महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-036
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युधिष्ठिरेण भीष्मांप्रति श्रुतधर्माननूद्य प्राणिनां सांसारिकदुःखानुवर्णनपूर्वकं स्वस्य संसारनिर्वेदनिवेदनेन पुनर्विस्तरेण वैष्णवधर्मकथनप्रार्थना।। 1 ।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 13-36-1x |
चित्तं मे दूयते तात लोके परमविन्दतः।। | 13-36-1a |
अशाश्वतमिदं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम्। क्रते नारायणं पुण्यं प्रतिभाति पितामह।। | 13-36-2a 13-36-2b |
नारायणो हि विश्वात्मा पुरुषः पुष्करेक्षणः। तस्यास्य देवकीसूनोः श्रुतं कृत्स्नं त्वयाऽनघ।। | 13-36-3a 13-36-3b |
भीष्म उवाच। | 13-36-4x |
युधिष्ठिर महाप्राज्ञ मया दृष्टं च सङ्गरे।। | 13-36-4a |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-36-5x |
त्वत्त एव तु राजेन्द्र राजधर्माश्च पुष्कलाः। श्रुतं पुराणमखिलं नारदेन निवेदितम्। गुह्यं नारायणाख्यानं त्रिविधक्लेशनाशनम्।। | 13-36-5a 13-36-5b 13-36-5c |
एकान्तिधर्मनियमाः समासव्यासकल्पिताः। कथिता वै महाभाग त्वया वै मदनुग्रहात्।। | 13-36-6a 13-36-6b |
लोकरक्षणकर्तृत्वं तस्यैव हरिमेधसः। आतिथेयविधिश्चैव तपांसि नियमाश्च ये।। | 13-36-7a 13-36-7b |
वेदवादप्रसिद्धाश्च वाजपेयादयो मखाः। यज्ञा द्रविणनिष्पाद्या अग्निहोत्रानुपालिताः।। | 13-36-8a 13-36-8b |
जपयज्ञाश्च विविधा ब्राह्मणानां तपस्विनाम्। एकादशविधाः प्रोक्ता हविर्यज्ञा द्विजातिनाम्।। | 13-36-9a 13-36-9b |
तेषां फलविशेषाश्च उञ्छधर्मास्तथैव च। अहन्यहनि ये प्रोक्ता महायज्ञा द्विजातिनाम्।। | 13-36-10a 13-36-10b |
वेदश्रवणधर्माश्च ब्रह्मयज्ञफलं तथा। वेदव्रतविधानं च नियमाश्चैव वैदिकाः।। | 13-36-11a 13-36-11b |
स्वाहा स्वधा प्रणीते च इष्टापूर्तफलं तथा। उत्तरोत्तरसेवायामाश्रमाणां च यत्फलम्।। | 13-36-12a 13-36-12b |
प्रत्येकशश्च निष्ठायामाश्रमाणां महामते। मासपक्षोपवासानां सम्यगुक्तफलं च यत्।। | 13-36-13a 13-36-13b |
अनाशितानां ये लोका ये च पञ्चतपा नराः। वीराध्वानं प्रपन्नानां या गतिश्चाग्निहोत्रिणाम्।। | 13-36-14a 13-36-14b |
ग्रीष्मे पञ्चतपानां च शिशिरे जलचारिणाम्। वर्षे स्थण्डिलशायीनां फलं यत्परिकीर्तितम्।। | 13-36-15a 13-36-15b |
लोके चक्रचराणां च द्विजानां यत्फलं स्मृतम्। अन्नादीनां च दानानां यत्फलं परिकीर्तितम्।। | 13-36-16a 13-36-16b |
सर्वतीर्थाभिषिक्तानां नराणां च फलोदयः। राज्ञां धर्माश्च ये लोके सम्यक्पालयतां प्रजाः।। | 13-36-17a 13-36-17b |
ये च सत्यव्रता लोके ये तीर्थे कृतश्रमाः। मातापितृपरा ये च गुरुवृत्तीश्च संश्रिताः।। | 13-36-18a 13-36-18b |
गोब्राह्मणपरित्राणे राष्ट्रातिक्रमणे तथा। त्यजन्त्यभिमुखाः प्राणान्निर्भयाः सत्वमाश्रिताः।। | 13-36-19a 13-36-19b |
सहस्रदक्षिणानां च या गतिर्वदनां वर। ये च संध्यामुपासन्ते सम्यगुक्ता महाव्रताः।। | 13-36-20a 13-36-20b |
तथा योगविधानं च यद्ग्रन्थेष्वभिशब्दितम्। वेदाद्याः श्रुतयश्चापि श्रुता मे गुरुसत्तम।। | 13-36-21a 13-36-21b |
सिद्धान्तनिर्णयाश्चापि द्वैपायनमुखोद्गताः। श्रुताः पञ्च महायज्ञा येषु सर्वं प्रतिष्ठितम्।। | 13-36-22a 13-36-22b |
तत्प्रभेदेषु ये धर्मास्तेऽपि वै कृत्स्नशः श्रुताः। न च दूषयितुं शक्याः सद्भिरुक्ता हि ते तथा।। | 13-36-23a 13-36-23b |
एतेषां किल धर्माणामुत्तमो वैष्णवो विधिः। रक्षते भगवान्विष्णुर्भक्तमात्मशरीरवत्।। | 13-36-24a 13-36-24b |
कर्मणो हि कृतेस्येह कामितस्य द्विजोत्तम। फलं ह्यवश्यं भोक्तव्यमृषिर्द्वैपायनोऽब्रवीत्।। | 13-36-25a 13-36-25b |
भोगान्ते चापि पतनं गतिः पूर्वं प्रभाषिता। न मे प्रीतिकरास्त्वेते विषोदर्का हि मे मताः।। | 13-36-26a 13-36-26b |
वधात्कृष्टतरं मन्ये गर्भवासं महाद्युते। दिष्टान्ते यानि दुःखानि पुरुषो विन्दते विभो। ततः कष्टतराणीह गर्भवासे हि विन्दति।। | 13-36-27a 13-36-27b 13-36-27c |
ततश्चाभ्याधिकां तीव्रां वेदनां लभते नरः। गर्भापक्रमणे तात कर्मणासुपसर्पणे।। | 13-36-28a 13-36-28b |
तस्मान्मे निश्चयो जातो धर्मेष्वेतेषु भारत। तदिच्छामि कुरुश्रेष्ठ त्वत्प्रसादान्महामते। तं धर्मं चेह वेत्तुं वै यो जराजन्ममृत्युहा।। | 13-36-29a 13-36-29b 13-36-29c |
येनोष्णदा वैतरणी असिपत्रवनं च तत्। कुण्डानि चाग्नितप्तानि क्षुरधारापथस्तथा। शाल्मलीं च महाघोरामायसीं घोरकण्टकाम्।। | 13-36-30a 13-36-30b 13-36-30c |
मातापितृकते चापि सुहृन्मित्रार्थकारणात्। आत्महेतोश्च पापानि कृतानीह नरैश्च यैः। तेषां फलोदयं कष्टमृषिर्द्वैपायनोऽब्रवीत्।। | 13-36-31a 13-36-31b 13-36-31c |
कुम्भीपाकप्रदीप्तानां शूलार्तानां च क्रन्दताम्। रौरवे क्षिप्यमाणानां प्रहारैर्मथितात्मनाम्।। | 13-36-32a 13-36-32b |
स्तनतामपकृत्तानां पिबतामात्मशोणितम्। तेषामेव प्रवदतां कारुण्यं नास्ति यन्त्रतः।। | 13-36-33a 13-36-33b |
तृष्णाशुष्कोष्ठकण्ठानां विह्वलानामचेतसाम्। सर्वदुःखाभिभूतानां रुजार्तानां च क्रोशताम्।। | 13-36-34a 13-36-34b |
वेदनार्ता हि क्रन्दन्ति पूरयन्तो दिशो दश।। | 13-36-35a |
एकः करोति पापानि सहभोज्यानि बान्धवैः। तेषामेकः फलं भुङ्क्ते कष्टं वैवस्वते गृहे।। | 13-36-36a 13-36-36b |
येन नैतां गतिं गच्छेन्न विण्मूत्रास्थिपिच्छिले। विष्ठामूत्रकृमीमध्ये बहुजन्तुनिषेविते।। | 13-36-37a 13-36-37b |
को गर्भवासात्परतो नरकोऽन्यो विधीयते। यत्र वासकृतो योगः कुक्षौ वासो विधीयते।। | 13-36-38a 13-36-38b |
जातो विस्तीर्णशोकः स्याद्भवेत विगतज्वरः। न चैष लभ्यते कामो जातमात्रं हि मानवम्। आविशन्तीह दुःखानि मनोवाक्कायिकानि तु।। | 13-36-39a 13-36-39b 13-36-39c |
तैरस्वतन्त्रो भवति पीड्यमानो भयानकैः। तैर्गर्भवासं गच्छति अवशो जायते तथा।। | 13-36-40a 13-36-40b |
अवशश्चेहते जन्तुर्व्रजत्यवश एव हि। जरसा रूपविध्वंसं प्राप्नोत्यवश एव तु।। | 13-36-41a 13-36-41b |
शरीरभेदमाप्नोति जीर्यतेऽवश एव तु। एवं ह्यनियतो मृत्युर्भवत्येव सदा नृषु।। | 13-36-42a 13-36-42b |
गर्भेषु म्रियते कश्चिज्जायमानस्तथाऽपरः। जाता म्रियन्ते बहवो यौवनस्थास्तथाऽपरे। मध्यभावे तु नश्यन्ति स्थविरो मृत एव तु।। | 13-36-43a 13-36-43b 13-36-43c |
को जन्मनो नोद्विजते स्वयम्भूरपि यो भवेत्। कुतस्त्वस्मद्विधस्तात मरणस्य वशानुगः।। | 13-36-44a 13-36-44b |
नित्याविष्टो भयेनाहं मनसा कुरुसत्तम। मुहूर्तमप्यहं शर्म न विन्दामि महामते।। | 13-36-45a 13-36-45b |
कालात्मनि तिरोभूतो नित्यं तद्गुणवर्जितः। अन्नैर्बहुविधैः पुष्टं वस्त्रैर्नानाविधैर्वृतम्।। | 13-36-46a 13-36-46b |
चन्दनागरुदिग्धाङ्गं मणिमुक्ताविभूषितम्। यानैर्बहुविधैर्यातमेकान्तेनैव लालितम्।। | 13-36-47a 13-36-47b |
यौवनोद्धतरूपाभिर्मन्दविह्वलगामिभिः। इष्टिभिरभिरामाभिर्वरस्त्रीभिरयन्त्रितम्।। | 13-36-48a 13-36-48b |
रमितं सुचिरं कालं शरीरममितप्रभम्। अवितृप्ता गमिष्यन्ति हित्वा प्राणांस्तथाऽपरे।। | 13-36-49a 13-36-49b |
स्वर्गेऽप्यनियता भूतिस्तथैवाकाशसंश्रये। देवाऽप्यधिष्ठानवशास्तस्माद्देवं न कामये।। | 13-36-50a 13-36-50b |
कामानां नास्त्यधिष्ठानमकामस्तु निवर्तते। लोकसङ्ग्रहधर्मास्तु सर्व एव न संशयः।। | 13-36-51a 13-36-51b |
डोलासधर्मा धर्मज्ञ ऋषिर्द्वैपायनोऽब्रवीत्। अस्मात्को विषमं दुःखमारोहेत विचक्षणः।। | 13-36-52a 13-36-52b |
विद्यमाने समे मार्गे डोलाधर्मविवर्जिते। को ह्यात्मानं प्रियं लोके डोलासाधर्म्यतांनयेत्।। | 13-36-53a 13-36-53b |
चराचरैः सर्वभूतैर्गन्तव्यमविशङ्कया। अस्माल्लोकात्परं लोकमपाथेयमदैशिकम्। घोरं तमः प्रवेष्टव्यमत्रातारमबान्धवम्।। | 13-36-54a 13-36-54b 13-36-54c |
ये तु तं किल धर्मज्ञा धर्मं नारायणेरितम्। अनन्यमनसो दान्ताः स्मरन्ति नियतव्रताः।। | 13-36-55a 13-36-55b |
ततस्तेनैव पश्यन्ति प्राप्नुव्ति परं पदम्। रक्षते भगवान्विष्णुर्भक्तानात्मशरीरवत्।। | 13-36-56a 13-36-56b |
कुलालचक्रप्रतिमे भ्राम्यमाणेषु जन्तुषु। मातापितृसहस्राणि सम्प्राप्तानि मया गुरो।। | 13-36-57a 13-36-57b |
स्नेहापन्नेन पीतास्तु मातॄणां विविधाः स्तलाः।। | 13-36-58a |
पुत्रदारसहस्राणि इष्टानिष्टशतानि च। प्राप्तान्यधिष्ठानवशादतीतानि तथैव च। न क्वचिन्न सुखं प्राप्तं न क्वचिच्छाश्वती स्थितिः।। | 13-36-59a 13-36-59b 13-36-59c |
स्थानैर्महद्भिर्विभ्रंशो दुःखलब्धैः पुनः पुनः। धननाशश्च सम्प्राप्तो लब्ध्वा दुःखेन तद्धनम्। अध्वगानामिव पथि च्छायामाश्रित्य सङ्गमः।। | 13-36-60a 13-36-60b 13-36-60c |
एवं कर्मवशो लोको ज्ञातीनां हितसङ्गमः। विश्रम्य च पुनर्याति कर्मभिर्दर्शितां गतिम्।। | 13-36-61a 13-36-61b |
एतदीदृशकं दृष्ट्वा ज्ञात्वा चैव समागमम्। को न बिभ्येत्कुरुश्रेष्ठ विष्ठान्नस्येव भोजनात्।। | 13-36-62a 13-36-62b |
बुद्धिश्च मे समुत्पन्ना वैष्णवे धर्मविस्तरे। तदेष शिरसा पादौ गतोऽस्मि भगवंस्तव। शरणं च प्रपन्नोऽस्मि गन्तव्ये शरणे ध्रुवे।। | 13-36-63a 13-36-63b 13-36-63c |
जन्ममृत्युजराखिन्नस्त्रिभिर्दुःखैर्निपीडितः। इच्छामि भवता त्रातुमेभ्यस्त्वत्तो महामते। तस्याद्य युगधर्मस्य श्रवणात्कुरुपुङ्गव।। | 13-36-64a 13-36-64b 13-36-64c |
एतदाद्ययुगोद्भूतं त्रेतायां तत्तिरोहितम्। स एव धर्ममखिलमृषिर्द्वैपायनोऽब्रवीत्।।' | 13-36-65a 13-36-65b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्त्रिंशोऽध्यायःठ।। 36 ।। |
13-36-3 पुरुषः पुष्करो विभुरिति ट.थ.ध. पाठः।।
अनुशासनपर्व-035 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-037 |