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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-231

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परमेश्वरेण पार्वतींप्रति शुभाशुभकर्मणां मानसिकत्वादिभेदेन त्रैविध्यकथनपूर्वकं तत्तत्फलनिरूपणम्।। 1 ।। तथा मद्योत्पत्तिकारणादिकथनपूर्वकं तत्पानजदोषादिप्रतिपादनम्।। 2 ।।

उमोवाच। 13-231-1x
भगवन्देवदेवेश शूलपाणे वृषध्वज।
श्रुतं मे परमं गुह्यं प्रसादात्ते वरप्रद।।
13-231-1a
13-231-1b
श्रोतुं भूयोऽहमिच्छामि प्रजानां हितकारणात्।
शुभाशुभमिति प्रोक्तं कर्म स्वस्वं समासतः।।
13-231-2a
13-231-2b
तन्मे विस्तरतो ब्रूहि शुभाशुभविधइं प्रति।
अशुभं कीदृशं कर्म प्राणिनो यन्निपातयेत्।।
13-231-3a
13-231-3b
शुभं वापि कथं देव प्रजानामूर्ध्वदं भवेत्।
एतन्मे वद देवेश श्रोतुकामाऽस्मि कीर्तय।।
13-231-4a
13-231-4b
महेश्वर उवाच। 13-231-5x
तदहं ते प्रवक्ष्यामि तत्सर्वं शृणु शोभने।
सुकृतं दुष्कृतं चेति द्विविधं कर्मविस्तरम्।।
13-231-5a
13-231-5b
तयोर्यद्दुष्कृतं कर्म तच्च सञ्जायते त्रिधा।
मनसा कर्मणा वाचा बुद्धिमोहसमुद्भवात्।।
13-231-6a
13-231-6b
मनःपूर्वं तु वा कर्म वर्तते वाङ्मयं ततः।
जायते वै क्रियायोगमनु चेष्टाक्रमः प्रिये।।
13-231-7a
13-231-7b
अभिद्रोहोऽभ्यसूया च परार्थेषु च वै स्पृहा।
शुभाशुभानां मर्त्यानां वर्तनं परिवारितम्।।
13-231-8a
13-231-8b
धर्मकार्ये यदाऽश्रद्धा पापकर्मणि हर्षणम्।
एवमाद्यशुभं कर्म मनसा पापमुच्यते।।
13-231-9a
13-231-9b
अनृतं यच्च परुषमबद्धवचनं कटु।
असत्यं परिवादश्च पापमेतत्तु वाङ्मयम्।।
13-231-10a
13-231-10b
अगम्यागमनं चैव परदारनिषेवणम्।
वधबन्धपरिक्लेशैः परप्राणोपतापनम्।।
13-231-11a
13-231-11b
चौर्यं परेषां द्रव्याणां हरणं नाशनं तथा।
अभक्ष्यभक्षणं चैव व्यसनेष्वविषङ्गता।।
13-231-12a
13-231-12b
दर्पात्स्तम्भाभिमानाच्च परेषामुपतापनम्।
अकार्याणां च करणमशौचं पानसेवनम्।।
13-231-13a
13-231-13b
दौःशील्यं पापसम्पर्के साहाय्यं पापकर्मणि।
अधर्म्यमयशस्यं च कार्यं तस्य निषेवणम्।
एवमाद्यशुभं चान्यच्छारीरं पापमुच्यते।।
13-231-14a
13-231-14b
13-231-14c
मानसाद्वाङ्मयं पापं विशिष्टमिति लक्ष्यते।
वाङ्मयादपि वै पापाच्छारीरं गण्यते बहु।।
13-231-15a
13-231-15b
एवं पापयुतं कर्म त्रिविधं पातयेन्नरम्।
परापकारजननमत्यन्तं पातकं स्मृतम्।।
13-231-16a
13-231-16b
त्रिविधं तत्कृतं पापं कर्तारं पापकं नयेत्।
पातकं चापि यत्कर्म कर्मणा बुद्धिपूर्वकम्।।
13-231-17a
13-231-17b
सापदेशमवश्यं तत्कर्तव्यमिति तत्कृतम्।
कथञ्चित्तत्कृतमपि कर्ता तेन स लिप्यते।।
13-231-18a
13-231-18b
अवश्यं पापदेशेन प्रतिहृन्येत कारणम्।। 13-231-19a
उमोवाच। 13-231-20x
भगवन्पापकं कर्म यथा कृत्वा न लिप्यते।। 13-231-20a
महेश्वर उवाच। 13-231-21x
यो नरोऽनपराधी च स्वात्मप्राणस्य रक्षणात्।
शत्रुमुद्यतशस्त्रं वा पूर्वं तेन हतोपि वा।
प्रतिहन्यान्नरो हिंस्यान्न स पापेन लिप्यते।।
13-231-21a
13-231-21b
13-231-21b
चोरादधिकसंत्रस्तस्तत्प्रतीकारचेष्टया।
यः प्रजघ्नन्नरो हन्यान्न स पापेन लिप्यते।।
13-231-22a
13-231-22b
ग्रामार्थं भर्तृपिण्डार्थं दीनानुग्रहकारणात्।
वधबन्धपरिक्लेशान्कुर्वन्पापात्प्रमुच्यते।।
13-231-23a
13-231-23b
दुर्भिक्षे चात्मवृत्त्यर्थमेकायतनगस्तथा।
अकार्यं वाऽप्यभक्ष्यं वा कृत्वा पपान्न लिप्यते
13-231-24a
13-231-24b
विधिरेष गृहस्थानां प्रायेणैवोपदिश्यते।
अवाच्यं वाऽप्यकार्यं वा देशकालवशेन तु।।
13-231-25a
13-231-25b
बुद्धिपूर्व नरः कुर्वस्तत्प्रयोजनमात्रया।
किञ्चिद्वा लिप्यते पापैरथवा न च लिप्यते।।
13-231-26a
13-231-26b
एवं देवि विजानीहि नास्ति तत्र विचारणा।। 13-231-27a
उमोवाच। 13-231-28x
भगवन्पानदोषांश्च पेयापेयत्वकारणम्।
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तन्मे वद महेश्वर।।
13-231-28a
13-231-28b
महेश्वर उवाच। 13-231-29x
हन्त ते कथयिष्यामि पानोत्पत्तिं शुचिस्मिते।। 13-231-29a
पुरा सर्वेऽभवन्मर्त्या बुद्धिमन्तो नयानुगाः।
शुचयश्च शुभाचाराः सर्वे चोन्मनसः प्रिये।।
13-231-30a
13-231-30b
एवंभूते तदा लोके प्रेष्यकृन्न परस्परम्।
प्रेष्याबावान्मनुष्याणां कर्मारम्भो ननाश ह।।
13-231-31a
13-231-31b
उभयोर्लोकयोर्नाशं दृष्ट्वा कर्मक्षयात्प्रभुः।
यज्ञकर्म कथं लोके वर्तेतेति पितामहः।।
13-231-32a
13-231-32b
आज्ञापयत्सुरान्देवि मोहयस्वेति मानुषान्।
तमसः सारमुद्धृत्य पानं बुद्धिप्रणाशनम्इ।
न्यपातयन्मनुष्येषु पापदोषावहं प्रिये।।
13-231-33a
13-231-33b
13-231-33c
तदाप्रभृति तत्पानान्मुमुहुर्मानवा भुवि।
कार्याकार्यमजानन्तो वाच्यावाच्यं गुणागुणम्।।
13-231-34a
13-231-34b
केचिद्धसन्ति तत्पीत्वा प्रवदन्ति तथा परे।
नृत्यन्ति मुदिताः केचिद्गायन्ति शुभाशुभान्।
13-231-35a
13-231-35b
कलिं ते कुर्वतेऽभीष्टं प्रहरन्ति परस्परम्।
क्वचिद्धावन्ति सहसा प्रस्खलन्ति पतन्ति च।।
13-231-36a
13-231-36b
अयुक्तं बहु भाषन्ते यत्र क्वचन शोभने।
नग्ना विक्षिप्य गात्राणि नष्टज्ञाना इवासते।।
13-231-37a
13-231-37b
एवं बहुविधान्भावान्कुर्वन्ति भ्रान्तचेतनाः।
ये पिबन्ति महामोहं पानं पापयुता नराः।।
13-231-38a
13-231-38b
धृतिं लज्जां च बुद्धिं च पानं पीतं प्रणाशयेत्।
तस्मान्नराः सम्भवन्ति निर्लज्जा निरपत्रपाः।।
13-231-39a
13-231-39b
बुद्धिसत्वैः परिक्षीणास्तेजोहीना मलान्विताः।
पीत्वापीत्वा तृषायुक्ताः पानपाः सम्भवन्ति च।।
13-231-40a
13-231-40b
पानकामाः पानकथाः पानकालाभिकाङ्क्षिणः।
पानार्थं कर्मवश्यास्ते सम्भवन्ति नराधमाः।।
13-231-41a
13-231-41b
पानकामास्तृषायोगाद्बुद्धिसत्वपरिक्षयात्।
पानदानां प्रेष्यकाराः पानपाः सहसाऽभवन्।।
13-231-42a
13-231-42b
तदाप्रभृति वै लोके दीनैः पानवशैर्नरैः।
कारयन्ति च कर्माणि बुद्धिमन्तस्तु पानपाः।।
13-231-43a
13-231-43b
कारुत्वमथ दासत्वं प्रेष्यतामेत्य पानपाः।
सर्वकर्मकराश्चासन्पशुवद्रज्जुबन्धिताः।।
13-231-44a
13-231-44b
पानपस्तु सुरां पीत्वा तदा बुद्धिप्रणाशनात्।
कार्याकार्यस्य चाज्ञानाद्यथेष्टकरणात्स्वयम्।
विदुषामविधेयत्वात्पापमेवाभिपद्यते।।
13-231-45a
13-231-45b
13-231-45c
परिभूतो भवेल्लोके मद्यपो मित्रभेदकः।
सर्वकालमशुद्धिं च सर्वभक्षस्तथा भवेत्।।
13-231-46a
13-231-46b
विनष्टो ज्ञातिविद्वद्भ्यः सततं कलिभावगः।
परुषं कटुकं घोरं वाक्यं वदति सर्वशः।।
13-231-47a
13-231-47b
गुरूनतिवदेन्मत्तः परदारान्प्रधर्षयेत्।
संविदं कुरुते शौण्डेर्न शृणोति हितं क्वचित्।।
13-231-48a
13-231-48b
एवं बहुविधा दोषाः पानपे सन्ति शोभने।
केवलं नरकं यान्ति नास्ति तत्र विचारणा।
तस्मात्तद्वर्जितं सद्भिः पानमात्महितैषिभिः।।
13-231-49a
13-231-49b
13-231-49c
यदि पानं न वर्जेरन्सन्तश्चारित्रकारणात्।
भवेदेतज्जगत्सर्वममर्यादं च निष्क्रियम्।।
13-231-50a
13-231-50b
तस्माद्बुद्धेर्हि रक्षार्थं सद्भिः पानं विवर्जितम्।
इति ते दुष्कृतं सर्वं कथितं त्रिविधं प्रिये।।
13-231-51a
13-231-51b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि एकत्रिंशदधिकद्विशततमोऽद्यायः।। 231 ।।

13-231-47 विनष्टो ज्ञानविद्वद्भ्य इति ङ.थ.पाठः।।

अनुशासनपर्व-230 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-232