महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-185
दिखावट
← अनुशासनपर्व-184 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-185 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-186 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति पतिव्रताधर्मप्रतिपादकशाण्डिलीसुमनासंवादानुवादः।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-185-1x |
स्त्रीणां हि समुदाचारं सर्वधर्मविदांवर। श्रोतुमिच्छाम्यहं त्वत्तस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-185-1a 13-185-1b |
भीष्म उवाच। | 13-185-2x |
सर्वज्ञां सर्वतत्त्वज्ञां देवलोके मनस्विनीम्। कैकेयी सुमना नाम शाण्डिलीं पर्यपृच्छत।। | 13-185-2a 13-185-2b |
केन वृत्तेन कल्याणि समाचारेण केन वा। विधूय सर्वपापानि देवलोकं त्वमागता।। | 13-185-3a 13-185-3b |
हुताशनशिखेव त्वं ज्वलमाना स्वतेजसा। सुता ताराधिपस्येव प्रभया दिवमागता।। | 13-185-4a 13-185-4b |
अरजांसि च वस्त्राणि धारयन्ती गतक्लमा। विमानस्था शुभा भासि सहस्रगुणमोजसा।। | 13-185-5a 13-185-5b |
न त्वमल्पेन तपसा दानेन नियमेन वा। इमं लोकमनुप्राप्ता त्वं हि तत्त्वं वदस्व मे।। | 13-185-6a 13-185-6b |
इति पृष्टा सुमनया मधुरं चारुहासिनी। शाण्डिली निभृतं वाक्यं सुमनामिदमब्रवीत्।। | 13-185-7a 13-185-7b |
नाहं काषायवसना नापि वल्कलधारिणी। न च मुण्डा च जटिला भूत्वा देवत्वमागता।। | 13-185-8a 13-185-8b |
अहितानि च वाक्यानि सर्वाणि परुषाणि च। अप्रमत्ता च भर्तारं कदाचिन्नाहमब्रवम्।। | 13-185-9a 13-185-9b |
देवतानां पितॄणां च ब्राह्मणानां च पूजने। अप्रमत्ता सदा युक्ता श्वश्रूश्वशुरवर्तिनी।। | 13-185-10a 13-185-10b |
पैशुन्ये न प्रवर्तामि न ममैतन्मनो गतम्। अद्वारि न च तिष्ठामि चिरं न कथयामि च।। | 13-185-11a 13-185-11b |
असद्वा हसितं किञ्चिदहितं वाऽपि कर्मणा। रहस्यमरहस्यं वा न प्रवर्तामि सर्वथा।। | 13-185-12a 13-185-12b |
कार्यार्थे निर्गतं चापि भर्तारं गृहमागतम्। आसनेनोपसंयोज्य पूजयामि समाहिता।। | 13-185-13a 13-185-13b |
यदन्नं नाभिजानाति यद्भोज्यं नाभिनन्दति। भक्ष्यं वा यदि वा लेह्यं तत्सर्वं वर्जयाम्यहम्।। | 13-185-14a 13-185-14b |
कुटुंबार्थे समानीतं यत्किञ्चित्कार्यमेव तु। पुनरुत्थाय तत्सर्वं कारयामि करोमि च।। | 13-185-15a 13-185-15b |
अग्निसंरक्षणपरा गृहशुद्धिं च कारये। कुमारान्पालये नित्यं कुमारीं परिशिक्षये।। | 13-185-16a 13-185-16b |
आत्मप्रियाणि हित्वाऽपि गर्भसंरक्षणे रता। बालानां वर्जये नित्यं शापं कोपं प्रतापनम्।। | 13-185-17a 13-185-17b |
अविक्षिप्तानि धान्यानि नान्नविक्षेपणं गृहे। रक्तवत्स्पृहये गेहे गावः सयवसोदकाः। समुद्गम्य च शुद्धाऽहं भिक्षां दद्यां द्विजातिषु।। | 13-185-18a 13-185-18b 13-185-18c |
प्रवासं यदि मे याति भर्ता कार्येण केनचित्। मङ्गलैर्बहुभिर्युक्ता भवामि नियता तदा।। | 13-185-19a 13-185-19b |
अञ्जनं रोचनां चैव स्नानं माल्यानुलेपनम्। प्रसाधनं च निष्क्रान्ते नामिनन्दामि भर्तरि।। | 13-185-20a 13-185-20b |
नोत्थापयामि भर्तारं सुखं सुप्तमहं सदा। आतुरेष्वपि कार्येषु तेन तुष्यति मे मनः। नोत्थापये सुखं सुप्तं ह्यातुरं पालये पतिम्।। | 13-185-21a 13-185-21b 13-185-21c |
नायासयामि भर्तारं कुटुम्बार्थेऽपि सर्वदा। गुप्तगुह्या सदा चास्मि सुसंमृष्टनिवेशना।। | 13-185-22a 13-185-22b |
इमं धर्मपथं नारी पालयन्ती समाहिता। अरुन्धतीव नारीणीस्वर्गलोके महीयते।। | 13-185-23a 13-185-23c |
भीष्म उवाच। | 13-185-24x |
एतदाख्याय सा देवी सुमनायै तपस्विनी। पतिधर्मं महाभागा जगामादर्शनं तदा।। | 13-185-24a 13-185-24b |
यश्चेदं पाण्डवाख्यानं पठेत्पर्वणि पर्वणि। स देवलोकं सम्प्राप्य नन्दने स सुखी वसेत्।। | 13-185-25a 13-185-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चाशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 185 ।। |
13-185-19 मङ्गलैर्नियतेति मङ्गलसूत्रमात्रं धारयामि नतु ताम्बूलादीनित्यर्थः।। 13-185-25 पाण्डवाख्यानं पाण्डवेति च्छेदः।।
अनुशासनपर्व-184 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-186 |