महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-202
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युधिष्ठिरेण भीष्मंप्रति सप्रशंसनं पुनर्धर्मकथनप्रार्थना।। 1 ।।
वैशम्पायन* उवाच। | 13-202-1x |
अनुशास्य शुभैर्वाक्यैर्भीष्ममाह महामतिः। प्रीत्या पुनः स शुश्रूषुर्वचनं यद्युधिष्ठिरः।। | 13-202-1a 13-202-1b |
जनमेजय उवाच। | 13-202-2x |
पितामहो मे विप्रर्षे भीष्मं कालवशं गतम्। किमपृच्छत्तदा राजा सर्वसामाजिकं हितम्।। | 13-202-2a 13-202-2b |
उभयोर्लोकयोर्युक्तं पुरुषार्थमनुत्तमम्। तन्मे वद महाप्राज्ञ श्रोतुं कौतूहलं हि मे।। | 13-202-3a 13-202-3b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-202-4x |
भूय एव महाराज शृणु धर्मसमुच्चयम्। यदपृच्छत्तदा राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः।। | 13-202-4a 13-202-4b |
शरतल्पगतं भीष्मं सर्वपार्थिवसन्निधौ। अजातशत्रुः प्रीतात्मा पुनरेवाभ्यभाषत।। | 13-202-5a 13-202-5b |
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारदः। श्रूयतां मे हि वचनमर्थित्वात्प्रब्रवीम्यहम्।। | 13-202-6a 13-202-6b |
परावरज्ञो भूतानां दयावान्सर्वजन्तुषु। आगमैर्बहुभिः प्रीतो भवान्नः परमं कुले।। | 13-202-7a 13-202-7b |
त्वादृशो दुर्लभो लोके साम्प्रतं ज्ञानसंयुतः। भवता गुरुणा चैव धन्याश्चैव वयं प्रभो।। | 13-202-8a 13-202-8b |
अयं स कालः सम्प्राप्तो दुर्लभैर्ज्ञातिबान्धवैः। शास्ता तु नास्ति नः कश्चित्त्वदृते पुरुषर्षभ।। | 13-202-9a 13-202-9b |
तस्माद्धर्मार्थसहितमायत्यां च हितोदयम्। आश्चर्यं परमं वाक्यं श्रोतुमिच्छामि भारत।। | 13-202-10a 13-202-10b |
अयं नारायणः श्रीमन्सर्वपार्थिवसन्निधौ। भवन्तं बहुमानाच्च प्रणयाच्चैव सेवते।। | 13-202-11a 13-202-11b |
अस्यैव तु समक्षं नः पार्तिवानां तथैव च। इतिवृत्तं पुराणं च श्रोतॄणां परमं हितम्।। | 13-202-12a 13-202-12b |
यदि तेऽहमनुग्राह्यो भ्रातृभिः सहितोऽनघ। मत्प्रियार्थं हि कौरव्य स्नेहाद्भाषितुमर्हसि।। | 13-202-13a 13-202-13b |
वैशम्पायन उवाच। | 13-202-14x |
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा स्नेहादागतविक्लवः। प्रविबन्निव तं दृष्ट्वा भीष्मो वचनमब्रवीत्।। | 13-202-14a 13-202-14b |
शृणु राजन्पुरावृत्तिमितिहासं पुरातनम्। एतावदुक्त्वा गाङ्गेयः प्रणम्य शिरसा हरिम्। धर्मराजं समीक्ष्येदं पुनर्वक्तुं समारभत्।। | 13-202-15a 13-202-15b 13-202-15c |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि द्व्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 202 ।। |
13-202-1x * एकोत्तरद्विशततमाध्यायात्परं एकपञ्चाशदधिकद्विशततमाद्यायात्पूर्वं मध्ये परिदृश्यमानैकोनपञ्चाशदध्यायप्रतिनिधितया औत्तराहकोशे अष्टावेवाध्यायाः परिदृश्यन्ते। तेचानुपूर्वीभेदेन तदर्थैकदेशप्रतिपादकाएव दृश्यन्ते नतु तदनुक्तार्थप्रतिपादकाः।।
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