महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-165
दिखावट
← अनुशासनपर्व-164 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-165 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-166 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति तत्वसृष्टिप्रतिपादकरुद्रसनत्कुमारसंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-165-1x |
पितामहेन कथिता दानधर्माश्रिताः कथाः। मया श्रुता ऋषीणां तु संनिधौ केशवस्य च।। | 13-165-1a 13-165-1b |
पुनः कौतूहलमभूत्तामेवाध्यात्मिकीं प्रति। कथाः कथय राजेन्द्र त्वदन्यः क उदाहरेत्।। | 13-165-2a 13-165-2b |
एष यादवदायादस्तथानुज्ञातुमर्हति। ज्ञाते तु यस्मिञ्ज्ञातव्यं ज्ञातं भवति भारत।। | 13-165-3a 13-165-3b |
पश्चाच्छ्रोष्यामहे राज्ञां श्राव्यान्धर्मान्पितामह। कौतूहलमृषीणां तु च्छेतुमर्हसि साम्प्रतम्।। | 13-165-4a 13-165-4b |
भीष्म उवाच। | 13-165-5x |
अत ऊर्ध्वं महाराज साङ्ख्ययोगोभयशास्त्राधि- गतयाथात्म्यदर्शनसम्पन्नयोराचार्ययोः संवादमनुव्याख्यास्यामः।। | 13-165-5a 13-165-5b |
ष्टमुपससर्प भगवन्तमाचार्यं भगवानाचार्यो रुद्रः।। | 13-165-6e |
तं प्रोवाच स्वागतं महेश्वर ब्रह्मसुत एतदास- नमास्तां भगवान्।। | 13-165-7a 13-165-7b |
इत्युक्ते चासीनो भगवाननन्तरूपो रुद्रस्तं प्रोवाच भगवानपि ध्यानमावर्तयति। इत्युक्ते चाह भगवान्सनत्कुमारस्तथेति।। | 13-165-8a 13-165-8b 13-165-8c |
तथेत्युक्तश्च प्रोवाच भगवाञ्शङ्करस्तदा। परावरज्ञं सर्वस्य त्रैलोक्यस्य महामुनिम्।। | 13-165-9a 13-165-9b |
किं वा ध्यानेन द्रष्टव्यं यद्भवाननुपश्यति। यच्च ध्यात्वा न शोचन्ति यतयस्तत्वदर्शिनः।। | 13-165-10a 13-165-10b |
कथय त्वमिमं देवं देहिनां यतिसत्तम। यच्च तत्पुरुषं शुद्धमित्युक्तं योगसाङ्ख्ययोः।। | 13-165-11a 13-165-11b |
किमध्यात्माधिभूतं च तथा चाप्यधिदैवतम्। कालसङ्ख्या च का देव द्रष्टव्या तस्य ब्रह्मणः।। | 13-165-12a 13-165-12b |
सङ्ख्या सङ्ख्यादनस्यैव या प्रोक्ता परमर्षिभिः। शास्त्रदृष्टेन मार्गेण यथावद्यतिसत्तम।। | 13-165-13a 13-165-13b |
यच्च तत्पुरुषं शुद्धं प्रबुद्धमजरं ध्रुवम्। बुध्यमानाप्रबुद्धाभ्यां विद्यावेद्यं तथैव च।। | 13-165-14a 13-165-14b |
विमोक्षं त्रिविधं चैव ब्रूहि मोक्षविदांवर। परिसाङ्ख्यं च साङ्ख्यानां ध्यानं योगेषु चार्थवत्।। | 13-165-15a 13-165-15b |
एकत्वदर्शनं चैव तथा नानात्वदर्शनम्। अरिष्टानि च तत्वेन तथैवोत्क्रमणानि च।। | 13-165-16a 13-165-16b |
दैवतानि च सर्वाणि निखिलेनानुपूर्वशः। यान्याश्रितानि देहेषु देहिनां यतिसत्तम। सर्वमेतद्यथातत्वमाख्याहि मुनिसत्तम।। | 13-165-17a 13-165-17b 13-165-17c |
श्रेष्ठो भवान्हि सर्वेषां ब्रह्मज्ञानामनिन्दितः। चतुर्थस्त्वं त्रयाणां तु ये गताःइ परमां गतिम्। ज्ञानेन च प्राकृतेन निर्मुक्तो मृत्युबन्धनात्।। | 13-165-18a 13-165-18b 13-165-18c |
वयं तु वैकृतं मार्गमाश्रिता वै क्षरं सदा। परमुत्सृज्य पन्थानममृताक्षरमेव तु।। | 13-165-19a 13-165-19b |
न्यूने पथि निमग्नास्तु ऐश्वर्येऽष्टगुणे तथा। महिमानं प्रगृह्येमं विचरामो यथासुखम्।। | 13-165-20a 13-165-20b |
न चैतत्सुखमत्यन्तं न्यूनमेतदनन्तरम्। मूर्तिमत्परमेतत्स्यादिदमेवं सुसत्तम।। | 13-165-21a 13-165-21b |
पुनः पुनश्च पतनं मूर्तिमत्युपदिश्यते। न पुनर्मृत्युमित्यन्यं निर्मुक्तानां तु मूर्तितः।। | 13-165-22a 13-165-22b |
मृत्युदोषास्त्वनन्ता वै उत्पद्यन्ते कृतात्मनाम्। मर्त्येषु नाकपृष्ठेषु निरयेषु महामुने।। | 13-165-23a 13-165-23b |
तत्र मञ्जन्ति पुरुषाः सुखदुःखेन वेष्टिताः।। | 13-165-24a |
सुखदुःखव्यपेतं च यदाहुरमृतं पदम्। तदहं श्रोतुमिच्छामि यथावच्छ्रुतिदर्शनात्।। | 13-165-25a 13-165-25b |
सनत्कुमार उवाच। | 13-165-26x |
यदुक्तं भवता वाक्यं तत्वसंज्ञेति देहिनाम्। चतुर्विंशतिमेवात्र केचिदाहुर्मनीषिणः।। | 13-165-26a 13-165-26b |
केचिदाहुस्त्रयोविंशं यथाश्रुतिनिदर्शनात्। वयं तु पञ्चविंशं वै तदधिष्ठानसंज्ञितम्। तत्वं समधिमन्यामः सर्वतन्त्रप्रलापनात्।। | 13-165-27a 13-165-27b 13-165-27c |
अव्ययश्चैव वै व्यक्तावुभावपि पिनाकधृक्। सह चैव विना चैव तावन्योन्यं प्रतिष्ठितौ।। | 13-165-28a 13-165-28b |
हिरण्मयीं प्रविश्यैष मूर्तिं मूर्तिमतांवर। चकार पुरुषस्तात विकारपुरुषावुभौ।। | 13-165-29a 13-165-29b |
अव्यक्तादेक एवैष महानात्मा प्रसूयते। अहङ्कारेण लोकांश्च व्याप्य चाहंकृतेन वै।। | 13-165-30a 13-165-30b |
पिना सर्वं तदव्यक्तादभफिमन्यस्व शूलधृक्। भूतसर्गमहङ्कारात्तृतीयं विद्धि वै क्रमात्।। | 13-165-31a 13-165-31b |
अहङ्काराच्च भूतेषु चतुर्थं विद्दि वैकृतम्। अहङ्काराच्च जातानि युगपद्विबुधेश्वर।। | 13-165-32a 13-165-32b |
सविशेषाणि भूतानि पञ्च प्राहुर्मनीषिणः। चतुर्विंशात्तु वै प्रोक्तात्पञ्चविंशोऽधितिष्ठति।। | 13-165-33a 13-165-33b |
एते सर्गा मया प्रोक्ताश्चत्वारः प्राकृतास्त्विह। अहङ्काराच्च जातानि युगपद्विबुधेश्वर।। | 13-165-34a 13-165-34b |
अङ्काराच्च भूतेषु विविधार्थं व्यजायत। इन्द्रियैर्युगपत्सर्वैः सो नित्यश्च समीक्षते।। | 13-165-35a 13-165-35b |
मरुत्त्वं सत्वसर्गश्च तुष्टिः सिद्धिस्तथैव च। वैकृतानि प्रवक्ष्यामि शृणु तानि महामते।। | 13-165-36a 13-165-36b |
एषा तत्वचतुर्विंशन्मया शास्त्रानुमानतः। वर्णिता तव देवेश पञ्चविंशत्समन्विता।। | 13-165-37a 13-165-37b |
पञ्चमोऽनुग्रहश्चैव नवैते प्राकृतैः सह। ऐन्द्रेप्यहमधोप्यन्यन्ममात्मनि च भास्वरः।। | 13-165-38a 13-165-38b |
यच्च देहमयं किञ्चित्त्रिषु लोकेषु विद्यते। सर्वत्रैवाभिमन्तव्यं त्वया त्रिपुरसूदन।। | 13-165-39a 13-165-39b |
अन्यथा येऽनुपश्यन्ति ते न पश्यन्ति ब्रह्मज। एतदव्यक्तविषयं पञ्चविंशसमन्वितम्।। | 13-165-40a 13-165-40b |
अनेन कारणेनैव तत्वमाहुर्मनीषिणः। विकारमात्रमेतं तु तत्वमाचक्षते परम्।। | 13-165-41a 13-165-41b |
निस्तत्वश्चैष देवेश बोद्धव्यं तु न बुद्ध्यते। यदि बुद्ध्येत्परं बुद्धं बुद्ध्यमानः सुरर्षभः। प्रबुद्धो ह्यभिमन्येत योयं नाहमिति प्रभो।। | 13-165-42a 13-165-42b 13-165-42c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चषष्ट्यधिकशततमोऽध्यायः।। 165 ।। |
13-165-1x एतदादिपञ्चाध्याया दाक्षिणात्यकोशेष्वेव दृश्यन्ते।। 13-165-13 यथावद्वद सत्तमेति ङ.पाठः।। 13-165-36 मम त्वं सत्त्वसर्गश्चेति ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-164 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-166 |