महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-225
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पार्वत्या परमेश्वरंप्रति प्राणिनां शुभाशुभफलयोर्मध्ये कस्य पूर्वोपभोग इति प्रश्नः।। 1 ।। परमेश्वरेण तांप्रति सदृष्टान्तप्रदर्शनं तयोर्यौगपद्येनोपभोगकथनम्।। 2 ।। तथा पूर्वकर्मणामल्पायुष्ट्वादिकारणत्वाभिधानम्।। 3 ।।
उमोवाच। | 13-225-1x |
भगवन्भगनेत्रघ्न मानुषाणां विचेष्टितम्। सर्वमात्मकृतं चेति श्रुतं मे भगवन्मतम्।। | 13-225-1a 13-225-1b |
लोके ग्रहकृतं सर्वं मत्वा कर्म शुभाशुभम्। तदेव ग्रहनक्षत्रं प्रायशः पर्युपासते। एष मे संशयो देव तं मे त्वं छेत्तुमर्हसि।। | 13-225-2a 13-225-2b 13-225-2c |
महेश्वर उवाच। | 13-225-3x |
स्थाने संशयितं देवि शृणु तत्वविनिश्चयम्।। | 13-225-3a |
नक्षत्राणि ग्रहाश्चैव शुभाशुभनिवेदकाः। मानवानां महाभागे न तु कर्मकराः स्वयम्।। | 13-225-4a 13-225-4b |
प्रजानां तु हितार्थाय शुभाशुभविधिं प्रति। अनागतमतिक्रान्तं ज्योतिश्चक्रेण बोध्यते।। | 13-225-5a 13-225-5b |
किन्तु तत्र शुभं कर्म सुग्रहैस्तु निवेद्यते। दुष्कृतस्याशुभैरेव समावायो भवेदिति।। | 13-225-6a 13-225-6b |
तस्मात्तु ग्रहवैषम्ये विषमं कुरुते जनः। ग्रहसाम्ये शुभं कुर्याज्ज्ञात्वाऽऽत्मानं तथा कृतम्।। | 13-225-7a 13-225-7b |
केवलं ग्रहनक्षत्रं न करोति शुभाशुभम्। सर्वमात्मकृतं कर्म लोकवादो ग्रहा इति।। | 13-225-8a 13-225-8b |
पृथग्ग्रहाः पृथक्कर्ता कर्ता स्वं भुञ्जते फलम्। इति ते कथितं सर्वं विशङ्कां जहि शोभने।। | 13-225-9a 13-225-9b |
उमोवाच। | 13-225-10x |
भगवन्विविधं कर्म कृत्वा जन्तुः शुभाशुभम्। किं तयोः पूर्वकतरं भुङ्क्ते जन्मान्तरे पुनः। एष मे संशयो देव तं मे त्वं छेत्तुमर्हसि।। | 13-225-10a 13-225-10b 13-225-10c |
महेश्वर उवाच। | 13-225-11x |
स्थाने संशयितं देवि तत्ते वक्ष्यामि तत्वतः।। अशुभं पूर्वमित्याहुरपरे शुभमित्यपि। | 13-225-11a 13-225-11b |
मिथ्या तदुभयं प्रोक्तं केवलं तद्ब्रवीमि ते।। | 13-225-12a |
मानुषे तु पदे कर्म युगपद्भुज्यते सदा। यथाकृतं यथायोगमुभयं भुज्यते क्रमात्।। | 13-225-13a 13-225-13b |
भुञ्जानाश्चापि दृश्यन्ते क्रमशो भुवि मानवाः। ऋद्धिं हानिं सुखं दुःखं तत्सर्वमुभयं भयम्।। | 13-225-14a 13-225-14b |
दुःखान्यनुभवन्त्याढ्या दरिद्राश्च सुखानि च। यौगपद्याद्धि भुञ्जाना दृश्यन्ते लोकसाक्षिकम्।। | 13-225-15a 13-225-15b |
नरके स्वर्गलोके च न तथा संस्थितिः प्रिये। नित्यं दुःखं हि नरके स्वर्गे नित्यं सुखं तथा।। | 13-225-16a 13-225-16b |
शुभाशुभानामाधिक्यं कर्मणां तत्र सेव्यते। निरन्तरं सुखं दुःखं स्वर्गे च नरके भवेत्।। | 13-225-17a 13-225-17b |
तत्रापि सुमहद्भुक्त्वा पूर्वमल्पं पुनः शुभे। एतत्ते सर्वमाख्यातं किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 13-225-18a 13-225-18b |
उमोवाच। | 13-225-19x |
भगवन्प्राणिनो लोके म्रियन्ते केन हेतुना। जाताजाता न तिष्ठन्ति तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-225-19a 13-225-19b |
महेश्वर उवाच। | 13-225-20x |
तदहं ते प्रवक्ष्यामि शृणु सत्यं समाहिता। आत्मा कर्मक्षयाद्देहं यथा मुञ्चति तच्छृणु।। | 13-225-20a 13-225-20b |
शरीरात्मसमाहारो जन्तुरित्यभिधीयते। तत्रात्मानं नित्यमाहुरनित्यं क्षेत्रिमुच्यते।। | 13-225-21a 13-225-21b |
एवं कालेन सङ्क्रान्तं शरीरं जर्झरीकृतम्। अकर्मयोग्यं संशीर्णं त्यक्त्वा देही ततो व्रजेत्।। | 13-225-22a 13-225-22b |
नित्यस्यानित्यसंत्यागाल्लोके तन्मरणं विदुः। कालं नातिक्रमेरन्हि सदेवासुरमानवाः।। | 13-225-23a 13-225-23b |
यथाऽऽकाशे न तिष्ठेत द्रव्यं किञ्चिदचेतनम्। तथा धावति कालोऽयं क्षणं किञ्चिन्न तिष्ठति।। | 13-225-24a 13-225-24b |
स पुनर्जायतेऽन्यत्र शरीरं नवमाविशन्। एवंलोकगतिर्नित्यमादिप्रभृति वर्तते।। | 13-225-25a 13-225-25b |
उमोवाच। | 13-225-26x |
भगवन्प्राणिनो बाला दृश्यन्ते मरणं गताः। अतिवृद्धाश्च जीवन्तो दृश्यन्ते चिरजीविनः।। | 13-225-26a 13-225-26b |
केवलं कालमरणं न प्रमाणं महेश्वर। तस्मान्मे संशय ब्रूहि प्राणिनां जीवकारणम्।। | 13-225-27a 13-225-27b |
महेश्वर उवाच। | 13-225-28x |
शृणु तत्कारणं देवि निर्णयस्त्वेक एव सः। जीर्णत्वमात्रं कुरुते कालो देहं न पातयेत्।। | 13-225-28a 13-225-28b |
जीर्णे कर्मणि संघातः स्वयमेव विशीर्यते। पूर्वकर्मप्रमाणेन जीवितं मृत्युरेव वा।। | 13-225-29a 13-225-29b |
यावत्पूर्वकृतं कर्म तावज्जीवति मानवः। तत्र कर्मवशाद्बाला म्रियन्ते कालसंक्षयात्।। | 13-225-30a 13-225-30b |
चिरं जीवन्ति वृद्धाश्च तथा कर्मप्रमाणतः। इति ते कथितं देवि निर्विशङ्का भव प्रिये।। | 13-225-31a 13-225-31b |
उमोवाच। | 13-225-32x |
भगवन्केन वृत्तेन भवन्ति चिरजीविनः। अल्पायुषो नराः केन तन्मे शंसितुमर्हसि।। | 13-225-32a 13-225-32b |
महेश्वर उवाच। | 13-225-33x |
शृणु तत्सर्वमखिलं गुह्यं पथ्यतरं नृणाम्। येन वृत्तेन सम्पन्ना भवन्ति चिरजीविनः।। | 13-225-33a 13-225-33b |
अहिंसा सत्यवचनमक्रोधः क्षीन्तिरार्जवम्। गुरूणां नित्यशुश्रूषा वृद्धानामपि पूजनम्।। | 13-225-34a 13-225-34b |
शौचादकार्यसंत्यागात्सदा पथ्यस्य भोजनम्। एवमादिगुणं वृत्तं नराणां दीर्घजीविनाम्।। | 13-225-35a 13-225-35b |
तपसा ब्रह्मचर्येण रसायननिषेवणात्। उदग्रसत्त्वा बलिनो भवन्ति चिरजीविनः। स्वर्गे वा मानुषे वाऽपि चिरं तिष्ठन्ति धार्मिकाः | 13-225-36a 13-225-36b 13-225-36c |
अपरे पापकर्माणः प्रायशोऽनृतवादिनः। हिंसाप्रिया गुरुद्विष्टा निष्क्रियाः शौचवर्जिताः।। | 13-225-37a 13-225-37b |
नास्तिका घोरकर्माणः सततं मांसपानपाः। पापाचारा गुरुद्विष्टाः कोपनाः कलहप्रियाः।। | 13-225-38a 13-225-38b |
एवमेवाशुभाचारास्तिष्ठन्ति नरके चिरम्। तिर्यग्योनौ तथाऽत्यन्तमल्पास्तिष्ठन्ति मानवाः। तस्मादल्पायुषो मर्त्यास्तादृशाः सम्भवन्ति ते।। | 13-225-39a 13-225-39b 13-225-39c |
अगम्यदेशगमनादपथ्यानां च भोजनात्। आयुःक्षयो भवेन्नॄणामायुःक्षयकरा हि ते।। | 13-225-40a 13-225-40b |
भवन्त्यल्पायुषस्तैस्तैरन्यथा चिरजीविनः। एतत्ते कथितं सर्वं भूयः श्रोतुं किमिच्छसि।। | 13-225-41a 13-225-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चविँशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 225 ।। |
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