महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-213
पठन सेटिंग्स
← अनुशासनपर्व-212 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-213 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-214 → |
ईश्वरेण हिंसाया दुस्त्यजत्वनिरूपणपूर्वकमर्हिंसाप्रशंसनम्।। 1 ।।
उमोवाच। | 13-213-1x |
देवदेव महादेव सर्वदेवनमस्कृत। यानि धर्मरहस्यानि श्रोतुमिच्छामि तान्यहम्।। | 13-213-1a 13-213-1b |
महेश्वर उवाच। | 13-213-2x |
रहस्यं श्रूयतां देवि मानुषाणां सुखावहम्। नपुंसकेषु वन्ध्यासु वियोनौ पृथिवीतले।। | 13-213-2a 13-213-2b |
उत्सर्गो रेतसस्तेषु न कार्यो धर्मकाङ्क्षिभिः। एतेषु बीजं प्रक्षिप्तं न च रोहति वै प्रिये।। | 13-213-3a 13-213-3b |
यत्र वा तत्र वा बीजं धर्मार्थीं नोत्सृजेत्पुनः। नरो बीजविनाशेन लिप्यते ब्रह्महत्यया।। | 13-213-4a 13-213-4b |
अहिंसा परमो धर्म अहिंसा परमं सुखम्। अहिंसा धर्मशास्त्रेषु सर्वेषु परमं पदम्।। | 13-213-5a 13-213-5b |
देवतातिथिशुश्रूषा सततं धर्मशीलता। वेदाध्ययनयज्ञाश्च तपो दानं दमस्तथा।। | 13-213-6a 13-213-6b |
आचार्यगुरुशुश्रूषा तीर्थाभिगमनं तथा। अहिंसाया वरारोहे कलां नार्हन्ति षोडशीम्।। | 13-213-7a 13-213-7b |
एतत्ते परमं गुह्यमाख्यातं परमार्चितम्।। | 13-213-8a |
उमोवाच। | 13-213-9x |
यद्यधर्मस्तु हिंसायां किमर्थममरोत्तम। यज्ञेषु पशुबन्धेषु हन्यन्ते पशवो द्विजैः।। | 13-213-9a 13-213-9b |
कथं च भगवन्भूयो हिंसमाना नराधिपाः। स्वर्गं सुदुर्गमं यान्ति तदा स्म रिपुसूदन।। | 13-213-10a 13-213-10b |
यस्यैव गोसहस्राणि विंशतिः स्वादिकानि तु। अहन्यहनि हन्यन्ते द्विजानां मांसकारणात्।। | 13-213-11a 13-213-11b |
समांसं तु स दत्त्वाऽन्नं रन्तिदेवो नराधिपः। कथं स्वर्गमनुप्राप्तः परं कौतूहलं हि मे।। | 13-213-12a 13-213-12b |
किन्तु धर्मं न शृण्वन्ति न श्रद्दधति वा श्रुतम्। मृयां वै विनिर्गत्य मृगान्हन्ति नराधिपाः।। | 13-213-13a 13-213-13b |
एतत्सर्वं विशेषेण विस्तरेण वृषध्वज। श्रोतुमिच्छामि सर्वज्ञ तत्त्वमद्य ममोच्यताम्।। | 13-213-14a 13-213-14b |
ईश्वर उवाच। | 13-213-15x |
बहुमान्यमिदं देवि नास्ति कश्चिदहिंसकः। श्रूयतां कारणं चात्र यथाऽनेकविधं भवेत्।। | 13-213-15a 13-213-15b |
दृश्यते चापि लोकेऽस्मिन्न हि कश्चिदहिंसकः। धरणीसंश्रिता देवि सुसूक्ष्मांश्चैव मध्यमान्।। | 13-213-16a 13-213-16b |
सञ्चरंश्चरणाभ्यां च हन्ति जीवाननेकशः। अज्ञानाज्ज्ञानतो वाऽपि यो जीवः शयनासनात्। उपाविशञ्शयानश्च हन्ति जीवाननेकशः।। | 13-213-17a 13-213-17b 13-213-17c |
शिरोवस्त्रेषु ये जीवा नरणां स्वेदसम्भवाः। तांश्च हिंसन्ति सततं दंशांश्च मशकानपि।। | 13-213-18a 13-213-18b |
जले जीवास्तथाऽऽकाशे पृथिवी जीवमालिनी। एवं जीवाकुले लोके कोसौ स्याद्यस्त्वहिंसकः।। | 13-213-19a 13-213-19b |
स्थूलमध्यमसूक्ष्मैश्च स्वेदवारिमहीरुहैः। दृश्यरूपैरदृश्यैश्च नानारूपैश्च भामिनि।। | 13-213-20a 13-213-20b |
जीवैस्ततमिदं सर्वमाकाशं पृथिवी तथा। अन्योन्यं ते च हिंसन्ति दुर्बलान्बलवत्तराः।। | 13-213-21a 13-213-21b |
मत्स्या मत्स्यान्ग्रसन्तीह खगाश्चैव खगांस्तथा। सरीसृपैश्च जीवन्ति कपोताद्या विहङ्गमाः।। | 13-213-22a 13-213-22b |
भूचराः खेचराश्चान्ये क्रव्यादा मांसगृद्धिनः। समृद्धाः परमांसैस्तु भक्षेरंस्तेऽपि चापरैः।। | 13-213-23a 13-213-23b |
सत्वैः सत्वानि जीवन्ति शतशोथ सहस्रशः। अपीडयित्वा नैवान्यं जीवा जीवन्ति सुन्दरि।। | 13-213-24a 13-213-24b |
स्थूलकायस्य सत्वस्य खरस्य महिषस्य च। जीवस्यैकस्य मांसेन पयसा रुधिरेण वा। तृप्यन्ते बहवो जीवाः क्रव्यादा मांसजीविनः।। | 13-213-25a 13-213-25b 13-213-25c |
एको जीवसहस्राणि सदा खादति मानवः। अन्नाद्यस्य च भोगेन दान्यसंज्ञानि यानि तु।। | 13-213-26a 13-213-26b |
मांसधान्यैः सबीजैश्च भोजनं परिवर्जयेत्।। | 13-213-27a |
त्रिरात्रं पञ्चरात्रं वा सप्तरात्रं तथाऽपि वा। धान्यानि यो न हिंसेताहिंसकः परिकीर्तितः।। | 13-213-28a 13-213-28b |
नाश्नाति यावतो जीवस्तावत्पुण्येन युज्यते। आहारस्य वियोगेन शरीरं परितप्यते।। | 13-213-29a 13-213-29b |
तप्यमाने शरीरे तु शरीरे चेन्द्रियाणि तु। वशे तिष्ठन्ति सुश्रोणि नृपाणामिव किंकराः।। | 13-213-30a 13-213-30b |
निरुणद्धीन्द्रियाण्येव स सुखी स विचक्षणः। इन्द्रियाणां निरोधेन दानेन च दमेन च। नरः सर्वमवाप्नोति मनसा यद्यधिच्छति।। | 13-213-31a 13-213-31b 13-213-31c |
एवं मूलमर्हिसाया उपवासः प्रकीर्तितः।। | 13-213-32a |
आहारं कुरुते यस्तु भूमिमाक्रमते च यः। सर्वे ते हिंसका देवि यथा धर्मेषु दृश्यते।। | 13-213-33a 13-213-33b |
यथैवाहिंसको देवि तत्वतो ज्ञायते नरः। तथा ते सम्प्रवक्ष्यामि श्रूयतां धर्मचारिणि।। | 13-213-34a 13-213-34b |
फलानि मूलपर्णानि भस्म वा योपि भक्षयेत्। अलेख्यमिव निश्चेष्टं तं मन्येऽहमहिंसकम्।। | 13-213-35a 13-213-35b |
आरम्भा हिंसया युक्ता धूमेनाग्निरिवावृताः। तस्माद्यस्तु निराहारस्तं मन्येऽहमहिंसकम्।। | 13-213-36a 13-213-36b |
यस्तु सर्वं समुत्सृज्य दीक्षित्वा नियतः शुचिः। कृत्वा मण्डलमर्यादां सङ्कल्पं कुरुते नरः।। | 13-213-37a 13-213-37b |
यावज्जीवमनाशित्वा कालकाङ्क्षी दृढव्रतः। ध्यानेन तपसा युक्तस्तं मन्येऽहमहिंसकम्।। | 13-213-38a 13-213-38b |
अन्यथा हि न पश्यामि नरो यः स्यादहिंसकः। बहु चिन्त्यमिदं देवि नास्ति कश्चिदहिंसकः।। | 13-213-39a 13-213-39b |
यतो यतो महाभागे हिंसा स्यान्महती ततः। निवृत्तो मधुमांसाभ्यां हिंसा त्वल्पतरा भवेत्।। | 13-213-40a 13-213-40b |
निवृत्तिः परमो धर्मो निवृत्तिः परमं सुखम्। मनसा विनिवृत्तानां धर्मस्य निचयो महान्।। | 13-213-41a 13-213-41b |
मनःपूर्वागमा धर्मा अधर्माश्च न संशयः। मनसा बध्यते चापि मुच्यते चापि मानवः।। | 13-213-42a 13-213-42b |
निगृहीते भवेत्स्वर्गो विसृष्टे नरको ध्रुवः। घातकः शस्त्रमुद्यम्य मनसा चिन्तयेद्यदि।। | 13-213-43a 13-213-43b |
आयुःक्षयं गतेऽन्येषां मृते तु प्रहराम्यहम्। इति यो घातको हन्यान्न स पापेन लिप्यते।। | 13-213-44a 13-213-44b |
विधिना निहताः पूर्वं निमित्तं स तु घातकः। विधिर्हि बलवान्देवि दुस्त्यजं वै पुराकृतम्।। | 13-213-45a 13-213-45b |
जीवाः पुराकृतेनैव तिर्यग्योनिसरीसृपाः। नानायोनिषु जायन्ते स्वकर्मपरिवेष्टिताः।। | 13-213-46a 13-213-46b |
नानाविधविचित्राङ्गा नानाशौर्यपराक्रमाः। नानाभूमिप्रदेशेषु नानाहारश्च जन्तवः।। | 13-213-47a 13-213-47b |
जायमानस्य जीवस्य मृत्युः पूर्वं प्रजायते। सुखं वा यदि वा दुःखं यथापूर्वं कृतं तु वा।। | 13-213-48a 13-213-48b |
प्राप्नुवन्ति नरा मृत्युं यदा यत्र च येन च। नातिक्रान्तुं हि शक्यः स्यान्निदेशः पूर्वकर्मणः।। | 13-213-49a 13-213-49b |
अप्रमत्तः प्रमत्तेषु विधिर्जागर्ति जन्तुषु। न हि तस्य प्रियः कश्चिन्न द्वेष्यो न च मध्यमः।। | 13-213-50a 13-213-50b |
समः सर्वेषु भूतेषु कालः कालं निरीक्षते। गतायुषो ह्याक्षिपते जीवः सर्वस्य देहिनः।। | 13-213-51a 13-213-51b |
यथा येन च मर्तव्यं नान्यथा म्रियते हि सः। दृश्यते न च लोकेऽस्मिन्भूतो भव्यो द्विधा पुनः।। | 13-213-52a 13-213-52b |
विज्ञानैर्विक्रमैर्वाऽपि नानामन्त्रौषधैरपि। यो हि वञ्चयितुं शक्तो विधेस्तु नियतां गतिम्।। | 13-213-53a 13-213-53b |
एष तेऽभिहितो देवि जीवहिंसाविधिक्रमः।। | 13-213-54a |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रयोदसाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 213 ।। |
अनुशासनपर्व-212 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-214 |