रभैः।
सुतीक्ष्णैर्मृदुरक्ताग्रैरुत्किरन्तमिवावनिम्।। 13-45-225

जाम्बूनदेन दाम्ना च सर्वतः समलङ्कृतम्।
सुवक्त्रखुरनासं च सुकर्णं सुकटीतटम्।
सुपार्श्वं विपुलस्कन्धं सुरूपं चारुदर्शनम्।। 13-45-226

ककुदं तस्य चाभाति स्कन्धमापूर्य धिष्ठितम्।
तुषारगिरिकूटाभं सिताभ्रशिखरोपमम्।। 13-45-227

तभास्थितश्च भगवान्देवदेवः सहोमया।
अशोभत महादेवः पौर्णमास्यामिवोडुराट्।। 13-45-228

किरीटं च जटाभारः सर्पाद्याभरणानि च।
वज्रादिशूलमातङ्गगम्भीरस्मितमागतम्।।' 13-45-229

तस्य तेजोभवो वह्निः समेघः स्तनयित्नुमान्।
सहस्रमिव सूर्याणां सर्वमापूर्य धिष्ठितः।। 13-45-230

ईश्वरः सुमहातेजाः संवर्तक इवानलः।
युगान्ते सर्वभूतानां दिधक्षुरिव चोद्यतः।। 13-45-231

तेजसा तु तदा व्याप्तं दुर्निरीक्ष्यं समन्ततः।
पुनरुद्विग्नहृदय किमेतदिति चिन्तयम्।। 13-45-232

मुहूर्तमिव तत्तेजो व्याप्य सर्वा दिशो दश।
प्रशान्तं च क्षणेनैव देवदेवस्य मायया।। 13-45-233

अथापश्यं स्थितं स्थाणुं भगवन्तं महेश्वरम्।
सौरभेयगतं सौम्यं विधूममिव पावकम्।। 13-45-234

प्रशान्तमनसं देवं त्रिनेत्रमपराजितम्।
सहितं चारुसर्वाङ्ग्या पार्वत्या परमेश्वरम्।।' 13-45-235

नीलकण्ठं महात्मनमसक्तं तेजसां निधिम्।
अष्टादशभुजं स्थाणुं सर्वाभरणभूषितम्।। 13-45-236

शुक्लाम्बरधरं देवं शुक्लमाल्यानुलेपनम्।
शुक्लध्वजमनाधृष्यं शुक्लयज्ञोपवीतिनम्।। 13-45-237

गायद्भिर्नृत्यमानैश्च वादयद्भिश्च सर्वशः।
वृतं पार्श्वचरैर्दिव्यैरात्मतुल्यपराक्रमैः।। 13-45-238

बालेन्दुमुकुटं पाण्डुं शरच्चन्द्रमिवोदितम्।
त्रिभिर्नेत्रैः कृतोद्योतं त्रिभिः सूर्यैरिवोदितैः।। 13-45-239

`सर्वविद्याधिपं देवं शरच्चन्द्रसमप्रभम्।
नयनाह्लादसौम्योऽहमपश्यं परमेश्वरम्।।' 13-45-240

अशोभतास्य देवस्य माला गात्रे सितप्रभे।
जातरूपमयैः पद्मैर्ग्रथिता रत्नभूषिता।। 13-45-241

मूर्तिमन्ति तथाऽस्त्राणि सर्वतेजोमयानि च।
मया दृष्टानि गोविन्द भवस्यामिततेजसः।। 13-45-242

इन्द्रायुधसहस्राभं धनुस्तस्य महात्मनः।
पिनाकमिति विख्यातं स च वै पन्नगो महान्।। 13-45-243

सप्तशीर्षो महाकायस्तीक्ष्णदंष्ट्रो विषोल्वणः।
ज्यावेष्टितमहाग्रीवः स्थितः पुरुषविग्रहः।। 13-45-244

शरश्च सूर्यसङ्काशो दृष्टः पाशुपताह्वयः।
सहस्रभुजजिह्वास्यो भीषणो नागविग्रह।। 13-45-245

शङ्खशूलासिभिश्चैव पट्टसै रूपवान्स्थितः।
येन च त्रिपुरं दग्ध्वा क्षणाद् भस्मीकृतं पुरा।।13-45-246

अद्वितीयमनिर्देश्यं सर्वभूतभयावहम्।
सस्फुलिङ्गं महाकायं विसृजन्तमिवानलम्।। 13-45-247

एकपादं महादंष्ट्रं सहस्रशिरसोदरम्।
सहस्रभुजजिह्वाक्षमुद्गिरन्तमिवानलम्।। 13-45-248

ब्राह्मान्नारायणाच्चैन्द्रादाग्नेयादपि वारुणात्।
यद्विशिष्टं महाबाहो सर्वशस्त्रविघातनम्।। 13-45-249

येन तत्त्रिपुरं दग्ध्वा क्षणाद्भस्मीकृतं पुरा।
शरेणैकेन गोविन्द महादेवेन लीलया।। 13-45-250

निर्दहेत च यत्कृत्स्नं त्रैलोक्यं सचराचरम्।
महेश्वरभुजोत्सृष्टं निमेषार्धान्न संशयः।। 13-45-251

नावध्यो यस्य लोकेऽस्मिन्ब्रह्मविष्णुसुरेष्वपि।
तदहं दृष्टवांस्तत्र आश्चर्यमिदमुत्तमम्।। 13-45-252

गुह्यमस्त्रवरं नान्यत्तत्तुल्यमधिकं हि वा।
यत्तच्छूलमिति ख्यातं सर्वलोकेषु शूलिनः 13-45-253

दारयेद्द्यां मही कृत्स्नां शोषयेद्वा महोदधिम्।
संहरेद्वा जगत्कृत्स्नं विसृष्टं शूलपाणिना।। 13-45-254

यौवनाश्वो हतो येन मान्धाता सबलः पुरा।
चक्रवर्ती महातेजास्त्रिलोकविजयी नृपः।। 13-45-255

महाबलो महावीर्यः शक्रतुल्यपराक्रमः।
करस्थेनैव गोविन्द लवणस्येह रक्षसः।। 13-45-256

तच्छूलमतितीक्ष्णाग्रं सुभीमं रोमहर्षणम्।
त्रिशिखां भ्रुकुटिं कृत्वा तर्जमानमिव स्थितम्।। 13-45-257

विधूमं सार्चिषं कृष्णं कालसूर्यमिवोदितम्।
सर्पहस्तमनिर्देश्यं पाशहस्तामिवान्तकम्।। 13-45-258

दृष्टवानस्मि गोविन्द तदस्त्रं रुद्रसन्निधौ।
परशुस्तीक्ष्णधारश्च दत्तो रामस्य यः पुराः।। 13-45-259

महादेवेन तुष्टेन दत्तं भृगुसुताय च।
कार्तवीर्यो हतो येन चक्रवर्ती महामृधे।। 13-45-260

त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी येन निःक्षत्रिया कृता।
जामदग्न्येन गोविन्द रामेणाक्लिष्टकर्मणा।। 13-45-261

दीप्तधारः सुरौद्रास्यः सर्पकण्ठाग्रधिष्ठितः।।
अभवच्छूलिनोऽभ्याशे दीप्तवह्निशतोपमः। 13-45-262

असङ्ख्येयानि चास्त्राणि तस्य दिव्यानि धीमतः।
प्राधान्यतो मयैतानि कीर्तितानि तवानघ।। 13-45-263

सव्यदेशे तु देवस्य ब्रह्मा लोकपितामहः।
दिव्यं विमानमास्थाय हंसयुक्तं मनोजवम्।। 13-45-264

वामपार्श्वगतश्चापि तथा नारायणः स्थितः।
वैनतेयं समारुह्य शङ्खचक्रगदाधरः।। 13-45-265

स्कन्दो मयूरमास्थाय स्थितो देव्याः समीपतः।
शक्तिघण्टे समादाय द्वितीय इव पावकः।। 13-45-266

पुरस्ताच्चैव देवस्य नन्दिं पश्याम्यवस्थितम्।
शूलं विष्टभ्य तिष्ठन्तं द्वितीयमिव शङ्करम्।। 13-45-267

स्वायंभुवाद्या मनवो भृग्वाद्या ऋषयस्तथा।
शक्राद्या देवताश्चैव सर्व एव समभ्ययुः।। 13-45-268

सर्वभूतगणाश्चैव मातरो विविधाः स्थिताः।
तेऽभिवाद्य महात्मानं परिवार्य समन्ततः।। 13-45-269

अस्तुवन्विविधैः सतोत्रैर्महादेवं सुरास्तदा।
जगन्मूर्ति महालिङ्गं तन्मध्ये स्फूतरूपिणम्।। 13-45-270

ब्रह्मा भवं तदाऽस्तौवीद्रथन्तरमुदीरयन्।
ज्येष्ठसाम्ना च देवेशं जगौ नारायणस्तदा।। 13-45-271

गृणन्ब्रह्म परं शक्रः शतरुद्रियमुत्तमम्।
ब्रह्मा नारायणश्चैव देवराजश्च कौशिकः।
अशोभन्त महात्मानस्त्रयस्त्रय इवाग्नयः।। 13-45-272

तेषां मध्यगतो देवो रराज भगवाञ्छिवः।
शरदभ्रविनिर्मुक्तः परिधिस्थ इवांशुमान्।। 13-45-273

अयुतानि च चन्द्रार्कानपश्यं दिवि केशव।
ततोऽहमस्तुवं देवं स्तवेनानेन सुव्रत।। 13-45-274

उपमन्युरुवाच।
नमो देवाधिदेवाय महादेवाय ते नमः।
शक्ररूपाय शक्राय शक्रवेषधराय च।। 13-45-275

नमस्ते वज्रहस्ताय पिङ्गलायारुणाय च।
पिनाकपाणये नित्यं शङ्खशूलधराय च।।। 13-45-276

नमस्ते कृष्णवासाय कृष्णकुञ्चितमूर्धज।
कृष्णाजिनोत्तरीयाय कृष्णाष्टमिरताय च।। 13-45-277

शुक्लवर्णाय शुक्लाय शुक्लाम्बरधराय च।
शुक्लभस्मावलिप्ताय शुक्लकर्मरताय च।। 13-45-278

नमोस्तु रक्तवर्णाय रक्ताम्बरधराय च।
रक्तध्वजपताकाय रक्तस्रगनुलेपिने।। 13-45-279

नमोस्तु पीतवर्णाय पीताम्बरधराय च।। 13-45-280
नमोस्तूच्छ्रितच्छत्राय किरीटवरधारिणे।
अर्धहारार्दकेयूर अर्धकुण्डलकर्णिने।। 13-45-281

नमः पवनवेगाय नमो देवाय वै नमः।
सुरेन्द्राय मुनीन्द्राय महेन्द्राय नमोस्तु ते।। 13-45-282

नमः पद्मार्धमालाय उत्पलैर्मिश्रिताय च।
अर्धचन्दनलिप्ताय अर्धस्रगनुलेपिने।। 13-45-283

नम आदित्यवक्त्राय आदित्यनयनाय च।
नम आदित्यवर्णाय आदित्यप्रतिमाय च।। 13-45-284

नमः सोमाय सौम्याय सौम्यवक्त्रधराय च।
सौम्यरूपाय मुख्याय सौम्यदंष्ट्राविभूषिणे।। 13-45-285

नमः श्यामाय गौराय अर्धपीतार्धपाण्डवे।
नारीनरशरीराय स्त्रीपुंसाय नमोस्तु ते।। 13-45-286

नमो वृषभवाहाय गजेन्द्रगमनाय च।
दुर्गमाय नमस्तुभ्यमगम्यागमनाय च।। 13-45-287

नमोस्तु गणनीताय गणवृन्दरताय च।
गुणानुयातमार्गाय गणनित्यव्रताय च।। 13-45-288

नमः श्वेताभ्रवर्णाय संध्यारागप्रभाच य।
अनुद्दिष्टामभिधानाय स्वरूपाय नमोस्तु ते।। 13-45-289

नमो रक्ताग्रवासाय रक्तसूत्रधराय च।
रक्तमालाविचित्राय रक्ताम्बरधराय च।। 13-45-290

मणिभूषितमूर्धाय नमश्चन्द्रार्धभूषिणे।
विचित्रमणिमूर्धाय कुसुमाष्टधराय च।। 13-45-291
13-45-291b
नमोऽग्निमुखनेत्राय सहस्रशशिलोचने।
अग्निरूपाय कान्ताय नमोस्तु गहनाय च।। 13-45-292

खचराय नमस्तुभ्यं गोचराभिरताय च।
भूचराय भुवनाय अनन्ताय शिवाय च।। 13-45-293

नमो दिग्वाससे नित्यमधिवाससुवाससे।
नमो जगन्निवासाय प्रतिपत्तिसुखाय च।। 13-45-294

नित्यमुद्बद्धमुकुटे महाकेयूरधारिणे।
सर्पकण्ठोपहाराय विचित्राभरणाय च।। 13-45-295

नमस्त्रिनेत्रनेत्राय सहस्रशतलोचने।
स्त्रीपुंसाय नपुंसाय नमः साङ्ख्याय योगिने।। 13-45-296

शंयोरभिस्रवन्ताय अथर्वाय नमोनमः।
नमः सर्वार्तिनाशाय नमः शोकहराय च।। 13-45-297

नमो मेघनिनादाय बहुमायाधराय च।
बीजक्षेत्राभिपालाय स्रष्टाराय नमोनमः।। 13-45-298

नमः सुरासुरेशाय विश्वेशाय नमोनमः।
मनः पवनवेगाय नमः पवनरूपिणे।। 13-45-299

नमः काञ्चनमालाय गिरिमालाय वै नमः।
नमः सुरारिमालाय चण्डवेगाय वै नमः।। 13-45-300

ब्रह्मशिरोपहर्ताय महिषघ्नाय वै नमः।
नमः स्त्रीरूपधाराय यज्ञविध्वंसनाय च।। 13-45-301

नमस्त्रिपुरहर्ताय यज्ञविध्वंसनाय च।
नमः कामाङ्गनाशाय कालदण्डधराय च।। 13-45-302

नमः स्कन्दविशाखाय ब्रह्मदण्डाय वै नमः।
नमो भवाय शर्वाय विश्वरूपाय वै नमः।। 13-45-303

ईशानाय भवघ्नाय नमोस्त्वन्धकघातिने।
नमो विश्वाय मायायचिन्त्याचिन्त्याय वै नमः।। 13-45-304

त्वं नो गतिश्च श्रेष्ठश्च त्वमेव हृदयं तथा।]
त्वं ब्रह्मा सर्वदेवानां रुद्राणां नीललोहितः।। 13-45-305

आत्मा च सर्वभूतानां साङ्ख्ये पुरुष उच्यते।
ऋषभस्त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः।। 13-45-306

गृहस्थस्त्वमाश्रगिणामीश्वराणां महेश्वरः।
कुबेरः सर्वयक्षाणां क्रतूनां विष्णुरुच्यते।। 13-45-307

पर्वतानां भवान्मेरुर्नक्षत्राणां च चन्द्रमाः।
वसिष्ठस्त्वमृषीणां च ग्रहाणां सूर्य उच्यते।। 13-45-308

आरण्यानां पशूनां च सिंहस्त्वं परमेश्वरः।
ग्राम्याणां गोवृषश्चासि भवाँल्लोक्प्रपूजितः।। 13-45-309

आदित्यानां भवान्विष्णुर्वसूनां चैव पावकः।
पक्षिणां वैनतेयस्त्वमनन्तो भ्रुजगेषु च।। 13-45-310

सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रियम्।
सनत्कुमारो योगानां साङ्ख्यानां कपिलो ह्यसि।। 13-45-311

शक्रोसि मरुतां देव पितॄणां हव्यवाडसि।।
ब्रह्मलोकश्च लोकानां गतीनां मोक्ष उच्यसे।। 13-45-312

क्षीरोदः सागराणां च शैलानां हिमवान्गिरिः।
वर्णानां ब्राह्मणश्चासि विप्राणां दीक्षितो द्विजः।। 13-45-313

आदिस्त्वमसि लोकानां संहर्ता काल एव च
यच्चान्यदपि लोके वै सर्वतेजोधिकं स्मृतम्।
तत्सर्वं भगवानेव इति मे निश्चिता मतिः।। 13-45-314

नमस्ते भगवन्देव नमस्ते भक्तवत्सलः।
योगेश्वर नमस्तेऽस्तु नमस्ते विस्वसम्भव।। 13-45-315

प्रसीद मम भक्तस्य दीनस्य कृपणस्य च।
अनैश्वर्येणि युक्तस्य गतिर्भव सनातन।। 13-45-316

यच्चापराधं कृतवानज्ञात्वा परमेश्वर।
मद्भक्त इति देवेश तत्सर्वं क्षन्तुमर्हसि।। 13-45-317

मोहितश्चास्मि देवेश त्वया रूपविपर्ययात्।
नार्घ्यं तेन मया दत्तं पाद्यं चापि महेश्वर।। 13-45-318

एवं स्तुत्वाऽहमीशानं पाद्यमर्घ्यं च भक्तितः।
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा सर्वं तस्मै न्यवेदयम्।। 13-45-319

ततः शीताम्बुसंयुक्ता दिव्यगन्धसमन्विता।
पुष्पवृष्टिः शुभा तात पपात मम मूर्धनि।। 13-45-320

दुन्दुभिश्च तदा दिव्यस्ताडितो देवकिंकरैः।
ववौ च मारुतः पुण्यः शुचिगन्धः सुखावहः।। 13-45-321

ततः प्रीतो महादेवः सपत्नीको वृषध्वजः।
अब्रवीत्त्रिदशांस्तत्र हर्षयन्निव मां तदा।। 13-45-322

पश्यध्वं त्रिदशाः सर्वे उपमन्योर्महात्मनः।
मयि भक्तिं परां नित्यमेकभावादवस्थिताम्।। 13-45-323

एवमुक्तास्तदा कृष्ण सुरास्ते शूलपाणिना।
ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे नमस्कृत्वा वृषध्वजम्।। 13-45-324

भगवन्देवदेवेश लोकनाथ जगत्पते।
लभतां सर्वकामेभ्यः फलं त्वत्तो द्विजोत्तमः।। 13-45-325

एवमुक्तस्ततः शर्वः सुरैर्ब्रह्मादिभिस्तथा।
आह मां भगवानीशः प्रहसन्निव शङ्करः।। 13-45-326

भगवानुवाच।
वत्सोपमन्यो तृष्टोस्मि पश्य मां मुनिपुङ्गव।
दृढभक्तोसि विप्रर्षे मया जिज्ञासितो ह्यसि।। 13-45-327

अनया चैव भक्त्या ते अत्यर्थं प्रीतिमानहम्।
तस्मात्सर्वान्ददाम्यद्य कामांस्तव यथोप्सितान्।। 13-45-328

एवमुक्तस्य चैवाथ महादेवेन धीमता।
हर्षादश्रूण्यवर्तन्त रोमहर्षस्त्वजायत।। 13-45-329

अब्रवं च तदा देव हर्षगद्गदया गिरा।
जानुभ्यामवनीं गत्वा प्रणम्य च पुनःपुनः।। 13-45-330

अद्य जातो ह्यहं देव सफलं जन्म चाद्य मे।
यन्मे साक्षान्महादेवः प्रसन्नस्तिष्ठतेऽग्रतः।। 13-45-331

यं न पश्यन्ति चैवाद्धा देवा ह्यमितविक्रमम्।
तमहं दृष्टवान्देवं कोऽन्यो धन्यतरो मया।। 13-45-332

एवं ध्यायन्ति विद्वांसः परं तत्त्वं सनातनम्।
तद्विशेषमतिख्यातं यदजं ज्ञानमक्षरम्।। 13-45-333

स एष भगवान्देवः सर्वसत्त्वादिरव्ययः।
सर्वतत्त्वविधानज्ञः प्रधानपुरुषः परः।। 13-45-334

योऽसृजद्दक्षिणादङ्गाद्ब्रह्माणां लोकसम्भवम्।
वामपार्श्वात्तथा विष्णुं लोकरक्षार्थमीश्वरः।। 13-45-335

युगान्ते चैव सम्प्राप्ते रुद्रमीशोऽसृजत्प्रभुः।
स रुद्रः संहरन्कृत्स्नं जगत्स्थावरजङ्गमम्।। 13-45-336

कालो भूत्वा परं ब्रह्म याति संवर्तकानलः।
युगान्ते सर्वभूतानि ग्रसन्निव व्यवस्थितः।। 13-45-337

एष देवो महादेवो जगत्सृष्ट्वा चराचरम्।
कल्पान्ते चैव सर्वेषां स्मृतिमाक्षिप्य तिष्ठति।। 13-45-338

सर्वगः सर्वभूतात्मा सर्वभूतभवोद्भवः।
आस्ते सर्वगतो नित्यमदृश्यः सर्वदैवतैः।। 13-45-339

यदि देयो वरो मह्यं यदि तुष्टोऽसि मे प्रभो।
भक्तिर्भक्तु मे नित्यं त्वयि देव सुरेश्वर।। 13-45-340

अतीतानागतं चैव वर्तमानं च यद्विभो।
जानीयामिति मे बुद्धिः प्रसादात्सुरसत्तम।। 13-45-341

क्षीरोदनं च भुञ्जीयामक्षयं सह बान्धवैः।
आश्रमे च सदाऽस्माकं सान्निध्यं परमस्तु ते।। 13-45-342

एवमुक्तः स मां प्राह भगवाँल्लोकपूजितः।
महेश्वरो महातेजाश्वराचरगुरुः शिवः।। 13-45-343

श्रीभगवानुवाच।
अजरश्चामरश्चैव भव त्वं दुःखवर्जितः।
यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः।। 13-45-344

ऋषीणामभिगम्यश्च मत्प्रसादाध्भविष्यसि।
शीलवान्गुणसम्पन्नः सर्वज्ञः प्रियदर्शनः।। 13-45-345

अक्षयं यौवनं तेऽस्तु तेजश्चैवानलोपमम्।
क्षीरोदः सागरश्चैव यत्रयत्रेच्छसि प्रियम्।। 13-45-346

तत्र ते भविता कामं सान्निध्यं पयसोनिधेः।
क्षीरोदनं च भुङ्ख त्वममृतेन समन्वितम्।। 13-45-347

बन्धुभिः सहितः कल्पं ततो मामुपयास्यसि।
अक्षया बान्धवाश्चैव कुलं गोत्रं च ते सदा।। 13-45-348

भविष्यति द्विजश्रेष्ठ मयि भक्तिश्च शाश्वती।
सान्निध्यं चाश्रमे नित्यं करिष्यामि द्विजोत्तम।। 13-45-349

तिष्ठ वत्स यथाकामं नोत्कण्ठां च करिष्यति।
स्मृतस्त्वया पुनर्विप्र करिष्यामि च दर्शनम्।।
एवमुक्त्वा स भगवान्सूर्यकोटिसमप्रभः।
ईशानः स वरान्दत्त्वा तत्रैवान्तरधीयत।। 13-45-350

एवं दृष्टो मया कृष्ण देवदेवः समाधिना।
तदवाप्तं च मे सर्वं यदुक्तं तेन धीमता।। 13-45-352

प्रत्यक्षं चैव ते कृष्ण पश्य सिद्धान्व्यवस्थितान्।
ऋषीन्विद्याधरान्यक्षान्गन्धर्वाप्सरसस्तथा।। 13-45-353

पश्य वृक्षलतागुल्मान्सर्वपुष्पफलप्रदान्।
सर्वर्तुकुसुमैर्युक्तान्सुखपत्रान्सुगन्धिनः।। 13-45-354

सर्वमेतन्महाबाहो दिव्यभावसमन्वितम्।
प्रसादाद्देवदेवस्य ईशअवरस्य महात्मनः।। 13-45-355

वासुदेव उवाच।
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य प्रत्यक्षमिव दर्शनम्।
विस्मयं परमं गत्वा अब्रवं तं महामुनिम्।। 13-45-356
13-45-356b
धन्यस्त्वमसि विप्रेन्द्रि कस्त्वदन्योस्ति पुण्यकृत्।
यस्य देवाधिदेवस्ते सान्निध्यं कुरुतेऽऽश्रमे।। 13-45-357

अपि तावन्ममाप्येवं दद्यात्स भगवाञ्शिवः।
दर्शं मुनिशार्दूल प्रसादं चापि शङ्करः।। 13-45-358

उपमन्युरुवाच।
[द्रक्ष्यसे पुण्डरीकाक्ष महादेवं न संशयः।
अचिरेणैव कालेन यथा दृष्टो मयाऽनघ।। 13-45-359

चक्षुषा चैव दिव्येन पश्याम्यमितविक्रमम्।
षष्ठे मासि महादेवं द्रक्ष्यसे पुरुषोत्तम।। 13-45-360

षोडशाष्टौ वरांश्चापि प्राप्स्यसि त्वं महेश्वरात्।
सपत्नीकाद्यदुश्रेष्ठ सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। 13-45-361

अतीतानागतं चैव वर्तमानं च नित्यशः।
विदितं मे महाबाहो प्रसादात्तस्य धीमतः।।] 13-45-362

एतान्सहस्रशश्चान्यान्समनुध्यातवान्हरः।
कस्मात्प्रसादं भगवान्न कुर्यात्तव माधव।। 13-45-363

त्वादृशेन हि देवानां श्लाघनीय समागमः।
ब्रह्मणअयेनानृशंसेन श्रद्दधानेन चाप्युत।
जप्यं तु ते प्रदास्यामि येन द्रक्ष्यसि शंकरम्।। 13-45-364

श्रीकृष्ण उवाच।
अब्रवं तमहं ब्रह्मन्त्वत्प्रसादान्महामुने।
द्रक्ष्ये दितिजसङ्घानां मर्दनं त्रिदशेश्वरम्।। 13-45-365

एवं कथयतस्तस्य महादेवाश्रितां कथाम्।
दिनान्यष्टौ ततो जग्मुर्मुहूर्तमिव भारत।। 13-45-366

दिनेऽष्टमे तु विप्रेणि दीक्षितोऽहं यथाविधि।
दण्डी मुण्डी कुशी चीरि घृताक्तो मेखलीकृतः।। 13-45-367

मासमेकं फलाहारो द्वितीयं सलिलाशनः।
तृतीयं च चतुर्थं च पञ्चमं चानिलाशः।। 13-45-368

एकपादेन तिष्ठंश्च ऊर्ध्वबाहुरतन्द्रितः।
तेजः सूर्यसहस्रस्य अपश्यं दिवि भारत।। 13-45-369

तस्य मध्यगतं चापि तेजसः पाण्डुनन्दन।
इन्द्रायुधपिनद्धाङ्गं विद्युन्मालागवाक्षकम्।
नीलसैलचयप्रख्यं बलाकाभूषिताम्बरम्।। 13-45-370

तत्र स्थितश्च भगवान्देव्या सह महाद्युतिः।
तपसा तेजसा कान्त्या दीप्तया सह भार्यया।। 13-45-371

रराज भगवांस्तत्र देव्या सह महेश्वरः।
सोमेन सहितः सूर्यो यथा मेघस्थितस्तथा।। 13-45-372

संहृष्टरोमा कौन्तेय विस्मयोत्फुल्ललोचनः।
अपश्यं देवसङ्घानां गतिमार्तिहरं हरम्।। 13-45-373

किरीटिनं गदिनं शूलपाणिं
व्याघ्राजिनं जटिलं दण्डपाणिम्।
पिनाकिनं वज्रिणं तीक्ष्णदंष्ट्रं
शुभाङ्गदं व्यालयज्ञोपवीतम्।। 13-45-374

दिव्यां मालामुरसाऽनेकवर्णां
समुद्वहन्तं गुल्फदेशावलम्बाम्।
चन्द्रं यथा परिविष्टं ससन्ध्यं
वर्षात्यये तद्वदपश्यमेनम्।। 13-45-375

प्रमथानां गणैश्चैव समन्तात्परिवारितम्।
शरदीव सुदुष्प्रेक्ष्यं परिविष्टं दिवाकरम्।। 13-45-376

एकादशशतान्येवं रुद्राणां वृषवाहनम्
अस्तुवं नियतात्मानं कर्मभिः शुभकर्मिणम्।। 13-45-377

आदित्या वसवः साध्या विश्वेदेवास्तथाऽश्विनौ।
विश्वाभिः स्तुतिभिर्देवं विश्वदेवं समस्तुवन्।। 13-45-378

शतक्रतुश्च भगवान्विष्णुश्चादितिनन्दनौ।
ब्रह्मा रथन्तरं साम ईरयन्ति भवान्तिके।। 13-45-379

योगीश्वराः सुबहवो योगदं पितरं गुरुम्।
ब्रह्मर्षयश्च ससुतास्तथा देवर्षयश्च वै।। 13-45-380

पृथिवीं चान्तरिक्षं च नक्षत्राणि ग्रहास्तथा।
मासार्धमासा क्रतवो रात्रिः संवत्सराः क्षणाः।। 13-45-381

मुहूर्ताश्च निमेपाश्च तथैव युगपर्ययाः।
दिव्या राजन्नमस्यन्ति विद्याः सत्वविदस्तथा।। 13-45-382

सनत्कुमारो देवाश्च इतिहासास्तथैव च।
मरीचिरङ्गिरा अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।। 13-45-383

मनवः सप्त सोमश्च अर्थवा सबृहस्पतिः।
भृगुर्दक्षः कश्यपश्च वसिष्ठः काश्य एव च।। 13-45-384

छन्दांसि दीक्षा यज्ञाश्च दक्षिणाः पावको हविः।
यज्ञोपगानि द्रव्याणि मूर्तिमन्ति युधिष्ठिर।। 13-45-385

प्रजानां पालकाः सर्वे सरितः पन्नगा नगाः।
देवानां मातरः सर्वादेवपत्न्य सकन्यकाः।। 13-45-386

सहस्राणि मुनीनां च अयुतान्यर्बुदानि च।
नमस्यन्ति प्रभुं शान्तं पर्वताःसागरा दिशः।। 13-45-387

गन्धर्वाप्सरसश्चैव गीतवादित्रकोविदाः।
दिव्यतालेषु गायन्तः स्तुवन्ति भवमद्भुतम्।। 13-45-388

विद्याधरा दानवाश्च गुह्यका राक्षसास्तथा।
सर्वाणि चैव भूतानि स्तावराणि चराणि च।
नमस्यन्ति महाराज वाङ्मनः कर्मभिर्विभुम्।। 13-45-389

पुरस्ताद्धिष्ठितः शर्वो ममासीस्त्रिदशेश्वरः।। 13-45-390
पुरस्तद्धिष्ठितं दृष्ट्वा ममेशानं च भारत।
सप्रजापतिशक्रान्तं जगन्मामभ्युदैक्षत।। 13-45-391

ईक्षितुं च महादेवं न मे शक्तिरभूत्तदा।
ततो मामब्रवीद्देवः पश्य कृष्ण वदस्व च।। 13-45-392

त्वया ह्याराधितश्चाहं शतशोऽथ सहस्रशः।
त्वत्समो नास्ति मे कश्चित्त्रिषु लोकषु वै प्रियः।। 13-45-393

शिरसा वन्दिते देवे देवी प्रीता ह्युमा तदा।
ततोऽहमब्रुवं स्थाणुं स्तुतं ब्रह्मादिभिः सुरैः।। 13-45-394

कृष्ण उवाच।
नमोस्तु ते शाश्वत सर्वयोने
ब्राह्माधिपं त्वामृषयो वदन्ति।
तपश्च सत्वं च रजस्तमश्च
त्वामेव सत्यं च वदन्ति सन्तः।। 13-45-395

त्वं वै ब्रह्मा च रुद्रश्च वरुणोऽग्निर्मनुर्भवः।
धाता त्वष्टा विधाता च त्वं प्रभुः सर्वतोमुखः।। 13-45-396

त्वत्तो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च।
त्वया सृष्टमिदं कृत्स्नं त्रैलोक्यं सचराचरम्।। 13-45-397

यानीन्द्रियाणीह मनश्च कृत्स्नं
ये वायवः सप्ति तथैव चाग्नयः।
ये देवसंस्थास्तव देवताश्च
तस्मात्परं त्वामृषयो वदन्ति।। 13-45-398

वेदाश्च यज्ञाः सोमश्च दक्षिणा पावको हविः।
यज्ञोपगं च यत्किंचिद्भगवांस्तदसंशयम्।। 13-45-399

इष्टं दत्तमधीतं व्रतानि नियमाश्च ये।
ह्रीः कीर्तिः श्रीर्द्युतिस्तुष्टिः सिद्धिश्चैव तदर्पणी।। 13-45-400

कामः क्रोधो भयं लोभो मदः स्तम्भोथ मत्सरः।
आधयो व्याधयश्चैव भगवंस्तनवस्तव।। 13-45-401

कृतिर्विकारः प्रणयः प्रधानं बीजमव्ययम्।
मनसः परमा योनिः प्रभावश्चापि शाश्वतः।। 13-45-402

अव्यक्तः पावनोऽचिन्त्यः सहस्रांशुर्हिरण्मयः।
आदिर्गणानां सर्वेषां भवान्वैजीविताश्रयः।। 13-45-403

महानात्मा मतिर्ब्रह्मा विश्वः शंभुः स्वयंभुवः।
बुद्धिः प्रज्ञोपलब्धिश्चसंवित्ख्यातिर्धृतिः स्मृतिः।। 13-45-404

पर्यायवाचकैः शब्दैर्महानात्मा विभाव्यते।
त्वां बुद्ध्वा ब्राह्मणो वेदात्प्रमोहं विनियच्छति।। 13-45-405

हृदयं सर्वभूतानां क्षेत्रज्ञस्त्वमृषिस्तुतः।। 13-45-406
सर्वतः पाणिपादस्त्वं सर्वतोक्षिशिरोमुखः।
सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठसि।। 13-45-407

फलं त्वमसि दिग्मांशोर्निमेषादिषु कर्मसु।
त्वं वै प्रबार्चिः पुरुषः सर्वस्य हृदि संश्रितः।
अणिमा महिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः।। 13-45-408

त्वयि बुद्धिर्मतिर्लोकाः प्रपन्नाः संश्रिताश्च ये।
ध्यानिनो नित्ययोगाश्च सत्यसत्वा जितेन्द्रियाः।। 13-45-409

यस्त्वां ध्रुवं वेदयते गुहाशयं
प्रभुं पुराणं पुरुषं विश्वरूपम्।
हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं
स बुद्धिमान्बुद्धिमतीत्य तिष्ठति।। 13-45-410
1
विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं त्वां च मूर्तितः।
प्रधानविधियोगस्थस्त्वामेव विशते बुधः।। 13-45-411

एवमुक्ते मया पार्थ भवे चार्तिविनाशने।
चराचरं जगत्सर्गं सिंहनादं तदाऽकरोत्।। 13-45-412

तं विप्रसङ्घाश्च सुरासुराश्च
नागाः पिशाचाः पितरो वयांसि।
रक्षोगणा भूतगणाश्च सर्वे
महर्षयश्चैव तदा प्रणेमुः।। 13-45-413

मम मूर्ध्नि च दिव्यानां कुसुमानां सुगन्धिनाम्।
राशयो निपतन्ति स्म वायुश्च सुसुखो ववौ।। 13-45-414

निरीक्ष्य भगवान्देवीं ह्युमां मां च जगद्धितः।
शतक्रतुं चाभिवीक्ष्य स्वयं मामाह शङ्करः।। 13-45-415

विद्मः कृष्ण परां भक्तिमस्मासु तव शत्रुहन्।
क्रियतामात्मनः श्रेयः प्रीतिर्हित्वयि मे परा।। 13-45-416

वृणीष्वाष्टौ वरान्कृष्ण दाताऽस्मि तव सत्तम।
ब्रूहि यादवशार्दूल यानिच्छसि सुदुर्लभान्।। 13-45-417

।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।। 45 ।।

13-45-x युधिष्ठिर उवाच।
13-45-1 ययाऽऽपगेय नामानि श्रुतानीह जगत्पतेः।
13-45-1b पितामहेशाय विभो नामान्याचक्ष्य शम्भवे।।
13-45-2 बभ्रवे विश्वरूपाय महाभाग्यं च तत्त्वतः।
13-45-2b सुरासुरगुरौ देवे शंकरेऽव्यक्तयोनये।।

13-45-3x भीष्म उवाच।
13-45-3 अशक्तोऽहं गुणान्यक्तुं महादेवस्य धीमतः।
13-45-3b यो हि सर्वगतो देवो न च सर्वत्र दृश्यते।।
13-45-4 ब्रह्मविष्णुसुरेशानां स्रष्टा च प्रभुरेव च।
13-45-4b ब्रह्मादयः पिशाचान्ता यं हि देवा उपासते।।
13-45-5 प्रकृतीनां परत्वेन पुरुषस्य च यः परः।
13-45-5b चिन्त्यते यो योगविद्भिर्ऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।
13-45-5c अक्षरं परमं ब्रह्म असच्च सदसच्च यः।।
13-45-6 प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षोभयित्वा स्वतेजसा।
13-45-6b ब्रह्माणमसृजत्तस्माद्देवदेवः प्रजापतिः।।
13-45-7 को हि शक्तो गुणान्वक्तं देवदेवस्य धीमतः।
13-45-7b गर्भजन्मजरायुक्तो मर्त्यो मृत्युसमन्वितः।।
13-45-8 को हि शक्तो भवं ज्ञातुं मद्विधः परमेश्वरम्।
13-45-8b क्रते नारायणात्पुत्र शङ्कचक्रगदाधरात्।।
13-45-9 एष विद्वान्गुणश्रेष्ठो विष्णुः परमदुर्जयः।।
13-45-9b दिव्यचक्षुर्महातेजा वीक्ष्यते योगचक्षुषा।।
13-45-10 रुद्रभक्त्या तु कृष्णेन जगद्व्याप्तं महात्मना।
13-45-10b तं प्रसाद्य तदा देवं बदर्यां किल भारत।।
13-45-11 अर्थात्प्रियतरत्वं च सर्वलोकेषु वै तदा।
13-45-11b प्राप्तवानेव राजेन्द्र सुवर्णाक्षान्महेश्वरात्।।
13-45-12 पूर्णं वर्षसहस्रं तु तप्तवानेष माधवः।
13-45-12b प्रसाद्य वरदं देवं चराचरगुरुं शिवम्।।
13-45-13 युगेयुगे तु कृष्णेन तोषितो वै महेश्वरः।
13-45-13b भक्त्या परमया चैव प्रीतश्चैव महात्मनः।।
13-45-14 ऐश्वर्यं यादृसं तस्य जगद्योनेर्महात्मनः।।
13-45-14b तदयं दृष्टवान्साक्षात्पुत्रार्थे हरिरच्युतः।।
13-45-15 यस्मात्परतरं चैव नान्यं पश्यामि भारत।
13-45-15b व्याख्यातुं देवदेवस्य शक्तो नामान्यशषतः।।
13-45-16 एष शक्तो महाबाहुर्वक्तुं भगवतो गुणान्।
13-45-16b विभूतिं चैव कार्त्स्न्येन सत्यां माहेश्वरीं नृप।।

13-45-17x वैशम्पायन उवाच।
13-45-17 एवमुक्त्वा तदा भीष्मो वासुदेवं महायशाः।
13-45-17b भवमाहात्म्यसंयुक्तमिदमाह पितामहः।।

13-45-2 शिवाय विष्णुरूपायेति झ.पाठः।।
13-45-3 तण्डिना ब्रह्मयोनिनेति झ.पाठः।।
13-45-18 ते त्वया।।
13-45-21 यज्ञवाहा इति छन्दसामेव विशेषणम्। छन्दांसि वै देवेभ्यो हव्यमूढ्व्रेति ब्राह्मणात् तेषां यज्ञवाहत्वसिद्धिः। स्तोभाः सामपूरणान्यक्षराणि हुंमा इत्यादीनि।।
13-45-25 नरेन्द्रपुत्रीं ऋक्षराजस्य जाम्बवतो दुहितरम्।।
13-45-26 अभ्यनुज्ञाय स्थितं मामिति शेषः। अथोचतुरित्यर्धः।।
13-45-33 भस्मराशिभिरिति भस्मच्छन्नैरग्निभइः।।
13-45-40 सम्प्रक्षालैः मैत्र्यादिभिश्चित्तशोधनं कुर्वद्भिः।।
13-45-41 गोचारिणो गोवन्मुखेनैव चरन्तो हस्तव्यापारशून्या इत्यर्थः। मरीचिपाश्चन्द्ररश्मि पानेनैव जीवन्तः।।

13-45-47 नियमाः अम्बुपानादयस्तैरेवाम्पुषैः क्षीरपैरित्यादिनामभिः ख्यातैः। प्रविशन्नेवापश्यमुपमन्युमिति शेषः।।
13-45-58 समानां सवत्सरणामर्बुदं समार्वुदम्।।
13-45-59 प्रहस्य मन्दारनाम्नः।।
13-45-60 भगवता महादेवेन।।
13-45-61 उत्पादितं तस्यैव दैत्यस्य हननार्थम्।।
13-45-63 जीर्णं जीर्णतृणवद्व्यर्थमित्यर्थः।।
13-45-64 वरदत्तस्य सर्वशस्त्रावध्यस्त्वं भवेति दत्तवरस्य।।
13-45-77 सप्तकपालेन त्र्यम्बकदैवत्येन हेतुना। देवैः सप्तकपालेन रुद्रमिष्ट्वा आपो निर्मिता इत्यर्थः।।
13-45-78 रुद्रप्रसादाज्जनयामासति शेषः।।
13-45-81 मुसलेष्वयोग्रेषु काष्ठकीलेषु।।
13-45-82 चरुद्रः चरोर्द्रवः मण्ड इति यावत्। चरुशब्दपूर्वाद्द्रवतेरन्येभ्योपि दृश्यत इति डः। भर्तारंविनापि चरुद्रवपानमात्रेण तव पुत्रो भविष्यतीत्यर्थः।।
13-45-96 धूम्रश्चापि ममानुज इति ट.थ.पाठः।।

13-45-109 पावनानां पवनाशिनाम्। वनाशानां अब्भक्षाणाम्।।
13-45-112 प्रवद्य प्रपन्नो भव।।
13-45-118 दुराधारः मनसि धर्तुमशक्यः
13-45-126 प्रवालाङ्कुरभूषणे वसन्तस्तेन कालोप्ययमेवेत्यर्थः
13-45-139 भूधरः शेषनागः।।
13-45-146 सर्ववासकः सर्वस्याच्छादकः
13-45-161 अभवं सन्धिरार्षः।।
13-45-165 भावा मैव। भवानि भूयासम्।।
13-45-168 अनार्जवं वक्रम्। युगं कलियुगम्।।
13-45-174 असारं नास्ति सारो यस्मादन्यस्तम्।।
13-45-177 ईशे ईशस्य। भवने सत्तायाम्। को हेतुः का युक्तिः। ईशसत्त्वे प्रमाणं नास्तीत्यर्थः।।
13-45-271 रथन्तरज्येष्ठे सामनी।।
13-45-278 शुक्लं कर्म हिंसारहितो ध्यानादिधर्मः।।
13-45-283 मिश्रिताय मिश्रितमालाय।।
13-45-295 मुकुटे मुकुटाय।।
13-45-296 त्रीणि नेत्राणीव नेत्राणि लोकयात्रानिर्वाहकाण्यग्निचन्द्रसूर्याख्यानि नेत्राणि यस्य तस्यै त्रिनेत्रनेत्राय। लोचने लोचनाय।।
13-45-298 स्रष्टाराय औणादिकः सृजेत्वारन्। स्रष्ट्रे इत्यर्थः।।
13-45-304 मायाय मायाविने।।
13-45-325 कामेभ्यः कामान् काम्यमानान् अर्थान्।।
13-45-333 षड्विंशकमिति ख्यातमिति ट.थ.पाठः।।
13-45-336 तं त्वां प्रणम्य शइरसा प्रसाद्य प्रार्थये प्रभो इति ट.थ.पाठः।।
13-45-375 परिविष्टं परिवेषवन्तम्।।

अनुशासनपर्व-044 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-046