महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-116
पठन सेटिंग्स
← अनुशासनपर्व-115 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-116 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-117 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गवां तपःप्रसन्नाद्ब्रह्मणः शृङ्गप्राप्त्यादिकथनम्।। 1 ।। तथा गोदानप्राप्यपुण्यलोकवर्णनम्।। 2 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-116-1x |
पवित्राणां पवित्रं यच्छ्रेष्ठं लोके च यद्भवेत्। पावनं परमं चैव तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-116-1a 13-116-1b |
भीष्म उवाच। | 13-116-2x |
गावो महार्थाः पुण्याश्च तारयन्ति च मानवान्। धारयन्ति प्रजाश्चेमा हविषा पयसा तथा।। | 13-116-2a 13-116-2b |
न हि पुण्यतमं किञ्चिद्गोभ्यो भरतसत्तम। एताः पुण्याः पवित्राश्च त्रिषु लोकेषु सत्तमाः।। | 13-116-3a 13-116-3b |
देवानामुपरिष्टाच्च गावः प्रतिवसन्ति वै। दत्त्वा चैतास्तारयते यान्ति स्वर्गं मनीषिणः।। | 13-116-4a 13-116-4b |
मान्धाता यौवनाश्वश्च ययातिर्नहुषस्तथा। गा वै ददन्तः सततं सहस्रशतसम्मिताः।। | 13-116-5a 13-116-5b |
गताः परमकं स्थानं देवैरपि सुदुर्लभम्। अपि चात्र पुरावृत्तं कथयिष्यामि तेऽनघ।। | 13-116-6a 13-116-6b |
ऋषीणामुत्तमं धीमान्कृष्णद्वैपायनं शुकः। अभिवाद्याह्निकं कृत्वा शुचिः प्रयतमानसः।। | 13-116-7a 13-116-7b |
पितरं परिपप्रच्छ दृष्टलोकपरावरम्। को यज्ञः सर्वयज्ञानां वरिष्ठोऽभ्युपलक्ष्यते।। | 13-116-8a 13-116-8b |
किञ्च कृत्वा परं स्थानं प्राप्नुवन्ति मनीषिणः। केन देवाः पवित्रेण स्वर्गमश्नन्ति वा विभो।। | 13-116-9a 13-116-9b |
किञ्च यज्ञस्य यज्ञत्वं क्व च यज्ञः प्रतिष्ठितः। दानानामुत्तमं किञ्च किञ्च सत्रमितः परम्। पवित्राणां पवित्रं च यत्तद्ब्रूहि महामुने।। | 13-116-10a 13-116-10b 13-116-10c |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं व्यासः परमधर्मवित्। पुत्रायाकथयत्सर्वं तत्त्वेन भरतर्षभ।। | 13-116-11a 13-116-11b |
गावः प्रतिष्ठा भूतानां तथा गावः परायणम्। गावः पुण्याः पवित्राश्च गोधनं पावनं तथा।। | 13-116-12a 13-116-12b |
पूर्वमासन्नंशृङ्गा वै गाव इत्यनुशश्रुम। शृङ्गार्थे समुपासन्त ताः किल प्रभुमव्ययम्।। | 13-116-13a 13-116-13b |
ततो ब्रह्मा तु गाः सत्रमुपविष्टाः समीक्ष्य ह। ईप्सितं प्रददौ ताभ्यो गोभ्यः प्रत्येकशः प्रभुः।। | 13-116-14a 13-116-14b |
तासां शृङ्गाण्यजायन्त तस्या यादृङ्भनोगतम्। नानावर्णाः शृङ्गवन्त्यस्ता व्यरोचन्त पुत्रक।। | 13-116-15a 13-116-15b |
ब्रह्मणा वरदत्तास्ता हव्यकव्यप्रदाः शुभाः। पुण्याः पवित्राः सुभगा दिव्यसंस्थानलक्षणाः।। | 13-116-16a 13-116-16b |
गावस्तेजो महद्दिव्यं गवां दानं प्रशस्यते। ये चैताः सम्प्रयच्छन्ति साधवो वीतमत्सराः।। | 13-116-17a 13-116-17b |
ते वै सुकृतिनः प्रोक्ताः सर्वदानप्रदाश्च ते। गवां लोकं तथा पुण्यमाप्नुवन्ति च तेऽनघ।। | 13-116-18a 13-116-18b |
यत्र वृक्षा मधुफला दिव्यपुष्पफलोपगाः। पुष्पाणि च सुगन्धीनि दिव्यानि द्विजसत्तम।। | 13-116-19a 13-116-19b |
सर्वा मणिभयी भूमिः सर्वकाञ्चनवालुकाः। सर्वर्तुसुखसंस्पर्शा निष्पङ्का निरजाः शुभाः।। | 13-116-20a 13-116-20b |
रक्तोत्पलवनैश्चैव मणिखण्डैर्हिरण्मयैः। तरुणादित्यसङ्काशैर्भान्ति तत्र जलाशयाः।। | 13-116-21a 13-116-21b |
महार्हमणिपत्रैश्च काञ्चनप्रभकेसरैः। नीलोत्पलविमिश्रैश्च सरोभिर्बहुपङ्कजैः।। | 13-116-22a 13-116-22b |
करवीरवनैः फुल्लैः सहस्रावर्तसंवृतैः। सन्तानकवनैः फुल्लैर्वृक्षेश्च समलङ्कृताः।। | 13-116-23a 13-116-23b |
निर्मिलाभिश्च मुक्ताभिर्मणिभिश्च महाप्रभैः। उद्भूतपुलिनास्तत्र जातरूपैश्चि निम्नगाः।। | 13-116-24a 13-116-24b |
सर्वरत्नमयैश्चित्रैरवगाढा द्रुमोत्तमैः। जातरूपमयैश्चान्यैर्हुताशनसमप्रभैः।। | 13-116-25a 13-116-25b |
सौवर्णि गिरयस्तत्र मणिरत्नशिलोच्चयाः। सर्वरत्नमयैर्भान्ति शृङ्गैश्चारुभिरुच्छ्रितैः।। | 13-116-26a 13-116-26b |
नित्यपुष्पफलास्तत्र नगाः पत्ररथाकुलाः। दिव्यगन्धरसैः पुष्पैः फलैश्च भरतर्षभ।। | 13-116-27a 13-116-27b |
रमन्ते पुण्यकर्माणस्तत्र नित्यं युधिष्ठिर। सर्वकामसमृद्धार्था निःशोका गतमन्यवः।। | 13-116-28a 13-116-28b |
विमानेषु विचित्रेषु रमणीयेषु भारत। मोदन्ते पुण्यकर्माणो विरहन्तो यशस्विनः।। | 13-116-29a 13-116-29b |
उपक्रीडन्ति तान्राजञ्शुभाश्चाप्सरसां गणाः। एतान्लोकानवाप्नोति गां दत्त्वा वै युधिष्ठिर।। | 13-116-30a 13-116-30b |
यासामधिपतिः पूषा मारुतो बलवान्बले। ऐश्वर्ये वरुणो राजा ता मां पान्तु युगन्धराः।। | 13-116-31a 13-116-31b |
सुरूपा बहुरूपाश्च विश्वरूपाश्च मातरः। प्राजापत्या इति ब्रह्मञ्जपेन्नित्यं यतव्रतः।। | 13-116-32a 13-116-32b |
गाश्च शुश्रूषते यश्च समन्वेति च सर्वशः। तस्मै तुष्टाः प्रयच्छन्ति वरानपि सुदुर्लभान्।। | 13-116-33a 13-116-33b |
द्रुह्येन मनसा वाऽपि गोषु ता हि सुखप्रदाः। अर्चयेत सदा चैव नमस्कारैश्च पूजयेत्।। | 13-116-34a 13-116-34b |
दान्तः प्रीतमना नित्यं गवां व्युष्टिं तथाऽश्नुते। त्र्यहमुष्णं पिबेन्मूत्रं त्र्यहमुष्णं पिबेत्पयः।। | 13-116-35a 13-116-35b |
गवामुष्णं पयः पीत्वा त्र्यहमुष्णं घृतं विबेत्। त्र्यहमुष्णं घृतं पीत्वा वायुभक्षो भवेत्र्यहम्।। | 13-116-36a 13-116-36b |
योन देवाः पवित्रेणि भुञ्जते लोकमुत्तमम्। यत्पवित्रं पवित्राणां तद्धृतं शिरसा वहेत्।। | 13-116-37a 13-116-37b |
घृतेन जुहुयादग्निं घृतेन स्वस्ति वाचयेत्। घृतं प्राशेद्धृतं दद्याद्गवां पुष्टिं तथाऽश्नुते।। | 13-116-38a 13-116-38b |
निर्हृतैश्च यवैर्गोभिर्मासं प्रश्रितयावकः। ब्रह्महत्यासमं पापं सर्वमेतेन शुध्यते।। | 13-116-39a 13-116-39b |
पराभवार्थं दैत्यानां देवैः शौचमिदं कृतम्।। ते देवत्वमपि प्राप्ताः संसिद्धाश्च महाबलाः।। | 13-116-40a 13-116-40b |
गावः पवित्राः पुण्याश्च पावनं परमं महत्। ताश्च दत्त्वा द्विजातिभ्यो नरः स्वर्गमुपाश्नुते।। | 13-116-41a 13-116-41b |
गवां मध्ये शुचिर्भूत्वा गोमतीं मनसा जपेत्। पूताभिरद्भिराचम्यि शुचिर्भवति निर्मलः।। | 13-116-42a 13-116-42b |
अग्निमध्ये गवां मध्ये ब्राह्मणानां च संसदि। विद्यावेदप्रतस्नाता ब्राह्मणाः पुण्यकर्मिणः।। | 13-116-43a 13-116-43b |
अध्यापयेरञ्शिष्यान्वै गोमतीं यज्ञसम्मिताम्। त्रिरात्रोपोषितो भूत्वा गोमतीं लभते वरम्।। | 13-116-44a 13-116-44b |
पुत्रिकामश्च लभते पुत्रं धनमथापि वा।। पतिकामा च भर्तारं सर्वकामांश्च मानवः।। | 13-116-45a 13-116-45b |
गावस्तुष्टाः प्रयच्छन्ति सेविता वै न संशयः। एवमेतां महाभागा यज्ञियाः सर्वकामदाः। रोहिण्य इति जानीहि नैताभ्यो विद्यते परम्।। | 13-116-46a 13-116-46b 13-116-46c |
इत्युक्तः स महातेजाः शुकः पित्रा महात्मना। पूजयामास तां नित्यं तस्मात्त्वमपि पूजय।। | 13-116-47a 13-116-47b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। 116 ।। |
13-116-13 अशृङ्का इत्यखुरा इत्यस्याप्युपलक्षणम्।। 13-116-14 गाः प्रायमुपविष्टा इति झ.पाठः।। 13-116-27 गनाः वृक्षाः। पत्ररथाः पक्षिणः।। 13-116-39 निर्हृतैः गोमयनिर्गतैः।। 13-116-44 गोमतीं गोमत्या ऋचा प्रकाशितमर्थं वरं लभते।।
अनुशासनपर्व-115 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-117 |