महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-133
दिखावट
← अनुशासनपर्व-132 | महाभारतम् त्रतयोदशपर्व महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-133 वेदव्यासः |
अनुशासनपर्व-134 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति कुमारोत्पत्तिप्रकारस्य देवादिभिस्तस्मै क्रीडनकादिदानस्य तारकासुरवधादेश्च कथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-133-1x |
उक्ताः पितामहेनेह सुवर्णस्य विधानतः। विस्तरेण प्रदानस्य ये गुणाः श्रुतिलक्षणाः।। | 13-133-1a 13-133-1b |
यत्तु कारणमुत्पत्तेः सुवर्णस्य प्रकीर्तितम्। स कथं तारकः प्राप्तो निधनं तद्ब्रवीहि मे।। | 13-133-2a 13-133-2b |
उक्तं स दैवतानां हि अवध्य इति पार्थिव। कथं तस्याभवन्मृत्युर्विस्तरेण प्रकीर्तय।। | 13-133-3a 13-133-3b |
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं त्वत्तः कुरुकुलोद्वह। कार्त्स्न्येन तारकवधं परं कौतूहलं हि मे।। | 13-133-4a 13-133-4b |
भीष्म उवाच। | 13-133-5x |
विपन्नकृत्या राजेन्द्र देवता ऋषयस्तथा। कृत्तिकाश्चोदयामासुरपत्यभरणाय वै।। | 13-133-5a 13-133-5b |
न देवतानां काचिद्धि समर्था जातवेदसः। एता हि शक्तास्तं गर्भं सन्धारयितुमोजसा।। | 13-133-6a 13-133-6b |
षण्णां तासां ततः प्रीतः पावको गर्भधारणात्। स्वेन तेजोविसर्गेण वीर्येण परमेण च।। | 13-133-7a 13-133-7b |
तास्तु षट् कृत्तिका गर्भं पुपुषुर्जातवेदसः। षट्सु वर्त्मसु तेजोऽग्नेः सकलं निहितं प्रभो।। | 13-133-8a 13-133-8b |
ततस्ता वर्धमानस्य कुमारस्य महात्मनः। तेजसाऽभिपरीताङ्ग्यो न क्वचिच्छर्म लेभिरे।। | 13-133-9a 13-133-9b |
ततस्तेजःपरीताङ्ग्यः सर्वाः काल उपस्थिते। समं गर्भं सुषुविरे कृतिकास्ता नरर्षभ।। | 13-133-10a 13-133-10b |
ततस्तं ष॰धिष्ठानं गर्भमेकत्वमागतम्। पृथिवी प्रतिजग्राह कृत्तिकानां समीपतः।। | 13-133-11a 13-133-11b |
स गर्भो दिव्यसंस्थानो दीप्तिमान्पावकप्रभः। दिव्यं शरवणं प्राप्य ववृधे प्रियदर्शनः।। | 13-133-12a 13-133-12b |
ददृशुः कृत्तिकास्तं तु बालमर्कसमद्युतिम्। जातस्नेहाश्च सौहार्दात्पुपुषुः स्तन्तविस्रवैः।। | 13-133-13a 13-133-13b |
अभवत्कार्तिकेयः स त्रैलोक्ये सचराचरे। स्कन्नत्वात्स्कन्दतां प्राप्तो गुहावासाद्गुहोऽभवत्।। | 13-133-14a 13-133-14b |
ततो देवास्त्रयस्त्रिंशद्दिशश्च सदिगीश्वराः। रुद्रो धाता च विष्णुश्च यमः पूषाऽर्यमा भगः।। | 13-133-15a 13-133-15b |
अंशो मित्रश्च साध्याश्च वासवो वसवोऽश्विनौ। आपो वायुर्नभश्चन्द्रो नक्षत्राणि ग्रहा रविः।। | 13-133-16a 13-133-16b |
पृथग्भूतानि चान्यानि यानि देवगणानि वै। आजग्मुस्तेऽद्भुतं द्रष्टुं कुमारं ज्वलनात्मजम्।। | 13-133-17a 13-133-17b |
ऋषयस्तुष्टुवुश्चैव गन्धर्वाश्च जगुस्तथा। षडाननं कुमारं तु द्विषडक्षं द्विजप्रियम्।। | 13-133-18a 13-133-18b |
पीनांसं द्वादशभुजं पावकादित्यवर्चसम्। शयानं शरगुल्मस्थं दृष्ट्वा देवाः सहर्षिभिः। लेभिरे परमं हर्षं मेनिरे चासुरं हतम्।। | 13-133-19a 13-133-19b 13-133-19c |
ततो देवाः प्रियाण्यस्य सर्व एव समाहरन्। क्रीडतः क्रीडनीयानि ददुः पक्षिगणांश्च ह।। | 13-133-20a 13-133-20b |
सुपर्णोऽस्य ददौ पुत्रं मयूरं चित्रबर्हिणम्। राक्षसाश्च ददुस्तस्मै वराहमहिषावुभौ।। | 13-133-21a 13-133-21b |
कुक्कुटं चाग्निसङ्काशं प्रददावरुणः स्वयम्। चन्द्रमाः प्रददौ मेषमादित्यो रुचिरां प्रभाम्।। | 13-133-22a 13-133-22b |
गवां माता च गा देवी ददौ शतसहस्रशः। छागमग्निर्गुणोपेतमिला पुष्पफलं बहु।। | 13-133-23a 13-133-23b |
सुधन्वा शकटं चैव रथं चाञ्चितकूबरम्। वरुणो वारुणान्दिव्यान्सगजान्प्रददौ शुभान्।। | 13-133-24a 13-133-24b |
सिंहान्सुरेन्द्रो व्याघ्रांश्च द्विपानन्यांश्च दंष्ट्रिणः। श्वापदांश्च बहून्घोराञ्शस्त्राणि विविधानि च।। | 13-133-25a 13-133-25b |
राक्षसासुरसङ्घाश्च अनुजग्मुस्तमीश्वरम्।। | 13-133-26a |
वर्धमानवधोपायं प्रार्थयामास तारकः। उपायैर्बहुभिर्हन्तुं नाशकच्चापि तं विभुम्।। | 13-133-27a 13-133-27b |
सैनापत्येन तं देवाः पूजयित्वा गुहालयम्। शशंसुर्विप्रकारं तं तस्मै तारककारितम्।। | 13-133-28a 13-133-28b |
स विवृद्धो महावीर्यो देवसेनापतिः प्रभुः। जघानामोघया शक्त्या दानवं तारकं गुहः।। | 13-133-29a 13-133-29b |
तेन तस्मिन्कुमारेण क्रीडता निहतेऽसुरे। सुरेन्द्रः स्थापितो राज्ये देवानां पुनरीश्वरः।। | 13-133-30a 13-133-30b |
स सेनापतिरेवाथ बभौ स्कन्दः प्रतापवान्। ईशो गोप्ता च देवानां प्रियकृच्छङ्करस्य च।। | 13-133-31a 13-133-31b |
हिरण्यमूर्तिर्भगवानेव एव च पावकिः। सदा कुमारो देवानां सैनापत्यमवाप्तवान्।। | 13-133-32a 13-133-32b |
तस्मात्सुवर्णं मङ्गल्यं रत्नमक्षय्यमुत्तमम्। सहजं कार्तिकेयस्य वह्नेस्तेजः परं मतम्।। | 13-133-33a 13-133-33b |
एवं रामाय कौरव्य वसिष्ठोऽकथयत्पुरा। तस्मात्सुवर्णदानाय प्रयतस्व नराधिप।। | 13-133-34a 13-133-34b |
रामः सुवर्णं दत्त्वा हि विमुक्तः सर्वकिल्बिषैः। त्रिविष्टपे महत्स्थानमवापासुलभं नरैः।। | 13-133-35a 13-133-35b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि त्रयस्त्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। |
13-133-1 श्रुतिर्वेदो लक्षणं ज्ञापकं येषां ते श्रुतिलक्षणाः। श्रुत्युक्ता इत्यर्थः।। 13-133-5 विपन्नं कृत्यं येषां ते गङ्गया गर्भे त्यक्ते सति नष्टकार्याः।। 13-133-6 गर्भं सन्धारयितुमित्यपकृष्यते पूर्वोर्धेपि।। 13-133-7 प्रीतस्ताभिर्गरुडीरूपेण तद्रेतः पीत्वा षोढा गर्भे धृते सतीति शेषः।। 13-133-8 वर्त्मसु गर्भागमनमार्गेषु योनिष्वित्यर्थः।।
अनुशासनपर्व-132 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-134 |