महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-214
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति सदृष्टान्तप्रदर्शनं सर्वैर्विधेर्दुरतिक्रमत्वनिरूपणम्।। 1 ।। तता योधधर्मकथनपूर्वकं राज्ञां योधानां च प्राणयज्ञप्रशंसनम्।। 2 ।।
महेश्वर उवाच। | 13-214-1x |
श्रूयतां कारणं देवि यथा हि दुरतिक्रमः। विधिः सर्वेषु भूतेषु मर्तव्ये समुपस्थिते।। | 13-214-1a 13-214-1b |
आयुःक्षयेणोपहिताः समागम्य वरानने। कीटाः पतङ्गा बहवः स्थूलाः सूक्ष्माश्च मध्यमाः। प्रज्वलत्सु प्रदीपेषु स्वयमेव पतन्ति ते।। | 13-214-2a 13-214-2b 13-214-2dc |
बहूनां मृगयूथानां नानावननिषेविणाम्। यस्तु कालं गतस्तेषां स वै पाशेन बध्यते।। | 13-214-3a 13-214-3b |
सूनार्थं देवि बद्धानां क्षीणायुर्यो निबध्यते। अवशो घातकस्याथ हस्तं तदहरेति सः।। | 13-214-4a 13-214-4b |
यथा पक्षिगणाः क्षिप्रं विस्तीर्णाकाशगामिनः। क्षीणायुषो निबध्यन्ते शक्ता अपि पलायितुम्।। | 13-214-5a 13-214-5b |
यथा वारिचरा मीना बहवोऽम्बुजजातयः। जालं समधिरोहन्ति स्वयमेव विधेर्वशात्।। | 13-214-6a 13-214-6b |
शल्यकस्य च जिह्वाग्रं स्वयमारुह्य शोभने। आयुःक्षयेणोपहता निबध्यन्ते सरीसृपाः।। | 13-214-7a 13-214-7b |
कृषतां कर्षकाणां च नास्ति बुद्धिर्विहिंसने। अथैषां लाङ्गलाग्राद्यैर्हन्यन्ते जन्तवोऽक्षयाः।। | 13-214-8a 13-214-8b |
पादाग्रेणैव चैकेन यां हिंसां कुरुते नरः। मातङ्गोपि न तां कुर्यात्कूरो जन्मशतैरपि।। | 13-214-9a 13-214-9b |
म्रियन्ते यैर्हि मर्तव्यं न तान्घ्नन्ति कृषीवलाः। कृषामीति मनस्तस्य नास्ति चिन्ता विहिंसने।। | 13-214-10a 13-214-10b |
तस्माज्जीवसहस्राणि हत्वाऽपि न स लिप्यते। विधिना स हतः पूर्वं पश्चात्प्राणि विपद्यते। एवं सर्वेषु भूतेषु विधिर्हि दुरतिक्रमः।। | 13-214-11a 13-214-11b 13-214-11c |
गतायुषा मुहूर्तं तु न शक्यमुपजीवितुम्। जीवितव्ये न मर्तव्यं न भूतं न भविष्यति।। | 13-214-12a 13-214-12b |
शुभाशुभं कर्मफलं न शक्यमतिवर्तितुम्। तथा ताभिश्च मर्तव्यं मोक्तव्याश्चैव तास्तथा।। | 13-214-13a 13-214-13b |
रन्तिदेवस्य गावो वै विधेर्हि वशमागताः। स्वयमायान्ति गावो वै हन्यन्ते यत्र सुन्दरि।। | 13-214-14a 13-214-14b |
गवां वै हन्यमानानां रुधिरप्रभवा नदी। चर्मण्वतीति विख्याता खुरशृङ्गास्थिदुर्गमा।। | 13-214-15a 13-214-15b |
रुधिरं तां नदीं प्राप्य तोयं भवति शोभने। मेध्यं पुण्यं पवित्रं च गन्धवर्णरसैर्युतम्।। | 13-214-16a 13-214-16b |
तत्राऽभिषेकं कुर्वन्ति कृतजप्याः कृताह्निकाः। द्विजा देवगणाश्चापि लोकपाला महेश्वराः।। | 13-214-17a 13-214-17b |
तस्य राज्ञः सदा सत्रे स्वयमागम्य सुन्दरि। विधिना पूर्वदृष्टेन तन्मांसमुपकल्पितम्। मन्त्रवत्प्रतिगृह्णन्ति यतान्यायं यताविधि।। | 13-214-18a 13-214-18b 13-214-18c |
समांसं च सदा ह्यन्नं शतशोऽथ सहस्रशः। भुञ्जानानां द्विजातीनामस्तमेति दिवाकरः।। | 13-214-19a 13-214-19b |
गावो यास्तत्र हन्यन्ते राज्ञस्तस्य क्रतूत्तमे। पठ्यमानेषु मन्त्रेषु यथान्यायं यथाविधि।। | 13-214-20a 13-214-20b |
ताश्च स्वर्गं गता गावो रन्तिदेवश्च पार्थिवः। सदा सत्रविधानेन सिद्धिं प्राप्तो नरोत्तमः।। | 13-214-21a 13-214-21b |
अथ यस्तु सहायार्थमुक्तः स्यात्पार्थिवैर्नरैः। भोगानां संविभागेन वस्त्राभरणभूषणैः।। | 13-214-22a 13-214-22b |
सहभोजनसम्बद्धैः सत्कारैर्विविधैरपि। सहायकाले सम्प्राप्ते सङ्ग्रामे शस्त्रमुद्धरेत्।। | 13-214-23a 13-214-23b |
व्यूढानीके यथा सास्त्रं सेनयोरुभयोरपि। हस्त्यश्वरथसम्पूर्णे पदातिबलसङ्कुले। चामरच्छत्रशबले ध्वजचर्मायुधोज्ज्वले।। | 13-214-24a 13-214-24b 13-214-24c |
शक्तितोमरकुन्तासिशूलमुद्गरपाणिभिः। कूटमुद्गरचापेषु मुसुण्ठीजुष्टमुष्टिभिः।। | 13-214-25a 13-214-25b |
भिण्डिपालगदाचक्रप्रासकर्पटधारिभिः। नानाप्रहरणैर्योधैः सेनयोरुभयोरपि। युद्धशौण्डैः प्रगर्जद्भिर्वृषेषु वृषभैरिव।। | 13-214-26a 13-214-26b 13-214-26c |
शङ्खदुन्दुभिनादेन नानातूर्यरवेण च। हयहेषितशब्देन कुञ्जराणां तु बृंहितैः।। | 13-214-27a 13-214-27b |
योधानां सिंहनादैश्च घण्टानां शिञ्जितस्वनैः। दिशश्च विदिशश्चैव समन्ताद्बधिरीकृताः।। | 13-214-28a 13-214-28b |
ग्रीष्मान्तेष्विव गर्जद्भिर्नभशीव बलाहकैः। रथनेमिखुरोद्धूतैररुणै रणरेणुभिः। कपिलाभिरिवाकाशे छाद्यमाने समन्ततः।। | 13-214-29a 13-214-29b 13-214-29c |
प्रवृत्ते शस्त्रसम्पाते योधानां तत्र सेनयोः। तेषां प्रहारक्षतजं रक्तचन्दनसन्निभम्।। | 13-214-30a 13-214-30b |
तेषामस्राणि गात्रेभ्य स्रवन्ते रणमूर्धनि। पलाशाशोकपुष्पाणां जङ्गमा इव राशयः।। | 13-214-31a 13-214-31b |
रणे समभिवर्तन्त उद्यतायुधपाणयः। शोभमाना रणे शूरा आह्वयन्तः परस्परम्।। | 13-214-32a 13-214-32b |
हन्यमानेष्वभिघ्नत्सु शूरेषु रणसङ्कटे। पृष्ठं दत्त्वा च ये तत्र नायकस्य नराधमाः।। | 13-214-33a 13-214-33b |
अनाहता निवर्तन्ते नायके चाप्यनीप्सति। ते दुष्कृतं प्रपद्यन्ते नायकस्याखिलं नराः। यच्चास्ति सुकृतं तेषां युज्यते तेन नायकः।। | 13-214-34a 13-214-34b 13-214-34c |
अहिंसा परमो धर्म इति येऽपि नरा विदुः। सङ्ग्रामेषु न युध्यन्ते भृत्याश्चैवानुरूपतः। नरकं यान्ति ते घोरं भर्तृपिण्डापहारिणइः।। | 13-214-35a 13-214-35b 13-214-35c |
यस्तु प्राणान्परित्यज्य प्रविशेदुद्यतायुधः। सङ्ग्राममग्निप्रतिमं पतह्ग इव निर्भयः। स्वर्गमाविशते प्रेत्य ज्ञात्वा योधस्य निश्चयम्।। | 13-214-36a 13-214-36b 13-214-36c |
आविष्टश्चैव सत्त्वेन सघृणो जायते नरः। प्रहारैर्नन्दयेद्देवि सत्वेनाधिष्ठितो हि सः। प्रहारव्यथितश्चैव न वैक्लब्यमुपैति सः।। | 13-214-37a 13-214-37b 13-214-37c |
यस्तु स्वं नायकं रक्षेदतिघोरे रणाङ्कणे। तापयन्नरिसैन्यानि सिंहो मृगगणानिव। आदित्य इव मध्याह्ने दुर्निरीक्ष्यो रणाजिरे।। | 13-214-38a 13-214-38b 13-214-38c |
निर्दयो यस्तु सङ्ग्रामे प्रहरन्नुद्यतायुधः। यजते स तु पूतात्मा सङ्ग्रामेण महाक्रतुम्।। | 13-214-39a 13-214-39b |
चर्म कृष्णाजिनं तस्य दन्तकाष्ठं धनुः स्मृतम्। रथो वेदिर्ध्वजो यूपः कुशाश्च रथरश्मयः।। | 13-214-40a 13-214-40b |
मानो दर्पस्त्वहङ्कारस्त्रयस्त्रेताग्नयः स्मृताः। प्रमोदस्च स्रुवस्तस्य उपाध्यायो हि सारथिः।। | 13-214-41a 13-214-41b |
स्रुग्भाण्डं चापि यत्किञ्चिद्यज्ञोपकरणानि च। आयुधान्यस्य तत्सर्वं समिधः सायकाः स्मृताः।। | 13-214-42a 13-214-42b |
स्वेदस्रवश्च गात्रेभ्यः क्षौद्रं तस्य यशस्विनः। पुरोडाशा नृशीर्षाणि रुधिरं चाहुतिः स्मृता। तूणाश्चैव चरुर्ज्ञेया वसोर्धारा वसाः स्मृताः।। | 13-214-43a 13-214-43b 13-214-43c |
क्रव्यादा भूतसङ्घाश्च तस्मिन्यज्ञे द्विजतयः। तेषां भक्षान्नपानानि हता नृगजवाजिनः। भुञ्जते ते यथाकामं यता यज्ञे किमिच्छति।। | 13-214-44a 13-214-44b 13-214-44c |
निहतानां तु योधानां वस्त्राभरणभूषणम्। हिरण्यं च सुवर्णं च यद्वै यज्ञस्य दक्षिणा।। | 13-214-45a 13-214-45b |
यस्तत्र हन्यते देवि गजस्कन्धगतो नरः। ब्रह्मलोकमवाप्नोति रणेष्वभिमुखो हतः।। | 13-214-46a 13-214-46b |
रथमध्यगतो वाऽपि हयपृष्ठगतोपि वा। हन्यते यस्तु सङ्ग्रामे शक्रलोके महीयते।। | 13-214-47a 13-214-47b |
स्वर्गे हताः प्रपूज्यते हन्ता त्वत्रैव पूज्यते। द्वावेतौ सुखमेधेते हन्ता यश्चैव हन्यते।। | 13-214-48a 13-214-48b |
तस्मात्सङ्ग्राममासाद्य प्रहर्तव्यमभीतवत्।। | 13-214-49a |
निर्भयो यस्तु सङ्ग्रामे यस्तु सङ्ग्रामे प्रहरेदुद्यतायुधः। यथा नदीसहस्राणि प्रविष्टानि महोदधिम्।। | 13-214-50a 13-214-50b |
तथा सर्वे न सन्देहो धर्मा धर्मभृतांवरम्। प्रविष्टा राजधर्मेण आचारविनयस्तथा।। | 13-214-51a 13-214-51b |
वेदोक्ताश्चैव ये धर्माः पाषण्डेषु च कीर्तिताः। तथैव मानुषा धर्मा धर्माश्चान्ये तथेतरे।। | 13-214-52a 13-214-52b |
देशजातिकुलानां च ग्रामधर्मास्तथैव च। ये धर्माः पार्वतीयेषु ये धर्माः पत्तनादिषु। तेषां पूर्वप्रवृत्तानां कर्तव्यं परिरक्षणम्।। | 13-214-53a 13-214-53b 13-214-53c |
धर्म एव हतो हन्ति धर्मो रक्षति रक्षितः। तस्माद्धर्मो न हन्तव्यः पार्थिवेन विशेषतः।। | 13-214-54a 13-214-54b |
प्रजाः पालयते यत्र धर्मेण वसुधाधिपः। षट्कर्मनिरता विप्राः पूज्यन्ते पितृदेवताः।। | 13-214-55a 13-214-55b |
नैव तस्मिन्ननावृष्टिर्न रोगा नाप्युपद्रवाः। धर्मशीलाः प्रजाः सर्वाः स्वधर्मनिरते नृपे।। | 13-214-56a 13-214-56b |
एष्टव्यः सततं देवि युक्ताचारो नराधिपः। छिद्रज्ञश्चैव शत्रूणामप्रमत्तः प्रतापवान्।। | 13-214-57a 13-214-57b |
शूद्राः पृथिव्यां बहवो राज्ञां बहुविनाशकाः। तस्मात्प्रमादं सुश्रोणि न कुर्यात्पण्डितो नृपः।। | 13-214-58a 13-214-58b |
तेषु मित्रेषु त्यक्तेषु तथा मर्त्येषु हस्तिषु। विस्रम्भो नोपगन्तव्यः स्नानपानेषु नित्यशः।। | 13-214-59a 13-214-59b |
राज्ञो वल्लभतामेति कुलं भावयते स्वकम्। यस्तु राष्ट्रहितार्थाय गोब्राह्मणकृते तथा। बन्दीग्रहाय मित्रार्थे प्राणांस्त्यजति दुस्त्यजान्।। | 13-214-60a 13-214-60b 13-214-60c |
सर्वकामदुघां धेनुं धरणीं लोकधारिणीम्। समुद्रान्तां वरारोहे सशैलवनकाननाम्।। | 13-214-61a 13-214-61b |
दद्याद्देवि द्विजातिभ्यो वसुपूर्णां वसुन्धराम्। न तत्समं वरारोहे प्राणत्यागी विशिष्यते।। | 13-214-62a 13-214-62b |
सहस्रमपि यज्ञानां यजते च यतर्द्धिमान्। यज्ञैस्तस्य किमाश्चर्यं प्राणत्यागः सुदुष्करः।। | 13-214-63a 13-214-63b |
तस्मात्सर्वेषु यज्ञेषु प्राणयज्ञो विशिष्यते। एवं सङ्ग्रामयज्ञास्ते यथार्थं समुदाहृताः।। | 13-214-64a 13-214-64b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 214 ।। |
अनुशासनपर्व-213 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-215 |