सामग्री पर जाएँ

महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-161

विकिस्रोतः तः
← अनुशासनपर्व-160 महाभारतम्
त्रतयोदशपर्व
महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-161
वेदव्यासः
अनुशासनपर्व-162 →
  1. 001
  2. 002
  3. 003
  4. 004
  5. 005
  6. 006
  7. 007
  8. 008
  9. 009
  10. 010
  11. 011
  12. 012
  13. 013
  14. 014
  15. 015
  16. 016
  17. 017
  18. 018
  19. 019
  20. 020
  21. 021
  22. 022
  23. 023
  24. 024
  25. 025
  26. 026
  27. 027
  28. 028
  29. 029
  30. 030
  31. 031
  32. 032
  33. 033
  34. 034
  35. 035
  36. 036
  37. 037
  38. 038
  39. 039
  40. 040
  41. 041
  42. 042
  43. 043
  44. 044
  45. 045
  46. 046
  47. 047
  48. 048
  49. 049
  50. 050
  51. 051
  52. 052
  53. 053
  54. 054
  55. 055
  56. 056
  57. 057
  58. 058
  59. 059
  60. 060
  61. 061
  62. 062
  63. 063
  64. 064
  65. 065
  66. 066
  67. 067
  68. 068
  69. 069
  70. 070
  71. 071
  72. 072
  73. 073
  74. 074
  75. 075
  76. 076
  77. 077
  78. 078
  79. 079
  80. 080
  81. 081
  82. 082
  83. 083
  84. 084
  85. 085
  86. 086
  87. 087
  88. 088
  89. 089
  90. 090
  91. 091
  92. 092
  93. 093
  94. 094
  95. 095
  96. 096
  97. 097
  98. 098
  99. 099
  100. 100
  101. 101
  102. 102
  103. 103
  104. 104
  105. 105
  106. 106
  107. 107
  108. 108
  109. 109
  110. 110
  111. 111
  112. 112
  113. 113
  114. 114
  115. 115
  116. 116
  117. 117
  118. 118
  119. 119
  120. 120
  121. 121
  122. 122
  123. 123
  124. 124
  125. 125
  126. 126
  127. 127
  128. 128
  129. 129
  130. 130
  131. 131
  132. 132
  133. 133
  134. 134
  135. 135
  136. 136
  137. 137
  138. 138
  139. 139
  140. 140
  141. 141
  142. 142
  143. 143
  144. 144
  145. 145
  146. 146
  147. 147
  148. 148
  149. 149
  150. 150
  151. 151
  152. 152
  153. 153
  154. 154
  155. 155
  156. 156
  157. 157
  158. 158
  159. 159
  160. 160
  161. 161
  162. 162
  163. 163
  164. 164
  165. 165
  166. 166
  167. 167
  168. 168
  169. 169
  170. 170
  171. 171
  172. 172
  173. 173
  174. 174
  175. 175
  176. 176
  177. 177
  178. 178
  179. 179
  180. 180
  181. 181
  182. 182
  183. 183
  184. 184
  185. 185
  186. 186
  187. 187
  188. 188
  189. 189
  190. 190
  191. 191
  192. 192
  193. 193
  194. 194
  195. 195
  196. 196
  197. 197
  198. 198
  199. 199
  200. 200
  201. 201
  202. 202
  203. 203
  204. 204
  205. 205
  206. 206
  207. 207
  208. 208
  209. 209
  210. 210
  211. 211
  212. 212
  213. 213
  214. 214
  215. 215
  216. 216
  217. 217
  218. 218
  219. 219
  220. 220
  221. 221
  222. 222
  223. 223
  224. 224
  225. 225
  226. 226
  227. 227
  228. 228
  229. 229
  230. 230
  231. 231
  232. 232
  233. 233
  234. 234
  235. 235
  236. 236
  237. 237
  238. 238
  239. 239
  240. 240
  241. 241
  242. 242
  243. 243
  244. 244
  245. 245
  246. 246
  247. 247
  248. 248
  249. 249
  250. 250
  251. 251
  252. 252
  253. 253
  254. 254
  255. 255
  256. 256
  257. 257
  258. 258
  259. 259
  260. 260
  261. 261
  262. 262
  263. 263
  264. 264
  265. 265
  266. 266
  267. 267
  268. 268
  269. 269
  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274
युधिष्ठिर उवाच। 13-161-1x
शतायुरुक्तः पुरुषः शतवीर्यश्चि वैदिके।
कस्मान्म्रियन्ते पुरुषा बाला अपि पितामह।।
13-161-1a
13-161-1b
आयुष्मान्केन भवति अल्पायुर्वाऽपि मानवः।
केन वा लभते कीर्तिं केन वा लभते श्रियम्।।
13-161-2a
13-161-2b
तपसा ब्रह्मचर्येण जपैर्होमैस्तथा परैः।
जन्मना यदि वाऽचारात्तन्मे ब्रूहि पितामह।।
13-161-3a
13-161-3b
भीष्म उवाच। 13-161-4x
अत्र तेऽहं प्रवक्ष्यामि यन्मां त्वमनुपृच्छसि।
अल्पायुर्येन भवति दीर्घायुर्येनि मानवः।।
13-161-4a
13-161-4b
येन वा लभते कीर्तिं येन वा लभते श्रियम्।
यथा च वर्तयन्पुरुषः श्रेयसा सम्प्रयुज्यते।।
13-161-5a
13-161-5b
आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम्।
आचारात्कीर्तिमाप्नोति पुरुषः प्रेत्य चेह च।।
13-161-6a
13-161-6b
दुराचारो हि पुरुषो नेहायुर्विन्दते महत्।
त्रसन्ति चास्य भूतानि तथा परिभवन्ति च।।
13-161-7a
13-161-7b
तस्मात्कुर्यादिहाचारं य इच्छेद्भूतिमात्मनः।
अपि पापशरीरस्य आचारो हन्त्यलक्षणम्।।
13-161-8a
13-161-8b
आचारलक्षणो धर्मः सन्तश्चारित्रलक्षणाः।
साधूनां च यथावृत्तमेतदाचारलक्षणम्।।
13-161-9a
13-161-9b
अप्यदृष्टं श्रवादेव पुरुषं धर्मचारिणम्।
स्वानि कर्माणि कुर्वाणं तं जनाः कुर्वते प्रियम्।।
13-161-10a
13-161-10b
ये नास्तिका निष्क्रियाश्च गुरुशास्त्रातिलङ्घिनः।
अधर्मज्ञा दुराचारास्ते भवन्ति गतायुषः।।
13-161-11a
13-161-11b
विशीला भिन्नमर्यादा नित्यं सङ्कीर्णमैथुनाः।
अल्पायुषो भवन्तीह नरा निरयगामिनः।।
13-161-12a
13-161-12b
सर्वलक्षणहीनोऽपि समुदाचारवान्नरः।
श्रद्दधानोऽनसूयुश्च शतं वर्षाणि जीवति।।
13-161-13a
13-161-13b
अक्रोधनः सत्यवादी भूतानामविहिंसकः।
अनसूयुरजिह्मश्च शतं वर्षाणि जीवति।।
13-161-14a
13-161-14b
लोष्ठमर्दी तृणच्छेदी नखखादी च यो नरः।
नित्योच्छिष्टः सङ्कुसुको नेहायुर्विन्दते महत्।।
13-161-15a
13-161-15b
ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।
उत्थाय चोपतिष्ठेत पूर्वां सन्ध्यां कृताञ्जलिः।
एवमेवापरां सन्ध्यां समुपासीत वाग्यतः।।
13-161-16a
13-161-16b
13-161-16c
नेक्षेतादित्यमुद्यन्तं नास्तं यन्तं कदाचन।
नोपसृष्टं न वारिस्थं न मध्यं नभसो गतम्।।
13-161-17a
13-161-17b
ऋषयो नित्यसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुवन्।। 13-161-18a
`सदर्भपाणिस्तत्कुर्वन्वाग्यतस्तन्मनाः शुचिः।'
तस्मात्तिष्ठेत्सदा पूर्वां पश्चिमां चैव वाग्यतः।।
13-161-19a
13-161-19b
ये न पूर्वामुपासन्ते द्विजाः संध्यां न पश्चिमाम्।
सर्वांस्तान्धार्मिको राजा शूद्रकर्माणि कारयेत्।।
13-161-20a
13-161-20b
परदारा न गन्तव्याः सर्ववर्णेषु कर्हिचित्।
नहीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते।।
13-161-21a
13-161-21b
यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्।
तादृशं विद्यते किञ्चिदनायुष्यं नृणामिह।।
13-161-22a
13-161-22b
यावन्तो रोमकूपाः स्युः स्त्रीणां गात्रेषु निर्मिताः।
तावद्वर्षसहस्राणि नरकं पर्युपासते।।
13-161-23a
13-161-23b
मैत्रं प्रसाधनं स्नानमञ्जनं दन्तधावनम्।
पूर्वाह्ण एव कुर्वीत देवतानां च पूजनम्।।
13-161-24a
13-161-24b
पुरीषमूत्रे नोदीक्षेन्नाधितिष्ठेत्कदाचन।
नातिकल्यं नातिसायं न च मध्यंदिने स्थिते।
नाज्ञातैः सह गच्छेत नैको न वृषलैः सह।।
13-161-25a
13-161-25b
13-161-25c
पन्था देयो ब्राह्मणाय गोभ्यो राजभ्य एव च।
वृद्धाय भारतप्ताय गर्भिण्यै दुर्बलाय च।।
13-161-26a
13-161-26b
प्रदक्षिणं च कुर्वीत परिज्ञातान्वनस्पतीन्।
चतुष्पदान्मङ्गलांश्च मान्यान्वृद्धान्द्विजानपि।।
13-161-27a
13-161-27b
मध्यंदिने निशाकाले अर्धरात्रे च सर्वदा।
चतुष्पथं न सेवेत उभे सन्ध्ये तथैव च।।
13-161-28a
13-161-28b
उपानहौ न वस्त्रं च धृतमन्यैर्न धारयेत्।
ब्रह्मचारी च नित्यं स्यात्पादं पादेन नाक्रमेत्।।
13-161-29a
13-161-29b
अमावास्यां पौर्णमास्यां चतुर्दश्यां च जन्मनि।
अष्टम्यामथ द्वादश्यां ब्रह्मचारी सदा भवेत्।।
13-161-30a
13-161-30b
वृथा मांसं न खादेनि पृष्ठमांसं तथैव च।
आक्रोशं परिवादं च पैशुन्यं च विवर्जयेत्।।
13-161-31a
13-161-31b
नारुन्तुदः स्यान्न नृशंसवादी
न हीनतो वरमभ्याददीत।
ययाऽस्य वाचा पर उद्विजेत
न तां वदेद्रुशतीं पापलोक्याम्।।
13-161-32a
13-161-32b
13-161-32c
13-161-32c
अतिवादबाणा मुखतो निःसरन्ति
यैराहतः शोचति रात्र्यहानि।
परस्य वा मर्मसु ये पतन्ति
तान्पण्डितो नावसृजेत्परेषु।।
13-161-33a
13-161-33b
13-161-33c
13-161-33d
संरोहत्यग्निना दग्धं वनं परशुना हतम्।
वाचा दुरुक्तं बीभत्सं न संरोहति वाक्क्षतम्।।
13-161-34a
13-161-34b
कर्णिनालीकनाराचान्निर्हरन्ति शरीरतः।
वाक्शल्यस्तु न निर्हर्तुं शक्यो हृदिशयो हि सः।।
13-161-35a
13-161-35b
हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोधिकान्।
रूपद्रविणहीनांश्च सत्यहीनांश्च नाक्षिपेत्।।
13-161-36a
13-161-36b
नास्तिक्यं वेदनिन्दां च परनिन्दां च कुत्सनम्।
द्वेषस्तम्भाभिमानं च तैक्ष्ण्यं च परिवर्जयेत्।।
13-161-37a
13-161-37b
परस्य दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धो नैनं निपातयेत्।
अन्यत्रि पुत्राच्छिष्याच्च शिक्षार्थं ताडनं स्मृतं।।
13-161-38a
13-161-38b
न ब्राह्म्णान्परिवदेन्नक्षत्राणि न निर्दिशेत्।
तिथिं पक्षस्य न ब्रूयात्तथाऽस्यायुर्न रिष्यते।।
13-161-39a
13-161-39b
`अमावास्यामृते नित्यं दन्तधावनमाचरेत्।
इतिहासपुराणानि दानं वेदं च नित्यशः।
गायत्रीमननं नित्यं कुर्यात्सन्ध्यां समाहितः।।'
13-161-40a
13-161-40b
13-161-40c
कृत्वा मूत्रपुरीषे तु रथ्यामाक्रम्य वा पुनः।
पादप्रक्षालनं कुर्यात्स्वाध्याये भोजने तथा।।
13-161-41a
13-161-41b
त्रीणि देवाः पवित्राणि ब्राह्मणानामकल्पयन्।
अदृष्टमद्भिर्निर्णिक्तं यच्च वाचा प्रशस्यते।।
13-161-42a
13-161-42b
यावकं कृसरं मांसं शष्कुलीं पायसं तथा।
आत्मार्थंतं न प्रकर्तव्यं देवार्थं तु प्रकल्पयेत्।।
13-161-43a
13-161-43b
नित्यमग्निं परिचरेद्भिक्षां दद्याच्च नित्यदा।
दन्तकाष्ठे च सन्ध्यायां मलोत्सर्गे च मौनगः।।
13-161-44a
13-161-44b
न चाभ्युदितसायी स्यात्प्रायश्चित्ती तथा भवेत्।
मातापितरमुत्थाय पूर्वमेवाभिवादयेत्।
आचार्यमथवाऽप्यन्तं तथाऽऽयुर्विदन्ते महत्।।
13-161-45a
13-161-45b
13-161-45c
वर्जयेद्दन्तकाष्ठानि वर्जनीयानि नित्यशः।
भक्षयेच्छास्त्रदृष्टानि पर्वस्वपि विवर्जयेत्।
उदङ्मुखश्च सततं शौचं कुर्यात्समाहितः।।
13-161-46a
13-161-46b
13-161-46c
अकृत्वा देवपूजां च नाचरेद्दन्तधावनम्।
अकृत्वा देवपूजां च नान्यं गच्छेत्कदाचन।
अन्यत्र तु गुरुं वृद्धं धार्मिकं वा विचक्षणम्।।
13-161-47a
13-161-47b
13-161-47c
अवलोक्यो न चादर्शो मलिनो बुद्धिमत्तरैः।
न चाज्ञातां स्त्रियं गच्छेद्गर्भिणीं वा कदाचन।।
13-161-48a
13-161-48b
दारसङ्ग्रहणात्पूर्वं नाचरेन्मैथुनं बुधः।
अन्यथा त्ववकीर्णः स्यात्प्रायश्चित्तं सदाऽऽचरेत्।।
13-161-49a
13-161-49b
नीदीक्षेत्परदारांश्च रहस्येकासनो भवेत्।
इन्द्रियाणि सदा यच्छेत्स्वग्ने शुद्धमना भवेत्।।
13-161-50a
13-161-50b
उदक्शिरा न स्वपेत तथा प्रत्यक्शिरा न च।
प्राक्शिरास्तु स्वपेद्विद्वांस्तथा वै दक्षिणाशिराः।।
13-161-51a
13-161-51b
न भग्ने नावशीर्णो च शयने प्रस्वपीत च।
नान्तर्धानेन संयुक्ते न च तिर्यक्कदाचन।।
13-161-52a
13-161-52b
न चापि गच्छेत्कार्येण समयाद्वाऽपि नास्तिकैः।
आसनं तु पदाऽऽकृष्य न प्रसज्जेत्तथा नरः।।
13-161-53a
13-161-53b
न नग्नः कर्हिचित्स्नायान्न निशायां कदाचन।
स्नात्वा च नावमृज्येत गात्राणि सुविचक्षणः।
न निशायां पुनः स्नायादापद्यग्निद्विजान्तिके।।
13-161-54a
13-161-54b
13-161-54c
न चानुलिम्पेदस्नात्वा वासश्चापि न निर्धुनेत्।
आर्द्र एव तु वासांसि नित्यं सेवेत मानवः।।
13-161-55a
13-161-55b
स्रजश्च नावकृष्येत न बहिर्धारयीत च।
उदक्यया च सम्भाषां न कुर्वीत कदाचन।।
13-161-56a
13-161-56b
नोत्सृजेत पुरिषं च क्षेत्रे मार्गस्य चान्तिके।
उभे मूत्रपुरीषे तु नाप्सु कुर्यात्कदाचन।।
13-161-57a
13-161-57b
देवालयेऽथ गोवृन्दे चैत्ये सस्येषु विश्रमे।
भोक्ष्यं भुक्त्वा क्षुतेऽध्वानं गत्वा मूत्रपुरीषयोः।
द्विराचामेद्यथान्यायं हृद्गतं तु पिबन्नपः।।
13-161-58a
13-161-58b
13-161-58c
अन्नं बुभुक्षमाणस्तु त्रिमुखेन स्पृशेदपः।
भुक्त्वा चान्नं तथैव त्रिर्द्विः पुनः परिमार्जयेत्।।
13-161-59a
13-161-59b
प्राङ्मुखो नित्यमश्नीयाद्वाग्यतोऽन्नमकुत्सयन्।
प्रस्कन्दयेच्च मनसा भुक्त्वा चाग्निमुपस्पृशेत्।।
13-161-60a
13-161-60b
आयुष्यं प्राङ्मुखो भुङ्क्ते यशस्यं दक्षिणामुखः।
धन्यं पश्चान्मुखो भुङ्क्त ऋतं भुङ्क्त उदङ्मुखः।।
13-161-61a
13-161-61b
`अग्रासनो जितक्रोधो बालपूर्वस्त्वलङ्कृतः।
घृताहुतिविशुद्धान्नं हुताग्निश्च क्षिपन्ग्रसेत्।।'
13-161-62a
13-161-62b
अग्निमालभ्य तोयेन सर्वान्प्राणानुपस्पृशेत्।
गात्राणि चैव सर्वाणि नाभिं पाणितले तथा।।
13-161-63a
13-161-63b
नाधितिष्ठेत्तुषं जातु केशभस्मकपालिकाः।
अन्यस्य चाप्यवस्नातं दूरतः परिवर्जयेत्।।
13-161-64a
13-161-64b
शान्तिहोमांश्च कुर्वीत सावित्राणि च धारयेत्।
निषष्णश्चापि खादेन न तु गच्छन्कदाचन।।
13-161-65a
13-161-65b
मूत्रं नोत्तिष्ठता कार्यं न भस्मनि न गोव्रजे।
आर्द्रपादस्तु भुञ्जीत नार्द्रपादस्तु संविशेत्।।
13-161-66a
13-161-66b
आर्द्रपादस्तु भुञ्जानो वर्षाणां जीवते शतम्।
त्रीणि तेजांसि नोच्छिष्ट आलभेत कदाचन।
अग्निं गां ब्राह्मणं चैव तता ह्यायुर्न रिष्यते।।
13-161-67a
13-161-67b
13-161-67c
त्रीणि ज्योतींषि नोच्छिष्ट उदीक्षेत कदाचन।
सूर्याचन्द्रमसौ चैव नक्षत्राणि च सर्वशः।।
13-161-68a
13-161-68b
ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रमन्ति यूनः स्थविर आगते।
प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते।।
13-161-69a
13-161-69b
अभिवादयीत वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वयम्।
कृताञ्जलिरुपासीत गच्छन्तं पृष्ठतोऽन्वियात्।।
13-161-70a
13-161-70b
न चासीतासने भिन्ने भिन्नकांस्यं च वर्जयेत्।
नैकवस्त्रेण भोक्तव्यं न नग्नः स्नातुमर्हति।।
13-161-71a
13-161-71b
स्पप्तव्यं नैव नग्नेन न चोच्छिष्टोपि संविशेत्।
उच्छिष्टो न स्पृशेच्छीर्षं सर्वे प्राणास्तदाश्रयाः।।
13-161-72a
13-161-72b
केशग्रहं प्रहारांश्च सिरस्येतान्विवर्जयेत्।
न संहाताभ्यां पाणिभ्यां कण्डूयेदात्मनः शिरः।
न चाभीक्ष्णं शिरःस्नायात्तथा स्यायुर्न रिष्यते।।
13-161-73a
13-161-73b
13-161-73c
शिरःस्नातस्तु तैलैश्च नाङ्गं किञ्चिदपि स्पृशेत्।
तिलपिष्टं न चाश्नीयाद्गतसर्वरसं तथा।।
13-161-74a
13-161-74b
नाध्यापयेत्तथोच्छिष्टो नाधीयीत कदाचन।
वाते च पूतिगन्धे च मनसाऽपि न चिन्तयेत्।।
13-161-75a
13-161-75b
अत्र गाथा यमोद्गीताः कीर्तयन्ति पुराविदः।
आयुरस्य निकृन्तामि प्रज्ञामस्याददे तथा।।
13-161-76a
13-161-76b
उच्छिष्टो यः प्राद्रवति स्वाध्यायं चाधिगच्छति।
यश्चानध्यायकालेऽपि मोहादभ्यस्यति द्विजः।।
13-161-77a
13-161-77b
तस्य वेदः प्रणश्येत आयुश्चि परिहीयते।
तस्माद्युक्तो ह्यनध्याये नाधीयीत कदाचन।।
13-161-78a
13-161-78b
प्रत्यादित्यं प्रत्यनलं प्रतिगां च प्रतिद्विजान्।
ये मेहन्ति च पन्थानं ते भवन्ति गतायुषः।।
13-161-79a
13-161-79b
उभे मूत्रपुरीषे तु दिवा कुर्यादुदङ्मुखः।
दक्षिणाभिमुखो रात्रौ तथा हन्युर्न रिष्यते।।
13-161-80a
13-161-80b
त्रीन्कृशान्नावजानीयाद्दीर्घमायुर्जिजीविषु।
ब्राह्मणं क्षत्रियं सर्पं सर्वे ह्याशीविषास्त्रयः।।
13-161-81a
13-161-81b
दहत्याशीविषः क्रुद्धो यावत्पश्यति चक्षुषा।
क्षत्रियोपि दहेत्क्रुद्धो यावत्स्पृशति तेजसा।।
13-161-82a
13-161-82b
ब्राह्म्णिस्तु कुलं हन्याद्ध्यानेनावेक्षितेन च।
तस्मादेतत्त्रयं यत्नादुपसेवेत पण्डितः।।
13-161-83a
13-161-83b
गुरुणा वैरनिर्बन्धो न कर्तव्यः कदाचन।
अनुमान्यः प्रसाद्यश्च गुरुः क्रुद्धो युदिष्ठिर।।
13-161-84a
13-161-84b
सम्यङ्मिथ्याप्रवृत्तेऽपि वर्तितव्यं गुराविह।
गुरुनिन्दा दहत्यायुर्मनुष्याणां न संशयः।।
13-161-85a
13-161-85b
दूरादावसथान्मूत्रं दूरात्पादावसेचनम्।
उच्छिष्टोत्सर्जनं चैव दूरे कार्यं हितैषिणा।।
13-161-86a
13-161-86b
रक्तमाल्यं न धार्यं स्याच्छुक्लं धार्यं तु पण्डितैः।
वर्जयित्वा तु कमलं तथा कुवलयं प्रभो।।
13-161-87a
13-161-87b
रक्तं शिरसि धार्यं तु तथा वानेयमित्यपि।
काञ्चनीयाऽपि माला या न सा दुष्यति कर्हिचित्।।
13-161-88a
13-161-88b
स्नातस्य वर्णकं नित्यमार्द्रं दद्याद्विशांपते।। 13-161-89a
विपर्ययं न कुर्वीत वाससो बुद्धिमान्नरः।
तथा नान्यधृतं धार्यं न चातिविकृतं तथा।।
13-161-90a
13-161-90b
अन्यदेव भवेद्वासः शयनीये नरोत्तम।
अन्यद्रथ्यासु देवानामर्चायामन्यदेव हि।।
13-161-91a
13-161-91b
प्रियङ्गुचन्दनाभ्यां च बिल्वेन स्थगरेण च।
पृथगेवानुलिम्पेत केसरेण च बुद्धिमान्।।
13-161-92a
13-161-92b
उपवासं च कुर्वीत स्नातः शुचिरलङ्कृतः।
`नोपवासं वृथा कुर्याद्धनं नापहरेदिह।।'
13-161-93a
13-161-93b
पर्वकालेषु सर्वेषु ब्रह्मचारी सदा भवेत्।
समानमेकपात्रे तु भुञ्जेन्नान्नं जनेश्वर।।
13-161-94a
13-161-94b
नावलीढमवज्ञातमाघ्रातुं भक्षयेदपि।
तथा नोद्धृतसाराणि प्रेक्षतामप्रदाय च।।
13-161-95a
13-161-95b
नासंनिविष्टो मेधावी नाशुचिर्नि च सत्यु च।
प्रतिषिद्धान्नं धर्मेषु भक्ष्यान्भुञ्जीत पृष्ठतः।।
13-161-96a
13-161-96b
पिप्पलं च वटं चैव शणशाकं तथैव च।
उदुम्बरं न खादेश्च भवार्थी पुरुषो नृप।।
13-161-97a
13-161-97b
आजं गव्यं च यन्मांसं मायूरं चैव वर्जयेत्।
वर्जयेच्छुष्कमांसं च तथा पर्युषितं च यत्।।
13-161-98a
13-161-98b
न पाणौ लवणं विद्वान्प्राश्नीयान्न च रात्रिषु।
दधिसक्तून्न दोषायां पिबेन्मधु च नित्यशः।।
13-161-99a
13-161-99b
सायं प्रातश्च भुञ्जीत नान्तराले समाहितः।
वालेन तु न भुञ्जीत परश्राद्धं तथैव च।।
13-161-100a
13-161-100b
वाग्यतो नैकवस्त्रश्च नासंविष्टः कदाचन।
भूमौ सदैव नाश्नीयान्नाशौचं न च शब्दवत्।।
13-161-101a
13-161-101b
तोयपूर्वं प्रदायान्नमतिथिभ्यो विशाम्पते।
पश्चाद्भुञ्जीत मेधावी न चाप्यन्यमना नरः।।
13-161-102a
13-161-102b
समानमेकपङ्क्त्यां तु भोज्यमन्नं नरेश्वर।
विषं हालाहलं भुङ्क्ते योऽप्रदाय सुहृज्जने।।
13-161-103a
13-161-103b
पानीयं पायसं सक्तून्दधि सर्पिर्मधून्यपि।
निरस्य शेषमन्येषां न प्रदेयं तु कस्यचित्।।
13-161-104a
13-161-104b
भुञ्जानो मनुजव्याघ्र नैव शङ्कां समाचरेत्।
दधि चाप्यनु पानं वै न कर्तव्यं भवार्थिना।।
13-161-105a
13-161-105b
आचम्य चैकहस्तेन परिस्राव्य तथोदकम्।
अङ्गुष्ठं चरणस्याथ दक्षिणस्यावसेचयेत्।।
13-161-106a
13-161-106b
पाणिं मूर्ध्नि समाधाय स्पृष्ट्वा चाग्निं समाहितः।
ज्ञातिश्रैष्ठ्यमवाप्नोति प्रयोगकुशलो नरः।।
13-161-107a
13-161-107b
अद्भिः प्राणान्समालभ्य नाभिं पाणितले तथा।
स्पृशंश्चैव प्रतिष्ठेत न चाप्यार्द्रेण पाणिना।।
13-161-108a
13-161-108b
अङ्गुष्ठमूलस्य तले ब्राह्मं तीर्तमुदाहृतम्।
कनिष्ठिकायाः पश्चात्तु देवतीर्थमिहोच्यते।।
13-161-109a
13-161-109b
अङ्गुष्ठस्य च यन्मध्यं प्रदेशिन्याश्च भारत।
तेन पित्र्याणि कुर्वीत स्पृष्ट्वाऽऽपो न्यायतः सदा।।
13-161-110a
13-161-110b
परापवादं न ब्रूयान्नाप्रियं च कदाचन।
न मन्युः कश्चिदुत्पाद्यः पुरुषेणि भवार्थिना।।
13-161-111a
13-161-111b
एतितैस्तु कथां नेच्छेद्दर्शनं च विवर्जयेत्।
संसर्गं च न गच्छेत तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।।
13-161-112a
13-161-112b
न दिवा मैथुनं गच्छेन्न कन्यां न च बन्धकीम्।
न चास्नातां स्त्रियं गच्छेत्तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।।
13-161-113a
13-161-113b
स्वेस्वे तीर्थे समाचम्य कार्ये समुपकल्पिते।
त्रिः पीत्वाऽऽपो द्विः प्रमृज्य कृतशौचो भवेन्नरः।।
13-161-114a
13-161-114b
इन्द्रियाणि सकृत्स्पृश्य त्रिरभ्युक्ष्य च मानवः।
कुर्वीत पित्र्यं दैवं च वेददृष्टेन कर्मणा।।
13-161-115a
13-161-115b
ब्राह्मणार्थे च यच्छौचं तच्च मे शृणु कौरव।
प्रवृत्तं चाहितं चोक्त्वा बहुभोजनवत्तदा।।
13-161-116a
13-161-116b
सर्वशौचेषु ब्राह्मेण तीर्थेन समुपस्पृशेत्।
निष्ठीव्य तु तथा क्षुत्वा स्पृश्यापो हि शुचिर्भवेत्।।
13-161-117a
13-161-117b
निष्ठिवने मैथुने च क्षुते अक्ष्याविमेचने।
उदक्या दर्शने तद्वन्नग्नस्याचमनं स्मृतम्।
स्पृशेत्कर्णं सप्रणवं सूर्यमीक्षेत्सदा तदा।।
13-161-118a
13-161-118b
13-161-118c
वृद्धो ज्ञातिस्तथा मित्रमनाथा च स्वसा गुरुः।
कुलीनः पण्डित इति रक्ष्या निःस्वः स्वशक्तितः।
गृहे वासयितव्यास्ते धन्यमायुष्यमेव च।।
13-161-119a
13-161-119b
13-161-119c
गृहे पारावता धार्याः शुकाश्च सहशारिकाः।
`देवताप्रतिमाऽऽदर्शश्चन्दनाः पुष्पवल्लिकाः।।
13-161-120a
13-161-120b
शुद्धं जलं सुवर्णं च रजतं गृहमङ्गलम्।'
गृहेष्वेते न पापाय यथा वै तैलपायिकाः।।
13-161-121a
13-161-121b
उद्दीपकाश्च गृध्रास्च कपोता भ्रमरास्तथा।
निविशेयुर्यदा तत्र शान्तिमेव तदाऽऽचरेत्।।
13-161-122a
13-161-122b
अमङ्गल्यः सतां शापस्तथाऽऽक्रोशो महात्मनाम्।
महात्मनोतिगुह्यानि न वक्तव्यानि कर्हिचित्।
13-161-123a
13-161-123b
अगम्याश्च न गच्छेत राज्ञः पत्नीं सखीस्तथा|
वैद्यानां बालवृद्धानां भृत्यानां च युधिष्ठिर
13-161-124a
13-161-124b
बन्धूनां ब्राह्मणानां च तथा शारणिकस्य च।
सम्बन्धिनां च राजेन्द्र तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।।
13-161-125a
13-161-125b
ब्राह्मणस्तपतिभ्यां च निर्मितं यन्निवेशनम्।
तदा वसेत्सदा प्राज्ञो भवार्थी मनुजेश्वर।।
13-161-126a
13-161-126b
सन्ध्यायां न स्वपेद्राजन्विद्यां न च समाचरेत्।
न भुञ्जीत च मेधावी तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।।
13-161-127a
13-161-127b
नक्तं न कुर्यात्पित्र्याणि नक्तं चैव प्रसाधनम्।
पानीयस्य क्रिया नक्तं न कार्या भूतिमिच्छता।।
13-161-128a
13-161-128b
वर्जनीयाश्चैव नित्यं सक्तवो निशि भारत।
शेषाणि चावदातानि पानीयं चापि भोजने।।
13-161-129a
13-161-129b
सौहित्यं न च कर्तव्यं रात्रौ न च समाचरेत्।
न भुक्त्वा मैथुनं गच्छेन्न धावेन्नातिहासकम्।'
द्विजच्छेदं न कुर्वीत भुक्त्वा न च समाचरेत्।।
13-161-130a
13-161-130b
13-161-130c
महाकुले प्रसूतां च प्रशस्तां लक्षणैस्तथा।
वयसाऽवरां सुनक्षत्रां कन्यामावोढुमर्हति।।
13-161-131a
13-161-131b
<अपत्यमुत्पाद्य ततः प्रतिष्ठाप्य कुलं तथा।
पुत्राः प्रदेया जातेषु कुलधर्मेषु भारत।।
13-161-132a
13-161-132b
कन्या चोत्पाद्य दातव्या कुलपुत्राय धीमते।
पुत्रा निवेश्याश्च कुलाद्भृत्या लभ्याश्च भारत।।
13-161-133a
13-161-133b
शिरःस्नातोथ कुर्वीत दैवं पित्र्यमथापि च।। 13-161-134a
तैलं जन्मदिनेऽष्टम्यां चतुर्दश्यां च पर्वसु।'
नक्षत्रे न च कुर्वीत यस्मिञ्जातो भवेन्नरः।
न प्रोष्ठपदयोः कार्यं तथाऽऽग्नेये च भारत।।
13-161-135a
13-161-135b
13-161-135c
दारुणेषु च सर्वेषु प्रत्यरिं च विवर्जयेत्।
ज्योतिषे यानि चोक्तानि तानि सर्वाणि वर्जयेत्।।
13-161-136a
13-161-136b
प्राङ्मुखः श्मश्रुकर्माणि कारयेत्सुसमाहितः।
उदङ्मुखो वा राजेन्द्र तथाऽऽयुर्विन्दते महत्।।
13-161-137a
13-161-137b
सामुद्रेणाम्यसा स्नानं क्षौरं श्राद्धेषु भोजनम्।
अन्तर्वत्नीपतिः कुर्वन्न पुत्रफलमश्नुते।।
13-161-138a
13-161-138b
सतां गुरूणां वृद्धानां कुलस्त्रीणां विशेषतः।'
परिवादं न च ब्रूयात्परेषामात्मनस्तथा।
परिवादो ह्यधर्माय प्रोच्यते भरतर्षभ।।
13-161-139a
13-161-139b
13-161-139c
वर्जयेद्व्यङ्गिनीं नारीं तथा कन्यां नरोत्तम।
समार्षां व्यङ्गिकां श्चैव मातुः सकुलजां तथा।।
13-161-140a
13-161-140b
वृद्धां प्रव्रजितां चैव तथैव च पतिव्रताम्।
तथा निकृष्टवर्णा च वर्णोत्कृष्टां च वर्जयेत्।
13-161-141a
13-161-141b
अयोनिं च वियोनिं च न गच्छेत विचक्षणः।
पिङ्गलां कुष्ठिनीं नारीं न त्वमुद्वोढुमर्हसि।।
13-161-142a
13-161-142b
अपस्मारिकुले जातां निहीनां चापि वर्जयेत्।
श्वित्रिणां च कुले जातां क्षयिणां मनुजेश्वर।।
13-161-143a
13-161-143b
`सुरोमशामतिस्थूलां कन्यां मातृपितृस्थिताम्।
अलज्जां भ्रातृजां तुष्टां वर्जयेद्रक्तकेशिनीम्।।'
13-161-144a
13-161-144b
लक्षणैरन्विता या च प्रशस्ता या च लक्षणैः।
मनोज्ञां दर्शनीयां च तां भवान्वोढुमर्हति।।
13-161-145a
13-161-145b
महाकुले निवेष्टव्यं सदृशे वा युधिष्ठिर।
अवरा पतिता चैव न ग्राह्या भूतिमिच्छता।।
13-161-146a
13-161-146b
अग्नीनुत्पाद्य यत्नेन क्रियाः सुविहिताश्च याः।
वेदे च ब्राह्मणैः प्रोक्तास्ताश्च सर्वाः समाचरेत्।।
13-161-147a
13-161-147b
न चेर्ष्या स्त्रीषु कर्तव्या रक्ष्या दाराश्च सर्वशः।
अनायुष्या भवेदीर्ष्या तस्मादीर्ष्यां विवर्जयेत्।।
13-161-148a
13-161-148b
अनायुष्यं दिवा स्वप्नं तथाऽभ्युदितशायिता।
प्रातर्निशायां च तथा ये चोच्छिष्टा भवन्ति च।।
13-161-149a
13-161-149b
पारदार्यमनायुष्यं नापितोच्छिष्टता तथा।
यत्नतो वै न कर्तव्यमत्याशश्चैव भारत।।
13-161-150a
13-161-150b
सन्ध्यां न भुञ्ज्यान्न स्नायेन्न पुरीषं समुत्सृजेत्।
प्रयतश्च भवेत्तस्यां न च किञ्चित्समाचरेत्।।
13-161-151a
13-161-151b
ब्राह्मणान्पूजयेच्चापि तथा स्नात्वा नराधिप।
देवांश्च प्रणमेत्स्नातो गुरूंश्चाप्यभिवादयेत्।।
13-161-152a
13-161-152b
अनिमन्त्रितो न गच्छेत यज्ञं गच्छेत दर्शकः।
अनर्चिते ह्यनायुष्यं गमनं तत्र भारत।।
13-161-153a
13-161-153b
न चैकेन परिव्रज्यं न गन्तव्यं तथा निशि।
नानापदि परस्यान्नमनिमन्त्रितमाहरेत्।।
13-161-154a
13-161-154b
एकोद्दिष्टं न भुञ्जीत प्रथमं तु विशेषतः।
सपिण्डीकरणं वर्ज्यं सविधानं च मासिकम्।।
13-161-155a
13-161-155b
अनागतायां सन्ध्यायां पश्चिमायां गृहे वसेत्।। 13-161-156a
मातुः पितुर्गुरूणां च कार्यमेवानुशासनम्।
हितं चाप्यहितं चापि न विचार्यं नरर्षभ।।
13-161-157a
13-161-157b
`क्षत्रियस्तु विशेषेण धनुर्वेदं समभ्यसेत्।'
धनुर्वेदे च वेदे च यत्नः कार्यो नाराधिप।।
13-161-158a
13-161-158b
हस्तिपृष्ठेऽश्वपृष्ठे च रथचर्यासु चैव ह।
यत्नवान्भव राजेन्द्र यत्नवान्सुवमेधते।।
13-161-159a
13-161-159b
अप्रधृष्यश्च शत्रूमां भृत्यानां स्वजनस्य च।
प्रजापालनयुक्तश्च नारतिं लभते क्वचित्।।
13-161-160a
13-161-160b
युक्तिशास्त्रं च ते ज्ञेयं शब्दशास्त्रं च भारत।
गान्धर्वशास्त्रं च कलाः परिज्ञेया नराधिप।।
13-161-161a
13-161-161b
पुराणमितिहासाश्च तथाऽऽख्यानानि यानि च।
महात्मनां च चरितं श्रोतव्यं नित्यमेव ते।।
13-161-162a
13-161-162b
`मान्यानां माननं कुर्यान्निन्द्यानां निन्दनं तथा।
गोब्राह्मणार्थे युध्येत प्राणानपि परित्यजेत्।।
13-161-163a
13-161-163b
न स्त्रीषु सज्जेद्द्रष्टव्यं शक्त्या दानरुचिर्भवेत्।
न ब्राह्मणान्परिभवेत्कार्पण्यं ब्राह्मणैर्वृतम्।
पतितान्नाभिभाषेत नाह्वयेत रजस्वलाम्।।'
13-161-164a
13-161-164b
13-161-164c
पत्नीं रजस्वलां चैव नाभिगच्छेन्न चाह्वयेत्।
स्नातां चतुर्थे दिवसे रात्रौ गच्छेद्विचक्षणः।।
13-161-165a
13-161-165b
पञ्चमे दिवसे नारी षष्ठेऽहनि पुमान्भवेत्।
`आषोडशादृतुर्मुख्यः पुत्रजन्मनि शब्दितः'
13-161-166a
13-161-166b
एतेन विधिना पत्नीमुपगच्छेत पण्डितः।
ज्ञातिसम्बन्धिमित्राणि पूजनीयानि सर्वशः।।
13-161-167a
13-161-167b
यष्टव्यं च यथाशक्ति यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।
अत ऊर्ध्वमरण्यं च सेवितव्यं नराधिप।।
13-161-168a
13-161-168b
एष ते लक्षणोद्देश आयुष्याणां प्रकीर्तितः।
शेषस्त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर।।
13-161-169a
13-161-169b
एष ते लक्षणोद्देश आयुष्याणां प्रकीर्तितः।
शेषस्त्रैविद्यवृद्धेभ्यः प्रत्याहार्यो युधिष्ठिर।।
13-161-170a
13-161-170b
आचारो भूतिजनन आचारः कीर्तिवर्धनः।
आचाराद्वर्धते ह्यायुराचारो हन्त्यलक्षणम्।।
13-161-171a
13-161-171b
आगमानां हि सर्वेषामाचारः श्रेष्ठ उच्यते।
आचारप्रभवो धर्मो धर्मादायुर्विवर्धते।।
13-161-172a
13-161-172b
एतद्यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं स्वस्त्ययनं महत्।
अनुकम्प्य सर्ववर्णान्ब्रह्मणा समुदाहृतम्।।
13-161-173a
13-161-173b
य इदं शृणुयान्नित्यं यश्चापि परिकीर्तयेत्।
स शुभान्प्राप्नुयाल्लोकान्सदाचारपरो नृप।।
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि एकषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 161 ।।

13-161-3 जपैर्होमैस्तथौषधैरिति झ.पाठः।। 13-161-5 वर्तयन् अनुतिष्ठन्।। 13-161-8 अलक्षणं कुष्ठापस्मारादिविरुद्धं लक्षणम्।। 13-161-10 श्रवात् श्रवणात्। तं पुरुषम्। जनाः साधवः।। 13-161-15 सङ्कुसुको दुर्जनः अस्थिरश्च। नित्योच्छिष्टः सूचकश्चेति क.थ.पाठः।। 13-161-17 उपसृष्टं राहुग्रस्तम्।। 13-161-29 उपानहौ च छत्रं च इति थ.पाठः।। 13-161-39 न रिष्यते न हिंस्यते।। 13-161-48 त्रीणि भोज्यानि। अदृष्टं शूद्रोदक्यादिभिः।। 13-161-52 अज्ञातामृतुमतीत्वेन कामुकत्वेन वा।। 13-161-52 अन्तर्धाने अत्यन्तमन्धकारे। संयुक्ते इतरेण स्त्र्यादिना।। 13-161-52 स्नात्वा वासो न निर्धुनेत् इति। न चैवार्द्राणि वासांसि इति च.झ.पाठः।। 13-161-60 प्रस्कन्दयेदन्नशेषं किञ्चित्त्यजेत्। भुक्त्वा च मनसाग्निमुपस्पृशेत्।। 13-161-61 ऋतं निःश्रेयसमिच्छन्निति शेषः।। 13-161-63 प्राणान्नासादीन् ऊर्ध्वच्छिद्राणि।। 13-161-64 अवस्नातं स्नानजलं। अन्यस्य चाप्युपस्थानं दूरतः परिवर्जयेत् इति क.थ.ध.पाठः।। 13-161-65 सावित्राणि मन्त्रविशेषान्। शान्तिहोमांश्च कुर्वीत पवित्राणि च कारयेत् इति क.थ.ध.पाठः।। 13-161-73 नरिष्यते हिंस्यते।। 13-161-74 शिरोभ्यक्तेन तैलेनेति क.थ.ध.पाठः।। 13-161-75 न चिन्तयेत् वेदम्।। 13-161-76 प्रजास्तस्याददे तथा इति झ.पाठः।। 13-161-85 मिथ्याप्रवृत्तेपि सम्यग्वर्तितव्यम्।। 13-161-90 विपर्ययमौत्तराधर्यम्। अपदशं दशाहीनम्। न चापदशमेव चेति झ.पाठः।। 13-161-93 उपवासं ब्रह्मचर्यम्।। 13-161-96 धर्मेषु श्राद्धादिषु।। 13-161-100 वालेन केशेन उपलक्षितम्। परश्राद्धं शत्रुश्राद्धम्।। 13-161-104 निरस्य पानीयादीन्विहाय। अन्येषां भक्षाणां शेषमन्यस्मै न देयम्।। 13-161-105 अधिकं तोयपानं तु न कर्तव्यं इति ङ.पाठः। शङ्कां जीर्यति न वेति। दधीति तक्रं त्वनुपानं कर्तव्यमेव। यथेष्टं भुंक्ष्व माभैषीस्तक्रं सलवणं पिबेति तस्य दृष्टार्थत्वोक्तेः।। 13-161-108 प्राणान्नासादीन्।। 13-161-113 नच वर्धकीम् इति ड.थ.ध.पाठः। नच नर्तकीम् इति क.पाठः।। 13-161-121 एते तैलपायिकादिवन्न पापाय। अभ्युदयायेत्यर्थः। पारावतादयः सर्वे पक्षिविशेषा एव।। 13-161-125 शारणिकस्य रक्षणार्थिनः। तथा नागरिकस्य चेति ध.पाठः।। 13-161-128 प्रसाधनं केशानां संस्कारादिकम्। पानीयस्य क्रिया स्नानं न नक्तं स्रायादिति गृहे रात्रौ शिरःस्नाननिषेधः।। 13-161-132 पुत्राः प्रदेया ज्ञानेष्विति झ.पाठः। ज्ञानेषु बहुज्ञाननिमित्तं पुत्रा देया विद्वत्सु समर्पणीयाः।। 13-161-133 कुलात्सत्कुलसम्बन्धेन। निवेश्या विवाह्याः। लभ्या लम्भनीयाः।। 13-161-135 तैलाभ्यञ्जनमष्टम्यामिति ङ.थ.पाठः। आग्नेये कृत्तिकायाम्।। 13-161-136 स्वनक्षत्राद्दिननक्षत्रं यावद्गणयित्वा नवभिर्भागे हृते पञ्चमी तारा प्रत्यरिः।। 13-161-140 व्यङ्गिनीं न्यूनाङ्गीम्। व्यङ्गिकां विरुद्धाङ्गेनाधिकेन युक्ताम्। समार्षा समानप्रवराम्।। 13-161-142 अयोनि अज्ञातकुलाम्। वियोनिं हीनकुलाम्।। 13-161-150 नापितोच्छिष्टता श्मश्रुकर्मोत्तरमस्नातता।। 13-161-153 दर्शको द्रष्टा।। 13-161-154 परिव्रज्यं देशान्तरे गन्तव्यम्।। 13-161-157 मातुः पितुश्च पुत्राणां कार्यमिति थ.पाठः।। 13-161-169 आयुष्याणामा**ष्कराणां कर्मणाम्। उद्देशः संक्षेपः।।

अनुशासनपर्व-160 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-162