महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-045
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भीष्मनियोगात्कृष्णेन युधिष्ठिरम्प्रति महादेवमहिमकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-45-1x |
पितामह महेशाय नामान्याचक्ष्व शम्भवे। विदुषे विश्वमायाय महाभाग्यं च तत्वतः।। | 13-45-1a 13-45-1b |
भीष्म उवाच। | 13-45-2x |
सुरासुरगुरो देव विष्णो त्वं वक्तुमर्हसि। शिवाय शिवरूपाय यन्माऽपृच्छद्युधिष्ठिरः।। | 13-45-2a 13-45-2b |
नाम्नां सहस्रं देवस्य तण्डिना ब्रह्मवादिना। निवेदितं ब्रह्मलोके ब्रह्मणो यत्पुराऽभवत्।। | 13-45-3a 13-45-3b |
द्वैपायनप्रभृतयस्तथा चेमे तपोधनाः। ऋषयः सुव्रता दान्ताः शृण्वन्तु गदतस्तव।। | 13-45-4a 13-45-4b |
ध्रुवाय नन्दिने होत्रे गोप्त्रे विश्वसृजेऽग्नये। महाभाग्यं विभोर्ब्रूहि मुण्डिनेऽथ कपर्दिने।। | 13-45-5a 13-45-5b |
वासुदेव उवाच। | 13-45-6x |
न गतिः कर्मणां शक्या वेत्तुमीशस्य तत्त्वतः। हिरण्यगर्भप्रमुखा देवाः सेन्द्रा महर्षयः।। | 13-45-6a 13-45-6b |
न विदुर्यस्य निधनमादिं वा सूक्ष्मदर्शिनः। स कथं नाममात्रेण शक्यो ज्ञातुं सतां गतिः।। | 13-45-7a 13-45-7b |
तस्याहमसुरघ्नस्य कांश्चिद्भगवतो गुणान्। भवतां कीर्तयिष्यामि व्रतेशाय यथातथम्।। | 13-45-8a 13-45-8b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-45-9x |
एवमुक्त्वा तु भगवान्गुणांस्तस्य महात्मनः। उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा कथयामास धीमतः।। | 13-45-9a 13-45-9b |
वासुदेव उवाच। | 13-45-10x |
शुश्रूषध्वं ब्राह्मणेन्द्रास्त्वं च तात युधिष्ठिर। त्वं चापगेय नामानि निशामय जगत्पतेः।। | 13-45-10a 13-45-10b |
यदवाप्तं च मे पूर्वं साम्बहेतोः सुदुष्करम्। यथावद्भगवान्दृष्टो मया पूर्वं समाधिना।। | 13-45-11a 13-45-11b |
शम्बरे निहते पूर्वं रौक्मिणेयेन धीमता। अतीते द्वादशे वर्षे जाम्बवत्यब्रवीद्धि माम्।। | 13-45-12a 13-45-12b |
प्रद्युम्नचारुदेष्णादीन्रुक्मिण्या वीक्ष्य पुत्रकान्। पुत्रार्थिनी मामुपेत्य वाक्यमाह युधिष्ठिर।। | 13-45-13a 13-45-13b |
शूरं बलवतां श्रेष्ठं कान्तरूपमकल्मषम्। आत्मतुल्यं मम सुतं प्रयच्छाच्युत माचिरम्।। | 13-45-14a 13-45-14b |
न हि तेऽप्राप्यमस्तीह त्रिषु लोकेषु किञ्चन। लोकान्सृजेस्त्वमपरानिच्छन्यदुकुलोद्वह।। | 13-45-15a 13-45-15b |
त्वया द्वादशवर्षाणि व्रतीभूतेन शुष्यता। आराध्य पशुभर्तारं रुक्मिण्यां जनिताः सुताः।। | 13-45-16a 13-45-16b |
चारुदेष्णः सुचारुश्च चारुवेशो यशोधरः। चारुश्रवाश्चारुयशाः प्रद्युम्नः सम्भुरेव च।। | 13-45-17a 13-45-17b |
यथा ते जनिताः पुत्रा रुक्मिण्यां चारुविक्रमाः। तथा ममापि तनयं प्रयच्छ मधुसूदन।। | 13-45-18a 13-45-18b |
इत्येवं चोदितो देव्या तामवोचं सुमध्यमाम्। अनुजानीहि मां राज्ञि करिष्ये वचनं तव।। | 13-45-19a 13-45-19b |
सा च मामब्रवीद्गच्छ शिवाय विजयाय च। ब्रह्मा शिवः काश्यपश्च नद्यो देवा मनोऽनुगाः। | 13-45-20a 13-45-20b |
क्षेत्रौषध्यो यज्ञवाहाश्छन्दास्यृषिगणाध्वराः। समुद्रा दक्षिणा स्तोभा ऋक्षाणि पितरो ग्रहाः।। | 13-45-21a 13-45-21b |
देवपत्न्यो देवकन्या देवमातर एव च। मन्वन्तराणि गावश्च चन्द्रमाः सविता हरिः।। | 13-45-22a 13-45-22b |
सावित्री ब्रह्मविद्या च ऋतवो वत्सरास्तथा। क्षणा लवा मुहूर्ताश्च निमेषा युगपर्ययाः।। | 13-45-23a 13-45-23b |
रक्षन्तु सर्वत्र गतं त्वां यादव सुखाय च। अरिष्टं गच्छ पन्थानमप्रमत्तो भवानघ।। | 13-45-24a 13-45-24b |
एवं कृतस्वस्त्ययनस्तयाऽहं ततोऽभ्यनुज्ञाय नरेन्द्रपुत्रीम्। पितुः समीपं नरसत्तमस्य मातुश्च राज्ञश्च तथाऽऽहुकस्य।। | 13-45-25a 13-45-25b 13-45-25c 13-45-25d |
ततःसमृद्धिर्भवतोऽस्त्वविघ्नम्।। | 13-45-26f |
प्राप्यानुज्ञां गुरुजनादहं तार्क्ष्यमचिन्तयम्। सोवहद्धिमवन्तं मां प्राप्य चैनं व्यसर्जयम्।। | 13-45-27a 13-45-27b |
तत्राहमद्बुतान्भावानपश्यं गिरिसत्तमे। क्षेत्रं च तपसां श्रेष्ठं पश्याम्यद्भुतमुत्तमम्।। | 13-45-28a 13-45-28b |
दिव्यं वैयाघ्रपद्यस्य उपमन्योर्महात्मनः। पूजितं देवगन्धर्वैर्ब्राह्मया लक्ष्म्या समावृतम्।। | 13-45-29a 13-45-29b |
धवककुभकदम्बनारिकेलैः कुरवककेतकजम्बुपाटलाभिः। वटवरुणकवत्सनाभविल्वैः सरलकपित्थप्रियालसालतालैः।। | 13-45-30a 13-45-30b 13-45-30c 13-45-30d |
बदरीकुन्दपुन्नागरैशोकाम्रातिमुक्तकैः। मधूकैः कोविदारैश्च चम्पकैः पनसैस्तथा।। | 13-45-31a 13-45-31b |
वन्यैर्बहुविधैर्वृक्षैः फलपुष्पप्रदैर्युतम्। पुष्पगुल्मलताकीर्णं कदलीषण्डशोभितम्।। | 13-45-32a 13-45-32b |
नानाशकुनिसम्भोज्यैः फलैर्वृक्षैरलङ्कृतम्। यथास्थानविनिक्षिप्तैर्भूषितं भस्मराशिभिः।। | 13-45-33a 13-45-33b |
रुरुवानरशार्दूलसिंहद्वीपिसमाकुलम्। कुरङ्गबर्हिणाकीर्णं मार्जारभुजगावृतम्। पूगैश्च मृगजातीनां महिषर्क्षनिषेवितम्।। | 13-45-34a 13-45-34b 13-45-34c |
सकृत्प्रभिन्नैश्च गजैर्विभूषितं प्रहृष्टनानाविधपक्षिसेवितम्। सुपुष्पितैरम्बुधरप्रकाशै- र्महीरुहाणां च वनैर्विचित्रैः।। | 13-45-35a 13-45-35b 13-45-35c 13-45-35d |
नानापुष्परजोमिश्रो गजदानाधइवासितः। दिव्यस्त्रीगीतबहुलो मारुतोऽभिमुखो ववौ | 13-45-36a 13-45-36b |
धारानिनादैर्विहगप्राणादैः शुभैस्तथा बृंहितैः कुञ्जराणाम्। गीतैस्तथा किन्नराणामुदारैः शुभैः स्वनैः सामगानां च वीर।। | 13-45-37a 13-45-37b 13-45-37c 13-45-37d |
अचिन्त्यं मनसाऽप्यन्यैः सरोभिः समलङ्कृतम्। विशालैश्चाग्निशरणैर्भूषितं कुसुमावृतैः।। | 13-45-38a 13-45-38b |
विभूषितं पुण्ययवित्रतोयया सदा च जुष्टं नृप जह्नुकन्यया। विभूषितं धर्मभृतां वरिष्ठै- र्महात्मभिर्वह्निसमानकल्पैः।। | 13-45-39a 13-45-39b 13-45-39c 13-45-39d |
वाय्वाहारैरम्बुपैर्जप्यनित्यैः सम्प्रक्षालैर्योगिभिर्ध्याननित्यैः। धूमप्राशैरूष्मपैः क्षीरपैश्च संजुष्टं च ब्राह्मणेन्द्रैः समन्तात्।। | 13-45-40a 13-45-40b 13-45-40c 13-45-40d |
गोचारिणोऽर्थाश्मकुट्टा दन्तोलूखलिकास्तथा। मरीचिपाः फेनपाश्च तथैव मृगचारिणः।। | 13-45-41a 13-45-41b |
अश्वत्थफलभक्षाश्च तथा ह्युदकशायिनः। चीचचर्माम्बरधरास्तथा वल्कलधारिणः।। | 13-45-42a 13-45-42b |
सुदुःखान्नियमांस्तांस्तान्वहतः सुतपोधनान्। पश्यन्मुनीन्बहुविधानप्रवेष्टुमुपचक्रमे।। | 13-45-43a 13-45-43b |
सूपूजितं देवगणैर्महात्मभिः शिवादिभिर्भारतपुण्यकर्मभिः। रराज तच्चाश्रममण्डलं सदा दिवीव राजञ्शशिमण्डलं यथा।। | 13-45-44a 13-45-44b 13-45-44c 13-45-44d |
क्रीडन्ति सर्पैर्नकुला मृगैर्व्याघ्राश्च मित्रवत्। प्रभावाद्दीप्ततपसां सन्निकर्षान्महात्मनाम्।। | 13-45-45a 13-45-45b |
तत्राश्रमपदे श्रेष्ठे सर्वभूतमनोरम। सेविते द्विजशार्दूलैर्वेदवेदाङ्गपारगैः।। | 13-45-46a 13-45-46b |
नानानियमविख्यातैर्ऋषिभि सुमहान्मभिः। प्रविशन्नेव चापश्यं जटाचीरधरं प्रभुम्।। | 13-45-47a 13-45-47b |
तेजसा तपसा चैव दीप्यमानं यथाऽनलम्। शिष्यैरनुगतं शान्तं युवानं ब्राह्मणर्वभम्।। | 13-45-48a 13-45-48b |
शिरसा वन्दमानं मामुपमन्युरभाषत।। | 13-45-49a |
स्वागतं पुण्डरीकाक्ष सफलानि तपांसि नः। यः पूज्यः पूजयसि मां द्रष्टव्यो द्रष्टुमिच्छसि।। | 13-45-50a 13-45-50b |
`मनुष्यतानुवृत्त्या त्वा ज्ञात्वा तिष्ठाम सर्वगम्।' तमहं प्राञ्जलिर्भूत्वा मृगपक्षिष्वथाग्निषु। धर्मे च शिष्यवर्गे च समपृच्छमनामयम्।। | 13-45-51a 13-45-51b 13-45-51c |
ततो मां भगवानाह साम्ना परमवल्गुना। लप्स्यसे तनयं कृष्णि आत्मतुल्यमसंशयम्।। | 13-45-52a 13-45-52b |
तपः सुमहदास्थाय तोषयेशानमीश्वरम्। इह देवः सपत्नीकः समाक्रीडत्यधोक्षज।। | 13-45-53a 13-45-53b |
इहैनं दैवतश्रेष्ठं देवाः सर्षिगणाः पुरा। तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च दमेन च।। | 13-45-54a 13-45-54b |
तोषयित्वा शुभान्कामान्प्राप्तवन्तो जनार्दन। तेजसां सपसां चैव निधिः स भगवानिह।। | 13-45-55a 13-45-55b |
शुभाशुभान्वितान्भावान्विसृजन्स क्षिपन्नपि। आस्ते देव्या सहाचिन्त्यो यं प्रार्थयसि शत्रुहन्।। | 13-45-56a 13-45-56b |
हिरण्यकशिपुर्योऽभूद्दानवो मेरुकम्पनः। तेन सर्वामरैश्वर्यं शर्वात्प्राप्तं समार्बुदम्।। | 13-45-57a 13-45-57b |
तस्यैव पुत्रप्रवरो दमनो नाम विश्रुतः। महादेववराच्छक्रं वर्षार्बुदमयोधयम्।। | 13-45-58a 13-45-58b |
विष्णोश्चक्रं च तद्धोरं वज्रमाखण्डलस्य च। शीर्णं पुराऽभवत्तात ग्रहस्याङ्गेषु केशव।। | 13-45-59a 13-45-59b |
[यत्तद्भगवता पूर्वं दत्तं चक्रं तवानघ। जलान्तरचरं हत्वा दैत्यं च बलगर्वितम्।। | 13-45-60a 13-45-60b |
उत्पादितं वृषाङ्केन दीप्तज्वलनसन्निभम्। दत्तं भगवता तुभ्यं दुर्धषं तेजसाऽद्भुतम्।। | 13-45-61a 13-45-61b |
न शक्यं द्रष्टुमन्येन वर्जयित्वा पिनाकिनम्। सुदर्शनं भवत्येवं भवेनोक्तं तदा तु तत्।। | 13-45-62a 13-45-62b |
सुदर्शनं तदा तस्य लोके नाम प्रतिष्ठितम्। तज्जीर्णमभावत्तात ग्रहस्याङ्गेषु केशव। | 13-45-63a 13-45-63b |
ग्रहस्यातिवलस्याङ्गे वरदत्तस्य धीमतः। न शस्त्राणि वहन्त्यङ्गे चक्रवज्रशतान्यपि।।] | 13-45-64a 13-45-64b |
अर्द्यमानाश्च विबुधा ग्रहेणि सुबलीयसा। शिवदत्तवराञ्जघ्नुरसुरेन्द्रान्सुरा भृशम्।। | 13-45-65a 13-45-65b |
तृष्टो विद्युत्प्रभस्यापि त्रिलोकेश्वरतां ददौ। शतं वर्षसहस्राणां सर्वलोकेश्वरोऽभवत्।। | 13-45-66a 13-45-66b |
ममैवानुचरो नित्यं भवितासीति चाब्रवीत्। तथा पुत्रसहस्राणामयुतं च ददौ प्रभुः।। | 13-45-67a 13-45-67b |
कुशद्वीपं च स ददौ राज्येन भगवानजः। [तथा शतमुखो नाम धात्रा सृष्टो महासुरः। | 13-45-68a 13-45-68b |
येन वर्षशतं साग्रमात्ममांसैर्हुतोऽनलः। तं प्राह भववांस्तुष्टः किंकरोमीति शंकरः।। | 13-45-69a 13-45-69b |
तं वै शतमुखः प्राह योगो भवतु मेऽद्भुतः। बलं च दैवतश्रेष्ठ शाश्वतं सम्प्रयच्छ मे।। | 13-45-70a 13-45-70b |
तथेति भगवानाह तस्य तद्वचनं प्रभुः। स्वायंभुवः क्रतुश्चापि पुत्रार्थमभवत्पुरा।। | 13-45-71a 13-45-71b |
आविश्य योगेनात्मानं त्रीणि वर्षशतान्यपि। तस्य चोपददौ पुत्रान्सहस्रं क्रतुसम्मितान्।] योगेश्वरं देवगीतं वेत्थ कृष्ण न संशयः।। | 13-45-72a 13-45-72b 13-45-72c |
याज्ञवल्क्य इति ख्यात ऋषिः परमधार्मिकः। आराध्य स महादेवं प्राप्तवानतुलं यशः।। | 13-45-73a 13-45-73b |
वेदव्यासश्च योगात्मा पराशरसुतो मुनिः। सोऽपि शंकरमाराध्य प्राप्तवानतुलं यशः।। | 13-45-74a 13-45-74b |
वालखिल्या मघवता ह्यवज्ञाताः पुरा किल। तैः क्रुद्धैर्भगवान्रुद्रस्तपसा तोषितो ह्यभूत्।। | 13-45-75a 13-45-75b |
तांश्चापि दैवतश्रेष्ठः प्राह प्रीतो जगत्पतिः। सुपर्णं सोमहर्तारं तपसोत्पादयिष्यथ।। | 13-45-76a 13-45-76b |
महादेवस्य रोषाच्च आपो नष्टाः पुराऽभवन्। ताश्च सप्तकपालेन देवैरन्याः प्रवर्तिताः।। | 13-45-77a 13-45-77b |
ततः पानीयमभवत्प्रसन्ने त्र्यम्बके भुवि। अत्रिभार्या सुतं दत्तं सोमं दुर्वाससं प्रभो।। | 13-45-78a 13-45-78b |
अत्रेर्भार्याऽपि भर्तारं संत्यज्य ब्रह्मवादिनी। नाहं तव मुने भूयो वशगा स्यां कथञ्चन।। | 13-45-79a 13-45-79b |
इत्युक्त्वा सा महादेवमगमच्छरणं किल। निराहास भयादत्रेस्त्रीणि वर्षशतान्यपि।। | 13-45-80a 13-45-80b |
अशेत मुसलेष्वेव प्रसादार्थं भवस्य सा। तामब्रवीद्धसन्देवो भविता वै सुतस्तव।। | 13-45-81a 13-45-81b |
विना भर्त्रा चरुद्रेण भविष्यति न संशयः। वंशे तवैव नाम्ना तु ख्यातिं यास्यति चेप्सिताम्।। | 13-45-82a 13-45-82b |
विकर्णश्च महादेवं तथा भक्तसुखावहम्। प्रसाद्य भगवान्सिद्धिं प्राप्तवान्मधुसूदन।। | 13-45-83a 13-45-83b |
शाकल्यः संशितात्मा वै नववर्षशतान्यपि। आराधयामास भवं मनोयज्ञेन केशव।। | 13-45-84a 13-45-84b |
तं चाह भगवांस्तुष्टो ग्रन्थकारो भविष्यसि। वत्साक्षया च ते कीतिस्त्रेलोक्ये वै भविष्यति।। | 13-45-85a 13-45-85b |
अक्षयं च कुलं तेऽस्तु महर्षिभिरलंकृतम्। भविष्यति द्विजश्रेष्ठः सूत्रकर्ता सुतस्तव।। | 13-45-86a 13-45-86b |
सावर्णिश्चापि विख्यात ऋषिरासीत्कृते युगे। इह तेन तपस्तप्तं षष्टिवर्षशतान्यथ।। | 13-45-87a 13-45-87b |
तमाह भगवान्रुद्रः साक्षात्तुष्टोस्मि तेऽनघ। ग्रन्थकृल्लोकविख्यातो भवितास्यजरामरः।। | 13-45-88a 13-45-88b |
शक्रेणि तु पुरा देवो वाराणस्यां जनार्दन। आराधितोऽभूद्भक्तेन दिग्वासा भस्मगुष्ठितः।। आराध्य स महादेवं देवराज्यमवाप्तवान्।। | 13-45-89a 13-45-89b 13-45-89c |
नारदेन तु भक्त्याऽसौ भव आराधितः पुरा। तस्य तुष्टो महादेवो जगौ देवगुरुर्गुरुः।। | 13-45-90a 13-45-90b |
तेजसा तपसा कीर्त्या त्वत्समो न भविष्यति। गीतेन वादितव्येन नित्यं मामनुयास्यसि।। | 13-45-91a 13-45-91b |
`बाणः स्कन्दसमत्वं च कामो दर्पविमोक्षणम्। लवणोऽवध्यतामन्यैर्दशास्यश्च पुनर्बलम्। अन्तकोऽन्तमनुप्राप्तस्तस्मात्कोऽन्यः परः प्रभुः।। | 13-45-92a 13-45-92b 13-45-92c |
मयाऽपि च यथा दृष्टो देवदेवः पुरा विभो। साक्षात्पशुपतिस्तात तच्चापि शृणु माधव।। | 13-45-93a 13-45-93b |
यदर्थं च मया देवः प्रयतेन तथा विभो। आराधितो महातेजास्तच्चापि शृणु विस्तरात्।। | 13-45-94a 13-45-94b |
यदवाप्तं च मे पूर्वं देवदेवान्महेश्वरात्। तत्सर्वं निखिलेनाद्य कथयिष्यामि तेऽनघ | 13-45-95a 13-45-95b |
पुरा कृतयुगे तात ऋषिरासीन्महायशाः। व्याघ्रपाद इति ख्यातो वेदवेदाङ्गपारगः। तस्याहमभवं पुत्रो धौम्यश्चापि ममानुजः।। | 13-45-96a 13-45-96b 13-45-96c |
कस्यचित्त्थ कालस्य धौम्येन सह माधव। आगच्छमाश्रमं क्रीडन्मुनीनां भावितात्मनाम्।। | 13-45-97a 13-45-97b |
तत्रापि च मया दृष्टा दुह्यमाना पयस्विनी। लक्षितं च मया क्षीरं स्वादुतो ह्यमृतोपमम्।। | 13-45-98a 13-45-98b |
तदाप्रभृति चैवाहमरुदं मधुसूदन। दीयतां दीयतां क्षीरं मम मातरितीरिता।। | 13-45-99a 13-45-99b |
अभावाच्चैव दुग्धस्य दुःखिता जननी तदा।। | 13-45-100a |
ततः पिष्टं समालोड्य तोयेन सह माधव। आवयोः क्षीरमित्येव पानार्थं समुपानयत्।। | 13-45-101a 13-45-101b |
अथ गव्यं पयस्तात कदाचित्प्राशितं मया। | 13-45-102a |
पित्राऽहं यज्ञकाले हि नीतो ज्ञातिकुलं महत्। तत्र सा क्षरते देवी दिव्या गौः सुरनन्दिनी।। | 13-45-103a 13-45-103b |
यस्ताहं तत्पयः पीत्वा रसेन ह्यमृतोपमम्। ज्ञात्वा क्षीरगुणांश्चैव उपलभ्य हि सम्भवम्। स च पिष्टरसस्तात न मे प्रीतिमुपावहत्।। | 13-45-104a 13-45-104b 13-45-104c |
ततोऽहमब्रुवं बाल्याज्जननीमात्मनस्तदा। नेदं क्षीरोदनं मातर्यत्त्वं मे दत्तवत्यसि।। | 13-45-105a 13-45-105c |
ततो मामब्रवीन्माता दुःखशोकसमन्विता। पुत्रस्नेहात्परिष्वज्य मूर्ध्नि चाघ्राय माधव।। | 13-45-106a 13-45-106b |
कुतः क्षीरोदनं वत्स मुनीनां भावितात्मनम्। वने निवसतां नित्यं कन्दमूलफलाशिनाम्।। | 13-45-107a 13-45-107b |
आस्थितानां नदीं दिव्यां वालखिल्यैर्निषेविताम् कुत क्षीरं वनस्थानां मुनीनां गिरिवासिनाम्।। | 13-45-108a 13-45-108b |
पावनानां वनाशानां वनाश्रमनिवासिनाम्। ग्राम्याहारनिवृत्तानामारण्यफलभोजिनाम्। नास्ति पुत्र पयोऽरण्ये सुरभीगोत्रवर्जिते।। | 13-45-109a 13-45-109b 13-45-109c |
नदीगह्वरशैलेषु तीर्थेषु विविधेषु च। तपसा जप्यनित्यानां शिवो नः परमा गतिः।। | 13-45-110a 13-45-110b |
अप्रसाद्य विरूपाक्षं वरदं स्थाणुमव्ययम्। कुतः क्षीरोदनं वत्स सुखानि वसनानि च।। | 13-45-111a 13-45-111b |
तं प्रपद्य सदा वत्स सर्वभावेन शङ्करम्। तत्प्रसादाच्च कामेभ्यः फलं प्राप्स्यसि पुत्रक।। | 13-45-112a 13-45-112b |
जनन्यास्तद्वचः श्रुत्वा तदाप्रभृति शत्रुहन्। [प्राञ्जलिः प्रणतो भूत्वा इदमम्बामवोचयं।। | 13-45-113a 13-45-113b |
कोऽयमम्ब महादेवः स कथं च प्रसीदति। कुत्र वा वसते देवो द्रष्टव्यो वा कथञ्चन।। | 13-45-114a 13-45-114b |
तुष्यते वा कथं शर्वो रूपं तस्य च कीदृशम्। कथं ज्ञेयः प्रसन्नो वा दर्शयेज्जननी मम।। | 13-45-115a 13-45-115b |
एवमुक्ता तदा कृष्ण माता मे सुतवत्सला। मूर्घन्याध्राय गोविन्द सबाष्पाकुललोचना।। | 13-45-116a 13-45-116b |
प्रमार्जन्ती च गात्राणि मम वै मधुसूदन।। दैन्यमालम्ब्य जननी इदमाह सुरोत्तम।। | 13-45-117a 13-45-117b |
दुर्विज्ञेयो महादेवो दुराधारो दुरन्तकः। दुराबाधश्च दुर्ग्राह्यो दुर्द्दश्यो ह्यकृतात्मभिः।। | 13-45-118a 13-45-118b |
यस्य रूपाण्यनेकानि प्रवदन्ति मनीषिणः। स्थानानि च विचित्राणि प्रासादाश्चाप्यनेकशः।। | 13-45-119a 13-45-119b |
को हि तत्त्वेन तद्वेद ईशस्य चरितं शुभम्। कृतवान्यानि रूपाणि देवदेवः पुरा किल। क्रीडते च तथा शर्वः प्रसीदति यथाच वै।। | 13-45-120a 13-45-120b 13-45-120c |
हृदिस्थः सर्वभूतानां विश्वरूपो महेश्वरः। भक्तानामनुकम्पार्थं दर्शनं च यथाश्रुतम्। मुनीनां ब्रुवतां दिव्यमीशानचरितं शुभम्।। | 13-45-121a 13-45-121b 13-45-121c |
कृतवान्यानि रूपाणि कथितानि दिवौकसैः। अनुग्रहार्थं विप्राणां शृणु वत्स समासतः।। | 13-45-122a 13-45-122b |
तानि ते कीर्तयिष्यामि यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 13-45-123a |
ब्रह्मविष्णुसुरेन्द्राणां रुद्रादित्याश्विनामपि। विश्वेषामपि देवानां वपुर्धारयते भवः।। | 13-45-124a 13-45-124b |
नराणां देवनारीणां तथा प्रेतपिशाचयोः। किरातशबराणां च जलजानामनेकशः।। | 13-45-125a 13-45-125b |
करोति भगवान्रूपमाटव्यशबराण्यपि। कूर्मो मत्स्यस्तथा शङ्खः प्रवालाङ्कुरभूषणः।। | 13-45-126a 13-45-126b |
यक्षराक्षससर्पाणां दैत्यदानवयोरपि। वपुर्धारयते देवो भूयश्च बिलवासिनाम्।। | 13-45-127a 13-45-127b |
व्याघ्रसिंहमृगाणां च तरक्ष्वृक्षपतत्त्रिणाम्। उलूकश्वशृगालानां रूपाणि कुरुतेऽपि च।। | 13-45-128a 13-45-128b |
हंसकाकमयूराणां कृकलासकसारसाम्। रूपाणि च बलाकानां गृध्रचक्राङ्गयोरपि।। | 13-45-129a 13-45-129b |
करोति वा स रूपाणि धारयत्यपि पर्वतम्। गोरूपं च महादेवो हस्त्यश्वोष्ट्रखराकृतिः।। | 13-45-130a 13-45-130b |
छागशार्दूलरूपश्च अनेकमृगरूपधृक्। अण्डजानां च दिव्यानां वपुर्धारयते भवः।। | 13-45-131a 13-45-131b |
दण्डी छत्री च कुण्डी च द्विजानां वारणस्तथा। षण्मुखो वै बहुमुखस्त्रिनेत्रो बहुशीर्षकः।। | 13-45-132a 13-45-132b |
अनेककटिपादश्च अनेकोदरवक्त्रधृत्। अनेकपाणिपार्श्वश्च अनेकगपसंवृतः।। | 13-45-133a 13-45-133b |
ऋषिगन्धर्वरूपश्च सिद्धचारणरूपधृत्। भस्पपाण्डुरगात्रश्च चन्द्रार्धकृतभूषणः।। | 13-45-134a 13-45-134b |
अनेकरावसंघुष्टश्चानेकस्तुतिसंस्कृतः। सर्वभूतान्तकः सर्वः सर्वलोकप्रतिष्ठितः।। | 13-45-135a 13-45-135b |
सर्वलोकान्तरात्मा च सर्वगः सर्ववाद्यपि। सर्वत्र भगवान्ज्ञेयो हृदिस्थः सर्वदेहिनाम्।। | 13-45-136a 13-45-136b |
यो हि यं कामयेत्कामं यस्मिन्नर्थऽर्च्यते पुनः। तत्सर्वं वेत्ति देवेशस्तं प्रपद्य यदीच्छसि।। | 13-45-137a 13-45-137b |
नन्दते कुप्यते चापि तथा हुंकारयत्यपि। चक्री शूली गदापाणिर्मुसली खड्गपट्टसी।। | 13-45-138a 13-45-138b |
भूधरो नागमौञ्जी च नागकुण्डलकुण्डली। नागयज्ञोपवीती य नागचर्मोत्तरच्छदः।। | 13-45-139a 13-45-139b |
हसते गायते चैव नृत्यते च मनोहरम्। वादयत्यपि वाद्यानि विचित्राणि गणैर्युतः।। | 13-45-140a 13-45-140b |
वल्गते जृम्बते चैव रुदते रोदयत्यपि। उन्मत्तमत्तरूपं च भाषते चापि सुस्वरः।। | 13-45-141a 13-45-141b |
अतीव हसते रौद्रस्त्रासयन्नयनैर्जनम्। जागर्ति चैव स्वपिति जृम्भते च यथासुवम्।। | 13-45-142a 13-45-142b |
जपते जप्यते चैव तपते तप्यते पुनः। ददाति प्रतिगृह्णाति युञ्जते ध्यायतेऽपि च।। | 13-45-143a 13-45-143b |
वेदीमध्ये तथा यूपे गोष्ठमध्ये हुताशने। दृश्यते दृश्यते चापि बालो वृद्धो युवा तथा।। | 13-45-144a 13-45-144b |
क्रीडते ऋषिकन्याभिर्ऋषिपत्नीभिरेव च। ऊर्ध्वकेशो महाशेफो नग्नो विकृतलोचनः।। | 13-45-145a 13-45-145b |
गौरः श्यामस्तथा कृष्णः पाण्डुरो धूमलोहितः। विकृताक्षो विशालाक्षो दिग्वासाः सर्ववासकः।। | 13-45-146a 13-45-146b |
अरूपस्याद्यरूपस्य अतिरूपाद्यरूपिणः। अनाद्यन्तमजस्यान्तं वेत्स्यते कोस्य तत्त्वतः।। | 13-45-147a 13-45-147b |
हृदि प्राणो मनो जीवो योगात्मा योगसंज्ञितः। ध्यानं तत्परमात्मा च भावग्राह्यो महेश्वरः।। | 13-45-148a 13-45-148b |
वादको गायनश्चैव सहस्रशतलोचनः। एकवक्त्रो द्विवक्त्रश्च त्रिवक्त्रोऽनेकवक्त्रकः।। | 13-45-149a 13-45-149b |
तद्भक्तस्तद्गतो नित्यं तन्निष्ठस्तत्परायणः। भज पुत्र महादेवं ततः प्राप्स्यसि चेप्सितं।। | 13-45-150a 13-45-150b |
जनन्यास्तद्वचः श्रुत्वा तदाप्रभृति शत्रुहन्।] मम भक्तिर्महादेवे नैष्ठिकी समपद्यत।। | 13-45-151a 13-45-151b |
ततोऽहं तप आस्थाय तोपयामास शंकरम्। दिव्यं वर्षसहस्रं तु वामाङ्गुष्ठाग्रविष्ठितः।। | 13-45-152a 13-45-152b |
एकं वर्षशतं चैव फलाहारस्ततोऽभवम्। द्वितीयं शीर्णपर्णाशी तृतीयं चाम्बुभोजनः।। | 13-45-153a 13-45-153b |
शतानि सप्त चैवाहं वायुभक्षस्तदाऽभवम्। एकं वर्षसहस्रं तु दिव्यमाराधितो मया।। | 13-45-154a 13-45-154b |
ततस्तुष्टो महादेवः सर्वलोकेश्वरः प्रभुः। एकभक्त इति ज्ञात्वा जिज्ञासां कुरुते तदा।। | 13-45-155a 13-45-155b |
शक्ररूपं स कृत्वा तु सर्वैर्देवगणैर्वृतः। सहस्राक्षस्तदा भूत्वा वज्रपाणिर्महायशाः।। | 13-45-156a 13-45-156b |
सुधावदातं रक्ताक्षं स्तब्धकर्णं मदोत्कटम्। आवेष्टतकरं घोरं चतुर्दष्ट्रं महागजम्।। | 13-45-157a 13-45-157b |
समास्थितः स भगवान्दीप्यमानः स्वतेजसा। आजगाम किरीटी तु हारकेयूरभूषितः।। | 13-45-158a 13-45-158b |
पाण्डुरेणातपत्रेण ध्रियमाणेन मूर्धनि। सेव्यभानोप्सरोभिश्च दिव्यगन्धर्वनादितैः।। | 13-45-159a 13-45-159b |
ततो मामाह देवेन्द्रस्तुष्टस्तेऽहं द्विजोत्तम। वरं वृणीष्व मत्तस्त्वं यत्ते मनसि वर्तते।। | 13-45-160a 13-45-160b |
शक्रस्य तु वचः श्रुत्वा नाहं प्रीतमनाऽभवम्। अब्रवं च तदा कृष्ण देवराजमिदं वचः।। | 13-45-161a 13-45-161b |
नाहं त्वत्तो वरं काङ्क्षे नान्यस्मादपि दैवतात्। महादेवादृते सौम्य सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 13-45-162a 13-45-162b |
सत्यंसत्यं हि नः शक्र वाक्यमेतत्सुनिश्चितम्। न यन्मिहेश्वरं मुक्त्वा कथाऽन्या मम रोचते।। | 13-45-163a 13-45-163b |
पशुपतिवचनाद्भवामि सद्यः कृमिरथवा तरुरप्यनेकशाखः। अपशुपतिवरप्रसादजा मे त्रिभुवनराज्यविभूतिरप्यनिष्टा।। | 13-45-164a 13-45-164b 13-45-164c 13-45-164d |
[जन्मश्वपाकमध्येऽ- पि मेऽस्तु हरचरणवन्दनरतस्य। मा वाऽनीश्वरभक्तो भवानि भवनेऽपि शक्रस्य।। | 13-45-165a 13-45-165b 13-45-165c 13-45-165d |
वाय्वम्बुभुजोऽपि सतो। नरस्य दुःखक्षयः कुतस्तस्य। भवति हि सुरासुरगुरौ यस्य न विश्वेश्वरे भक्तिः।। | 13-45-166a 13-45-166b 13-45-166c 13-45-166d |
अलमन्याभिस्तेषां कथाभिरप्यन्यधर्मयुक्ताभिः। येषां न क्षणमपि रुचितो हरचरणस्मरणविच्छेदः।। | 13-45-167a 13-45-167b 13-45-167c 13-45-167d |
हरचरणनिरतमतिना भवितव्यमनार्जवं युगं प्राप्य। संसारभयं न भवति हरभक्तिरसायनं पीत्वा।। | 13-45-168a 13-45-168b 13-45-168c 13-45-168d |
दिवसं दिवसार्धं वा मुहूर्तं वा क्षणं लवम्। न ह्यलब्धप्रसादस्य भक्तिर्भवति शङ्करे।।] | 13-45-169a 13-45-169b |
अपि कीटः पतङ्गो वा भवेयं शङ्कराज्ञया। न तु शक्र त्वया दत्तं त्रैलोक्यमपि कामये।। | 13-45-170a 13-45-170b |
[श्वाऽपि महेश्वरवचना- द्भवामि स हि नः परः कामः। त्रिदशगणराज्यमपि खलु नेच्छाम्यमहेश्वराज्ञप्तम्।। | 13-45-171a 13-45-171b 13-45-171c 13-45-171d |
न नाकपृष्ठं न च देवराज्यं न ब्रह्मलोकं न च निष्कलत्वम्। न सर्वकामानखिलान्वृणोमि हरस्य दासत्वमहं वृणोमि।।] | 13-45-172a 13-45-172b 13-45-172c 13-45-172d |
यावच्छशाङ्कधवलामलबद्धमौलि- र्न प्रीयते पशुपतिर्भगवान्ममेशः। तावज्जरामरणजन्मशताभिघातै- र्दुःखानि देहविहितानि समुद्वहामि।। | 13-45-173a 13-45-173b 13-45-173c 13-45-173d |
दिवसकरशशाङ्कवह्निदीप्तं त्रिभुवनसारमसारमाद्यमेकम्। अजरममरमप्रसाद्य रुद्रं जगति पुमानिह को लभेत शान्तिं।। | 13-45-174a 13-45-174b 13-45-174c 13-45-174d |
`धिक्तेषां धिक्तेषां पुनरपि च धिगस्तु धिक्तेषाम्। येषां न वसति हृदये कुपथगतिविमोक्षको रुद्रः'।। | 13-45-175a 13-45-175b 13-45-175c 13-45-175d |
यदि नाम जन्म भूयो भवति मदीयैः पुनर्दोषैः। तस्मिंस्तस्मिञ्जन्मनि भवे भवेन्मेऽक्षया भक्तिः।। | 13-45-176a 13-45-176b 13-45-176c 13-45-176d |
शक्र उवाच। | 13-45-177x |
कः पुनर्भवने हेतुरीशे कारणकारणे। येन शर्वादृतेऽन्यस्मात्प्रसादं नाभिकाङ्क्षसि।। | 13-45-177a 13-45-177b |
[उपमन्युरुवाच। | 13-45-178x |
सदसद्व्यक्तमव्यक्तं यमाहुर्ब्रह्मवादिनः। नित्यमेकमनेकं च वरं तस्माद्वृणीमहे।। | 13-45-178a 13-45-178b |
अनादिमध्यपर्यन्तं ज्ञानैश्वर्यमचिन्तितम्। आत्मानं परमं यस्माद्वरं तस्माद्वृणीमहे।। | 13-45-179a 13-45-179b |
ऐश्वर्यं सकलं यस्मादनुत्पादितमव्ययम्। अबीजाद्बीजसम्भूतं वरं तस्माद्वृणीमहे।। | 13-45-180a 13-45-180b |
तमसः परमं ज्योतिस्तपस्तद्वृत्तिनां परम्। यं ज्ञात्वा नानुशोचन्ति वरं तस्माद्वृणीमहे।। | 13-45-181a 13-45-181b |
भूतभावनभावज्ञं सर्वभूताभिभावनम्। सर्वगं सर्वदं देवं पूजयामि पुरंदर।। | 13-45-182a 13-45-182b |
हेतुवादैर्विनिर्मुक्तं साङ्ख्ययोगार्थदं परम्। यमुपासन्ति तत्त्वज्ञा वरं तस्माद्वृणीमहे।। | 13-45-183a 13-45-183b |
मघवन्मघवात्मानं यं वदन्ति सुरेश्वरम्। सर्वभूतगुरुं देवं वरं तस्माद्वृणीमहे।। | 13-45-184a 13-45-184b |
यत्पूर्वमसृजद्देवं ब्रह्माणं लोकभावनम्। अण्डमाकाशमापूर्य वरं तस्माद्वृणीमहे।। | 13-45-185a 13-45-185b |
अग्निरापोऽनिलः पृथ्वी खं बुद्धिश्च मनो महान्। स्रष्टा चैषां भवेद्योऽन्यो ब्रूहि कः परमेश्वरात्।। | 13-45-186a 13-45-186b |
मनो मतिरहङ्कारस्तन्मात्राणीन्द्रियाणि च। ब्रूहि चैषां भवेच्छक्र कोऽन्योस्ति परमं शिवात्।। | 13-45-187a 13-45-187b |
स्रष्टारं भुवनस्येह वदन्तीह पितामहम्। आराध्य स तु देवेशमश्नुते महतीं क्षियम्।। | 13-45-188a 13-45-188b |
भगवत्युत्तमैश्वर्यं ब्रह्मविष्णुपुरोगमम्। विद्यते वै महादेवाद्ब्रूहि कः परमेश्वरात्।। | 13-45-189a 13-45-189b |
दैत्यदानवमुख्यानामाधिपत्यारिमर्दनात्। कोऽन्यः शक्रोति देवेशाद्दितेः सम्पादितुं सुतान्।। | 13-45-190a 13-45-190b |
दिक्कालसूर्यतेजांसि ग्रहवाय्विन्दुतारकाः। विद्धि त्वेते महादेवाद्ब्रूहि कः परमेश्वरात्।। | 13-45-191a 13-45-191b |
अथोत्पत्तिविनाशे वा यज्ञस्य त्रिपुरस्य वा। दैत्यदानवमुख्यानामाधिपत्यारिमर्दनः।। | 13-45-192a 13-45-192b |
किं चात्र बहुभिः सूक्तैर्हेतुवादैः पुरंदर। सहस्रनयनं दृष्ट्वा त्वामेव सुरसत्तम।। | 13-45-193a 13-45-193b |
पूजितं सिद्धगन्धर्वैर्देवैश्च ऋषिभिस्तथा। देवदेवप्रसादेन तत्सर्वं कुशिकोत्तम।। | 13-45-194a 13-45-194b |
अव्यक्तमुक्तकेशाय सर्वगस्येदमात्मकम्। चेतनाचेतनाद्येषु शक्र विद्धि महेश्वरात्।। | 13-45-195a 13-45-195b |
भुवाद्येषु महान्तेषु लोकालोकान्तरेषु च। द्वीपस्थानेषु मेरोश्च विभवेष्वन्तरेषु च। | 13-45-196a 13-45-196b |
भगवन्मघवन्देवं वदन्ते तत्त्वदर्शिनः।। यदि देवाः सुराः शक्र पश्यन्त्यन्यां भवाकृतिम्। | 13-45-197a 13-45-197b |
किं न गच्छन्ति शरणं मर्दिताश्चासुरैः सुराः।। अभिघातेषु देवानां सयक्षोरगरक्षसाम्। | 13-45-198a 13-45-198b |
परस्परविनाशीषु स्वस्थानैश्वर्यदो भवः।। अन्धकस्याथ शुक्रस्य दुन्दुभेर्महिषस्य च। यक्षेन्द्रबलरक्षःसु निवातकवचेषु च। वरदानावघाताय ब्रूहि कोऽन्यो महेश्वरात्।। | 13-45-199a 13-45-199b 13-45-199c 13-45-199d |
सुरासुरगुरोर्वक्त्रे कस्य रेतः पुरा हुतम्। कस्य वाऽन्यस्य रेतस्तद्येन हैमो गिरिः कृतः।। | 13-45-200a 13-45-200b |
दिग्वासाः कीर्त्यते कोऽन्यो लोके कश्चोर्ध्वरेतसः। कस्य चार्धे स्थिता कान्ता अनङ्गः केन निर्जितः।। | 13-45-201a 13-45-201b |
ब्रूहीन्द्र परमं स्थानं कस्य देवैः प्रशस्यते। श्मशाने कस्य क्रीडार्थं नृत्ते वा कोऽभिभाष्यते।। | 13-45-202a 13-45-202b |
कस्यैश्वर्यं समानं च भूतैः को वाऽपि क्रीडते। कस्य तुल्यबला देवगणाश्चैश्वर्यदर्पिताः।। | 13-45-203a 13-45-203b |
घुष्यते ह्यचलं स्थानं कस्य त्रैलोक्यपूजितम्। वर्षते तपते कोऽन्यो ज्वलते तेजसा च कः।। | 13-45-204a 13-45-204b |
कस्मादोषधिसम्पत्तिः को वा धारयते वसु। प्रकामं क्रीडते को वा त्रैलोक्ये सचराचरे।। | 13-45-205a 13-45-205b |
ज्ञानसिद्धिक्रियायोगैः सेव्यमानश्च योगिभिः। ऋषिगन्धर्वसिद्धैश्च विहितं कारणं परम्।। | 13-45-206a 13-45-206b |
कर्मयज्ञक्रियायोगैः सेव्यमानः सुरासुरैः। नित्यं कर्मफलैर्हीनं तमहं कारणं वदे।। | 13-45-207a 13-45-207b |
स्थूलं सूक्ष्ममनौपम्यमग्राह्यं गुणगोचरम्। गुणहीनं गुणाध्यक्षं परं माहेश्वरं पदम्।। | 13-45-208a 13-45-208b |
विश्वेशं कारणगुरुं लोककालोकान्तकारणम्। भूताभूतभविष्यच्च जनकं सर्वकारणम्। | 13-45-209a 13-45-209b |
अक्षराक्षरमव्यक्तं विद्याविद्ये कृताकृते। धर्माधर्मौ यतः शक्र तमहं कारणं ब्रुवे।। | 13-45-210a 13-45-210b |
प्रत्यक्षमिह देवेन्द्र पश्य लिङ्गं भगाङ्कितम्। देवदेवेन रुद्रेण सृष्टिसंहारहेतुना।। | 13-45-211a 13-45-211b |
मात्रा पूर्वं ममाख्यातं कारणं लोकलक्षणम्। नास्ति चेशात्परं शक्र तं प्रपद्य यदीच्छसि।। | 13-45-212a 13-45-212b |
प्रत्यक्षं ननु ते सुरेश विदितं संयोगलिङ्गोद्भवं त्रैलोक्यं सविकारनिर्गुणगणं ब्रह्मादिरेतोद्भवम्। यद्ब्रह्मेन्द्रहुताशविष्णुसहिता देवाश्च दैत्येश्वरा नान्यत्कामसहस्रकल्पितधियः शंसन्ति ईशात्परं।। | 13-45-213a 13-45-213b 13-45-213c 13-45-213d |
तं देवं सचराचरस्य जगतो व्याख्यातवेद्योत्तमं कामार्थी वरयामि संयतमना मोक्षाय सद्यः शिवम् हेतुभिर्वा किमन्यैस्तैरीशः कारणकारणम्। न शुश्रुम यदन्यस्य लिङ्गमभ्यर्चितं सुरैः।। | 13-45-214a 13-45-214b 13-45-214c 13-45-214d |
कस्यान्यस्य सुरैः सर्वैर्लिङ्गं मुक्त्वा महेश्वरम्। अर्च्यतेऽर्चितपूर्वं वा ब्रूहि यद्यस्ति ते श्रुतिः।। | 13-45-215a 13-45-215b |
यस्य ब्रह्म च विष्णुश्च त्वं चापि सहदैवतैः। अर्चयध्वं सदा लिङ्गं तस्माच्छ्रेष्ठतमो हि सः।। | 13-45-216a 13-45-216b |
न पद्माङ्गा न चक्राङ्का न वज्राङ्का यतः प्रजाः। लिङ्गाङ्का च भगाङ्का च तस्मान्माहेश्वरी प्रजा।। | 13-45-217a 13-45-217b |
देव्याःकरणरूपभावजनिताःसर्वाभगाङ्काः स्त्रियो लिङ्गेनापि हरस्य सर्वपुरुषाः प्रत्यक्षचिह्नीकृताः। योऽन्यत्कारणमीश्वरात्प्रवदते देव्या च यन्नाङ्कितं त्रैलोक्ये सचराचरे स तु पुमान्बाह्यो भवेद्दुर्मतिः।। | 13-45-218a 13-45-218b 13-45-218c 13-45-218d |
पुल्लिङ्गं सर्वमीशानं स्त्रीलिङ्गं विद्धि चाप्यमाम्। द्वाभ्यां तनुभ्यां व्याप्तं हि चराचरमिदं जगत्।।] | 13-45-219a 13-45-219b |
तस्माद्वरमहं काङ्क्षे निधनं वाऽपि कौशिक। गच्छ वा तिष्ठ वा शक्र यथेष्टं बलसूदन।। | 13-45-220a 13-45-220b |
काममेष वरो मेस्तु शापो वाऽथ महेश्वरात्। न चान्यां देवतां काङ्क्षे सर्वकामफलामपि।। | 13-45-221a 13-45-221b |
एवमुक्त्वा तु देवेन्द्रं दुःखादाकुलितेन्द्रियः। न प्रसीदति मे देवः किमेतदिति चिन्तयन्।। | 13-45-222a 13-45-222b |
अथापश्यं क्षणेनैव तमेवैरावतं पुनः। हंसकुन्देन्दुसदृशं मृणालरजतप्रभम्।। | 13-45-223a 13-45-223b |
वृषरूपधरं साक्षात्क्षीरोदमिव सागरम्। कृष्णपुच्छं महाकायं मधुपिङ्गललोचनम्।। | 13-45-224a 13-45-224b |
वज्रसारमयैः शृङ्गैर्निष्टप्तकनकप्रभैः। सुतीक्ष्णैर्मृदुरक्ताग्रैरुत्किरन्तमिवावनिम्।। | 13-45-225a 13-45-225b |
जाम्बूनदेन दाम्ना च सर्वतः समलङ्कृतम्। सुवक्त्रखुरनासं च सुकर्णं सुकटीतटम्। सुपार्श्वं विपुलस्कन्धं सुरूपं चारुदर्शनम्।। | 13-45-226a 13-45-226b 13-45-226c |
ककुदं तस्य चाभाति स्कन्धमापूर्य धिष्ठितम्। तुषारगिरिकूटाभं सिताभ्रशिखरोपमम्।। | 13-45-227a 13-45-227b |
तभास्थितश्च भगवान्देवदेवः सहोमया। अशोभत महादेवः पौर्णमास्यामिवोडुराट्।। | 13-45-228a 13-45-228b |
`किरीटं च जटाभारः सर्पाद्याभरणानि च। वज्रादिशूलमातङ्गगम्भीरस्मितमागतम्।।' | 13-45-229a 13-45-229b |
तस्य तेजोभवो वह्निः समेघः स्तनयित्नुमान्। सहस्रमिव सूर्याणां सर्वमापूर्य धिष्ठितः।। | 13-45-230a 13-45-230b |
ईश्वरः सुमहातेजाः संवर्तक इवानलः। युगान्ते सर्वभूतानां दिधक्षुरिव चोद्यतः।। | 13-45-231a 13-45-231b |
तेजसा तु तदा व्याप्तं दुर्निरीक्ष्यं समन्ततः। पुनरुद्विग्नहृदय किमेतदिति चिन्तयम्।। | 13-45-232a 13-45-232b |
मुहूर्तमिव तत्तेजो व्याप्य सर्वा दिशो दश। प्रशान्तं च क्षणेनैव देवदेवस्य मायया।। | 13-45-233a 13-45-233b |
अथापश्यं स्थितं स्थाणुं भगवन्तं महेश्वरम्। `सौरभेयगतं सौम्यं विधूममिव पावकम्।। | 13-45-234a 13-45-234b |
प्रशान्तमनसं देवं त्रिनेत्रमपराजितम्। सहितं चारुसर्वाङ्ग्या पार्वत्या परमेश्वरम्।।' | 13-45-235a 13-45-235b |
नीलकण्ठं महात्मनमसक्तं तेजसां निधिम्। अष्टादशभुजं स्थाणुं सर्वाभरणभूषितम्।। | 13-45-236a 13-45-236b |
शुक्लाम्बरधरं देवं शुक्लमाल्यानुलेपनम्। शुक्लध्वजमनाधृष्यं शुक्लयज्ञोपवीतिनम्।। | 13-45-237a 13-45-237b |
गायद्भिर्नृत्यमानैश्च वादयद्भिश्च सर्वशः। वृतं पार्श्वचरैर्दिव्यैरात्मतुल्यपराक्रमैः।। | 13-45-238a 13-45-238b |
बालेन्दुमुकुटं पाण्डुं शरच्चन्द्रमिवोदितम्। त्रिभिर्नेत्रैः कृतोद्योतं त्रिभिः सूर्यैरिवोदितैः।। | 13-45-239a 13-45-239b |
`सर्वविद्याधिपं देवं शरच्चन्द्रसमप्रभम्। नयनाह्लादसौम्योऽहमपश्यं परमेश्वरम्।।' | 13-45-240a 13-45-240b |
अशोभतास्य देवस्य माला गात्रे सितप्रभे। जातरूपमयैः पद्मैर्ग्रथिता रत्नभूषिता।। | 13-45-241a 13-45-241b |
मूर्तिमन्ति तथाऽस्त्राणि सर्वतेजोमयानि च। मया दृष्टानि गोविन्द भवस्यामिततेजसः।। | 13-45-242a 13-45-242b |
इन्द्रायुधसहस्राभं धनुस्तस्य महात्मनः। पिनाकमिति विख्यातं स च वै पन्नगो महान्।। | 13-45-243a 13-45-243b |
सप्तशीर्षो महाकायस्तीक्ष्णदंष्ट्रो विषोल्वणः। ज्यावेष्टितमहाग्रीवः स्थितः पुरुषविग्रहः।। | 13-45-244a 13-45-244b |
शरश्च सूर्यसङ्काशो दृष्टः पाशुपताह्वयः। `सहस्रभुजजिह्वास्यो भीषणो नागविंग्रह।। | 13-45-245a 13-45-245b |
शङ्खशूलासिभिश्चैव पट्टसै रूपवान्स्थितः। येन च त्रिपुरं दग्धं सर्वदेवमयः ****** | 13-45-246a 13-45-246b |
अद्वितीयमनिर्देश्यं सर्वभूतभयावहम्। सस्फुलिङ्गं महाकायं विसृजन्तमिवानलम्।। | 13-45-247a 13-45-247b |
एकपादं महादंष्ट्रं सहस्रशिरसोदरम्। सहस्रभुजजिह्वाक्षमुद्गिरन्तमिवानलम्।। | 13-45-248a 13-45-248b |
ब्राह्मान्नारायणाच्चैन्द्रादाग्नेयादपि वारुणात्। यद्विशिष्टं महाबाहो सर्वशस्त्रविघातनम्।। | 13-45-249a 13-45-249b |
येन तत्त्रिपुरं दग्ध्वा क्षणाद्भस्मीकृतं पुरा। शरेणैकेन गोविन्द महादेवेन लीलया।। | 13-45-250a 13-45-250b |
निर्दहेत च यत्कृत्स्नं त्रैलोक्यं सचराचरम्। महेश्वरभुजोत्सृष्टं निमेषार्धान्न संशयः।। | 13-45-251a 13-45-251b |
नावध्यो यस्य लोकेऽस्मिन्ब्रह्मविष्णुसुरेष्वपि। तदहं दृष्टवांस्तत्र आश्चर्यमिदमुत्तमम्।। | 13-45-252a 13-45-252b |
गुह्यमस्त्रवरं नान्यत्तत्तुल्यमधिकं हि वा। यत्तच्छूलमिति ख्यातं सर्वलोकेषु शूलिनः | 13-45-253a 13-45-253b |
दारयेद्द्यां मही कृत्स्नां शोषयेद्वा महोदधिम्। संहरेद्वा जगत्कृत्स्नं विसृष्टं शूलपाणिना।। | 13-45-254a 13-45-254b |
यौवनाश्वो हतो येन मान्धाता सबलः पुरा। चक्रवर्ती महातेजास्त्रिलोकविजयी नृपः।। | 13-45-255a 13-45-255b |
महाबलो महावीर्यः शक्रतुल्यपराक्रमः। करस्थेनैव गोविन्द लवणस्येह रक्षसः।। | 13-45-256a 13-45-256b |
तच्छूलमतितीक्ष्णाग्रं सुभीमं रोमहर्षणम्। त्रिशिखां भ्रुकुटिं कृत्वा तर्जमानमिव स्थितम्।। | 13-45-257a 13-45-257b |
विधूमं सार्चिषं कृष्णं कालसूर्यमिवोदितम्। सर्पहस्तमनिर्देश्यं पाशहस्तामिवान्तकम्।। | 13-45-258a 13-45-258b |
दृष्टवानस्मि गोविन्द तदस्त्रं रुद्रसन्निधौ। परशुस्तीक्ष्णधारश्च दत्तो रामस्य यः पुराः।। | 13-45-259a 13-45-259b |
महादेवेन तुष्टेन दत्तं भृगुसुताय च। कार्तवीर्यो हतो येन चक्रवर्ती महामृधे।। | 13-45-260a 13-45-260b |
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी येन निःक्षत्रिया कृता। जामदग्न्येन गोविन्द रामेणाक्लिष्टकर्मणा।। | 13-45-261a 13-45-261b |
दीप्तधारः सुरौद्रास्यः सर्पकण्ठाग्रधिष्ठितः।। अभवच्छूलिनोऽभ्याशे दीप्तवह्निशतोपमः। | 13-45-262a 13-45-262b |
असङ्ख्येयानि चास्त्राणि तस्य दिव्यानि धीमतः। प्राधान्यतो मयैतानि कीर्तितानि तवानघ।। | 13-45-263a 13-45-263b |
सव्यदेशे तु देवस्य ब्रह्मा लोकपितामहः। दिव्यं विमानमास्थाय हंसयुक्तं मनोजवम्।। | 13-45-264a 13-45-264b |
वामपार्श्वगतश्चापि तथा नारायणः स्थितः। वैनतेयं समारुह्य शङ्खचक्रगदाधरः।। | 13-45-265a 13-45-265b |
स्कन्दो मयूरमास्थाय स्थितो देव्याः समीपतः। शक्तिघण्टे समादाय द्वितीय इव पावकः।। | 13-45-266a 13-45-266b |
पुरस्ताच्चैव देवस्य नन्दिं पश्याम्यवस्थितम्। शूलं विष्टभ्य तिष्ठन्तं द्वितीयमिव शङ्करम्।। | 13-45-267a 13-45-267b |
स्वायंभुवाद्या मनवो भृग्वाद्या ऋषयस्तथा। शक्राद्या देवताश्चैव सर्व एव समभ्ययुः।। | 13-45-268a 13-45-268b |
सर्वभूतगणाश्चैव मातरो विविधाः स्थिताः। तेऽभिवाद्य महात्मानं परिवार्य समन्ततः।। | 13-45-269a 13-45-269b |
अस्तुवन्विविधैः सतोत्रैर्महादेवं सुरास्तदा। `जगन्मूर्ति महालिङ्गं तन्मध्ये स्फूतरूपिणम्।। | 13-45-270a 13-45-270b |
ब्रह्मा भवं तदाऽस्तौवीद्रथन्तरमुदीरयन्। ज्येष्ठसाम्ना च देवेशं जगौ नारायणस्तदा।। | 13-45-271a 13-45-271b |
गृणन्ब्रह्म परं शक्रः शतरुद्रियमुत्तमम्। ब्रह्मा नारायणश्चैव देवराजश्च कौशिकः। अशोभन्त महात्मानस्त्रयस्त्रय इवाग्नयः।। | 13-45-272a 13-45-272b 13-45-272c |
तेषां मध्यगतो देवो रराज भगवाञ्छिवः। शरदभ्रविनिर्मुक्तः परिधिस्थ इवांशुमान्।। | 13-45-273a 13-45-273b |
अयुतानि च चन्द्रार्कानपश्यं दिवि केशव। ततोऽहमस्तुवं देवं स्तवेनानेन सुव्रत।। | 13-45-274a 13-45-274b |
उपमन्युरुवाच। | 13-45-275x |
नमो देवाधिदेवाय महादेवाय ते नमः। शक्ररूपाय शक्राय शक्रवेषधराय च।। | 13-45-275a 13-45-275b |
नमस्ते वज्रहस्ताय पिङ्गलायारुणाय च। पिनाकपाणये नित्यं शङ्खशूलधराय च।।। | 13-45-276a 13-45-276b |
नमस्ते कृष्णवासाय कृष्णकुञ्चितमूर्धज। कृष्णाजिनोत्तरीयाय कृष्णाष्टमिरताय च।। | 13-45-277a 13-45-277b |
शुक्लवर्णाय शुक्लाय शुक्लाम्बरधराय च। शुक्लभस्मावलिप्ताय शुक्लकर्मरताय च।। | 13-45-278a 13-45-278b |
नमोस्तु रक्तवर्णाय रक्ताम्बरधराय च। रक्तध्वजपताकाय रक्तस्रगनुलेपिने।। | 13-45-279a 13-45-279b |
नमोस्तु पीतवर्णाय पीताम्बरधराय च।। | 13-45-280a |
नमोस्तूच्छ्रितच्छत्राय किरीटवरधारिणे। अर्धहारार्दकेयूर अर्धकुण्डलकर्णिने।। | 13-45-281a 13-45-281b |
नमः पवनवेगाय नमो देवाय वै नमः। सुरेन्द्राय मुनीन्द्राय महेन्द्राय नमोस्तु ते।। | 13-45-282a 13-45-282b |
नमः पद्मार्धमालाय उत्पलैर्मिश्रिताय च। अर्धचन्दनलिप्ताय अर्धस्रगनुलेपिने।। | 13-45-283a 13-45-283b |
नम आदित्यवक्त्राय आदित्यनयनाय च। नम आदित्यवर्णाय आदित्यप्रतिमाय च।। | 13-45-284a 13-45-284b |
नमः सोमाय सौम्याय सौम्यवक्त्रधराय च। सौम्यरूपाय मुख्याय सौम्यदंष्ट्राविभूषिणे।। | 13-45-285a 13-45-285b |
नमः श्यामाय गौराय अर्धपीतार्धपाण्डवे। नारीनरशरीराय स्त्रीपुंसाय नमोस्तु ते।। | 13-45-286a 13-45-286b |
नमो वृषभवाहाय गजेन्द्रगमनाय च। दुर्गमाय नमस्तुभ्यमगम्यागमनाय च।। | 13-45-287a 13-45-287b |
नमोस्तु गणनीताय गणवृन्दरताय च। गुणानुयातमार्गाय गणनित्यव्रताय च।। | 13-45-288a 13-45-288b |
नमः श्वेताभ्रवर्णाय संध्यारागप्रभाच य। अनुद्दिष्टामभिधानाय स्वरूपाय नमोस्तु ते।। | 13-45-289a 13-45-289b |
नमो रक्ताग्रवासाय रक्तसूत्रधराय च। रक्तमालाविचित्राय रक्ताम्बरधराय च।। | 13-45-290a 13-45-290b |
मणिभूषितमूर्धाय नमश्चन्द्रार्धभूषिणे। विचित्रमणिमूर्धाय कुसुमाष्टधराय च।। | 13-45-291a 13-45-291b |
नमोऽग्निमुखनेत्राय सहस्रशशिलोचने। अग्निरूपाय कान्ताय नमोस्तु गहनाय च।। | 13-45-292a 13-45-292b |
खचराय नमस्तुभ्यं गोचराभिरताय च। भूचराय भुवनाय अनन्ताय शिवाय च।। | 13-45-293a 13-45-293b |
नमो दिग्वाससे नित्यमधिवाससुवाससे। नमो जगन्निवासाय प्रतिपत्तिसुखाय च।। | 13-45-294a 13-45-294b |
नित्यमुद्बद्धमुकुटे महाकेयूरधारिणे। सर्पकण्ठोपहाराय विचित्राभरणाय च।। | 13-45-295a 13-45-295b |
नमस्त्रिनेत्रनेत्राय सहस्रशतलोचने। स्त्रीपुंसाय नपुंसाय नमः साङ्ख्याय योगिने।। | 13-45-296a 13-45-296b |
शंयोरभिस्रवन्ताय अथर्वाय नमोनमः। नमः सर्वार्तिनाशाय नमः शोकहराय च।। | 13-45-297a 13-45-297b |
नमो मेघनिनादाय बहुमायाधराय च। बीजक्षेत्राभिपालाय स्रष्टाराय नमोनमः।। | 13-45-298a 13-45-298b |
नमः सुरासुरेशाय विश्वेशाय नमोनमः। मनः पवनवेगाय नमः पवनरूपिणे।। | 13-45-299a 13-45-299b |
नमः काञ्चनमालाय गिरिमालाय वै नमः। नमः सुरारिमालाय चण्डवेगाय वै नमः।। | 13-45-300a 13-45-300b |
ब्रह्मशिरोपहर्ताय महिषघ्नाय वै नमः। नमः स्त्रीरूपधाराय यज्ञविध्वंसनाय च।। | 13-45-301a 13-45-301b |
नमस्त्रिपुरहर्ताय यज्ञविध्वंसनाय च। नमः कामाङ्गनाशाय कालदण्डधराय च।। | 13-45-302a 13-45-302b |
नमः स्कन्दविशाखाय ब्रह्मदण्डाय वै नमः। नमो भवाय शर्वाय विश्वरूपाय वै नमः।। | 13-45-303a 13-45-303b |
ईशानाय भवघ्नाय नमोस्त्वन्धकघातिने। नमो विश्वाय मायायचिन्त्याचिन्त्याय वै नमः।। | 13-45-304a 13-45-304b |
त्वं नो गतिश्च श्रेष्ठश्च त्वमेव हृदयं तथा।] त्वं ब्रह्मा सर्वदेवानां रुद्राणां नीललोहितः।। | 13-45-305a 13-45-305b |
आत्मा च सर्वभूतानां साङ्ख्ये पुरुष उच्यते। ऋषभस्त्वं पवित्राणां योगिनां निष्कलः शिवः।। | 13-45-306a 13-45-306b |
गृहस्थस्त्वमाश्रगिणामीश्वराणां महेश्वरः। कुबेरः सर्वयक्षाणां क्रतूनां विष्णुरुच्यते।। | 13-45-307a 13-45-307b |
पर्वतानां भवान्मेरुर्नक्षत्राणां च चन्द्रमाः। वसिष्ठस्त्वमृषीणां च ग्रहाणां सूर्य उच्यते।। | 13-45-308a 13-45-308b |
आरण्यानां पशूनां च सिंहस्त्वं परमेश्वरः। ग्राम्याणां गोवृषश्चासि भवाँल्लोक्प्रपूजितः।। | 13-45-309a 13-45-309b |
आदित्यानां भवान्विष्णुर्वसूनां चैव पावकः। पक्षिणां वैनतेयस्त्वमनन्तो भ्रुजगेषु च।। | 13-45-310a 13-45-310b |
सामवेदश्च वेदानां यजुषां शतरुद्रियम्। सनत्कुमारो योगानां साङ्ख्यानां कपिलो ह्यसि।। | 13-45-311a 13-45-311b |
शक्रोसि मरुतां देव पितॄणां हव्यवाडसि।। ब्रह्मलोकश्च लोकानां गतीनां मोक्ष उच्यसे।। | 13-45-312a 13-45-312b |
क्षीरोदः सागराणां च शैलानां हिमवान्गिरिः। वर्णानां ब्राह्मणश्चासि विप्राणां दीक्षितो द्विजः।। | 13-45-313a 13-45-313b |
आदिस्त्वमसि लोकानां संहर्ता काल एव च यच्चान्यदपि लोके वै सर्वतेजोधिकं स्मृतम्। तत्सर्वं भगवानेव इति मे निश्चिता मतिः।। | 13-45-314a 13-45-314b 13-45-314c |
नमस्ते भगवन्देव नमस्ते भक्तवत्सलः। योगेश्वर नमस्तेऽस्तु नमस्ते विस्वसम्भव।। | 13-45-315a 13-45-315b |
प्रसीद मम भक्तस्य दीनस्य कृपणस्य च। अनैश्वर्येणि युक्तस्य गतिर्भव सनातन।। | 13-45-316a 13-45-316b |
यच्चापराधं कृतवानज्ञात्वा परमेश्वर। मद्भक्त इति देवेश तत्सर्वं क्षन्तुमर्हसि।। | 13-45-317a 13-45-317b |
मोहितश्चास्मि देवेश त्वया रूपविपर्ययात्। नार्घ्यं तेन मया दत्तं पाद्यं चापि महेश्वर।। | 13-45-318a 13-45-318b |
एवं स्तुत्वाऽहमीशानं पाद्यमर्घ्यं च भक्तितः। कृताञ्जलिपुटो भूत्वा सर्वं तस्मै न्यवेदयम्।। | 13-45-319a 13-45-319b |
ततः शीताम्बुसंयुक्ता दिव्यगन्धसमन्विता। पुष्पवृष्टिः शुभा तात पपात मम मूर्धनि।। | 13-45-320a 13-45-320b |
दुन्दुभिश्च तदा दिव्यस्ताडितो देवकिंकरैः। ववौ च मारुतः पुण्यः शुचिगन्धः सुखावहः।। | 13-45-321a 13-45-321b |
ततः प्रीतो महादेवः सपत्नीको वृषध्वजः। अब्रवीत्त्रिदशांस्तत्र हर्षयन्निव मां तदा।। | 13-45-322a 13-45-322b |
पश्यध्वं त्रिदशाः सर्वे उपमन्योर्महात्मनः। मयि भक्तिं परां नित्यमेकभावादवस्थिताम्।। | 13-45-323a 13-45-323b |
एवमुक्तास्तदा कृष्ण सुरास्ते शूलपाणिना। ऊचुः प्राञ्जलयः सर्वे नमस्कृत्वा वृषध्वजम्।। | 13-45-324a 13-45-324b |
भगवन्देवदेवेश लोकनाथ जगत्पते। लभतां सर्वकामेभ्यः फलं त्वत्तो द्विजोत्तमः।। | 13-45-325a 13-45-325b |
एवमुक्तस्ततः शर्वः सुरैर्ब्रह्मादिभिस्तथा। आह मां भगवानीशः प्रहसन्निव शङ्करः।। | 13-45-326a 13-45-326b |
भगवानुवाच। | 13-45-327x |
वत्सोपमन्यो तृष्टोस्मि पश्य मां मुनिपुङ्गव। दृढभक्तोसि विप्रर्षे मया जिज्ञासितो ह्यसि।। | 13-45-327a 13-45-327b |
अनया चैव भक्त्या ते अत्यर्थं प्रीतिमानहम्। तस्मात्सर्वान्ददाम्यद्य कामांस्तव यथोप्सितान्।। | 13-45-328a 13-45-328b |
एवमुक्तस्य चैवाथ महादेवेन धीमता। हर्षादश्रूण्यवर्तन्त रोमहर्षस्त्वजायत।। | 13-45-329a 13-45-329b |
अब्रवं च तदा देव हर्षगद्गदया गिरा। जानुभ्यामवनीं गत्वा प्रणम्य च पुनःपुनः।। | 13-45-330a 13-45-330b |
अद्य जातो ह्यहं देव सफलं जन्म चाद्य मे। यन्मे साक्षान्महादेवः प्रसन्नस्तिष्ठतेऽग्रतः।। | 13-45-331a 13-45-331b |
यं न पश्यन्ति चैवाद्धा देवा ह्यमितविक्रमम्। तमहं दृष्टवान्देवं कोऽन्यो धन्यतरो मया।। | 13-45-332a 13-45-332b |
एवं ध्यायन्ति विद्वांसः परं तत्त्वं सनातनम्। तद्विशेषमतिख्यातं यदजं ज्ञानमक्षरम्।। | 13-45-333a 13-45-333b |
स एष भगवान्देवः सर्वसत्त्वादिरव्ययः। सर्वतत्त्वविधानज्ञः प्रधानपुरुषः परः।। | 13-45-334a 13-45-334b |
योऽसृजद्दक्षिणादङ्गाद्ब्रह्माणां लोकसम्भवम्। वामपार्श्वात्तथा विष्णुं लोकरक्षार्थमीश्वरः।। | 13-45-335a 13-45-335b |
युगान्ते चैव सम्प्राप्ते रुद्रमीशोऽसृजत्प्रभुः। स रुद्रः संहरन्कृत्स्नं जगत्स्थावरजङ्गमम्।। | 13-45-336a 13-45-336b |
कालो भूत्वा परं ब्रह्म याति संवर्तकानलः। युगान्ते सर्वभूतानि ग्रसन्निव व्यवस्थितः।। | 13-45-337a 13-45-337b |
एष देवो महादेवो जगत्सृष्ट्वा चराचरम्। कल्पान्ते चैव सर्वेषां स्मृतिमाक्षिप्य तिष्ठति।। | 13-45-338a 13-45-338b |
सर्वगः सर्वभूतात्मा सर्वभूतभवोद्भवः। आस्ते सर्वगतो नित्यमदृश्यः सर्वदैवतैः।। | 13-45-339a 13-45-339b |
यदि देयो वरो मह्यं यदि तुष्टोऽसि मे प्रभो। भक्तिर्भक्तु मे नित्यं त्वयि देव सुरेश्वर।। | 13-45-340a 13-45-340b |
अतीतानागतं चैव वर्तमानं च यद्विभो। जानीयामिति मे बुद्धिः प्रसादात्सुरसत्तम।। | 13-45-341a 13-45-341b |
क्षीरोदनं च भुञ्जीयामक्षयं सह बान्धवैः। आश्रमे च सदाऽस्माकं सान्निध्यं परमस्तु ते।। | 13-45-342a 13-45-342b |
एवमुक्तः स मां प्राह भगवाँल्लोकपूजितः। महेश्वरो महातेजाश्वराचरगुरुः शिवः।। | 13-45-343a 13-45-343b |
श्रीभगवानुवाच। | 13-45-344x |
अजरश्चामरश्चैव भव त्वं दुःखवर्जितः। यशस्वी तेजसा युक्तो दिव्यज्ञानसमन्वितः।। | 13-45-344a 13-45-344b |
ऋषीणामभिगम्यश्च मत्प्रसादाध्भविष्यसि। शीलवान्गुणसम्पन्नः सर्वज्ञः प्रियदर्शनः।। | 13-45-345a 13-45-345b |
अक्षयं यौवनं तेऽस्तु तेजश्चैवानलोपमम्। क्षीरोदः सागरश्चैव यत्रयत्रेच्छसि प्रियम्।। | 13-45-346a 13-45-346b |
तत्र ते भविता कामं सान्निध्यं पयसोनिधेः। क्षीरोदनं च भुङ्ख त्वममृतेन समन्वितम्।। | 13-45-347a 13-45-347b |
बन्धुभिः सहितः कल्पं ततो मामुपयास्यसि। अक्षया बान्धवाश्चैव कुलं गोत्रं च ते सदा।। | 13-45-348a 13-45-348b |
भविष्यति द्विजश्रेष्ठ मयि भक्तिश्च शाश्वती। सान्निध्यं चाश्रमे नित्यं करिष्यामि द्विजोत्तम।। | 13-45-349a 13-45-349b |
तिष्ठ वत्स यथाकामं नोत्कण्ठां च करिष्यति। स्मृतस्त्वया पुनर्विप्र करिष्यामि च दर्शनम्।। एवमुक्त्वा स भगवान्सूर्यकोटिसमप्रभः। ईशानः स वरान्दत्त्वा तत्रैवान्तरधीयत।। | 13-45-350a 13-45-350b 13-45-351a 13-45-351b |
एवं दृष्टो मया कृष्ण देवदेवः समाधिना। तदवाप्तं च मे सर्वं यदुक्तं तेन धीमता।। | 13-45-352a 13-45-352b |
प्रत्यक्षं चैव ते कृष्ण पश्य सिद्धान्व्यवस्थितान्। ऋषीन्विद्याधरान्यक्षान्गन्धर्वाप्सरसस्तथा।। | 13-45-353a 13-45-353b |
पश्य वृक्षलतागुल्मान्सर्वपुष्पफलप्रदान्। सर्वर्तुकुसुमैर्युक्तान्सुखपत्रान्सुगन्धिनः।। | 13-45-354a 13-45-354b |
सर्वमेतन्महाबाहो दिव्यभावसमन्वितम्। प्रसादाद्देवदेवस्य ईशअवरस्य महात्मनः।। | 13-45-355a 13-45-355b |
वासुदेव उवाच। | 13-45-356x |
एतच्छ्रुत्वा वचस्तस्य प्रत्यक्षमिव दर्शनम्। विस्मयं परमं गत्वा अब्रवं तं महामुनिम्।। | 13-45-356a 13-45-356b |
धन्यस्त्वमसि विप्रेन्द्रि कस्त्वदन्योस्ति पुण्यकृत्। यस्य देवाधिदेवस्ते सान्निध्यं कुरुतेऽऽश्रमे।। | 13-45-357a 13-45-357b |
अपि तावन्ममाप्येवं दद्यात्स भगवाञ्शिवः। दर्शं मुनिशार्दूल प्रसादं चापि शङ्करः।। | 13-45-358a 13-45-358b |
उपमन्युरुवाच। | 13-45-359x |
[द्रक्ष्यसे पुण्डरीकाक्ष महादेवं न संशयः। अचिरेणैव कालेन यथा दृष्टो मयाऽनघ।। | 13-45-359a 13-45-359b |
चक्षुषा चैव दिव्येन पश्याम्यमितविक्रमम्। षष्ठे मासि महादेवं द्रक्ष्यसे पुरुषोत्तम।। | 13-45-360a 13-45-360b |
षोडशाष्टौ वरांश्चापि प्राप्स्यसि त्वं महेश्वरात्। सपत्नीकाद्यदुश्रेष्ठ सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 13-45-361a 13-45-361b |
अतीतानागतं चैव वर्तमानं च नित्यशः। विदितं मे महाबाहो प्रसादात्तस्य धीमतः।।] | 13-45-362a 13-45-362b |
एतान्सहस्रशश्चान्यान्समनुध्यातवान्हरः। कस्मात्प्रसादं भगवान्न कुर्यात्तव माधव।। | 13-45-363a 13-45-363b |
त्वादृशेन हि देवानां श्लाघनीय समागमः। ब्रह्मणअयेनानृशंसेन श्रद्दधानेन चाप्युत। जप्यं तु ते प्रदास्यामि येन द्रक्ष्यसि शंकरम्।। | 13-45-364a 13-45-364b 13-45-364c |
श्रीकृष्ण उवाच। | 13-45-365x |
अब्रवं तमहं ब्रह्मन्त्वत्प्रसादान्महामुने। द्रक्ष्ये दितिजसङ्घानां मर्दनं त्रिदशेश्वरम्।। | 13-45-365a 13-45-365b |
एवं कथयतस्तस्य महादेवाश्रितां कथाम्। दिनान्यष्टौ ततो जग्मुर्मुहूर्तमिव भारत।। | 13-45-366a 13-45-366b |
दिनेऽष्टमे तु विप्रेणि दीक्षितोऽहं यथाविधि। दण्डी मुण्डी कुशी चीरि घृताक्तो मेखलीकृतः।। | 13-45-367a 13-45-367b |
मासमेकं फलाहारो द्वितीयं सलिलाशनः। तृतीयं च चतुर्थं च पञ्चमं चानिलाशः।। | 13-45-368a 13-45-368b |
एकपादेन तिष्ठंश्च ऊर्ध्वबाहुरतन्द्रितः। तेजः सूर्यसहस्रस्य अपश्यं दिवि भारत।। | 13-45-369a 13-45-369b |
तस्य मध्यगतं चापि तेजसः पाण्डुनन्दन। इन्द्रायुधपिनद्धाङ्गं विद्युन्मालागवाक्षकम्। नीलसैलचयप्रख्यं बलाकाभूषिताम्बरम्।। | 13-45-370a 13-45-370b 13-45-370c |
तत्र स्थितश्च भगवान्देव्या सह महाद्युतिः। तपसा तेजसा कान्त्या दीप्तया सह भार्यया।। | 13-45-371a 13-45-371b |
रराज भगवांस्तत्र देव्या सह महेश्वरः। सोमेन सहितः सूर्यो यथा मेघस्थितस्तथा।। | 13-45-372a 13-45-372b |
संहृष्टरोमा कौन्तेय विस्मयोत्फुल्ललोचनः। अपश्यं देवसङ्घानां गतिमार्तिहरं हरम्।। | 13-45-373a 13-45-373b |
किरीटिनं गदिनं शूलपाणिं व्याघ्राजिनं जटिलं दण्डपाणिम्। पिनाकिनं वज्रिणं तीक्ष्णदंष्ट्रं शुभाङ्गदं व्यालयज्ञोपवीतम्।। | 13-45-374a 13-45-374b 13-45-374c 13-45-374d |
दिव्यां मालामुरसाऽनेकवर्णां समुद्वहन्तं गुल्फदेशावलम्बाम्। चन्द्रं यथा परिविष्टं ससन्ध्यं वर्षात्यये तद्वदपश्यमेनम्।। | 13-45-375a 13-45-375b 13-45-375c 13-45-375d |
प्रमथानां गणैश्चैव समन्तात्परिवारितम्। शरदीव सुदुष्प्रेक्ष्यं परिविष्टं दिवाकरम्।। | 13-45-376a 13-45-376b |
एकादशशतान्येवं रुद्राणां वृषवाहनम् अस्तुवं नियतात्मानं कर्मभिः शुभकर्मिणम्।। | 13-45-377a 13-45-377b |
आदित्या वसवः साध्या विश्वेदेवास्तथाऽश्विनौ। विश्वाभिः स्तुतिभिर्देवं विश्वदेवं समस्तुवन्।। | 13-45-378a 13-45-378b |
शतक्रतुश्च भगवान्विष्णुश्चादितिनन्दनौ। ब्रह्मा रथन्तरं साम ईरयन्ति भवान्तिके।। | 13-45-379a 13-45-379b |
योगीश्वराः सुबहवो योगदं पितरं गुरुम्। ब्रह्मर्षयश्च ससुतास्तथा देवर्षयश्च वै।। | 13-45-380a 13-45-380b |
पृथिवीं चान्तरिक्षं च नक्षत्राणि ग्रहास्तथा। मासार्धमासा क्रतवो रात्रिः संवत्सराः क्षणाः।। | 13-45-381a 13-45-381b |
मुहूर्ताश्च निमेपाश्च तथैव युगपर्ययाः। दिव्या राजन्नमस्यन्ति विद्याः सत्वविदस्तथा।। | 13-45-382a 13-45-382b |
सनत्कुमारो देवाश्च इतिहासास्तथैव च। मरीचिरङ्गिरा अत्रिः पुलस्त्यः पुलहः क्रतुः।। | 13-45-383a 13-45-383b |
मनवः सप्त सोमश्च अर्थवा सबृहस्पतिः। भृगुर्दक्षः कश्यपश्च वसिष्ठः काश्य एव च।। | 13-45-384a 13-45-384b |
छन्दांसि दीक्षा यज्ञाश्च दक्षिणाः पावको हविः। यज्ञोपगानि द्रव्याणि मूर्तिमन्ति युधिष्ठिर।। | 13-45-385a 13-45-385b |
प्रजानां पालकाः सर्वे सरितः पन्नगा नगाः। देवानां मातरः सर्वादेवपत्न्य सकन्यकाः।। | 13-45-386a 13-45-386b |
सहस्राणि मुनीनां च अयुतान्यर्बुदानि च। नमस्यन्ति प्रभुं शान्तं पर्वताःसागरा दिशः।। | 13-45-387a 13-45-387b |
गन्धर्वाप्सरसश्चैव गीतवादित्रकोविदाः। दिव्यतालेषु गायन्तः स्तुवन्ति भवमद्भुतम्।। | 13-45-388a 13-45-388b |
विद्याधरा दानवाश्च गुह्यका राक्षसास्तथा। सर्वाणि चैव भूतानि स्तावराणि चराणि च। नमस्यन्ति महाराज वाङ्मनः कर्मभिर्विभुम्।। | 13-45-389a 13-45-389b 13-45-389c |
पुरस्ताद्धिष्ठितः शर्वो ममासीस्त्रिदशेश्वरः।। | 13-45-390a |
पुरस्तद्धिष्ठितं दृष्ट्वा ममेशानं च भारत। सप्रजापतिशक्रान्तं जगन्मामभ्युदैक्षत।। | 13-45-391a 13-45-391b |
ईक्षितुं च महादेवं न मे शक्तिरभूत्तदा। ततो मामब्रवीद्देवः पश्य कृष्ण वदस्व च।। | 13-45-392a 13-45-392b |
त्वया ह्याराधितश्चाहं शतशोऽथ सहस्रशः। त्वत्समो नास्ति मे कश्चित्त्रिषु लोकषु वै प्रियः।। | 13-45-393a 13-45-393b |
शिरसा वन्दिते देवे देवी प्रीता ह्युमा तदा। ततोऽहमब्रुवं स्थाणुं स्तुतं ब्रह्मादिभिः सुरैः।। | 13-45-394a 13-45-394b |
कृष्ण उवाच। | 13-45-395x |
नमोस्तु ते शाश्वत सर्वयोने ब्राह्माधिपं त्वामृषयो वदन्ति। तपश्च सत्वं च रजस्तमश्च त्वामेव सत्यं च वदन्ति सन्तः।। | 13-45-395a 13-45-395b 13-45-395c 13-45-395d |
त्वं वै ब्रह्मा च रुद्रश्च वरुणोऽग्निर्मनुर्भवः। धाता त्वष्टा विधाता च त्वं प्रभुः सर्वतोमुखः।। | 13-45-396a 13-45-396b |
त्वत्तो जातानि भूतानि स्थावराणि चराणि च। त्वया सृष्टमिदं कृत्स्नं त्रैलोक्यं सचराचरम्।। | 13-45-397a 13-45-397b |
यानीन्द्रियाणीह मनश्च कृत्स्नं ये वायवः सप्ति तथैव चाग्नयः। ये देवसंस्थास्तव देवताश्च तस्मात्परं त्वामृषयो वदन्ति।। | 13-45-398a 13-45-398b 13-45-398c 13-45-398d |
वेदाश्च यज्ञाः सोमश्च दक्षिणा पावको हविः। यज्ञोपगं च यत्किंचिद्भगवांस्तदसंशयम्।। | 13-45-399a 13-45-399b |
इष्टं दत्तमधीतं व्रतानि नियमाश्च ये। ह्रीः कीर्तिः श्रीर्द्युतिस्तुष्टिः सिद्धिश्चैव तदर्पणी।। | 13-45-400a 13-45-400b |
कामः क्रोधो भयं लोभो मदः स्तम्भोथ मत्सरः। आधयो व्याधयश्चैव भगवंस्तनवस्तव।। | 13-45-401a 13-45-401b |
कृतिर्विकारः प्रणयः प्रधानं बीजमव्ययम्। मनसः परमा योनिः प्रभावश्चापि शाश्वतः।। | 13-45-402a 13-45-402b |
अव्यक्तः पावनोऽचिन्त्यः सहस्रांशुर्हिरण्मयः। आदिर्गणानां सर्वेषां भवान्वैजीविताश्रयः।। | 13-45-403a 13-45-403b |
महानात्मा मतिर्ब्रह्मा विश्वः शंभुः स्वयंभुवः। बुद्धिः प्रज्ञोपलब्धिश्चसंवित्ख्यातिर्धृतिः स्मृतिः।। | 13-45-404a 13-45-404b |
पर्यायवाचकैः शब्दैर्महानात्मा विभाव्यते। त्वां बुद्ध्वा ब्राह्मणो वेदात्प्रमोहं विनियच्छति।। | 13-45-405a 13-45-405b |
हृदयं सर्वभूतानां क्षेत्रज्ञस्त्वमृषिस्तुतः।। | 13-45-406a |
सर्वतः पाणिपादस्त्वं सर्वतोक्षिशिरोमुखः। सर्वतः श्रुतिमाँल्लोके सर्वमावृत्य तिष्ठसि।। | 13-45-407a 13-45-407b |
फलं त्वमसि दिग्मांशोर्निमेषादिषु कर्मसु। त्वं वै प्रबार्चिः पुरुषः सर्वस्य हृदि संश्रितः। अणिमा महिमा प्राप्तिरीशानो ज्योतिरव्ययः।। | 13-45-408a 13-45-408b 13-45-408c |
त्वयि बुद्धिर्मतिर्लोकाः प्रपन्नाः संश्रिताश्च ये। ध्यानिनो नित्ययोगाश्च सत्यसत्वा जितेन्द्रियाः।। | 13-45-409a 13-45-409b |
यस्त्वां ध्रुवं वेदयते गुहाशयं प्रभुं पुराणं पुरुषं विश्वरूपम्। हिरण्मयं बुद्धिमतां परां गतिं स बुद्धिमान्बुद्धिमतीत्य तिष्ठति।। | 13-45-410a 13-45-410b 13-45-410c 13-45-410d |
विदित्वा सप्त सूक्ष्माणि षडङ्गं त्वां च मूर्तितः। प्रधानविधियोगस्थस्त्वामेव विशते बुधः।। | 13-45-411a 13-45-411b |
एवमुक्ते मया पार्थ भवे चार्तिविनाशने। चराचरं जगत्सर्गं सिंहनादं तदाऽकरोत्।। | 13-45-412a 13-45-412b |
तं विप्रसङ्घाश्च सुरासुराश्च नागाः पिशाचाः पितरो वयांसि। रक्षोगणा भूतगणाश्च सर्वे महर्षयश्चैव तदा प्रणेमुः।। | 13-45-413a 13-45-413b 13-35-414c 13-35-414d |
मम मूर्ध्नि च दिव्यानां कुसुमानां सुगन्धिनाम्। राशयो निपतन्ति स्म वायुश्च सुसुखो ववौ।। | 13-45-414a 13-45-414b |
निरीक्ष्य भगवान्देवीं ह्युमां मां च जगद्धितः। शतक्रतुं चाभिवीक्ष्य स्वयं मामाह शङ्करः।। | 13-45-415a 13-45-415b |
विद्मः कृष्ण परां भक्तिमस्मासु तव शत्रुहन्। क्रियतामात्मनः श्रेयः प्रीतिर्हित्वयि मे परा।। | 13-45-416a 13-45-416b |
वृणीष्वाष्टौ वरान्कृष्ण दाताऽस्मि तव सत्तम। ब्रूहि यादवशार्दूल यानिच्छसि सुदुर्लभान्।। | 13-45-417a 13-45-417b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चचत्वारिंशोऽध्यायः।। 45 ।। |
[सम्पाद्यताम्]
13-45-x युधिष्ठिर उवाच। 13-45-1a ययाऽऽपगेय नामानि श्रुतानीह जगत्पतेः। 13-45-1b पितामहेशाय विभो नामान्याचक्ष्य शम्भवे।। 13-45-2a बभ्रवे विश्वरूपाय महाभाग्यं च तत्त्वतः। 13-45-2b सुरासुरगुरौ देवे शंकरेऽव्यक्तयोनये।।
13-45-3x भीष्म उवाच। 13-45-3a अशक्तोऽहं गुणान्यक्तुं महादेवस्य धीमतः। 13-45-3b यो हि सर्वगतो देवो न च सर्वत्र दृश्यते।। 13-45-4a ब्रह्मविष्णुसुरेशानां स्रष्टा च प्रभुरेव च। 13-45-4b ब्रह्मादयः पिशाचान्ता यं हि देवा उपासते।। 13-45-5a प्रकृतीनां परत्वेन पुरुषस्य च यः परः। 13-45-5b चिन्त्यते यो योगविद्भिर्ऋषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः। 13-45-5c अक्षरं परमं ब्रह्म असच्च सदसच्च यः।। 13-45-6a प्रकृतिं पुरुषं चैव क्षोभयित्वा स्वतेजसा। 13-45-6b ब्रह्माणमसृजत्तस्माद्देवदेवः प्रजापतिः।। 13-45-7a को हि शक्तो गुणान्वक्तं देवदेवस्य धीमतः। 13-45-7b गर्भजन्मजरायुक्तो मर्त्यो मृत्युसमन्वितः।। 13-45-8a को हि शक्तो भवं ज्ञातुं मद्विधः परमेश्वरम्। 13-45-8b क्रते नारायणात्पुत्र शङ्कचक्रगदाधरात्।। 13-45-9a एष विद्वान्गुणश्रेष्ठो विष्णुः परमदुर्जयः।। 13-45-9b दिव्यचक्षुर्महातेजा वीक्ष्यते योगचक्षुषा।। 13-45-10a रुद्रभक्त्या तु कृष्णेन जगद्व्याप्तं महात्मना। 13-45-10b तं प्रसाद्य तदा देवं बदर्यां किल भारत।। 13-45-11a अर्थात्प्रियतरत्वं च सर्वलोकेषु वै तदा। 13-45-11b प्राप्तवानेव राजेन्द्र सुवर्णाक्षान्महेश्वरात्।। 13-45-12a पूर्णं वर्षसहस्रं तु तप्तवानेष माधवः। 13-45-12b प्रसाद्य वरदं देवं चराचरगुरुं शिवम्।। 13-45-13a युगेयुगे तु कृष्णेन तोषितो वै महेश्वरः। 13-45-13b भक्त्या परमया चैव प्रीतश्चैव महात्मनः।। 13-45-14a ऐश्वर्यं यादृसं तस्य जगद्योनेर्महात्मनः।। 13-45-14b तदयं दृष्टवान्साक्षात्पुत्रार्थे हरिरच्युतः।। 13-45-15a यस्मात्परतरं चैव नान्यं पश्यामि भारत। 13-45-15b व्याख्यातुं देवदेवस्य शक्तो नामान्यशषतः।। 13-45-16a एष शक्तो महाबाहुर्वक्तुं भगवतो गुणान्। 13-45-16b विभूतिं चैव कार्त्स्न्येन सत्यां माहेश्वरीं नृप।।
13-45-17x वैशम्पायन उवाच। 13-45-17a एवमुक्त्वा तदा भीष्मो वासुदेवं महायशाः। 13-45-17b भवमाहात्म्यसंयुक्तमिदमाह पितामहः।।
13-45-2 शिवाय विष्णुरूपायेति झ.पाठः।। 13-45-3 तण्डिना ब्रह्मयोनिनेति झ.पाठः।। 13-45-18 ते त्वया।। 13-45-21 यज्ञवाहा इति छन्दसामेव विशेषणम्। छन्दांसि वै देवेभ्यो हव्यमूढ्व्रेति ब्राह्मणात् तेषां यज्ञवाहत्वसिद्धिः। स्तोभाः सामपूरणान्यक्षराणि हुंमा इत्यादीनि।। 13-45-25 नरेन्द्रपुत्रीं ऋक्षराजस्य जाम्बवतो दुहितरम्।। 13-45-26 अभ्यनुज्ञाय स्थितं मामिति शेषः। अथोचतुरित्यर्धः।। 13-45-33 भस्मराशिभिरिति भस्मच्छन्नैरग्निभइः।। 13-45-40 सम्प्रक्षालैः मैत्र्यादिभिश्चित्तशोधनं कुर्वद्भिः।। 13-45-41 गोचारिणो गोवन्मुखेनैव चरन्तो हस्तव्यापारशून्या इत्यर्थः। मरीचिपाश्चन्द्ररश्मि पानेनैव जीवन्तः।।
13-45-47 नियमाः अम्बुपानादयस्तैरेवाम्पुषैः क्षीरपैरित्यादिनामभिः ख्यातैः। प्रविशन्नेवापश्यमुपमन्युमिति शेषः।। 13-45-58 समानां सवत्सरणामर्बुदं समार्वुदम्।। 13-45-59 प्रहस्य मन्दारनाम्नः।। 13-45-60 भगवता महादेवेन।। 13-45-61 उत्पादितं तस्यैव दैत्यस्य हननार्थम्।। 13-45-63 जीर्णं जीर्णतृणवद्व्यर्थमित्यर्थः।। 13-45-64 वरदत्तस्य सर्वशस्त्रावध्यस्त्वं भवेति दत्तवरस्य।। 13-45-77 सप्तकपालेन त्र्यम्बकदैवत्येन हेतुना। देवैः सप्तकपालेन रुद्रमिष्ट्वा आपो निर्मिता इत्यर्थः।। 13-45-78 रुद्रप्रसादाज्जनयामासति शेषः।। 13-45-81 मुसलेष्वयोग्रेषु काष्ठकीलेषु।। 13-45-82 चरुद्रः चरोर्द्रवः मण्ड इति यावत्। चरुशब्दपूर्वाद्द्रवतेरन्येभ्योपि दृश्यत इति डः। भर्तारंविनापि चरुद्रवपानमात्रेण तव पुत्रो भविष्यतीत्यर्थः।। 13-45-96 धूम्रश्चापि ममानुज इति ट.थ.पाठः।।
13-45-109 पावनानां पवनाशिनाम्। वनाशानां अब्भक्षाणाम्।। 13-45-112 प्रवद्य प्रपन्नो भव।। 13-45-118 दुराधारः मनसि धर्तुमशक्यः 13-45-126 प्रवालाङ्कुरभूषणे वसन्तस्तेन कालोप्ययमेवेत्यर्थः 13-45-139 भूधरः शेषनागः।। 13-45-146 सर्ववासकः सर्वस्याच्छादकः 13-45-161 अभवं सन्धिरार्षः।। 13-45-165 भावा मैव। भवानि भूयासम्।। 13-45-168 अनार्जवं वक्रम्। युगं कलियुगम्।। 13-45-174 असारं नास्ति सारो यस्मादन्यस्तम्।। 13-45-177 ईशे ईशस्य। भवने सत्तायाम्। को हेतुः का युक्तिः। ईशसत्त्वे प्रमाणं नास्तीत्यर्थः।। 13-45-271 रथन्तरज्येष्ठे सामनी।। 13-45-278 शुक्लं कर्म हिंसारहितो ध्यानादिधर्मः।। 13-45-283 मिश्रिताय मिश्रितमालाय।। 13-45-295 मुकुटे मुकुटाय।। 13-45-296 त्रीणि नेत्राणीव नेत्राणि लोकयात्रानिर्वाहकाण्यग्निचन्द्रसूर्याख्यानि नेत्राणि यस्य तस्यै त्रिनेत्रनेत्राय। लोचने लोचनाय।। 13-45-298 स्रष्टाराय औणादिकः सृजेत्वारन्। स्रष्ट्रे इत्यर्थः।। 13-45-304 मायाय मायाविने।। 13-45-325 कामेभ्यः कामान् काम्यमानान् अर्थान्।। 13-45-333 षड्विंशकमिति ख्यातमिति ट.थ.पाठः।। 13-45-336 तं त्वां प्रणम्य शइरसा प्रसाद्य प्रार्थये प्रभो इति ट.थ.पाठः।। 13-45-375 परिविष्टं परिवेषवन्तम्।।
अनुशासनपर्व-044 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-046 |