महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-041
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ब्रह्मणा देवान्प्रति गरुडस्य बदरीनारायणानुगमनादिप्रतिपादकगरुडमुनिगणसंवादानुवादः।। 1 ।।
`सुपर्ण उवाच। | 13-41-1x |
सोऽहमामन्त्र्य पितरं तद्भावगतमानसः। स्वमेवालयमासाद्य तमेवार्थमचिन्तयम्।। | 13-41-1a 13-41-1b |
तद्भावगतभावात्मा तद्भूतगतमानसः। गोविन्दं चिन्तयन्नासे शाश्वतं परमव्ययम्।। | 13-41-2a 13-41-2b |
धृतं बभूव हृदयं नारायणदिदृक्षया। सोहं वेगं समास्थाय मनोमारुतवेगवान्। रम्यां विशालां बदरीं गतो नारायणाश्रमम्।। | 13-41-3a 13-41-3b 13-41-3c |
ततस्तत्र हरिं जगतः प्रभवं विभुम्। गोविन्दं पुण्डरीकाक्षं प्रणतः शिरसा हरिम्। ऋग्यजुस्सामभिश्चैनं तुष्टाव परया मुदा।। | 13-41-4a 13-41-4b 13-41-4c |
अथापश्यं सुविपुलमश्वत्थं देवसंश्रयम्।। | 13-41-5a |
चतुर्द्विगुणपीनांसः शङ्कचक्रगदाधरः। प्रादुर्बभूव पुरुषः पीतवासाः सनातनः। मध्याह्नार्कप्रतीकाशस्तेजसा भासयन्दिशः।। | 13-41-6a 13-41-6b 13-41-6c |
संस्तुतः संविदं कृत्वा व्रजेति श्रेयसे रतः। प्रागुदीचीं दिशं देवः प्रतस्थे पुरुषोत्तमः। दिशश्च विदिशश्चैव भासयन्स्वेन तेजसा।। | 13-41-7a 13-41-7b 13-41-7c |
तमहं पुरुषं दिव्यं व्रजन्तममितौजसम्। अनुवव्राज वेगेन शनैर्गच्छन्तमव्ययम्।। | 13-41-8a 13-41-8b |
योजनानां सहस्राणि षष्टिमष्टौ तथा शतम्। तथा शतसहस्रं च शतं द्विगुणमेव च।। | 13-41-9a 13-41-9b |
स गत्वा दीर्गमध्वानमपश्यमहमद्भुतम्। महान्तं पावकं दीप्तमर्चिष्मन्तमनिन्धनम्।। | 13-41-10a 13-41-10b |
शतयोजनविस्तीर्णं तस्माद्द्विगुणमायतम्। विवेश स महायोगी पावकं पावकद्युतिः।। | 13-41-11a 13-41-11b |
तत्र शंभुस्तपस्तेपे महादेवः सहोमया। स तेन संविदं कृत्वा पावकं समतिक्रमत्।। | 13-41-12a 13-41-12b |
श्रमाभिभूतेन मया कथञ्चिदनुगम्यते।। | 13-41-13a |
गत्वा स दीर्घमध्वानं भास्करेणावभासितम्। अभास्करममर्यादं विवेश सुमहत्तमः।। | 13-41-14a 13-41-14b |
अथ दृष्टिः प्रतिहता मम तत्र बभूव ह। यथास्वभावं भूतात्मा विवेश स महाद्युतिः।। | 13-41-15a 13-41-15b |
ततोऽहमभवं मूढो जडान्धबधिरोपमः। दिशश्च विदिशश्चैव न विजज्ञे तमोवृतः।। | 13-41-16a 13-41-16b |
अविजानन्नहं किञ्चित्तस्मिंस्तमसि संवृते। ससंभ्रान्तेन मनसा व्यथां परमिकां गतः।। | 13-41-17a 13-41-17b |
सोऽहं प्रपन्नः शरणं देवदेवं सनातनम्। प्राञ्चलिर्मनसा भूत्वा वाक्यमेतत्तदोक्तवान्।। | 13-41-18a 13-41-18b |
भगवन्भूतभव्येश भवद्भूतकृदव्यय। शरणं सम्प्रपन्नं मां त्रातुमर्हस्यरिंदम।। | 13-41-19a 13-41-19b |
अहं तु तत्त्वजिज्ञासुः कोसि कस्यासि कुत्र वा। सम्प्राप्तः पदवीं देव स मां संत्रातुमर्हसि।। | 13-41-20a 13-41-20b |
आविर्भूतः पुराणात्मा मामेहीति सनातनः। ततोपरान्ततो देवो विश्वस्य गतिरात्मवान्। मोहयामास मां तत्र दुर्विभाव्यवपुर्विभुः।। | 13-41-21a 13-41-21b 13-41-21c |
स्वभावमात्मनस्तत्र दर्शयन्स्वयमात्मना। श्रमं मे जनयामास भयं चाभयदः प्रभुः।। | 13-41-22a 13-41-22b |
खिन्न इत्येव मां मत्वा भगवानव्ययोऽच्युतः। शब्देनाश्वासयामास जगाहे च तमो महत्।। | 13-41-23a 13-41-23b |
अहं तमेवानुगतः श्रमालसपदश्चरन्। मनसा देवदेवेशं ध्यातुं समुपचक्रमे।। | 13-41-24a 13-41-24b |
तथागतं तु मां ज्ञात्वा भगवानमितद्युतिः। तमः प्रणाशयामास ममानुग्रहकाङ्क्षया।। | 13-41-25a 13-41-25b |
ततः प्रनष्टे तमसि तमहं दीप्ततेजसम्। अपश्यं तेजसा व्याप्तं मध्याह्न इव भास्करम्।। | 13-41-26a 13-41-26b |
स्वयंप्रभांश्च पुरुषान्स्त्रियश्च परमाद्भुताः। अपश्यमहमव्यग्रस्तस्मिन्देशे सहस्रशः।। | 13-41-27a 13-41-27b |
न तत्र द्योतते सूर्यो नक्षत्राणि तथैव च। न तत्र चन्द्रमा भाति न वायुर्वाति पांसुलः।। | 13-41-28a 13-41-28b |
तत्र तूर्याण्यनेकानि गीतानि मधुराणि च। अदृश्यानि मनोज्ञानि श्रूयन्ते सर्वतोदिशम्।। | 13-41-29a 13-41-29b |
स्रवन्ति वैडूर्यलताः पद्मोत्पलझषाकुलाः। मुक्तासिकतवप्राश्च सरितो निर्मलोदकाः।। | 13-41-30a 13-41-30b |
अगतिस्तत्र देवानामसुराणां तथैव च। गन्धर्वनागयक्षाणां राक्षसानां तथैव च।। | 13-41-31a 13-41-31b |
स्वयंप्रभास्तत्र नरा दृश्यन्तेऽद्भुतदर्शनाः। येषां न देवतास्तुल्याः प्रभाभिर्भावितात्मनाम्।। | 13-41-32a 13-41-32b |
स च तानप्यतिक्रम्य दैवतैरपि पूजितः। विवेश ज्वलनं दीप्तमनिन्धनमनौपमम्।। | 13-41-33a 13-41-33b |
ज्वालाभिर्मां प्रविष्टं च ज्वलन्तं सर्वतोदिशम्। दैत्यदानवरक्षोभिर्दैवतैश्चापि दुस्सहम्।। | 13-41-34a 13-41-34b |
ज्वालामालिनमासाद्य तमग्निमहमव्ययम्। अविषह्यतमं मत्वा मनसेदमचिन्तयम्।। | 13-41-35a 13-41-35b |
मया हि समरेष्वग्निरनेकेषु महाद्युतिः। प्रविष्टश्चापविद्धश्च न च मां दग्धवान्क्वचित्।। | 13-41-36a 13-41-36b |
अयं च दुस्सहः शश्वत्तेजसाऽतिहुताशनः। अत्यादित्यप्रकाशार्चिरनलो दीप्यते महान्।। | 13-41-37a 13-41-37b |
स तथा दह्यमानोपि तेजसा दीप्तवर्चसा। प्रपन्नः शरणं देवं शङ्कचक्रगदाधरम्।। | 13-41-38a 13-41-38b |
भक्तश्चानुगतश्चेति त्रातुमर्हसि मां विभो। यथा मां न दहेदग्निः सद्यो देव तथा कुरु।। | 13-41-39a 13-41-39b |
एवं विलपमानस्य ज्ञात्वा मे वचनं प्रभुः। मा भैरिति वचः प्राह मेघगम्बीरनिस्वनः।। | 13-41-40a 13-41-40b |
स मामाश्वास्य वचनं प्राहेदं भगवान्विभुः। मम त्वं विदितः सौम्य यथावत्तत्वदर्शने।। | 13-41-41a 13-41-41b |
ज्ञापितश्चापि यत्पित्रा तच्चापि विदितं महत्। वैनतेय ममाप्येवमहं वेद्यः कथञ्चन।। | 13-41-42a 13-41-42b |
महदेतत्स्वरूपं मे न ते वेद्यं कथञ्चन। मां हि विन्दन्ति विद्वांसो ये ज्ञाने परिनिष्ठिताः।। निर्ममा निरहङ्कारा निराशीर्बन्धनायुताः।। | 13-41-43a 13-41-43b 13-41-43c |
भवांस्तु सततं भक्तो मन्मनाः पक्षिसत्तम। स्थूलंमां वेत्स्यसे तस्माज्जगतः कारणेस्थितम्'।। | 13-41-44a 13-41-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकचत्वारिंशोऽध्यायः।। 41 ।। |
अनुशासनपर्व-040 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-042 |