महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-258
दिखावट
← अनुशासनपर्व-257 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-258 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-259 → |
कार्तवीर्यार्जुनंप्रति वायुना ब्राह्म्णमहिमप्रशंसके स्ववाक्ये प्रामाण्यनश्चयाय दृष्टान्ततयाऽङ्गिरः प्रभृतिब्राह्मणचरित्रविशेषप्रतिपादनम्।। 1 ।।
वायुरुवाच। | 13-258-1x |
शृणु मूढ गुणान्कांश्चिद्ब्राह्मणानां महात्मनाम्। ये त्वया कीर्तिता राजंस्तेभ्योऽथ ब्राह्मणो वरः।। | 13-258-1a 13-258-1b |
त्यक्त्वा महीत्वं भूमिस्तु स्पर्धया काश्यपस्य ह। नाशं जगाम तां विप्रो व्यस्तम्ययत कश्यपः।। | 13-258-2a 13-258-2b |
अक्षया ब्राह्मणा राजन्दिवि चेह च नित्यदा। अपिबत्तेजसा ह्यापः स्वयमेवाङ्गिराः पुरा।। | 13-258-3a 13-258-3b |
स ताः पिबञ्शीरमिव नातृप्यत महातपाः। अपूरयन्महौघेन महीं सर्वां च पार्थिव।। | 13-258-4a 13-258-4b |
तस्मिन्नहं च क्रुद्धे वै जगत्त्यक्त्वा ततो भयात्। व्यतिष्ठमग्निहोत्रे च चिरमङ्गिरसो भयात्।। | 13-258-5a 13-258-5b |
अथ शप्तश्च भगवान्गौतमेन पुरंदरः। अहल्यां कामयानो वै धर्मार्थं च न हिंसितः।। | 13-258-6a 13-258-6b |
तथा समुद्रो नृपते पूर्णो दृष्टश्च वारिणा। ब्राह्मणैरभिशप्तश्च बभूव लवणोदकः।। | 13-258-7a 13-258-7b |
सुवर्णवर्णो निर्धूमः सङ्गतोर्ध्वशिखः कविः। क्रुद्धेनाङ्गिरसा शप्तो गुणैरेतैर्विवर्जितः।। | 13-258-8a 13-258-8b |
महतश्चूर्णितान्पश्य ये हासन्त महोदधिम्। सुवर्णिधारिणा नित्यमवशप्ता द्विजातिना।। | 13-258-9a 13-258-9b |
सम्मतत्वं द्विजातिभ्यः श्रेष्ठं विद्धि नराधिप। गर्भस्थान्ब्राह्मणाञ्शश्वन्नमस्यति किल प्रभुः।। | 13-258-10a 13-258-10b |
दण्डकानां महद्राज्यं ब्राह्मणेन विनाशितम्। तालजङ्घं महाक्षत्रमौर्वेणैकेन नाशितम्।। | 13-258-11a 13-258-11b |
त्वया च विपुलं राज्यं बलं धर्मं श्रुतं तथा। दत्तात्रेयप्रसादेन प्रप्तं परमदुर्लभम्।। | 13-258-12a 13-258-12b |
अग्निं त्वं यजसे नित्यं कस्माद्ब्राह्मणमर्जन। स हि सर्वस्य लोकस्य हव्यवाट् किं न वेत्सि तम्।। | 13-258-13a 13-258-13b |
अथवा ब्राह्मणश्रेष्ठमनुभूतानुपालकम्। कर्तारं जवलोकस्य कस्माज्जानन्विमुह्यसे।। | 13-258-14a 13-258-14b |
तथा प्रजापतिर्ब्राह्मा अव्यक्तप्रभवोऽव्ययः। येनेदं विपुलं विश्वं जनितं स्थावरं चरम्।। | 13-258-15a 13-258-15b |
अण्डजातं तु ब्रह्माणं केचिदिच्छिन्त्यपण्डिताः। अण्डाद्भिन्नाद्बभुः शैला दिशोंऽभः पृथिवी दिवम्।। | 13-258-16a 13-258-16b |
दृष्टवानेतदेवं हि कथं जायेदजो हि सः। स्थानमाकाशमण्डं तु यस्माज्जातः पितामहः।। | 13-258-17a 13-258-17b |
तिष्ठेत्कथमिति ब्रूयान्न किञ्चिद्धि तदा भवेत्। अहङ्कार इति प्रोक्तः सर्वतेजोगतः प्रभुः।। | 13-258-18a 13-258-18b |
नास्त्यन्तमस्ति तु ब्रह्मा स राजा लोकभावनः। इत्युक्तः स तदा तूष्णीमभूद्वायुस्तमब्रवीत्।। | 13-258-19a 13-258-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 258 ।। |
13-258-4 रसकामः विबन्क्षीरं नाकुप्यत महातपाः इति थ.पाठः।। 13-258-5 अहं वायुः।। 13-258-8 कविः अग्निः।। 13-258-9 महतः सगरपुत्रान् आसन्त उपासन्त। सुवर्णधारिणा शोभनो ब्राह्मणवर्णस्तस्य धारिणा धर्त्रा द्विजातिना कपिलेन मरुतश्चूर्णितान्पश्य। यौर्हि पूर्णो महोदधिरिति क.थ.पाठः।। 13-258-13 अग्निं ब्राह्मणमित्यन्वयः ।। 13-258-14 अनुभूतं प्रतिभूतम्। अनुपालकं पोषकम्।। 13-258-16 ननु ब्रह्माण्डे जातत्वात्कथमण्डमजनयदित्यत्राह अण्डेति।। 13-258-17 अण्डजत्ववचनं त्वस्य प्रकारान्तरेणेत्याह स्मृतमिति। द्रष्टव्यं नैतदेवं हीति झ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-257 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-259 |