महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-046
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कृष्णेन युधिष्ठिरम्प्रति पार्वतीपरमेश्वराभ्यां स्यस्मै वरप्रदानकथनम्।। 1 ।।
कृष्ण उवाच। | 13-46-1x |
मूर्ध्ना निपत्य नियतस्तेजःसन्निचये ततः। परमं हर्षमागत्य भगवन्तमथाब्रवम्।। | 13-46-1a 13-46-1b |
धर्मे दृढत्वं युधि शत्रुघातं यशस्तथाऽग्र्यं परमं बलं च योगप्रियत्वं तव सन्निकर्षं वृणे सुतानां च शतं शतानि।। | 13-46-2a 13-46-2b 13-46-2c 13-46-2d |
एवमस्त्विति तद्वाक्यं मयोक्तः प्राह शङ्करः।। | 13-46-3a |
ततो मां जगतो माता धारिणी सर्वपावनी। उवाचोमा प्रणिहिता शर्वाणी तपसां निधिः। दत्तो भगवता पुत्रः साम्बो नाम तवानघ।। | 13-46-4a 13-46-4b 13-46-4c |
मत्तोप्यष्टौ वरानिष्टान्गृहण त्वं ददामि ते। प्रणम्य शिरसा सा च मयोक्ता पाण्डुनन्दन।। | 13-46-5a 13-46-5b |
द्विजेष्वकोपं पितृतः प्रसादं शतं सुतानां परमं च भोगम्। कुले प्रीतिं मातृतश्च प्रसादं- शमप्राप्तिं प्रवृणे चापि दाक्ष्यम्।। | 13-46-6a 13-46-6b 13-46-6c 13-46-6d |
उमोवाच। | 13-46-7x |
एवं भविष्यत्यमरप्रभाव नाहं मृषा जातु वदे कदाचित्। भार्यासहस्राणि च षोडशैव तासु प्रियत्वं च तथाऽक्षयं | 13-46-7a 13-46-7b 13-46-7c 13-46-7d |
प्रीतिं चाग्र्यां बान्धवानां सकाशा- द्ददामि तेऽहं वपुषः काम्यतां च। भोक्ष्यन्ते वै सप्ततिं वै शतानि गृहे तुभ्यमतिथीनां च नित्यम्।। | 13-46-8a 13-46-8b 13-46-8c 13-46-8d |
वासुदेव उवाच। | 13-46-9x |
एवं दत्त्वा वरान्देवो मम देवी च भारत। अन्तर्हितः क्षणे तस्मिन्सगणो भीमपूर्वज।। | 13-46-9a 13-46-9b |
एतदत्यद्भुतं पूर्वं ब्राह्मणायातितेजसे। उपमन्यवे मया कृत्स्नं व्याख्यातं पार्थिवोत्तम। नमस्कृत्वा तु स प्राह देवदेवाय सुव्रत।। | 13-46-10a 13-46-10b 13-46-10c |
नास्ति शर्वसमो देवो नास्ति शर्वसमा गतिः। नास्ति शर्वसमो दाने नास्ति शर्वसमो रणे।। | 13-46-11a 13-46-11b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षट्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 46 ।। |
अनुशासनपर्व-045 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-047 |