महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-061
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति श्राद्धे निमन्त्रणार्हानर्हब्राह्मणलक्षणादिकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-61-1x |
श्राद्धकाले च दैवे च पित्र्येऽपि च पितामह। इच्छामीह त्वयाऽऽख्यातं विहितं यत्सुरर्षिभिः।। | 13-61-1a 13-61-1b |
भीष्म उवाच। | 13-61-2x |
दैवं पौर्वाह्णिके कुर्यादपराह्णे तु पैतृकम्। मङ्गलाचारसम्पन्नः कृतशौचः प्रयत्नवान्।। | 13-61-2a 13-61-2b |
मनुष्याणां तु मध्याह्ने प्रदद्यादुपपत्तिभिः। कालहीनं तु यद्दानं तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-3a 13-61-3b |
लङ्घितं चावलीढं च लाकपूर्वं च यत्कृतम्। रजस्वलाभिदृष्टं च तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-4a 13-61-4b |
अवघुष्टं च यद्भुक्तमव्रतेन च भारत। परामृष्टं शुना चैव तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-5a 13-61-5b |
केशकीटावपतितं क्षुतं श्वभिरवेक्षितम्। रुदितं चावधूतं च तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-6a 13-61-6b |
निरोङ्कारेण यद्भुक्तं सशस्त्रेण च भारत। दुरात्मना च यद्भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-7a 13-61-7b |
परोच्छिष्टं च यद्भुक्तं परिभुक्तं च यद्भवेत्। दैवे पित्र्ये च सततं तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-8a 13-61-8b |
मन्त्रहीनं क्रियाहीनं यच्छ्राद्धं परिविष्यते। त्रिभिर्वर्णैर्नरश्रेष्ठ तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-9a 13-61-9b |
आज्याहुतिं विना चैव यत्किञ्चित्परिविष्यते। दुराचारैश्च यद्भुक्तं तं भागं रक्षसां विदुः।। | 13-61-10a 13-61-10b |
ये भागा रक्षसां प्राप्तास्त उक्ता भरतर्षभ। अत ऊर्ध्वं विसर्गस्य परीक्षां ब्राह्मणे शृणु।। | 13-61-11a 13-61-11b |
यावन्तः पतिता विप्रा जडोन्मत्तास्तथैव च। दैवे वाऽप्यथ पित्र्ये वा राजन्नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-12a 13-61-12b |
श्वित्री क्लीबश्च कुष्ठी च तता यक्ष्महतश्च यः। अपस्मारी च यश्चान्धो राजन्नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-13a 13-61-13b |
चिकित्सका देवलका वृथा नियमधारिणः। सोमविक्रयिणश्चैव श्राद्धे नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-14a 13-61-14b |
गायना नर्तकाश्चैव प्लवका वादकास्तथा। कथका योधकाश्चैव राजन्नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-15a 13-61-15b |
होतारो वृषलानां च वृषलाध्यापकास्तथा। तथा वृषलशिष्याश्च राजन्नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-16a 13-61-16b |
अनुयोक्ता च यो विप्रो अनुयुक्तश्च भारत। नार्हतस्तावपि श्राद्धं ब्रह्मविक्रयिणौ हि तौ।। | 13-61-17a 13-61-17b |
अग्रणीर्यः कृतः पूर्वं वर्णावरपरिग्रहः। ब्राह्मणः सर्वविद्योऽपि राजन्नार्हति केतनम्।। | 13-61-18a 13-61-18b |
अनग्नयश्च ये विप्रा मृतनिर्यातकाश्च ये। स्तेनाश्च पतिताश्चैव राजन्नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-19a 13-61-19b |
अपरिज्ञातपूर्वाश्च गणपूर्वाश्च भारत। पुत्रिकापूर्वपुत्राश्च श्राद्धे नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-20a 13-61-20b |
ऋणकर्ता च यो राजन्यश्च वार्धुषिको नरः। प्राणिविक्रयवृत्तिश्च राजन्नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-21a 13-61-21b |
स्त्रीपूर्वाः काण्डपृष्ठाश्च यावन्तो भरतर्षभ। आजपा ब्राह्मणाश्चैव श्राद्धे नार्हन्ति केतनम्।। | 13-61-22a 13-61-22b |
श्राद्धे दैवे च निर्दिष्टो ब्राह्मणो भरतर्षभ। दातुः प्रतिग्रहीतुश्च शृणुष्वानुग्रहं पुनः।। | 13-61-23a 13-61-23b |
चीर्णव्रता गुणैर्युक्ता भवेयुर्येऽपि कर्षकाः। सावित्रीज्ञाः क्रियावन्तस्ते राजन्केतनक्षमाः।। | 13-61-24a 13-61-24b |
क्षात्रधर्मिणमप्याजौ केतयेत्कुलजं द्विजम्। न त्वेव वणिजं तात श्राद्धे च परिकल्पयेत्।। | 13-61-25a 13-61-25b |
अग्निहोत्री च यो विप्रो ग्रामवासी च यो भवेत्। अस्तेनश्चातिथिज्ञश्च स राजन्केतनक्षमः।। | 13-61-26a 13-61-26b |
सावित्रीं जपते यस्तु त्रिकालं भरतर्षभ। भिक्षावृत्तिः क्रियावांश्च स राजन्केतनक्षमः।। | 13-61-27a 13-61-27b |
उदितास्तमितो यश्च तथैवास्तमितोदितः। अहिंस्रश्चाल्पदोषश्च स राजन्केतनक्षमः।। | 13-61-28a 13-61-28b |
अकल्कको ह्यतर्कश्च ब्राह्मणो भरतर्षभ। संसर्ग भैक्ष्यवृत्तिश्च स राजन्केतनक्षमः।। | 13-61-29a 13-61-29b |
अव्रती कितवः स्तेनः प्राणिविक्रयिको वणिक्। सनिष्कृतिः पुनः सोमं पीतवान्केतनक्षमः।। | 13-61-30a 13-61-30b |
अर्जयित्वा धनं पूर्वं दारुणैरपि कर्मभिः। भवेत्सर्वातिथिः पश्चात्स राजन्केतनक्षमः।। | 13-61-31a 13-61-31b |
ब्रह्मविक्रयनिर्दिष्टं स्त्रिया यच्चार्जितं धनम्। अदेयं पितृविप्रेभ्यो यच्च क्लैब्यादुपार्जितम्।। | 13-61-32a 13-61-32b |
क्रियमाणेऽपवर्गे च यो द्विजो भरतर्षभ। न व्याहरति यद्युक्तं तस्याधर्मो गवानृतम्।। | 13-61-33a 13-61-33b |
श्राद्धस्य ब्राह्मणः कालः प्राप्तं दधि घृतं तथा। सोमक्षयश्च मांसं च यदारण्यं युधिष्ठिर।। | 13-61-34a 13-61-34b |
`मुहूर्तानां त्रयं पूर्वमह्नः प्रातरिति स्मृतम्। जपध्यानादिभिस्तस्मिन्विप्रैः कार्यं शुभव्रतम्।। | 13-61-35a 13-61-35b |
सङ्गवाख्यं त्रिभागं तु मध्याह्नस्त्रिमुहूर्तकः। लौकिकं सङ्गवेऽर्धं च स्नानादि ह्यथ मध्यमे।। | 13-61-36a 13-61-36b |
चतुर्थमपराह्णं तु त्रिमुहूर्तं तु पित्र्यकम्। सायाह्नस्त्रिमुहूर्तं च मध्यमं कविभिः स्मृतम्।। | 13-61-37a 13-61-37b |
चतुर्थ त्वपराह्णाख्ये श्राद्धं कुर्यात्सदा नृप।। | 13-61-38a |
प्रागुदीचीमुखा विप्राः विश्वेदेवे च दक्षिणाः। श्रावितेषु सुतृप्तेषु पिण्डं दद्यात्सदक्षिणम्।।' | 13-61-39a 13-61-39b |
श्राद्धापवर्गे विप्रस्य दातारो वोस्त्वितीरयेत्। क्षत्रियस्यापि यो ब्रूयात्प्रीयन्तां पितरस्त्विति।। | 13-61-40a 13-61-40b |
अपवर्गे तु वैश्यस्य श्राद्धकर्मणि भारत। अक्षय्यमभिधातव्यं स्वस्ति शूद्रस्य भारत।। | 13-61-41a 13-61-41b |
पुण्याहवाचनं दैवं ब्राह्मणस्य विधीयते। एतदेव निरोङ्कारं क्षत्रियस्य विधीयते।। | 13-61-42a 13-61-42b |
वैश्यस्य दैवे वक्तव्यं प्रीयन्तां देवता इति। `गोर्हिसायां चतुर्भागं पूर्वं विप्रातिकेतिनः।। | 13-61-43a 13-61-43b |
वर्णावरेषु भुञ्जानं क्रमाच्छूद्रे चतुर्गुणम्। नान्यत्र ब्राह्मणो ब्रूयात्पूर्वं विप्रेण केतितः।। | 13-61-44a 13-61-44b |
अभोजने च दोषः स्याद्वर्जयेच्छूद्रकेतनम्। शूद्रान्नरसपुष्टाङ्गो द्विजो नोर्ध्वां गतिं लभेत्।। | 13-61-45a 13-61-45b |
अशुचिर्नैव चाश्नीयान्नास्तिको मानवर्जितः। न पूर्वं लङ्घयेल्लोभादेकवर्णोऽपि पार्थिव।। | 13-61-46a 13-61-46b |
विप्राः स्मृता भूमिदेवा उपकुर्वाणवर्जिताः।' कर्मणामानुपूर्व्येण विदिपूर्वं कृतं शृणु।। | 13-61-47a 13-61-47b |
जातकर्मादिकाः सर्वास्त्रिषु वर्णेषु भारत। ब्रह्मक्षत्रे हि मन्त्रोक्ता वैश्यस्य च युधिष्ठिर।। | 13-61-48a 13-61-48b |
विप्रस्य रशना मौञ्जी मौर्वी राजन्यगामिनी। बाल्वजी ह्येव वैश्यस्य धर्म एष युधिष्ठिर।। | 13-61-49a 13-61-49b |
`पालाशो द्विजदण्डः स्यादश्वत्थः क्षत्रियस्य तु। औदुम्बरश्च वैश्यस्य धर्म एष युधिष्ठिर।।' | 13-61-50a 13-61-50b |
दातुः प्रतिग्रहीतुश्च धर्माधर्माविमौ शृणु। ब्राह्मणस्यानृतेऽधर्मः प्रोक्तः पातकसंज्ञितः। चतुर्गुणः क्षत्रियस्य वैश्यस्याष्टगुणः स्मृतः।। | 13-61-51a 13-61-51b 13-61-51c |
नान्यत्र ब्राह्मणोऽश्नीयात्पूर्वं विप्रेण केतितः। [यवीयान्पशुहिंसायां तुल्यधर्मा भवेत्स हि।। | 13-61-52a 13-61-52b |
तथा राजन्यवैश्याभ्यां यद्यश्नीयात्तु केतितः। यवीयान्पशुहिंसायां भागार्धं समवाप्नुयात्।। | 13-61-53a 13-61-53b |
दैवं वाऽप्यथवा पित्र्यं योऽश्नीयाद्ब्राह्मणादिषु।] अस्नातो ब्राह्मणो राजंस्तस्याधर्मोऽनृतं स्मृतम्।। | 13-61-54a 13-61-54b |
आशौचो ब्राह्मणो राजन्योऽश्नीयाद्ब्राह्मणादिषु। ज्ञानपूर्वमथो लोभात्तस्याधर्मो गवानृतम्।। | 13-61-55a 13-61-55b |
अर्थेनान्येन यो लिप्सेत्कर्मार्थं चैव भारत। आमन्त्रयति राजेन्द्र तस्याधर्मोऽनृतं स्मृतम्।। | 13-61-56a 13-61-56b |
अवेदव्रतचारित्रास्त्रिभिर्वर्णैर्युधिष्ठिर। मन्त्रवत्परिविष्यन्ते तस्याधर्मो गवानृतम्।। | 13-61-57a 13-61-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकषष्टितमोऽध्यायः।। 61 ।। |
13-61-1 कालादौ विहितं विशेषमिति शेषः।।
13-61-3 उपपत्तिभिः आदरादिभिर्युक्तः सन्।।
13-61-4 कलिपूर्वं चेति झ. पाठः।।
13-61-6 क्षुतं क्षुतेन दूषितम्।।
13-61-7 निरोंकारेण अननुज्ञातेन शूद्रेण वा।।
13-61-8 परिभुक्तं देवातिथिपितृबालकादीन्वर्जयित्वा भुक्तं स्वेन्नैव।।
13-61-10 आज्याहुतिं पात्राभिघारणं विना।।
13-61-11 विसर्गस्य ब्राह्मणे दानस्य पात्रभूते।।
13-61-12 पतिताः महापातकेन जातिबहिर्भूताः। केतनं निमन्त्रणम्।।
13-61-13 श्वित्री श्वेतकुष्ठी। कुष्ठी मण्डलकुष्ठी। यक्ष्महतो महारोगी। अपस्मारी ग्रहग्रस्तः।।
13-61-14 देवलका देवार्चनवृत्तिजीविनः।
13-61-15 प्लवकाः क्रीडापराः। कथका वृथालापिनः। योधका मल्लाः।।
13-61-16 वृषलानां शूद्राणां होतारो याजकाः।।
13-61-17 अनुयोक्ता भृतकाध्यापकः। अनुयुक्तो भृतकाध्येता।।
13-61-18 वर्णावरपरिग्रहः शूद्रापतिः।।
13-61-20 गणपूर्वा ग्रामण्यः। पुत्रिकापूर्वपुत्राः। अस्यामुत्पन्नः पुत्रो मदीय इति नियमेन या दीयते तस्यां च यो जातः स पुत्रिकापूर्वपुत्रः।।
13-61-21 ऋणकर्ता वृद्ध्यार्थं धनप्रयोक्ता।।
13-61-22 स्त्रीपूर्वाः स्त्रीजिताः स्त्रीपण्योपजीविनो वा। काण्डपृष्ठो वेश्यापतिः। अजपाः सन्ध्यावन्दनहीनाः।।
13-61-23 अनुग्रहं निषिद्धानामपि केनचिद्गुणेनाभ्यनुज्ञानम्।।
13-61-25 वणिजं वणिग्वृत्तिम्।।
13-61-28 उदित आढ्यः। अस्तमितो दरिद्रः पूर्वं आढ्यः सद्यो दरिद्रः।।
13-61-29 अकल्ककोऽदाम्भिकः अपापो वा। अतर्कोऽहैतुकः संसर्गे सङ्गत्यर्हे गृहे ज्ञाते भैक्ष्यवृत्तिः।।
13-61-30 कितवो धूर्तः।।
13-61-31 सर्वं देवतादिकं अतिथिरेव यस्य स सर्वातिथिः।।
13-61-32 ब्रह्म वेदः। क्लैब्यात् दीनभाषणेन मिध्याशपथादिना वा।।
13-61-33 अपवर्गे श्राद्धसमाप्तौ युक्तं अस्तुस्वधेत्यादिवचनं गवानृतं अनृतगोशपथस्य पापम्।।
13-61-34 सोमक्षयो दर्शः। आरण्यं मृगादिमांसं च यदा प्राप्तं तदैव श्राद्धस्य कालः।।
13-61-40 स्वधा वै मुदिता भवेदिति झ.पाठः। स्वधोच्यतामिति प्रदात्रा उक्ते अस्तुस्वधेति ब्राह्मणो वदेत्। एवमुत्तरत्र मुदिता प्रीतिकरी पितॄणामित्यर्थात्।।
13-61-42 पुण्याहं भवन्तो ब्रुवन्त्विति यजमानेन प्रोक्ते ओं पुण्याहमस्त्विति ब्राह्मणा ब्रूयुः। दैवं सोङ्कारम्।।
13-61-43 दैवे ओङ्कारस्थाने प्रीयन्तां देवताः पुण्याहमस्त्विति प्रतिवदेदित्यर्थः।।
13-61-49 रशना भेखला। मौञ्जी मुञ्जमयी। मौर्वी धनुर्ज्या। बाल्बजी बल्बजस्तृणविसेषस्तन्मयी।।
13-61-51 धर्मो दातुः। अधर्मः प्रतिग्रहीतुः।।
13-61-53 ब्राह्मणेन केतितः सन् यदि यवीयान् भवेत्तर्हि वृथा पशुहिंसायाः पूर्णं पापं प्राप्नुयात्। क्षत्रियादिना केतितः सन् यदि यवीयान्स्यात्तर्हि वृथापशुहिंसाया अर्धं पापं प्राप्नुयाटिति श्लोकद्वयार्थः।।
13-61-55 आशौचः जननमरणाशौचवान्।।
13-61-56 अर्थेन प्रयोजनेन तीर्थयात्राव्यपदेशेन जीविकाद्यर्थी यो धनं लिप्तेत् यो वा कर्मार्थं मे भिक्षां देहीत्यामन्त्रयति दातारममिमुखीकरोति तस्यापि अनृतं गवानृतमेव स्मृतम्।।
13-61-57 वेदव्रतं चारित्रं च येषां नास्ति ते। येन मन्त्रवत् मन्त्रयुक्तं यथा स्यात्तथा श्राद्धे परिविष्यन्ते तस्य।।
अनुशासनपर्व-060 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-062 |