महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-050

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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति स्त्रीस्वभावप्रदर्शनाय दृष्टान्ततयाऽष्टावक्रोपाख्यानकथनारम्भः।। अष्टावक्रेण भार्यात्वाय वदान्यंप्रति कन्यायाचनम्।। 2 ।। तथा वदाव्यनियोगादुत्तरदिगन्तगमनम्।। 3 ।। तथोत्तरदिगभिमानिन्या जरतीरूप धारिण्या संवादः।। 4 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 13-50-1x
यदिदं सहधर्मेति प्रोच्यते भरतर्षभ।
पाणिग्रहणकाले तु स्त्रीणामेतत्कथं स्मृतम्।।
13-50-1a
13-50-1b
आर्ष एष भवेद्धर्मः प्राजापत्योऽथवाऽसुरः।
यदेतत्सहधर्मेति पूर्वमुक्तं महर्षिभिः।।
13-50-2a
13-50-2b
सन्देहः सुमहानेष विरुद्ध इति मे मतिः।
इह यः सहधर्मो वै प्रेत्यायं विहितः क्वनु।।
13-50-3a
13-50-3b
स्वर्गो मृतानां भवति सहधर्मः पितामह।
पूर्वमेकस्तु म्रिय********कस्तिष्ठते वद।।
13-50-4a
13-50-4b
नानाधर्मफलोपेता नानाकर्मनिवासिताः।
नानानिरयनिष्ठान्ता मानुपा बहवो यदा।।
13-50-5a
13-50-5b
अनृताः स्त्रिय इत्येवं सूत्रकारो व्यवस्यति।
यदाऽनृताः स्त्रियस्तात सहधर्मः कुतः स्मृतः।।
13-50-6a
13-50-6b
अनृताः स्त्रिय इत्येवं वेदेष्वपि हि पठ्यते।
धर्मो यः पूर्विको दृष्ट उपचारः क्रियाविधिः।।
13-50-7a
13-50-7b
गहरं प्रतिभात्येतन्मम चिन्तयतोऽनिशम्।
निःसन्देहमिदं सर्वं पितामह यथाश्रुतिः।।
13-50-8a
13-50-8b
यदैतद्यादृशं चैतद्यथा चैतत्प्रवर्तितम्।
निखिलेन महाप्राज्ञ भवानेतद्ब्रवीतु मे।।
13-50-9a
13-50-9b
भीष्म उवाच। 13-50-10x
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
अष्टावक्रस्य संवादं दिशया सह भारत।।
13-50-10a
13-50-10b
निर्विष्टुकामस्तु पुरा अष्टावक्रो महातपाः।
ऋषेरथ वदान्यस्य वव्रे कन्यां महात्मनः।।
13-50-11a
13-50-11b
सुप्रभां नाम वै नाम्ना रूपेणाप्रतिमां भुवि।
गुणप्रभावशीलेन चारित्रेण च शोभनाम्।।
13-50-12a
13-50-12b
सा तस्यर्षेर्मनो दृष्टा जहार शुभलोचना।
वनराजी यथा चित्रा वसन्ते कुसुमाञचिता।।
13-50-13a
13-50-13b
ऋषिस्तमाह देया मे सुता तुभ्यं हि तच्छृणु।। 13-50-14a
`अनन्यस्त्रीजनः प्राज्ञो ह्यप्रवासी प्रियंवदः।
सुरूपः सम्मतो वीरः शीलवान्भोगभुक्छुचिः।।
13-50-15a
13-50-15b
दारानुमतयज्ञश्च सुनक्षत्रामथोद्वेहेत्।
सभृत्यः स्वजनोपेत इह प्रेत्य च मोदते।।
13-50-16a
13-50-16b
गच्छ तावद्दिशं पुण्यामुत्तरां द्रक्ष्यसे ततः।। 13-50-17a
अष्टावक्र उवाच। 13-50-18x
किं द्रष्टव्यं मया तत्र वक्तुमर्हति मे भवान्।
तथेदानीं मयो कार्यं यथा वक्ष्यति मां भवान्।।
13-50-18a
13-50-18b
वदान्य उवाच। 13-50-19x
धनदं समतिक्रम्य हिमवन्तं च पर्वतम्।
रुद्रस्यायतनं दृष्ट्वा सिद्धचारणसेवितम्।।
13-50-19a
13-50-19b
संहृष्टैः पार्षदैर्जुष्टं नृत्यद्भिर्विविधाननैः।
दिव्याङ्गरागैः पैशाचैरन्यैर्नानाविधैः प्रभोः।।
13-50-20a
13-50-20b
पाणितालसुतालैश्च शम्पातालैः समैस्तथा।
सम्प्रहृष्टैः प्रनृत्यद्भिः शर्वस्तत्र निषेव्यते।।
13-50-21a
13-50-21b
इष्टं किल गिरौ स्थानं तद्दिव्यमिति शुश्रुम।
नित्यं सन्निहितो देवस्तथा ते पार्षदाः स्मृताः।।
13-50-22a
13-50-22b
तत्र देव्या तपस्तप्तं सङ्करार्थं सुदुश्चरम्।
अतस्तदिष्टं देवस्य तथोमाया इति श्रुतिः।।
13-50-23a
13-50-23b
पूर्वे तत्र महापार्श्वे देवस्योत्तरतस्तथा।।
ऋतवः कालरात्रिश्च ये दिव्या ये च मानुषाः।।
13-50-24a
13-50-24b
देवं चोपासते सर्वे रूपिणः किल तत्र ह।
तदतिक्रम्य भवनं त्वया यातव्यमेव हि।।
13-50-25a
13-50-25b
ततो नीलं वनोद्देशं द्रक्ष्यसे मेघसन्निभम्।
रमणीयं मनोग्राहि तत्र वै द्रक्ष्यसे स्त्रियम्।।
13-50-26a
13-50-26b
तपस्विनीं महाभागां वृद्धां दीक्षामनुष्ठिताम्।
द्रष्टव्या सा त्वया तत्र सम्पूज्या चैव यत्नतः।।
13-50-27a
13-50-27b
तां दृष्ट्वा विनिवृत्तस्त्वं ततः पाणिं ग्रहीष्यसि।
यद्येष समयः सर्वः साध्यतां तत्र गम्यताम्।।
13-50-28a
13-50-28b
अष्टावक्र उवाच। 13-50-29x
तथाऽस्तु साधयिष्यामि तत्र यास्याम्यसंशयम्।
यत्र त्वं वदसे साधो भवान्भवतु सत्यवाक्।।
13-50-29a
13-50-29b
भीष्म उवाच। 13-50-30x
ततोऽगच्छत्स भगवानुत्तरामुत्तरां दिशम्।
हिमवन्तं गिरिश्रेष्ठं सिद्धचारणसेवितम्।।
13-50-30a
13-50-30b
स गत्वा द्विजशार्दूलो हिमवन्तं महागिरिम्।
अभ्यगच्छन्नदीं पुण्यां बाहुदां पुण्यदायिनीम्।।
13-50-31a
13-50-31b
अशोके विमले तीर्थे स्नात्वा वै तर्प्य देवताः।
तत्र वासाय शयने कौशे सुखमुवास ह।।
13-50-32a
13-50-32b
ततो रात्र्यां व्यतीतायां प्रातरुत्थाय स द्विजः।
स्नात्वा प्रादुश्चकाराग्निं हुत्वा चैवं विधानतः।।
13-50-33a
13-50-33b
रुद्राणीकूपमासाद्य ह्रदे तत्र समाश्वसत्।
विश्रान्तश्च समुत्थाय कैलासमभितो ययौ।।
13-50-34a
13-50-34b
सोऽपश्यत्काञ्चनद्वारं दीप्यमानमिव श्रिया।
मन्दाकिनीं च नलिनीं धनदस्य महात्मनः।।
13-50-35a
13-50-35b
अथ ते राक्षसाः सर्वे येऽभिरक्षन्ति पद्मिनीम्।
प्रत्युत्थिता भगवन्तं माणिभद्रपुरोगमाः।।
13-50-36a
13-50-36b
स तान्प्रत्यर्चयामास राक्षसान्भीमविक्रमान्।
निवेदयत मां क्षिप्रं धनदायेति चाब्रवीत्।।
13-50-37a
13-50-37b
ते राक्षसास्तथा राजन्भगवन्तमथाब्रुवन्।
असौ वैश्रवणो राजा स्वयमायाति तेऽन्तिकम्।।
13-50-38a
13-50-38b
विदितो भगवानस्य कार्यमागमनस्य यत्।
पश्यैनं त्वं महाभागं ज्वलन्तमिव तेजसा।।
13-50-39a
13-50-39b
ततो वैश्रवणोऽभ्येत्य अष्टावक्रमनिन्दितम्।
विधिवत्कुशलं पृष्ट्वा ततो ब्रह्मर्षिमब्रवीत्।।
13-50-40a
13-50-40b
सुखं प्राप्तो भवान्कच्चित्किंवा मत्तश्चिकीर्षति।
ब्रूहि सर्वं करिष्यामि यन्मां वक्ष्यसि वै द्विज।।
13-50-41a
13-50-41b
भवनं प्रविश त्वं मे यथाकामं द्विजोत्तम।
सत्कृतः कृतकार्यश्च भवान्यास्यत्यविघ्नतः।।
13-50-42a
13-50-42b
प्राविशद्भवनं स्वं वै गृहीत्वा तं द्विजोत्तमम्।
आसनं स्वं ददौ चैव पाद्यमर्घ्यं तथैव च।।
13-50-43a
13-50-43b
अथोपविष्टयोस्तत्र माणिभद्रपुरोगमाः।
निषेदुस्तत्र कौबेरा यक्षगन्धर्वकिन्नराः।।
13-50-44a
13-50-44b
ततस्तेषां निषण्णानां धनदो वाक्यमब्रवीत्।
भवच्छन्दं समाज्ञाय नृत्येरन्नप्सरोगणाः।।
13-50-45a
13-50-45b
आतिथ्यं परमं कार्यं शुश्रूषा भवतस्तथा।
संवर्ततामित्युवाच मुनिर्मधुरया गिरा।।
13-50-46a
13-50-46b
यथोर्वरा मिश्रकेशी रम्भा चैवोर्वशी तथा।
अलम्बुसा घृताची च चित्रा चित्राङ्गदारुचिः।।
13-50-47a
13-50-47b
मनोहरा सुकेशी च सुमुखी हासिनी प्रभा।
विद्युता प्रशमी दान्ता विद्योता रतिरेव च।।
13-50-48a
13-50-48b
एताश्चान्याश्च वै बह्व्यः प्रनृत्ताप्सरसः शुभाः।
अवादयंश्च गन्धर्वा वाद्यानि विविधानि च।।
13-50-49a
13-50-49b
अथ प्रवृत्ते गान्धर्वे दिव्ये ऋषिरुपाविशत्।
दिव्यं संवत्सरं तत्रारमतैष महातपाः।।
13-50-50a
13-50-50b
ततो वैश्रवणो राजा भगवन्तमुवाच ह।
साग्रः संवत्सरो यातो विप्रेह तव पश्यतः।।
13-50-51a
13-50-51b
हार्योऽयं विषयो ब्रह्मन्गान्धर्वो नाम नामतः।
छन्दतो वर्ततां विप्र यथा वदति वा भवान्।।
13-50-52a
13-50-52b
अतिथिः पूजनीयस्त्वमिदं च भवतो गृहम्।
सर्वमाज्ञाप्यतामाशु परवन्तो वयं त्वयि।।
13-50-53a
13-50-53b
अथ वैश्रवणं प्रीतो भगवान्प्रत्यभाषत।
अर्चितोस्मि यथान्यायं गमिष्यामि धनेश्वर।।
13-50-54a
13-50-54b
प्रीतोस्मि सदृशं चैव तव सर्वं धनाधिप।
तव प्रसादाद्भगवन्महर्षेश्च महात्मनः।
नियोगादद्य यास्यामि वृद्दिमानृद्धिमान्भव।।
13-50-55a
13-50-55b
13-50-55c
अथ निष्क्रम्य भगवान्प्रययावुत्तरामुखः।
`कैलासे सङ्करावासमभिवीक्ष्य प्रणम्य च।।
13-50-56a
13-50-56b
गौरीशं शङ्करं दान्तं शरणागतवत्सलम्।
गङ्गाधरं गोपतिनं गणावृतमकल्पषम्।।'
13-50-57a
13-50-57b
कैलासं मन्दरं हैमं सर्वाननुचचार ह।
तानतीत्य महाशैलान्कैरातं स्थानमुत्तमम्।।
13-50-58a
13-50-58b
प्रदक्षिणं तथा चक्रे प्रयतः शिरसा नतः।
धरणीमवतीर्याथ पूतात्माऽसौ तदाऽभकवत्।।
13-50-59a
13-50-59b
स तं प्रदक्षिणं कृत्वा निर्यातश्चोत्तरामुखः।
समेन भूमिभागेन ययौ प्रीतिपुरस्कृतः।।
13-50-60a
13-50-60b
ततोऽपरं वनोद्देशं रमणीयमपश्यत।
सर्वर्तुभिर्मूलफलैः पक्षिभिश्च समन्वितैः।
रमणीयैर्वनोद्देशैस्तत्रतत्र विभूषितम्।।
13-50-61a
13-50-61b
13-50-61c
तत्राश्रमपदं दिव्यं ददर्श भगवानथ।। 13-50-62a
शैलांश्च विविधाकारान्काञ्चनान्रत्नभूषितान्।
मणिभूमौ निविष्टाश्च पुष्करिण्यस्तथैव च।।
13-50-63a
13-50-63b
अन्यान्यपि सुरम्याणि ददर्श सुबहून्यथ।
भृशं तस्य मनो रमे महर्षेर्भावितात्मनः।।
13-50-64a
13-50-64b
स तत्र काञ्चनं दिव्यं सर्वरत्नमयं गृहम्।
ददर्शाद्भुतसङ्काशं धनदस्य गृहाद्वरम्।।
13-50-65a
13-50-65b
महान्तो यत्र विविधा मणिकाञ्चनपर्वताः।
विमानानि च रम्याणि रत्नानि विविधानि च।।
13-50-66a
13-50-66b
मन्दारपुष्पैः सङ्कीर्णां तथा मन्दाकिनीं नदीम्।
स्वयम्प्रभाश्च मणयो वज्रैर्भूमिश्च भूषिता।।
13-50-67a
13-50-67b
नानाविधैश्च भवनैर्विचित्रमणितोरणैः।
मुक्ताजालविनिक्षिप्तैर्मणिरत्नविभूषितैः।।
13-50-68a
13-50-68b
मनोद्दष्टिहरै रम्यैः सर्वतः संवृतं शुभैः।
ऋषिभिश्चावृतं तत्र आश्रमं तं मनोहरम्।।
13-50-69a
13-50-69b
ततस्तस्याभवच्चिन्ता कुत्र वासो भवेदिति।
अथ द्वारं समभितो गत्वा स्थित्वा ततोऽब्रवीत्।।
13-50-70a
13-50-70b
अतिथिं समनुप्राप्तमभिजानन्तु येऽत्र वै।। 13-50-71a
अथ कन्याः परिवृता गृहात्तस्माद्विनिर्गताः।
नानारूपाः सप्त विभो कन्याः सर्वा मनोहराः।।
13-50-72a
13-50-72b
यांयामपश्यत्कन्यां वै सासा तस्य मनोऽहरत्।
न च शक्तो वारयितुं मनोऽस्याथावसीदति।
ततो धृतिः समुत्पन्ना तस्य विप्रस्य धीमतः।।
13-50-73a
13-50-73b
13-50-73c
अथ तं प्रमदाः प्राहुर्भगवान्प्रविशत्विति।
स च तासां सुरुपेण तस्यैव भवनस्य च।
कौतूहलं समाविष्टः प्रविवेश गृहं द्विजः।।
13-50-74a
13-50-74b
13-50-74c
तत्रापश्यज्जरायुक्तामरजोम्बरधारिणीम्।
वृद्धां पर्यङ्कमासीनां सर्वाभरणभूषिताम्।।
13-50-75a
13-50-75b
स्वस्तीति तेन चैवोक्ता सा स्त्री प्रत्यवदत्तदा।
प्रत्युत्थाय च तं विप्रमास्यतामित्युवाच ह।।
13-50-76a
13-50-76b
अष्टावक्र उवाच। 13-50-77x
सर्वाः स्वानालयान्यान्तु एका मामुपतिष्ठतु।
प्रज्ञाता या प्रशान्ता या शेषा गच्छन्तु च्छन्दतः।।
13-50-77a
13-50-77b
ततः प्रदक्षिणीकृत्य कन्यास्तास्तमृषिं तदा।
निश्चक्रमुर्गृहात्तस्मात्सा वृद्धाऽथ व्यतिष्ठतः।
तया सम्पूजितस्तत्र शयने चापि निर्मले।।
13-50-78a
13-50-78b
13-50-78c
अथ तां संविशन्प्राह शयने भास्वरे तदा।
त्वयाऽपि सुप्यतां भद्रे रजनी ह्यतिवर्तते।।
13-50-79a
13-50-79b
संलापात्तेन विप्रेण तथा सा तत्र भाषिता।
द्वितीये शयने दिव्ये संविवेश महाप्रभे।।
13-50-80a
13-50-80b
अथ सा वेपमानाङ्गी निमित्तं शीतजं तदा।
व्यपदिश्य महर्षेर्वै शयनं व्यवरोहत।।
13-50-81a
13-50-81b
स्वागतेनागतां तां तु भगवानभ्यभाषत।
सा जुगूह भुजाभ्यां तु ऋषिं प्रीत्या नरर्षभ।।
13-50-82a
13-50-82b
निर्विकारमृषिं चापि काष्ठकुड्योपमं तदा।
दुखिता प्रेक्ष्य सञ्जल्पमकार्षीदृषिणा सह।।
13-50-83a
13-50-83b
ब्रह्मन्नकामकरोस्ति स्त्रीणां पुरुषतो धृतिः।
कामेन मोहिता चाहं त्वां भजन्तीं भजस्व माम्।।
13-50-84a
13-50-84b
प्रहृष्टो भव विप्रर्षे समागच्छ मया सह।
उपगूह च भां विप्र कामार्ताऽहं भृशं त्वयि।।
13-50-85a
13-50-85b
एतद्वि तव धर्मात्मंस्तपसः पूज्यते फलम्।
प्रार्थितं दर्शनादेव भजमानां भजस्व माम्।।
13-50-86a
13-50-86b
सद्म चेदं धनं सर्वं यच्चान्यदपि पश्यसि।
प्रभुस्त्वं भव सर्वत्र मयि चैव न संशयः।।
13-50-87a
13-50-87b
सर्वान्कामान्विधास्यामि रमस्व सहितो मया।
रमणीये वने विप्र सर्वकामफलप्रदे।।
13-50-88a
13-50-88b
त्वद्वशाऽहं भविष्यामि रंस्यसे च मया सह।
सर्वान्कामानुपाश्नीमो ये दिव्या ये च मानुषाः।।
13-50-89a
13-50-89b
नातः परं हि नारीणां विद्यते च कदाचन।
यथा पुरुषसंसर्गः परमेतद्धि नः फलम्।।
13-50-90a
13-50-90b
आत्मच्छन्देन वर्तन्ते नार्यो मन्मथचोदिताः।
न च दह्यन्ति गच्छन्त्यः सुतप्तैरपि पांसुभिः।।
13-50-91a
13-50-91b
अष्टावक्र उवाच। 13-50-92x
परदारानहं भद्रे न गच्छेयं कथञ्चन।
दूषितं धर्मशास्त्रज्ञैः परदाराभिमर्शनम्।।
13-50-92a
13-50-92b
`शुद्धक्षेत्रे ब्रह्महत्याप्रायश्चित्तमथोच्यते।
पुनश्च पातकं दृष्टं विप्रक्षेत्रे विशेषतः'।।
13-50-93a
13-50-93b
भद्रे निर्वेष्टुकामोऽहं तत्रावकिरणं मम।
`प्रायश्चित्तं महदतो दारग्रहणपूर्वकम्।।
13-50-94a
13-50-94b
बीजं न शुद्ध्यते वोढुरन्यथा कृतनिष्कृतेः।
मातृतः पितृतः शुद्धो ज्ञेयः पुत्रो यथार्थतः।।'
13-50-95a
13-50-95b
विषयेष्वनभिज्ञोऽहं धर्मार्थं किल सन्ततिः।
एवं लोकान्गमिष्यामि पुत्रैरिति न संशयः।।
13-50-96a
13-50-96b
भद्रे धर्मं विजानीहि ज्ञात्वा चोपरमस्व ह।। 13-50-97a
स्त्र्युवाच। 13-50-98x
नानिलोऽग्निर्न वरुणो न चान्ये त्रिदशा द्विज।
प्रियाः स्त्रीणां यथा कामो रतिशीला हि योषितः।।
13-50-98a
13-50-98b
सहस्रे किल नारीणां प्राप्येतैका कदाचन।
तथा शतसहस्रेषु यदि काचित्पतिव्रता।।
13-50-99a
13-50-99b
नैता जानन्ति पितरं न कुलं न च मातरम्।
न भ्रातॄन्न च भर्तारं न च पुत्रान्न देवरान्।।
13-50-100a
13-50-100b
लीलायन्त्यः कुलं घ्नन्ति कूलानीव सरिद्वराः।
दोषान्सर्वाश्च मत्वाऽऽशु प्रजापतिरभाषत।।
13-50-101a
13-50-101b
भीष्म उवाच। 13-50-102x
ततः स ऋषिरेकाग्रस्तां स्त्रियं प्रत्यभाषत।
आस्यतांरुचितश्छन्दः किञ्च कार्यं ब्रवीहि मे।।
13-50-102a
13-50-102b
सा स्त्री प्रोवाच भगवन्द्रक्ष्यसे देशकालतः।
वस तावन्महाभाग कृतकृत्यो भविष्यसि।।
13-50-103a
13-50-103b
ब्रह्मर्षिस्तामथोवाच स तथेति युधिष्ठिर।
वत्स्येऽहं यावदुत्साहो भवत्या नात्र संशयः।।
13-50-104a
13-50-104b
अथर्षिरभिसम्प्रेक्ष्य स्त्रियं तां जरयाऽर्दिताम्।
चिन्तां परमिकां भेजे सन्तप्त इव चाभवत्।।
13-50-105a
13-50-105b
यद्यदङ्गं हि सोऽपश्यत्तस्या विप्रर्षभस्तदा।
नारमत्तत्रतत्रास्य दृष्टी रूपविरागिता।।
13-50-106a
13-50-106b
देवतेयं गृहस्यास्य शापात्किंनु विरूपिता।
अस्याश्च कारणं वेत्तुं न युक्तं सहसा भया।।
13-50-107a
13-50-107b
इति चिन्ताविषक्तस्य तमर्थं ज्ञातुमिच्छतः।
व्यगमद्रात्रिशेषः स मनसा व्याकुलेन तु।।
13-50-108a
13-50-108b
अथ सा स्त्री तथोवाच भगवन्पश्य वै रवेः।
रूपं सन्ध्याभ्रसंरक्तं किमुपस्थाप्यतां तव।।
13-50-109a
13-50-109b
स उवाच ततस्तां स्त्रीं स्नानोदकमिहानय।
उपासिष्ये ततः सन्ध्यां वाग्यतो नियतेन्द्रियः।।
13-50-110a
13-50-110b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि पञ्चाशोऽध्यायः।। 50 ।।

[सम्पाद्यताम्]

13-50-1 सहोभौ चरतां धर्मं क्षौमे वसानौ जायापती अग्निमादधीयातामिति धर्मपत्नीसाहित्यं शास्त्रे दृश्यमानमाक्षिपति यदिदमिति। पाणग्रहणात्प्राक्साहित्याभावात्सहोभाविति वाक्यं व्याकुप्येतेति भावः।। 13-50-3 इहैव साहित्यं दंपत्योर्दृश्यते परलोके तयोः साहित्यं क्वनु। न क्वापीत्यर्थः।। 13-50-6 सूत्रकारो धर्मप्रवक्ता। अनृतं साहसं माया मूर्खत्वमतिलोभतेति स्त्रीधर्मानाह।। 13-50-8 गह्वरं गहनं दुर्बोधमित्यर्थः।। 13-50-10 दिशया दिगभिमानिदेवतया।। 13-50-11 निर्वेष्टुकामः दारसंग्रहार्थी।। 13-50-21 तालैः कांस्यमयैर्वाद्यभाण्डैः। शम्पातालैः विद्युद्वदतिचपलैर्भ्रमणादिघटितैः गीतनृत्यक्रियामानविशेषैः। समैर्भ्रमणादिरहितैस्तैरेव।। 13-50-24 महापार्श्वे पर्वते। ततः कोपो महान्पार्श्वे इति ट. थ. पाठः। ततः कालो महान्पार्श्वे इति ध. पाठः।। 13-50-30 उत्तरां श्रेष्ठाम्।। 13-50-45 भवच्छन्दं भवदिच्छाम्।। 13-50-52 हार्यः हरतीति हार्यः।। 13-50-54 भगवान् अष्टावक्रः।। 13-50-55 वृद्धिरुपचयस्तद्वान्। ऋद्धिः सम्पत् तद्वान्।। 13-50-58 कैरातं किरातवेषधारिणो महादेवस्य सम्बन्धि।। 13-50-59 धरणीमवतीर्येत्यनेनाकाशमार्गेणाष्टावक्रो गच्छतीति गम्यते।। 13-50-72 सप्त इतरदिग्देवताः।। 13-50-75 उत्तराधिष्ठात्री तु देवता मुख्याऽष्टमी सैव जरायुक्ता।। 13-50-77 प्रज्ञाता अत्यन्तं ज्ञानवती। प्रशान्ता निर्जितचिता।। 13-50-82 जुगूह आलिङ्गितवती।। 13-50-84 ब्रह्मन्नकामतोऽन्यास्तीति झ. पाठः। तत्र अकामतोऽनिच्छातः स्वभावत इत्यर्थः। पुरुषतः पुरुषं प्राप्य स्त्रीणां धृतिर्धैर्यमन्या परकीयास्ति।? पुंयोगे स्त्रीणां धृतिः स्वकीया सर्वथा नास्तीत्यर्थः।। 13-50-85 प्रहृष्टः कामुको भव। उपनृह अलिङ्गस्व।। 13-50-96 अनभिज्ञोऽप्रीतिमान्।। 13-50-101 लीलायन्त्यः लीलां रतिमात्मन इच्छन्त्यः दोषांश्च मन्दान्मन्दासुः प्रजापतिरभाषत इति ध. पाठः।। 13-50-102 एकाग्रः स्त्रीदोषाननुसन्दधानः स्त्रियम्प्रति आस्यता तूण्णीं स्थीयताम्। रुचितः रुचिं प्राप्य छन्दः इच्छा भवतीति अभाषत। त्वं रुचिज्ञा मामिच्छसि अहं त्वरुचिज्ञो न त्वां स्फुष्टुमिच्छामीति भावः। एवमपि यत्कार्यं कर्तव्यं तव तन्मे ब्रवीहि।। 13-50-103 द्रक्ष्यसे स्पर्शसुखं ज्ञायसे।। 13-50-106 रूपे विरागिता वैराग्यवती दृष्टिर्नारमत् न रेमे।। 13-50-108 व्यगच्छत्तदहःशेष इति झ.पाठः।।

अनुशासनपर्व-049 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-051