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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-177

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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-177
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति मांसभक्षणाभक्षणयोः क्रमेण निन्दाप्रशंसने।। 1 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 13-177-1x
अहिंसा परमो धर्म इत्युक्तं बहुशस्त्वया।
श्राद्धेषु च भवानाह पितॄणां मांसमीप्सितम्।।
13-177-1a
13-177-1b
मांसैर्बहुविधैः प्रोक्तस्त्वया श्राद्धविधिः पुरा।
अहत्वा च कुतो मांसमेवमेतद्विरुध्यते।।
13-177-2a
13-177-2b
जातो नः संशयो धर्मे मांसस्य परिवर्जने।
दोषो भक्षयत कः स्यात्कश्चाभक्षयतो गुणः।।
13-177-3a
13-177-3b
हत्वा भक्षयतो वाऽपि परेणोपहृतस्य वा।
हन्याद्वा यः परस्यार्थे क्रीत्वा वा भक्षयेन्नरः।।
13-177-4a
13-177-4b
एतदिच्छामि तत्त्वेन कथ्यमानं त्वयाऽनघ।
निश्चयेन चिकीर्षामि धर्ममेतं सनातनम्।।
13-177-5a
13-177-5b
कथमायुरवाप्नोति कथं भवति सत्ववान्।
कथमव्यङ्गतामेति लक्षण्यो जायते कथम्।।
13-177-6a
13-177-6b
भीष्म उवाच। 13-177-7x
मांसस्याभक्षणाद्राजन्यो धर्मः कुरुनन्दन।
तं मे शृणु यथातत्त्वं यश्चास्य विधिरुत्तमः।।
13-177-7a
13-177-7b
रूपमव्यङ्गतामायुर्बुद्धिं सत्वं बलं स्मृतिम्।
प्राप्तुकामैर्नरैर्हिंसा वर्जनीया कृतात्मभिः।।
13-177-8a
13-177-8b
ऋषीणामत्र संवादो बहुशः कुरुनन्दन।
बभूव तेषां तु मतं यत्तच्छृणु युधिष्ठिर।।
13-177-9a
13-177-9b
यो यजेताश्वमेधेन मासिमासि यतव्रतः।
वर्जयेन्मधु मांसं च सममेतद्युधिष्ठिर।।
13-177-10a
13-177-10b
सप्तर्षयो वालखिल्यास्तथैव च मरीचिपाः।
मांसस्याभक्षणं राजन्प्रशंसन्ति मनीषिणः।।
13-177-11a
13-177-11b
न भक्षयति यो मांसं न च हन्यान्न घातयेत्।
तन्मित्रं सर्वभूतानां मनुः स्वायंभुवोऽब्रवीत्।।
13-177-12a
13-177-12b
अधृष्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु।
साधूनां सम्मतो नित्यं भवेन्मांसं विवर्जयन्।।
13-177-13a
13-177-13b
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
अविश्वास्योऽवसीदेत्स इति होवाच नारदः।।
13-177-14a
13-177-14b
ददाति यजते चापि तपस्वी च भवत्यपि।
मधुमांसनिवृत्त्येति प्राह चैवं बृहस्पतिः।।
13-177-15a
13-177-15b
मासिमास्यश्वमेधेन यो यजेत शतं समाः।
न खादति च यो मांसं सममेतन्मतं मम।।
13-177-16a
13-177-16b
सदा यजति सत्रेण सदा दानं प्रयच्छति।
सदा तपस्वी भवति मद्यमांसविवर्जनात्।।
13-177-17a
13-177-17b
सर्वे वेदा न तत्कुर्युः सर्वे यज्ञाश्च भारत।
यो भक्षयित्वा मांसानि पश्चादपि निवर्तते।।
13-177-18a
13-177-18b
`भक्षयित्वा निमित्तेऽपि दुष्करं कुरुते तपः।'
दुष्करं च रसज्ञेन मांसस्य परिवर्जनम्।
चर्तुं व्रतमिदं श्रेष्ठं सर्वप्राण्यभयप्रदम्।।
13-177-19a
13-177-19b
13-177-19c
सर्वभूतेषु यो विद्वान्ददात्यभयदक्षिणाम्।
दाता भवति लोके स प्राणानां नात्र संशयः।
एवं वै परमं धर्मं प्रशंसन्ति मनीषिणः।।
13-177-20a
13-177-20b
7-117-20c
प्राणा यथाऽऽत्मनोऽभीष्टा भूतानामपि वै तथा।
आत्मौपम्येन गन्तव्यं बुद्धिमद्भिः कृतात्मभिः।।
13-177-21a
13-177-21b
विकीर्णकर्णकेनापि तृणमस्पन्दने भयम्।
किं पुनर्हन्यमानानां तरसा जीवितार्थिनाम्।
अरोगाणामपापानां पापैर्मांसोपजीविभिः।।
13-177-22a
13-177-22b
13-177-22c
मृत्युतो भयमस्तीति शङ्कायां दुःखमुत्तरम्।
धर्मस्यायतनं तस्मान्मांसस्य परिवर्जनम्।।
13-177-23a
13-177-23b
अहिंसा परमो धर्मस्तथाऽहिंसा परं तपः।
अहिंसा परमं सत्यं ततो धर्मः प्रवर्तते।।
13-177-24a
13-177-24b
न हि मांसं तृणात्काष्ठादुपलाद्वाऽपि जायते।
हत्वा जन्तुं ततो मांसं तस्माद्दोषस्तु भक्षणे।।
13-177-25a
13-177-25b
स्वाहास्वाधामृतभुजो देवाः सत्यार्जवप्रियाः।
राक्षसेन्द्रभयान्मुक्ताः सर्वभूतपरायणाः।।
13-177-26a
13-177-26b
कान्तारेष्वथ घोरेषु दुर्गेषु गहनेषु च।
रात्रावहनि सन्ध्यासु चत्वरेषु सभासु च।।
13-177-27a
13-177-27b
उद्यतेषु च शस्त्रेषु मृगव्यालहतेषु च।
अमांसभक्षणाद्राजन्न भयं तेषु विद्यते।।
13-177-28a
13-177-28b
शरण्यः सर्वभूतानां विश्वास्यः सर्वजन्तुषु।
अनुद्वेगकरो लोके न चाप्युद्विजते सदा।।
13-177-29a
13-177-29b
यदि चेत्स्वादको न स्यान्न तदा घातको भवेत्।
घातकः खादकार्थाय तद्धातयति वै नरः।।
13-177-30a
13-177-30b
अभक्ष्यमेतदिति वै इति हिंसा निवर्तते।
खादकक्रमतो हिंसा मृगादीनां प्रवर्तते।।
13-177-31a
13-177-31b
यस्माद्ग्रसति चैवायुर्हिंसकानां महाद्युते।
तस्माद्विवर्जयेन्मांसं य इच्छेद्भूतिमात्मनः।।
13-177-32a
13-177-32b
त्रातारं नाधिगच्छन्ति रौद्राः प्राणिविहिंसकाः।
उद्वेजकास्तु भूतानां यथा व्यालमृगास्तथा।।
13-177-33a
13-177-33b
लोभाद्वा बुद्धिमोहाद्वा बलवीर्यार्थमेव च।
संसर्गादथ पापानामधर्मो रुचितो नृणाम्।।
13-177-34a
13-177-34b
स्वमांसं परमांसेन यो वर्धयितुमिच्छति।
उद्विग्नराष्ट्रे वसति यत्र यत्राभिजायते।।
13-177-35a
13-177-35b
धन्यं यशस्यामायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
मांसस्याभक्षणं प्राहुर्नियताः परमर्षयः।।
13-177-36a
13-177-36b
इदं तु खलु कौन्तेय श्रुतमासीत्पुरा मया।
मार्कण्डेयस्य वदतो ये दोषा मांसभक्षणे।।
13-177-37a
13-177-37b
यो हि खादति सांसानि प्राणिनां जीवितैषिणाम्।
सदा भवति वै पापः प्राणिहन्ता तथैव सः।।
13-177-38a
13-177-38b
धनेन क्रयिको हन्ति खादकश्चोपभोगतः।
घातको वधबन्धाभ्यामित्येष त्रिविधो वधः।।
13-177-39a
13-177-39b
अखादन्ननुमोदंश्च भावदोषेण मानवः।
योऽनुमोदति हन्यन्तं सोऽपि दोषेण लिप्यते।।
13-177-40a
13-177-40b
अधृष्यः सर्वभूतानामायुष्मान्निरुजः सदा।
भवत्यभक्षयन्मासं दयावान्प्राणिनामिह।।
13-177-41a
13-177-41b
हिरण्यदानैर्गोदानैर्भूमिदानैश्च सर्वशः।
मांसस्याभक्षणे धर्मो विशिष्ट इति नः श्रुतिः।।
13-177-42a
13-177-42b
अप्रोक्षितं वृथामासं विधिहीनं न भक्षयेत्।
भक्षयन्निरयं याति नरो नास्त्यत्र संशयः।।
13-177-43a
13-177-43b
प्रोक्षिताभ्युक्षितं मांसं तथा ब्राह्म्णकाम्यया।
अल्पदोषमिति ज्ञेयं विपरिते तु लिप्यते।।
13-177-44a
13-177-44b
खादकस्य कृते जन्तून्यो हन्यात्पुरुषाधमः।
महादोषकरस्तत्र घातको न तु खादकः।।
13-177-45a
13-177-45b
इज्यायज्ञश्रुतिकृतैर्या मार्गैरबुधोऽधमः।
हन्याज्जन्तून्मांसगृध्नुः स वै नरकभाङ्नरः।।
13-177-46a
13-177-46b
भक्षयित्वाऽपि यो मांसं पश्चादपि निवर्तते।
तस्यापि सुमहान्धर्मो यः पापाद्विनिवर्तते।।
13-177-47a
13-177-47b
आहर्ता चानुमन्ता च विशस्ता क्रयविक्रयी।
संस्कर्ता चोपभोक्ता च घातकाः सर्व एव ते।।
13-177-48a
13-177-48b
इदमन्यत्तु वक्ष्यामि प्रमाणं विधिनिर्मितम्।
पुराणमुषिभिर्जुष्टं वेदेषु परिनिश्चितम्।।
13-177-49a
13-177-49b
प्रवृत्तिलक्षणे धर्मे फलार्थिभिरभिद्रुते।
यथोक्तं राजशार्दूल न तु तन्मोक्षकारणम्।।
13-177-50a
13-177-50b
हविर्यत्संस्कृतं मन्त्रैः प्रोक्षिताभ्युक्षितं शुचि।
वेदोक्तेन प्रमाणेन पितॄणां प्रक्रियासु च।
प्रवृत्तिधर्मिणा भक्ष्यं नान्यथा मनुरब्रवीत्।।
13-177-51a
13-177-51b
13-177-51c
अस्वर्ग्यमयशस्यं च रक्षोवद्भरतर्षभ।
विधिहीनं नरः पूर्वं मांसं राजन्न भक्षयेत्।।
13-177-52a
13-177-52b
य इच्छेत्पुरुषोऽत्यन्तमात्मानं निरुपद्रवम्।
स वर्जयेत मांसानि प्राणिनामिह सर्वशः।।
13-177-53a
13-177-53b
श्रूयते हि पुराकल्पे नृणां व्रीहिमयः पशुः।
येनायजन्त विद्वांसः पुण्यलोकपरायणाः।।
13-177-54a
13-177-54b
ऋषिभिः संशयं पृष्टो वसुश्चेदिपतिः पुरा।
अभक्ष्यमपि मांसं यः प्राह भक्ष्यमिति प्रभो।।
13-177-55a
13-177-55b
आकाशादवनिं प्राप्तस्ततः स पृथिवीपतिः।
यस्तदेव पुनश्चोक्त्वा विवेश धरणीतलम्।।
13-177-56a
13-177-56b
प्रजानां हितकामेन त्वगस्त्येन महात्मना।
आरण्याः सर्वदैवत्याः प्रोक्षितास्तापसैर्मृगाः।।
13-177-57a
13-177-57b
क्रिया ह्येवं न हीयन्ते पितृदैवतसंश्रिताः।
प्रीयन्ते पितरश्चैव न्यायतो मांसतर्पिताः।।
13-177-58a
13-177-58b
इदं तु शृणु राजेन्द्र मांसस्याभक्षणे गुणाः।
[अभक्षणे सर्वसुखं मांसस्य मनुजाधिप।।]
13-177-59a
13-177-59b
यस्तु वर्षशतं पूर्णं तपस्तप्येत्सुदारुणम्।
यश्चैव वर्जयेन्मांसं सममेतन्मतं मम।।
13-177-60a
13-177-60b
कौमुद्यास्तु विशेषेण शुक्लपक्षे नराधिप।
वर्जयेत्सर्वमांसानि धर्मो ह्यत्र विधीयते।।
13-177-61a
13-177-61b
[चतुरो वार्षिकान्मासान्यो मांसं परिवर्जयेत्।
चत्वारि भद्राण्याप्नोति कीर्तिमायुर्यशो बलम्।।
13-177-62a
13-177-62b
अथवा मासमेकं वै सर्वमांसान्यभक्षयन्।
अतीत्य सर्वदुःखानि सुखं जीवेन्निरामयः।।
13-177-63a
13-177-63b
वर्जयन्ति हि मांसानि मासशः पक्षशोपि वा।
तेषां हिंसानिवृत्तानां ब्रह्मलोको विधीयते।।]
13-177-64a
13-177-64b
मांसं तु कौमुदं पक्षं वर्जितं पार्थ राजभिः।
सर्वभूतात्मभूतस्थैर्विदितार्थपरावरैः।।
13-177-65a
13-177-65b
नाभागेनाम्बरीषेण गयेन च महात्मना।
आयुषाऽथानरण्येन दिलीपरघुसूनुभिः।।
13-177-66a
13-177-66b
कार्तवीर्यानिरुद्धाभ्यां नहुषेण ययातिना।
नृगेण विष्वगश्वेन तथैव शशबिन्दुना।।
13-177-67a
13-177-67b
युवनाश्वेन च तथा शिबिनौशीनरेण च।
मुचुकुन्देन मान्धात्रा हरिश्चन्द्रेण वा विभो।।
13-177-68a
13-177-68b
सत्यं वदत माऽसत्यं सत्यं धर्मः सनातनः।
हरिश्चन्द्रश्चरति वै दिवि सत्येन चन्द्रवत्।।
13-177-69a
13-177-69b
श्येनचित्रेण राजेन्द्र सोमकेन वृकेण च।
रैवते रन्तिदेवेन वसुना सृञ्जयेन च।।
13-177-70a
13-177-70b
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्र कृपेण भरतेन च।
दुष्यन्तेन करूशेन रामालर्कनलैस्तथा।
विचकाश्वेन निमिना जनकेन च धीमता।।
13-177-71a
13-177-71b
13-177-71c
ऐलेन पृथुना चैंव वीरसेनेन चैव ह।
इक्ष्वाकुणा शम्भुना च श्वेतेन सगरेण च।।
13-177-72a
13-177-72b
अजेन धुन्धुना चैव तथैव च सुबाहुना।
हर्यश्वेन च राजेन्द्र क्षुपेण भरतेन च।।
13-177-73a
13-177-73b
एतैश्चान्यैश्च राजेन्द्रि पुरा मांसं न भक्षितम्।
शारदं कौमुदं मासं ततस्ते स्वर्गमाप्नुवन्।।
13-177-74a
13-177-74b
ब्रह्मलोके च तिष्ठन्ति ज्वलमानाः श्रियाऽन्विताः।
उपास्यमाना गन्धर्वैः स्त्रीसहस्रसमन्विताः।।
13-177-75a
13-177-75b
तदेतदुत्तमं धर्ममहिंसाधर्मलक्षणम्।
ये चरन्ति महात्मानो नाकपृष्ठे वसन्ति ते।।
13-177-76a
13-177-76b
मधु मांसं च ये नित्यं वर्जयन्तीह धार्मिकाः।
जन्मप्रभृति मद्यं च सर्व ते मुनयः स्मृताः।।
13-177-77a
13-177-77b
इमं धर्मममांसादं यश्चरेनच्छ्रावयीत वा।
अपि चेत्सुदुराचारो न जातु निरयं व्रजेत्।।
13-177-78a
13-177-78b
पठेद्वा च इदं राजञ्शृणुयाद्वाऽप्यभीक्ष्णशः।
अमांसभक्षणविधिं पवित्रमृषिपूजितम्।।
13-177-79a
13-177-79b
विमुक्तः सर्वपापेभ्यः सर्वकामैर्महीयते।
विशिष्टतां ज्ञातिषु च लभते नात्र संशयः।
`अहिंस्रो दानशीलश्च मधुमांसविवर्जितः।।'
13-177-80a
13-177-80b
13-177-80c
आपन्नश्चापदो मुच्येद्बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
मुच्येत्तथाऽऽतुरो रोगाद्दुःखान्मुच्येत दुःखितः।।
13-177-81a
13-177-81b
तिर्यग्योनिं न गच्छेत रूपवांश्च भवेन्नरः।
ऋद्धिमान्वै कुरुश्रेष्ठ प्राप्नुयाच्च महद्यशः।।
13-177-82a
13-177-82b
एतत्ते कथितं राजन्मांसस्य परिवर्जने।
प्रवृत्तौ च निवृत्तौ च विधानमृषिनिर्मितम्।।
13-177-83a
13-177-83b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि सप्तसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 177 ।।

13-177-18 नहि कृत्स्नो वेदस्तथा तद्बोधिता यज्ञाश्च पुरुषं हिंसायां पवर्तयन्ति। किन्तु परिसंख्याविधया निवृत्तिमेव बोधयन्तीत्यर्थः।। 13-177-33 व्यालमृगाः मांसादपशवः।। 13-177-40 हन्यन्तं हन्यमानम्।। 13-177-46 इज्या देवपूजा यज्ञोऽश्वमेधादिस्तदर्थं श्रुतिकृतैर्मार्गैरुपायैरबुधो यज्ञोपनिषदमजानन्मांसगृध्नुः। केवलं यज्ञव्याजेन मांसं भोक्तुकामः।। 13-177-50 प्रवत्तिलक्षणो धर्मः प्रजार्थिभिरुदाहृतः। यथोक्तं राजशार्दूल नतु तन्मोक्षकाङ्क्षिणाम्। इति झ. पाठः ।। 13-177-57 आरण्याः प्रोक्षिता इति पर्यग्निकृतानारण्यानुत्सृजन्तीति श्रुतेरारण्यैर्यज्ञं कृत्वापि तेषां वधो न कृत इत्यर्थः।।

अनुशासनपर्व-176 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-178