महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-263
← अनुशासनपर्व-262 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-263 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-264 → |
युधिष्ठिरेण ब्राह्मणमहिमानं पृष्टेन भीष्मेण तंप्रति स्वस्य कुष्ठितेन्द्रियादिशक्तिकतया मुमूर्षानिवेदनपूर्वकं कृष्णात्तदवगमनचोदना।। 1 ।। तथा कृष्णस्य श्रीनारायणात्मकत्वनिवेदनेन तन्महिमानुवर्णनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-263-1x |
ब्राह्मणानर्चसे राजन्सततं संशितव्रतान्। कं तु धर्मोदयं दृष्ट्वा तानर्चसि जनाधिप।। | 13-263-1a 13-263-1b |
कां वा ब्राह्मणपूजायां व्युष्टिं दृष्ट्वा महाव्रत। तानर्चसि महाबाहो सर्वमेतद्वदस्व मे।। | 13-263-2a 13-263-2b |
भीष्म उवाच। | 13-263-3x |
एष ते केशवः सर्वमाख्यास्यति महामतिः। व्युष्टिं ब्राह्मणपूजायां दृष्ट्वा व्युष्टिं महाव्रत।। | 13-263-3a 13-263-3b |
बलं श्रोत्रे वाङ्मनश्चक्षुषी च ज्ञानं तथा नविशुद्धं ममाद्य। देहन्यासो नातिचिरान्मतो मे न चातितूर्णं सविताऽद्य याति।। | 13-263-4a 13-263-4b 13-263-4c 13-263-4d |
उक्ता धर्मा ये पुराणे महान्तो राजन्विप्राणां क्षत्रियाणां विशां च। येये शूद्राणां धर्ममुपासते ते तानेव कृष्णदुपशिक्षस्व पार्थः।। | 13-263-5a 13-263-5b 13-263-5c 13-263-5d |
अहं ह्येनं वेद्मि तत्त्वेन कृष्णं योऽयं हि यच्चास्य बलं पुराणम्। अमेयात्मा केशवः कौरवेन्द्र सोयं धर्मं वक्ष्यति सर्वमेतत्।। | 13-263-6a 13-263-6b 13-263-6c 13-263-6d |
कृष्णः पृथ्वीमसृजत्स्वं दिवं च कृष्णस्यि देहान्मेदिनी सम्बभूव। वराहोऽयं भीमबलः पुराणः स पर्वतान्व्यसृजद्वै दिशश्च।। | 13-263-7a 13-263-7b 13-263-7c 13-263-7d |
अस्माद्वायुश्चान्तरिक्षं दिवं च दिशश्चतस्रो विदिशश्चतस्रः। सृष्टिस्तथैवेयमनुप्रसूता स निर्ममे विश्वमिदं पुराणः।। | 13-263-8a 13-263-8b 13-263-8c 13-263-8d |
अस्य नाभ्यां पुष्करं सम्प्रसूतं यत्रोत्पन्नः स्वयमेवामितौजाः। येनाच्छिन्नं तत्तमः पार्थ घोरं यत्र तिष्ठन्त्यर्णवास्तच्छयानाः।। | 13-263-9a 13-263-9b 13-263-9c 13-263-9d |
कृते युगे धर्म आसीत्समग्र- स्त्रेताकाले यज्ञमनुप्रपन्नः। बलं त्वासीद्द्वापरे पार्थ कृष्णः कलौ त्वधर्मः क्षितिमेवाजगाम।। | 13-263-10a 13-263-10b 13-263-10c 13-263-10d |
स एव पूर्वं निजघान दैत्या- न्स एव देवश्च बभूव सम्राट्। स भूतानां भावनो भूतभव्यः स विश्वस्यास्य जगतश्चाभिगोप्ताः।। | 13-263-11a 13-263-11b 13-263-11c 13-263-11d |
यदा धर्मो ग्लाति वंशे सुराणां तदा कृष्णो जायते मानुषेषु। धर्मे स्थित्वा स तु वै भावितात्मा परांश्च लोकानपराश्च पाति।। | 13-263-12a 13-263-12b 13-263-12c 13-263-12d |
त्याज्यांस्त्यक्त्वा चासुराणां वधेन कार्याकार्ये कारणं चैव पाति। कृतं करिष्यत्क्रियते च देवो राहुं सोमं विद्धि च शक्रमेनम्।। | 13-263-13a 13-263-13b 13-263-13c 13-263-13d |
स विश्वकर्मा स हि विश्वरूपः स विश्वबुग्विश्वसृग्विश्वजिच्च। स शूलभृच्छोणितभृत्कराल- स्तं कर्मभिर्विदितं वै स्तुवन्ति।। | 13-263-14a 13-263-14b 13-263-14c 13-263-14d |
तं गन्धर्वाणामप्सरसां च नित्य- मुपतिष्ठन्ते विबुधानां शतानि। तं राक्षसाश्च परिसंवदन्ति राजन्यानां स विजिगीषुरेकः।। | 13-263-15a 13-263-15b 13-263-15c 13-263-15d |
तमध्वरे शंसितारः स्तुवन्ति रथन्तरे सामगाश्च स्तुवन्ति। तं ब्राह्मणा ब्रह्ममन्त्रैः स्तुवन्ति तस्मै हविरध्वर्यवः कल्पयन्ति।। | 13-263-16a 13-263-16b 13-263-16c 13-263-16d |
स पौराणीं ब्रह्मगुहां प्रविष्टो महीसत्रं भारताग्रे ददर्श। स चैव गामुद्दधाराग्र्यकर्मा विक्षोभ्य दैत्यानुरगान्दानवांश्च।। | 13-263-17a 13-263-17b 13-263-17c 13-263-17d |
तं घोषार्थे गीर्भिरिन्द्राः स्तुवन्ति स चापीशो भारतैकः पशूनाम्। तस्य भक्षान्विविधान्वेदयन्ति तमेवाजौ वाहनं वेदयन्ति।। | 13-263-18a 13-263-18b 13-263-18c 13-263-18d |
तस्यान्तरिक्षं पृथिवी दिवं च सर्वं वशे तिष्ठति शाश्वतस्य। स कुम्भे रेतः ससृजे सुराणां यत्रोत्पन्नमृषिमाहुर्वसिष्ठम्।। | 13-263-19a 13-263-19b 13-263-19c 13-263-19d |
स मातरिश्वा विभुरश्ववाजी स रश्मिवान्सविता चादिदेवः। तेनासुरा विजिताः सर्व एव तद्विक्रान्तैर्विजितानीह त्रीणि।। | 13-263-20a 13-263-20b 13-263-20c 13-263-20d |
स देवानां मानुषाणां पितॄणां तमेवाहुर्यज्ञविदां वितानम्। स एव कालं विभजन्नुदेति तस्योत्तरं दक्षिणं चायने द्वे।। | 13-263-21a 13-263-21b 13-263-21c 13-263-21d |
तस्यैवोर्ध्वं तिर्यगधश्चरन्ति गभस्तयो मेदिनीं भासयन्तः। तं ब्राह्मणा वेदविदो जुषन्ति तस्यादित्यो गामुपयुज्य भाति।। | 13-263-22a 13-263-22b 13-263-22c 13-263-22d |
स मासिमास्यध्वरकृद्विधत्ते तमध्वरे वेदविदः पठन्ति। स एवोक्तश्चक्रमिदं त्रिनाभि सप्ताश्वयुक्तं वहते वै त्रिधामा।। | 13-263-23a 13-263-23b 13-263-23c 13-263-23d |
कृष्णं सदा पार्थ कर्तारमेहि।। | 13-263-24f |
स एकदा कक्षगतो महात्मा तुष्टो विभुः खाण्डवे धूमकेतुः। स राक्षसानुरगांश्चावजित्य सर्वत्रगः सर्वमग्नौ जुहोति।। | 13-263-25a 13-263-25b 13-263-25c 13-263-25d |
स एव पार्थाय श्वेतमश्वं प्रायच्छ- त्स एवाश्वानथ सर्वांश्चकार। सबन्धुरस्तस्य रथस्त्रिचक्र- स्त्रिवृच्छिराश्चतुरश्वस्त्रिनाभिः।। | 13-263-26a 13-263-26b 13-263-26c 13-263-26d |
स विहायो व्यदधात्पञ्चनाभिः स निर्ममे गां दिवमन्तरिक्षम्। सोऽरण्यानि व्यसृजत्पर्वतांश्च हृषीकेशोऽमितदीप्ताग्नितेजाः।। | 13-263-27a 13-263-27b 13-263-27c 13-263-27d |
अलङ्घयद्वै सरितो जिघांस- ञ्शक्रं वज्रं प्रहरन्तं निरास। स महेन्द्रः स्तूयते वै महाध्वरे विप्रैरेको ऋक्सहस्रैः पुराणैः।। | 13-263-28a 13-263-28b 13-263-28c 13-263-28d |
दुर्वासा वै तेन नान्येन शक्यो गृहे राजन्वासयितुं महौजाः। तमेवाहुर्ऋषिमेकं पुराणं स विश्वकृद्विदधात्यात्मभावान्।। | 13-263-29a 13-263-29b 13-263-29c 13-263-29d |
वेदांश्च यो वेदयतेऽधिदेवो विधींश्च यश्चाश्रयते पुराणान्। कामे वेदे लौकिके यत्फलं च विष्वक्सेनः सर्वमेतत्प्रतीहि।। | 13-263-30a 13-263-30b 13-263-30c 13-263-30d |
ज्योतींषि शुक्लानि हि सर्वलोके त्रयो लोका लोकपालास्त्रयश्च। त्रयोऽग्रयो व्याहृतयश्च तिस्रः सर्वे देवा देवकीपुत्र एव।। | 13-263-31a 13-263-31b 13-263-31c 13-263-31d |
स क्त्सरः स ऋतुः सोऽर्धमासः सोऽहोरात्रः स कला वै स काष्ठाः। मात्रा मुहूर्ताश्च लवाः क्षणाश्च विष्वक्सेनः सर्वमेतत्प्रतीहि।। | 13-263-32a 13-263-32b 13-263-32c 13-263-32d |
चन्द्रादित्यौ ग्रहनक्षत्रताराः सर्वाणि दर्शान्यथ पौर्णमासम्। चन्द्रादित्यौ ग्रहनक्षत्रताराः सर्वाणि दर्शान्यथ पौर्णमासम्। | 13-263-33a 13-263-33b 13-263-33c 13-263-33d |
सर्व कृष्णादृषयश्चैव सप्त।। | 13-263-34d |
वायुर्भूत्वा विक्षिपते च विश्व- मग्निर्भूत्वा दहते विश्वरूपः। आपो भूत्वा मज्जयते च सर्वं ब्रह्म भूत्वा सृजते विश्वसङ्घान्।। | 13-263-35a 13-263-35b 13-263-35c 13-263-35d |
वेद्यं च यद्वेदयते च वेद्यं विधिश्च यश्च श्रयते विधेयम्। धर्मे च वेदे च बले च सर्वं चराचरं केशवं त्वं प्रतीहि।। | 13-263-36a 13-263-36b 13-263-36c 13-263-36d |
ज्योतिर्भूतः परमोसौ पुरस्ता- त्प्रकाशते यत्प्रभया विश्वरूपः। अपः सृष्ट्वा सर्वभूतात्मयोनिः पुराऽकरोत्सर्वमेवाथ विश्वम्।। | 13-263-37a 13-263-37b 13-263-37c 13-263-37d |
ऋतूनुत्पातान्विविधान्यद्भुतानि मेघान्विद्युत्सर्वमैरावतं च। सर्वं कृष्णात्स्थावरं जङ्गं च विश्वात्मानं विष्णुमेनं प्रतीहि।। | 13-263-38a 13-263-38b 13-263-38c 13-263-38d |
विश्वावासं निर्गुणं वासुदेवं सङ्कर्षणं जीवभूतं वदन्ति। ततः प्रद्युम्नमनिरुद्धं चतुर्थ- माज्ञापयत्यात्मयोनिर्महात्मा।। | 13-263-39a 13-263-39b 13-263-39c 13-263-39d |
स पञ्चधा पञ्चगुणोपपन्नं सञ्चोदयन्विश्वमिदं सिसृक्षुः। ततश्चकारावनिमारुतौ च खं ज्योतिरम्भश्चि तथैव पार्थ।। | 13-263-40a 13-263-40b 13-263-40c 13-263-40d |
स स्थावरं जङ्गमं चैवमेत- च्चतुर्विधं लोकमिमं च कृत्वा। ततो भूमिं व्यदधात्पञ्चबीजां द्यावापृथिव्यग्निरथाम्बुवायू।। | 13-263-41a 13-263-41b 13-263-41c 13-263-41d |
न्सर्वान्सदा भूतपतिः सिसृक्षुः।। | 13-263-42f |
शुभाशुभं स्थावरं जङ्गमं च विष्वक्सेनात्सर्वमेतत्प्रतीहि। यद्वर्तते यच्च भविष्यतीह सर्वं ह्येतत्केशवं त्वं प्रतीहि।। | 13-263-43a 13-263-43b 13-263-43c 13-263-43d |
मृत्युश्चैव प्राणिनामन्तकाले साक्षात्कृष्णः केशवो देहभाजाम्। भूतं च यच्चेह न विद्म किञ्चि- द्विष्वक्सेनात्सर्वमेतत्प्रतीहि।। | 13-263-44a 13-263-44b 13-263-44c 13-263-44d |
यत्प्रशस्तं च लोकेषु पुण्यं यच्च शुभाशुभम्। तत्सर्वं केशवोऽचिन्त्यो विपरीतमतः परम्।। | 13-263-45a 13-263-45b |
एतादृशः केशवोऽतश्च भूयो नारायणः परमश्चाव्ययश्च। मध्याद्यन्तस्य जगतस्तस्तुषश्च बुभूषतां प्रभवश्चाव्ययश्च।। | 13-263-46a 13-263-46b 13-263-46c 13-263-46d |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रिषष्ट्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 263 ।। |
13-263-2 व्युष्टिं फलम्।। 13-263-3 दृष्टव्युष्टिरिति झ.पाठः।। 13-263-4 न चेति दुःखितस्य दिनं महद्भवतीत्यर्थः।। 13-263-10 कलौ त्वधर्म एव बलवानिति भावः।। 13-263-12 ग्लाति ग्लायति।। 13-263-13 एनं राहुं सोमं शक्रं च विद्धि।। 13-263-14 शोणितभृच्छरीरि।। 13-263-17 महीसत्रं पृथिव्याश्छादनं मज्जनमिति यावत्।। 13-263-18 घोषार्थे गोवर्द्धनोद्धरणकाले। पशूनां गवां जीवानां च। वाहनं जयप्रापकम्।। 13-263-19 सुराणां मित्रावरुणयो रेतः कुम्भे ससृजे।। 13-263-20 विक्रान्तैः पादविक्षेपैः। त्रीणि भुवनानि।। 13-263-21 देवानां आत्मेति शेषः। तमेवाहुर्यज्ञविदः पुराणमिति क.थ.पाठः।। 13-263-22 जुषन्ति सेवन्ते।। 13-263-23 विधत्तेऽध्वरमित्यर्थात्। त्रिनाभि शीतोष्णवृष्टिकालगर्भम्। चक्रं संवत्सरम्। त्रिधामेति वर्षवातोष्णप्रकारम्।। 13-263-24 हंसं सूर्यम्। प्राश्नन्ननश्नंश्च स एव धीरः कृष्णं सदा पार्थेति क.थ.पाठः।। 13-263-26 त्रिबन्धुरस्तास्येति क.ध.पाठः।। 13-263-27 पञ्चनाभिः पञ्चभूतानां नाभिराश्रय इत्यर्थः।। 13-263-28 निरास पराभूतवान्।। 13-263-30 विधिनग्निहोत्रादीन्।। 13-263-36 वेद्यं वेदप्रतिद्यं। वेद्यं ज्ञेयम्।। 13-263-38 नक्षत्रमासान्विविधं कार्यजातं विद्युत्संघैरापतन्तश्च मेघाः। सर्वं कृष्णादिति क.थ.पाठः।। 13-263-40 पञ्चधा पञ्चप्रकारं देवासुरमनुष्यश्वापदतिर्यग्रूपेण विश्वं सिसृक्षुराज्ञापयतीति पूर्वेणान्वयः। पञ्चजनोपपन्नमिति झ.पाठः।। 13-263-41 चतुर्विधं जरायुजादि। पञ्चबीजां चतुर्विधभूतग्रामः कर्म च तेषां बीजभूताम्।। 13-263-45 अतः केशवात् यत्परं कल्प्यते तद्विपरीतम्। असन्मार्ग इत्यर्थः।। 13-263-46 तादृशः केशवो देवो भूयो नारायणः परः। आदिरन्तश्च मध्यं च देशतः कालते हरिः। जगतां तस्थुषां चैव भूतानां प्रभवाप्यय इति क.थ.पाठः।।
अनुशासनपर्व-262 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-264 |