महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-242
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महेश्वरेण पार्वतींप्रति प्राणिनां मरणस्य स्वाभाविकत्वयत्नसाध्यत्वभेदेन द्वैविध्यकथनपूर्वकं द्वितीयस्य योगादिना शरीरत्यागादिभेदेन चातुर्विध्यकथनेन तस्य महाफलहेतुत्वकथनम्।। 1 ।। कामक्रोधादिना शरीरत्यागस्य नकरभोगहेतुत्वकथनम्।। 2 ।।
उमोवाच। | 13-242-1x |
भगवन्मानुषाः केचित्कालधर्ममुपस्थिताः। प्राणमोक्षं कथं कृत्वा परत्रि हितमाप्नुयुः।। | 13-242-1a 13-242-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-242-2x |
हन्त ते कथयिष्यामि शृणु देवि समाहिता। द्विविधं मरणं लोके स्वभावाद्यत्नतस्तथा।। | 13-242-2a 13-242-2b |
तयोः स्वभावं नापायं यत्नतः करणोद्भवम्। एतयोरुभयोर्देवि विधानं शृणु शोभने।। | 13-242-3a 13-242-3b |
कल्याकल्यशरीरस्य यत्नजं द्विविधं स्मृतम्। यत्नजं नाम मरणमात्मत्यागो मुमूर्षया।। | 13-242-4a 13-242-4b |
तत्राकल्यशरीरस्य जरा व्याधिश्च कारणम्। महाप्रस्थानगमनं तथा प्रायोपवेशनम्। जलावगाहनं चैव अग्निचित्यां प्रवेशनम्।। | 13-242-5a 13-242-5b 13-242-5c |
एवं चतुर्विधः प्रोक्त आत्मत्यागो मुमूर्षताम्। एतेषां क्रमयोगेन विधानं शृणु शोभने।। | 13-242-6a 13-242-6b |
स्वधर्मयुक्तं गार्हस्थ्यं चिरमूढ्वा विधानतः। तत्रानृण्यं च सम्प्राप्य वृद्धो वा व्याधितोऽपि वा।। | 13-242-7a 13-242-7b |
दर्शयित्वा स्वदौर्बल्यं सर्वानेवानुमान्य च। सर्वं विहाय बन्धूंश्च क्रमाणां भरणं तथा।। | 13-242-8a 13-242-8b |
दानानि विधिवत्कृत्वा धर्मिकार्यर्थमात्मनः। अनुज्ञाप्य जनं सर्वं वाचा मधुरया ब्रुवन्।। | 13-242-9a 13-242-9b |
अहतं वस्त्रमाच्छाद्य बद्ध्वा तत्कुशरज्जुना। उपस्पृश्च प्रतिज्ञाय व्यवसायपुरसरम्।। | 13-242-10a 13-242-10b |
परित्यज्य ततो ग्राम्यं धर्मं कुर्याद्यथेप्सितम्। महाप्रस्तानमिच्छेच्चेत्प्रतिष्ठेतोत्तरां दिशम्।। | 13-242-11a 13-242-11b |
भूत्वा तावन्निराहारो यावत्प्राणविमोक्षणम्। चेष्टाहानौ शयित्वाऽपि तन्मनाः प्राणमुत्सृजेत्। एवं पुण्यकृतां लोकानमलान्प्रतिपद्यते।। | 13-242-12a 13-242-12b 13-242-12c |
प्रायोपवेशनं चेच्छेत्तेनैव विधिना नरः। देशे पुण्यतमे श्रेष्ठे निराहारस्तु संविशेत्।। | 13-242-13a 13-242-13b |
अप्राणं तु शुचिर्भूत्वा कुर्वन्दानं स्वशक्तितः। पुण्यं परित्यजेत्प्राणानेष धर्मः सनातनः। एवं कलेवरं त्यक्त्वा स्वर्गलोके महीयते।। | 13-242-14a 13-242-14b 13-242-14c |
अग्निप्रवेशनं चेच्छेत्तेनैव विधिना शुभे। कृत्वा काष्ठमयं चित्यं पुण्यक्षेत्रे नदीषु वा।। | 13-242-15a 13-242-15b |
दैवतेभ्यो नमस्कृत्वा कृत्वा चापि प्रदक्षिणम्। भूत्वा शुचिर्व्यवसितः प्रविशेदग्निसंस्तरम्। सोपि लोकान्यथान्यायं प्राप्नुयात्पुण्यकर्मणाम्।। | 13-242-16a 13-242-16b 13-242-16c |
जलावगाहनं चेच्छेत्तेनैव विधिना शुभे। ख्याते पुण्यतमे तीर्थे निमज्जेत्सुकृतं स्मरन्।। | 13-242-17a 13-242-17b |
सोपि पुण्यतमाँल्लोकान्निःसङ्गात्प्रतिपद्यते। ततः कल्यशरीरस्य संत्यागं शृणु तत्वतः।। | 13-242-18a 13-242-18b |
रक्षार्थं क्षत्रियः श्रेष्ठः प्रजापालनकारणात्। योधानां भर्तृपिण्डार्थं गुर्वर्थं ब्रह्मचारिणाम्।। | 13-242-19a 13-242-19b |
गोब्राह्मणार्थं सर्वेषां प्राणत्यागो विधीयते। स्वराज्यरक्षणार्तं वा कुजनैः पीडिताः प्रजाः।। | 13-242-20a 13-242-20b |
मोक्तुकामस्त्यजेत्प्राणान्युद्धमार्गे यथाविधि। सुसन्नद्धो व्यवसितः सम्प्रविश्यापराङ्मुखः। एवं राजा मृतः सद्यः स्वर्गलोके महीयते।। | 13-242-21a 13-242-21b 13-242-21c |
तादृशी सुगतिर्नास्ति क्षत्रियस्य विशेषतः। भृत्यो वा भर्तृपिण्डार्थं भर्तृकर्मण्युपस्थिते।। | 13-242-22a 13-242-22b |
कुर्वंस्तत्र तु साहाय्यमात्मप्राणानपेक्षया। स्वाम्यर्थं संत्यजेत्प्राणान्पुण्याँल्लोकान्स गच्छति।। | 13-242-23a 13-242-23b |
स्पृहणीयः सुरगणैस्तत्र नास्ति विचारणा। एवं गोब्राह्मणार्थं वा दीनार्थं वा त्यजेत्तनुम्।। | 13-242-24a 13-242-24b |
सोपि पुण्यमवाप्नोति आनृशंस्यव्यपेक्षया। इत्येते जीवितत्यागे मार्गास्ते समुदाहृताः।। | 13-242-25a 13-242-25b |
कामक्रोधाद्भयाद्वाऽपि यदि चेत्संत्यजेत्तनुम्। सोऽनन्तं नरकं याति आत्महन्तृत्वकारणात्।। | 13-242-26a 13-242-26b |
स्वभावं मरणं नाम न तु चात्मेच्छया भवेत्। यथा मृतानां यत्कार्यं तन्मे शृणु यथाविधि।। | 13-242-27a 13-242-27b |
तत्रापि मरणं त्यागो मूढत्यागाद्विशिष्यते। भूमौ संवेशयेद्देहं नरस्य विनशिष्यतः।। | 13-242-28a 13-242-28b |
निर्जीवं वृणुयात्सद्यो वाससा तु कलेवरम्। माल्यगन्धैरलङ्कृत्य सुवर्णेन च भामिनि।। | 13-242-29a 13-242-29b |
श्मशाने दक्षिणे देशे चिताग्नौ प्रदहेन्मृतम्। अथवा निक्षिपेद्भूमौ शरीरं जीववर्जितम्।। | 13-242-30a 13-242-30b |
दिवा च शुक्लपक्षश्च उत्तरायणमेव च। मुमूर्षूणां प्रशस्तानि विपरीतं तु गर्हितम्।। | 13-242-31a 13-242-31b |
औदकं चाष्टकाश्राद्धं बहुभिर्बहुभिः कृतम्। आप्यायनं मृतानां तत्परलोके भवेच्छुभम्। एतत्सर्वं मया प्रोक्तं मानुषाणां हितं वचः।। | 13-242-32a 13-242-32b 13-242-32c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्विचत्वारिंशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 242 ।। |
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