महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-083
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति सङ्करजातीनां शीलविभागादिनिरूपणम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-83-1x |
अर्थाश्रयाद्वा कामाद्वा वर्णानां चाप्यनिश्चयात्। अज्ञानाद्वापि वर्णानां जायते वर्णसङ्करः।। | 13-83-1a 13-83-1b |
तेषामेतेन विधिना जातानां वर्णसङ्करे। को धर्मः कानि कर्माणि तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 13-83-2a 13-83-2b |
भीष्म उवाच। | 13-83-3x |
चातुर्वर्ण्यस्य कर्माणि चातुर्वर्ण्यं च केवलम्। असृजत्स हि यज्ञार्थे पूर्वमेव प्रजापतिः।। | 13-83-3a 13-83-3b |
भार्याश्चतस्नो विप्रस्य द्वयोरात्मा प्रजायते। आनुपूर्व्याद्द्वयोर्हीनौ मातृजात्यौ प्रसूयतः।। | 13-83-4a 13-83-4b |
परं शवाद्ब्राह्मणस्यैव पुत्रः शूद्रापुत्रं पारशवं तमाहुः। शुश्रूषकः स्वस्य कुलस्य स स्या- त्स्वचारित्रं नित्यमथो न जह्यात्।। | 13-83-5a 13-83-5b 13-83-5c 13-83-5d |
सर्वानुपायानथ सम्प्रधार्य समुद्धरेत्स्वस्य कुलस्य तन्त्रम्। ज्येष्ठो यवीयानपि यो द्विजस्य शुश्रूषया दानपरायणः स्यात्।। | 13-83-6a 13-83-6b 13-83-6c 13-83-6d |
तिस्रः क्षत्रियसम्बन्धाद्द्वयोरात्माऽस्य जायते। हीनवर्णास्तृतीयायां शूद्रा उग्रा इति स्मृतिः।। | 13-83-7a 13-83-7b |
द्वे चापि भार्ये वैश्यस्य द्वयोरात्माऽस्व जायते। शूद्रा शूद्रस्य चाप्येका शूद्रमेव प्रजायते।। | 13-83-8a 13-83-8b |
अतोऽविशिष्टस्त्वधमो गुरुदारप्रधर्षकः। ब्राह्यं वर्णं जनयति चातुर्वर्ण्यविगर्हितम्।। | 13-83-9a 13-83-9b |
अयाज्यं क्षत्रियो व्रात्यंक सूतं स्तोत्रक्रियापरम्। वैश्यो वैदेहकं चापि मौद्गल्यमपवर्जितम्।। | 13-83-10a 13-83-10b |
शूद्रश्चण्डालमत्युग्रं वध्यघ्नं बाह्यवासिनम्। ब्राह्मण्यां सम्प्रजायन्त इत्येते कुलपांसनाः। एते मतिमतांश्रेष्ठ वर्णसङ्करजाः प्रभो।। | 13-83-11a 13-83-11b 13-83-11c |
बन्दी तु जायते वैश्यान्मागधो वाक्यजीवनः। शूद्रान्निषादो मत्स्यघ्नः क्षत्रियायां व्यतिक्रमात्।। | 13-83-12a 13-83-12b |
शूद्रादायोगवश्चापि वैश्यायां ग्राम्यधर्मिणः। ब्राह्मणैरप्रतिग्राह्यस्तक्षा स्वधनजीवनः।। | 13-83-13a 13-83-13b |
एतेऽपि सदृशान्वर्णाञ्जनयन्ति स्वयोनिषु। मातृजात्या प्रसूयन्ते ह्यवरा हीनयोनिषु।। | 13-83-14a 13-83-14b |
यथा चतुर्षु वर्णेषु द्वयोरात्माऽस्य जायते। आनन्तर्यात्प्रजायन्ते यथा बाह्या प्रधानतः।। | 13-83-15a 13-83-15b |
ते चापि सदृशं वर्णं जनयन्ति स्वयोनिषु। परस्परस्य दारेषु जनयन्ति विगर्हितान्।। | 13-83-16a 13-83-16b |
यथा शूद्रोऽपि ब्राह्मण्यां जन्तुं बाह्यं प्रसूयते। एवं बाह्यतराद्बाह्यश्चातुर्वर्ण्यात्प्रजायते।। | 13-83-17a 13-83-17b |
प्रतिलोमं तु वर्धन्ते बाह्योद्बाह्यतरात्पुनः। हीनाद्धीनाः प्रसूयन्ते वर्णाः पञ्चदशैव तु।। | 13-83-18a 13-83-18b |
अगम्यागमनाच्चैव जायते वर्णसङ्करः। बाह्यानामनुजायन्ते सैरन्ध्र्यां मागधेषु च। प्रसाधनोपचारज्ञमदासं दासजीवनम्।। | 13-83-19a 13-83-19b 13-83-19c |
क्षत्रा ह्यायोगवं सूते वागुराबन्धजीवनम्। मैरेयकं च वैदेहः सम्प्रसूतेऽथ माधुकम्।। | 13-83-20a 13-83-20b |
निषादो मद्गुरं सूते दासं नावोपजीविनम्। मृतपं चापि चाण्डालः श्वपाकमिति विश्रुतम् | 13-83-21a 13-83-21b |
चतुरो मागधी सूते क्रूरान्मायोपजीविनः। मांसं स्वादुकरं क्षौद्रं सौगन्धमिति विश्रुतम्।। | 13-83-22a 13-83-22b |
वैदेहकाच्च पापिष्ठा क्रूरं मायोपजीविनम्। निषादान्मद्रनाभं च खरयानप्रयायिनम्।। | 13-83-23a 13-83-23b |
चण्डालात्पुल्कसं चापि खराश्वगजभोजिनम्। भृतचैलप्रतिच्छन्नं भिन्नभाजनभोजिनम्।। | 13-83-24a 13-83-24b |
आयोगवीषु जायन्ते हीनवर्णास्तु ते त्रयः। क्षुद्रो वैदेहकादन्धो बहिर्ग्रामप्रतिश्रयः।। | 13-83-25a 13-83-25b |
कारावरो निषाद्यां तु चर्मकारः प्रसूयते। चाण्डालात्पाण्डुसौपाकस्त्वक्सारव्यवहारवान्।। | 13-83-26a 13-83-26b |
आहिण्कों निषादेन वैदेह्यां सम्प्रसूयते। चण्डालेन तु सौपाकश्चण्डालसमवृत्तिमान्।। | 13-83-27a 13-83-27b |
निषादी चापि चण्डालात्पुत्रमन्तेवसायिनम्। श्मशानगोचरं सूते बाह्यैरपि बहिष्कृतम्।। | 13-83-28a 13-83-28b |
इत्येते सङ्करे जाताः पितृमातृव्यतिक्रमात्। प्रच्छन्नान्वा प्रकाशा वा वेदितव्याः स्वकर्मभिः।। | 13-83-29a 13-83-29b |
चतुर्णामेव वर्णानां धर्मो नान्यस्य विद्यते। वर्णानां धर्महीनेषु सङ्ख्या नास्तीह कस्यचित्।। | 13-83-30a 13-83-30b |
यदृच्छयोपसम्पन्नैर्यज्ञसाधुबहिष्कृतैः। बाह्या बाह्यैश्च जायन्ते यथावृत्ति यथाश्रयम्।। | 13-83-31a 13-83-31b |
चतुष्पथश्मशानानि शैलांश्चान्यान्वनस्पतीन्। कार्ष्णायसमलङ्कारं परिगृह्य च नित्यशः। वसेयुरेते विज्ञाता वर्तयन्तः स्वकर्मभिः।। | 13-83-32a 13-83-32b 13-83-32c |
युञ्जन्तो वाऽप्यलङ्कारांस्तथोपकरणानि च। गोब्राह्मणाय साहय्यं कुर्वाणा वै न संशयः।। | 13-83-33a 13-83-33b |
आनृशंस्यमनुक्रोशः सत्यवाक्यं तथा क्षमा। स्वशरीरैरपि त्राणं बाह्यानां सिद्धिकारणम्। भवन्ति मनुजव्याघ्र तत्र मे नास्ति संशयः।। | 13-83-34a 13-83-34b 13-83-34c |
यथोपदेशं परिकीर्तितासु नरः प्रजायेत विचार्य बुद्धिमान्। निहीनयोनिर्हि सुतोऽवसादये- त्तितीर्षमाणं हि यथोपलो जले।। | 13-83-35a 13-83-35b 13-83-35c 13-83-35d |
अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः। नयन्ति ह्यपथं नार्यः कामक्रोधवशानुगम्।। | 13-83-36a 13-83-36b |
स्वभावश्चैव नारीणां नराणामिह दूषणम्। अत्यर्थं न प्रसज्जन्ते प्रमदासु विपश्चितः।। | 13-83-37a 13-83-37b |
युधिष्ठिर उवाच। | 13-83-38x |
वर्णापेतमविज्ञाय नरं कलुषयोनिजम्। आर्यरूपमिवानार्यं कथं विद्यामहे वयम्।। | 13-83-38a 13-83-38b |
भीष्म उवाच। | 13-83-39x |
योनिसङ्कलुषे जातं नानाभावसमन्वितम्। कर्मभिः सज्जनाचीर्णैर्विज्ञेयाः शुद्धयोनिकाः।। | 13-83-39a 13-83-39b |
अनार्यत्वमनाचारः क्रूरत्वं निष्क्रियात्मता। पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम्।। | 13-83-40a 13-83-40b |
पित्र्यं वा भजते शीलं मातृजं वा तथोभयम्। न कथञ्च सङ्कीर्णः प्रवृतिं स्वां नियच्छति।। | 13-83-41a 13-83-41b |
यथैव सदृसो रूपे मातावित्रोर्हि जायते। व्याघ्रबिन्दोस्तथा योनिं पुरुषः स्वां नियच्छति।। | 13-83-42a 13-83-42b |
कुले स्रोतसि संच्छन्ने यस्य स्याद्योनिसङ्करः। संश्रयत्येव तच्छीलं नरोऽल्पमथवा बहु।। | 13-83-43a 13-83-43b |
आर्यरूपसमाचारं चरन्तं कृतके पथि। सवर्णमन्यवर्णं वा स्वशीलं सास्ति निश्चये।। | 13-83-44a 13-83-44b |
नानावृत्तेषु भूतेषु नानाक्रमरतेषु च। जन्मवृत्तसमं लोके सुश्लिष्टं न विरज्यते।। | 13-83-45a 13-83-45b |
शरीरमिह सत्वेन न तस्य परिकृष्यते। ज्येष्ठमध्यावरं सत्वं तुल्यसत्वं प्रमोदते।। | 13-83-46a 13-83-46b |
ज्यायांसमपि शीलेन विहीनं नैव पूजयेत्। अपि शूद्रं च धर्मज्ञं सद्वृत्तमभिपूजयेत्।। | 13-83-47a 13-83-47b |
आत्मानमाख्याति हि कर्मभिर्नरः सुशीलचारित्रकुलैः शुभाशुभैः। प्रनष्टमप्यात्मकुलं तथा नरः पुनः प्रकाशं कुरुते स्वकर्मतः।। | 13-83-48a 13-83-48b 13-83-48c 13-83-48d |
योनिष्वेतासु सर्वासु सङ्कीर्णास्वितरासु च। यत्रात्मानं न जनयेद्बुधस्तां परिवर्जयेत्।। | 13-83-49a 13-83-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्र्यशीतितमोऽध्यायः।। 83 ।। |
13-83-2 एतेन उक्तेन। विधिना प्रकारेण।। 13-83-3 शूद्राणां सेवाद्वारा यज्ञार्थत्वं नतु साक्षात्।। 13-83-4 मातृजात्यौ वैश्यायां वैश्योऽम्बष्ठो नाम। शूद्रायां शूद्रो निषादो नाम पारशवाख्यो भवति।। 13-83-5 शवस्थानतुल्याच्छूद्रात्परमुत्कृष्टम्। परोंशभाग्ब्राह्मणस्यैव पुत्र इति थ.ध.पाठः।। 13-83-6 तन्त्रमुपकरणम्। वयसा ज्येष्ठोऽपि पारशवो द्विजस्य त्रिवर्णजस्य यवीयान् कनीयानेवेति सम्बन्धः।। 13-83-9 अतः स्वपितुरविशिष्ठो नाधिकः सन्नधमः शूद्रो गुरूणां ब्राह्मणादीनां दारप्रधर्षकश्चेत् बाह्यं चाण्डालादिम्।। 13-83-10 विप्रायां क्षत्रियो बाह्यं सूतं स्तोमक्रियापरमिति झ.पाठः।। 13-83-11 वध्यानां चोरादीनां शिरश्छेदादिकार्यकारिणं वद्यघ्नम्।। 13-83-30 चातुर्वर्ण्यस्यैव धर्माः *****न्ने दिहिताः इतरेषां इतरेषां तु जातिभेदानां धर्मनियम इयता च नास्ति।। 13-83-35 निहीन*** रेतःसेक न कुर्यादिति भावः।। 13-83-38 कलुषयोनिजं सङ्करयोनिजम्।। 13-83-39 नानाभावैरार्येभ्यः पृथग्भूताभिश्चेष्टाभिः समन्वितं नरं सङ्करयोनिजं जानीयात्।। 13-83-41 प्रकृतिं योनिम्। नियच्छति गूहितुं न शक्नोतीत्यर्थः।। 13-83-42 यथा तिर्यक्स्थारादिकं बीजगुणं न त्यजत्येवं मनुष्योऽपीत्यर्थः।। 13-83-43 सञ्चन्ने सुगुप्तेऽपि यस्य जन्मनीति शेषः। सः तच्छीलं सङ्करकर्तुः स्वभावम्।। 13-83-46 तस्य सङ्करजस्य शरीरं सत्वेन शास्त्रीयबुद्ध्या न परिकृष्यते न नीचमार्गादपकृष्यते। बीजगुणस्य प्राबल्यात्।।
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