महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-087
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति रामविश्वामित्रयोरुत्पत्तिप्रकारकथनारम्भः।। 1 ।। च्यवनेन कुशिकराजमेत्य सभार्यं तम्प्रति स्वशुश्रूषाविधानम्।। 2 ।। सभार्येण कुशिकेन एकविंशतिदिवसाननवरतमेकपार्श्वेन प्रसुप्तस्य च्यवनस्य पादसंवाहनेन पर्युपासनम्।। 3 ।। ततः शयनादुत्थितेन मुनिना किञ्चिद्दूरं गत्वा पुनरन्तर्धानम्।। 4 ।।
संशयो मे महाप्राज्ञ सुमहान्सागरोपम। तं मे शृणु महाबाहो श्रुत्वा व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-87-1x 13-87-1a 13-87-1b |
कौतूहलं मे सुमहज्जामदग्न्यं प्रति प्रभो। रामं धर्मभृतां श्रेष्ठं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-87-2a 13-87-2b |
`ब्राह्मे बले सुपूर्णानामेतेषां च्यवनादिनाम्।' कथमेष समुत्पन्नो रामः सत्यपराक्रमः। कथं ब्रह्मर्षिवंशोऽयं क्षत्रधर्मा व्यजायत।। | 13-87-3a 13-87-3b 13-87-3c |
तदस्य सम्भवं राजन्निखिलेनानुकीर्तय। कौशिकश्च कथं वंशात्क्षात्राद्वै ब्राह्मणोऽभवत्।। | 13-87-4a 13-87-4b |
अहो प्रभावः सुमहानासीद्वै सुमहात्मनोः। रामस्य च नरव्याघ्र विश्वामित्रस्य चैव हि।। | 13-87-5a 13-87-5b |
कथं पुत्रानतिक्रम्य तेषां नप्तृष्वथाभवत्। एष दोषो महाप्राज्ञ तत्त्वं व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-87-6a 13-87-6b |
भीष्म उवाच। | 13-87-7x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। च्यवनस्य च संवादं कुशिकस्य च भारत।। | 13-87-7a 13-87-7b |
एतं दोषं पुरा दृष्ट्वा भार्गवश्च्यवनस्तदा। आगामिनं महाबुद्धिः स्ववंशे मुनिसत्तमः।। | 13-87-8a 13-87-8b |
निश्चित्य मनसा सर्वं गुणदोषबलाबलम्। दग्धुकामः कुलं सर्वं कुशिकानां तपोधनः।। | 13-87-9a 13-87-9b |
च्यवनस्तमनुप्राप्य कुशिकं वाक्यमब्रवीत्। वस्तुमिच्छा समुत्पन्ना त्वया सह ममानघ।। | 13-87-10a 13-87-10b |
कुशिक उवाच। | 13-87-11x |
भगवन्सहधर्मोऽयं पण्डितैरिह चर्यते। प्रदानकाले कन्यानामुच्यते च सदा बुधैः।। | 13-87-11a 13-87-11b |
यत्तु तावदतिक्रान्तं धर्मद्वारं तपोधन। तत्कार्यं प्रकरिष्यामि तदनुज्ञातुमर्हसि।। | 13-87-12a 13-87-12b |
भीष्म उवाच। | 13-87-13x |
अथासनमुपादाय च्यवनस्य महामुनेः। कुशिको भार्यया सार्धमाजगाम यतो मुनिः।। | 13-87-13a 13-87-13b |
प्रगृह्य राजा भृङ्गारं पाद्यमस्मै न्यवेदयत्। कारयामास सर्वाश्च क्रियास्तस्य महात्मनः।। | 13-87-14a 13-87-14b |
ततः स राजा च्यवनं मधुपर्कं यथाविधि। ग्राहयामास चाव्यग्रो महात्मा नियतव्रतः।। | 13-87-15a 13-87-15b |
सत्कृत्य तं तथा विप्रमिदं पुनरथाब्रवीत्। भगवन्परवन्तौ स्वो ब्रूहि किं करवावहे।। | 13-87-16a 13-87-16b |
यदि राज्यं यदि धनं यदि गाः संशितव्रत। यज्ञदानानि च तथा ब्रूहि सर्वं ददामि ते।। | 13-87-17a 13-87-17b |
इदं गृहमिदं राज्यमिदं धर्मासनं च ते। राजा त्वमसि शाध्युर्वीं भृत्योऽहं परवान्स्त्रिया।। | 13-87-18a 13-87-18b |
एवमुक्ते ततो वाक्ये च्यवनो भार्गवस्तदा। कुशिकं प्रत्युवाचेदं मुदा परमया युतः।। | 13-87-19a 13-87-19b |
न राज्यं कामये राजन्न धनं न च योषितः। न च गा न च वै देशान्न यज्ञं श्रूयतामिदम्।। | 13-87-20a 13-87-20b |
नियमं किञ्चिदारप्स्ये युवयोर्यदि रोचते। परिचर्योस्मि यत्ताभ्यां युवाभ्यामविशङ्कया।। | 13-87-21a 13-87-21b |
एवमुक्ते तदा तेन दम्पती तौ जहर्षतुः। प्रत्यब्रूतां च तमृषिमेवमस्त्विति भारत।। | 13-87-22a 13-87-22b |
अथ तं कुशिको हृष्टः प्रावेशयदनुत्तमम्। गृहोद्देशं ततस्तस्य दर्शनीयमदर्शयत्।। | 13-87-23a 13-87-23b |
इयं शय्या भगवतो यथाकाममिहोष्यताम्। प्रयतिष्यावहे प्रीतिमाहर्तुं ते तपोधन।। | 13-87-24a 13-87-24b |
अथ सूर्योतिचक्राम तेषां संवदतां तथा। अथर्षिश्चोदयामास पानमन्नं तथैव च।। | 13-87-25a 13-87-25b |
तमपृच्छत्ततो राजा कुशिकः प्रणतस्तदा। किमन्नजातमिष्टं ते किमुपस्थापयाम्यहम्।। | 13-87-26a 13-87-26b |
ततः स परया प्रीत्या प्रत्युवाच नराधिपम्। औपपत्तिकमाहारं प्रयच्छस्वेति भारत।। | 13-87-27a 13-87-27b |
तद्वचः पूजयित्वा तु तथेत्याह स पार्थिवः। यथोपपन्नमाहारं तस्मै प्रादाज्जनाधिप।। | 13-87-28a 13-87-28b |
ततः स भुक्त्वा भगवन्दम्पती प्राह धर्मवित्। स्वप्तुमिच्छाम्यहं निद्रा बाधते मामिति प्रभो।। | 13-87-29a 13-87-29b |
ततः शय्यागृहं प्राप्य भगवानृषिसत्तमः। संविवेश नरेशस्तु सपत्नीकः स्थितोऽभवत्।। | 13-87-30a 13-87-30b |
न प्रबोध्योस्मि संसुप्त इत्युवाचाथ भार्गवः। संवाहितव्यौ मे पादौ जागर्तव्यं च वां निशि।। | 13-87-31a 13-87-31b |
अविशङ्कस्तु कुशिकस्तथेत्येवाह धर्मवित्। न प्राबोधयतां तौ च दंपती रजनीक्षये।। | 13-87-32a 13-87-32b |
यथादेशं महर्षेस्तु शुश्रूषापरमौ तदा। बभूवतुर्महाराज प्रयतावथ दम्पती।। | 13-87-33a 13-87-33b |
ततः स भगवान्विप्रः समादिश्य नराधिपम्। सुष्वापैकेन पार्श्वेन दिवसानेकविंशतिम्।। | 13-87-34a 13-87-34b |
स तु राजा निराहारः सभार्यः कुरुनन्दन। पर्युपासत तं हृष्टश्च्यवनाराधने रतः।। | 13-87-35a 13-87-35b |
भार्गवस्तु समुत्तस्थौ स्वयमेव तपोधनः। अकिञ्चिदुक्त्वा तु गृहान्निश्चक्राम महातपाः।। | 13-87-36a 13-87-36b |
तमन्वगच्छतां तौ च क्षुधितौ श्रमकर्शितौ। भार्यापती मुनिश्रेष्ठस्तावेतौ नावलोकयत्।। | 13-87-37a 13-87-37b |
तयोस्तु प्रेक्षतोऽरेव भार्गवाणां कुलोद्वहः। अन्तर्हितोभूद्राजेन्द्र ततो राजाऽपतत्क्षितौ।। | 13-87-38a 13-87-38b |
ततो मुहूर्तादाश्वस्य सह देव्या महामुनेः। पुनरन्वेषणे यत्नमकरोत्स महीपतिः।। | 13-87-39a 13-87-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि सप्ताशीतितमोऽध्यायः।। 87 ।। |
13-87-11 अतिथिसेवाधर्म एव सहधर्मः स्त्रीसहितधर्मः।। 13-87-37 मुनिश्रेष्ठो नच तावभ्यवारयदिति ट.थ.ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-086 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-088 |