महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-166
दिखावट
← अनुशासनपर्व-165 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-166 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-167 → |
रुद्रंप्रति सनत्कुमारेण तत्वलयक्रमाध्यात्मादिप्रतिपादनम्।। 1।।
सनत्कुमार उवाच। | 13-166-1x |
तत्वसङ्ख्या श्रुता चैषा येषां ब्रह्मविदांवर। सर्गसङ्ख्या मया प्रोक्ता नवानामानुपूर्व्यशः। प्रवक्ष्यामि तु तेऽध्यात्ममधिभूताधिदैवतम्।। | 13-166-1a 13-166-1b 13-166-1c |
स्वभावसत्वस्थमनीशमीशम्।। | 13-166-2f |
कैवल्यतां प्राप्य महासुरोत्तम तवैतदाख्यामि मुनीन्द्रवृत्त्या। रहस्यमेवान्यदवाप्य दिव्यं| पवित्रपूतस्तव मृत्युजालम्।। | 13-166-3a 13-166-3b 13-166-3c 13-166-3d |
पृथ्वीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां दद्यान्न देयं त्वपरीक्षिताय। नाश्रद्दधानाय न चान्यबुद्धे| र्नाज्ञानयुक्ताय न विस्मिताय।। | 13-166-4a 13-166-4b 13-166-4c 13-166-4d |
स्वाध्याययुक्ताय गुणान्विताय प्रदेयमेतन्नियतेन्द्रियाय।। | 13-166-5a 13-166-5b |
संक्षेपं चाप्यथैतेषां तत्वानां वृषभध्वज। अनुलोमानुजातानां प्रतिलोमप्रमीयतम्।। | 13-166-6a 13-166-6b |
प्रवक्ष्यामि तमध्यात्मं साधिभूताधिदैवतम्। यथांशुजालमर्कस्य तथैतत्प्रवदन्ति वै।। | 13-166-7a 13-166-7b |
संक्षीणे ब्रह्मदिवसे जगज्जलधिमाविशेत्। प्रलीयते जले भूमिर्जलमग्नौ प्रलीयते।। | 13-166-8a 13-166-8b |
लीयतेऽग्निस्तथा वायौ वायुराकाश एव तु। मनसि प्रलीयते खं तु मनोऽहंकार एव च।। | 13-166-9a 13-166-9b |
अहङ्कारस्तथा तस्मिन्महति प्रविलीयते। महानव्यक्त इत्याहुस्तदेकत्वं प्रचक्षते।। | 13-166-10a 13-166-10b |
अव्यक्तस्य महादेव प्रलयं विद्धि ब्रह्म्णि। एवमस्यासकृत्क्रीडामाहुस्तत्वविदो जनाः।। | 13-166-11a 13-166-11b |
अध्यात्ममधिभूतं च तथैवाप्यधिदैवतम्। यथावदुदितं शास्त्रं योगे तु सुमहात्मभिः।। | 13-166-12a 13-166-12b |
तथैव चेह साङ्ख्ये तु परिसंख्यात्मचिन्तकैः। प्रपञ्चितार्थमेतावन्महादेव महात्मभिः।। | 13-166-13a 13-166-13b |
ब्रह्मेति विद्यादध्यात्मं पुरुषं चाधिदैवतम्। प्रभवं सर्वभूतानां रक्षणं तत्र कर्म च।। | 13-166-14a 13-166-14b |
अध्यात्मं प्राणमित्याहुः क्रतुमप्यधिदैवतम्। रथं च यज्ञवाहोऽत्र कर्माहङ्कारमेव च।। | 13-166-15a 13-166-15b |
अध्यात्मं तु मनो विद्याच्चन्द्रमाश्चाधिदैवतम्। दैवं च प्रभवश्चैव कर्म व्याहृतयस्तथा।। | 13-166-16a 13-166-16b |
विद्यात्तु श्रोत्रमध्यात्ममाकाशमधिदैवतम्। सर्वभावाभिधानार्थं शब्दः कर्म सदा स्मृतं।। | 13-166-17a 13-166-17b |
त्वगध्यात्ममथो विद्याद्वायुरत्राधिदैवतम्। सन्निपातय विज्ञानं सर्वकर्म च तत्र ह।। | 13-166-18a 13-166-18b |
अध्यात्मं चक्षुरित्याहुर्भास्करोऽत्राधिदैवतम्। ज्ञापतं सर्ववर्णानां रूपं कर्म सदा स्मृतम्।। | 13-166-19a 13-166-19b |
जिह्वेति विद्यादध्यात्ममापश्चात्राधिदैवतम्।। | 13-166-20a |
पायुरध्यात्ममित्याहुर्यथावद्यतिसत्तमाः। विसर्गमधिभूतं च मित्रं चाप्यधिदैवतम्।। | 13-166-21a 13-166-21b |
उपस्थोऽध्यात्ममित्याहुर्देवदेव पिनाकधृक्। अनुभावोऽधिभूतं तु दैवतं च प्रजापतिः।। | 13-166-22a 13-166-22b |
पादावध्यात्ममित्याहुस्त्रिशूलाङ्क मनीषिणः। गन्तव्यमधिभूतं तु विष्णुस्तत्राधिदैवतम्।। | 13-166-23a 13-166-23b |
वागध्यात्मं तथैवाहुः पिनाकिंस्तत्वदर्शिनः। वक्तव्यमधिभूतं तु वह्निस्तत्राधिदैवतम्।। | 13-166-24a 13-166-24b |
एतदध्यात्ममतुलं साधिभूताधिदैवतम्। मया तु वर्णितं सम्यग्देहिनाममरर्षभ।। | 13-166-25a 13-166-25b |
एतत्कीटपतङ्गे च श्वपाके शुनि हस्तिनि। पुत्रिकादंशमशके ब्राह्मणे गवि पार्थिवे।। | 13-166-26a 13-166-26b |
सर्वमेव हि द्रष्टव्यमन्यथा मा विचिन्तय। अतोऽन्यथा ये पश्यन्ति न सम्यक्तेषु दर्शनम्।। | 13-166-27a 13-166-27b |
देवदानवगन्धर्वयक्षराक्षसकिन्नराः। यन्न जानन्ति को ह्येष कुतो वा भगवानिति।। | 13-166-28a 13-166-28b |
ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म यत्तत्सदसतः परम्। अनादिमध्यपर्यन्तं कूटस्थमचलं ध्रुवम्।। | 13-166-29a 13-166-29b |
योगेश्वरं पद्मनाभं विष्णुं जिष्णुं जगत्पतिम्। अनादिनिधं देवं देवदेवं सनातनम्।। | 13-166-30a 13-166-30b |
अपमेयमविज्ञेयं हरिं नारायणं प्रभुम्। कृताञ्जलिः शुचिर्भूत्वा प्रणम्य प्रयतोऽर्चयेत्।। | 13-166-31a 13-166-31b |
अनाद्यन्तं परं ब्रह्म न देवा ऋषयो विदुः। एकोयं वेद भगवांस्त्राता नारायणो हरिः।। | 13-166-32a 13-166-32b |
नारायणादृषिगणास्ततः सिद्धा महोरगाः। देवा देवर्षयश्चैव यं विदुर्दुःखभेषजम्।। | 13-166-33a 13-166-33b |
यमाहुर्विजितक्लेशं यस्मिंश्च विहिताः प्रजाः। यस्मिँल्लोकाः स्फुरन्तीमे जाले शकुनयो यथा।। | 13-166-34a 13-166-34b |
सप्तर्षयो मनः सप्त साङ्ख्यास्तु मुनिदर्शनात्। सप्तर्षयश्चेन्द्रियाणि पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि च।। | 13-166-35a 13-166-35b |
श्रोत्रयोश्च दिशः प्राहुर्मनसि त्वथ चन्द्रमाः।। | 13-166-36a |
मनः षष्ठं बुद्धिः सप्तमी ह्यात्मनि स्थापितानि शरीरेषु नात्मनि तस्य हि कारणानि भन्ति सर्वा- ण्यपि सर्वकर्मसु वा विषयेषुवा युञ्जन्ति यथात्म- नि स्वानि कर्माणि प्रवृत्तानि सप्तस्वपि।। | 13-166-37a 13-166-37b 13-166-37c 13-166-37d |
विषयाणां व्यापकत्वानि तान्येव स्वपतो भूत| ग्रामस्याजमात्मानं देवलोकस्थानसंमितं देहान्तर| गामिनं मुमुक्षुं वानुप्रतिशन्ति सूक्ष्माणि प्रलीयन्ते।। | 13-166-38a 13-166-38b 13-166-38c |
मोक्षकाले तमेकं न कश्चिद्वेत्ति स्वपरम्। एवं प्रविष्टेषु भूतेषु को जागर्तीत्युच्यते।। | 13-166-39a 13-166-39b |
निद्राप्रसुप्तेषु वाऽत्र जाग्रत्स्वप्नशीलोत्रसदनौ च देवद्योतनो भगवांश्चात्र क्षत्रेज्ञो बुद्धिर्वाऽभिसुप्त| स्यापि स्वप्नदर्शनानि पश्यन्ति।। | 13-166-40a 13-166-40b 13-166-40c |
अप्रतिबुद्धेषु लोकेषु स एव प्रतिबुध्यते। स एष प्राज्ञः। अथ तैजसः कायाग्निः स हि सुप्तस्यात्मा वा।। | 13-166-41a 13-166-41b |
अविदुषो वाऽप्रतिबुध्यमानस्यान्नं पचतीत्यन्ते वै तिष्ठति एतदात्मानमधिकृत्यानुज्ञातमिति।। | 13-166-42a 13-166-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्षष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 166 ।। |
13-166-2 गृहस्यैर्मान्येज्याभिरिति ट.थ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-165 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-167 |