महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-008
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भीष्मेणि युधिष्ठिरंप्रति वीतहव्यस्य ब्राह्मण्यप्राप्तिप्रकारकथनम्।। 1 ।।
युधिष्ठिर उवाच। | 13-8-1x |
श्रुतं मे महदाख्यानमेतत्कुरुकुलोद्वह। सुदुष्प्रापं यद्ब्रवीषि ब्राह्मण्यं वदतांवर।। | 13-8-1a 13-8-1b |
विश्वामिइत्रो महाराज राजा ब्राह्मणतां गतः। कथितं भवता सर्वं विस्तरेण पितामह।। | 13-8-2a 13-8-2b |
तच्च राजन्मया सर्वं श्रुतं बुद्धिमतांवर। आगमो हि परोऽस्माकं त्वत्तः कौरवनन्दन।। | 13-8-3a 13-8-3b |
वीतहव्यश्च नृपतिः श्रुतो मे विप्रतां गतः। तदेव तावद्गाङ्गेय श्रोतुमिच्छाम्यहं विभो।। | 13-8-4a 13-8-4b |
स केन कर्मणा प्राप्तो ब्राह्मण्यं राजसत्तमः। वरेण तपसा वाऽपि तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 13-8-5a 13-8-5b |
भीष्म उवाच। | 13-8-6x |
शृणु राजन्यथा राजा वीतहव्यो महायशाः। राजर्षिर्दुर्लभं प्राप्तो ब्राह्मण्यं लोकसत्कृतम्।। | 13-8-6a 13-8-6b |
मनोर्महात्मनस्तात प्रजा धर्मेण शासतः। बभूव पुत्रो धर्मात्मा शर्यातिरिति विश्रुतः।। | 13-8-7a 13-8-7b |
तस्यान्ववाये द्वौ राजन्राजानौ सम्बभूवतुः। हैहयस्तालजङ्घश्च वत्सेषु जयतांवर।। | 13-8-8a 13-8-8b |
हैहयस्य तु राजेन्द्र दशसु स्त्रीषु भारत। शतं बभूव पुत्राणां शूराणामनिवर्तिनाम्। तुल्यरूपप्रभावानां बलिनां युद्धशालिनाम्।। | 13-8-9a 13-8-9b 13-8-9c |
धनुर्वेदे च वेदे च सर्वत्रैव कृतश्रमाः।। | 13-8-10a |
काशिष्वपि नृपो राजन्दिवोदासपितामहः। हर्यश्व इति विख्यातो बभूव जयतांवरः।। | 13-8-11a 13-8-11b |
स वीतहव्यदायादैरागत्य पुरुषर्षभ। गङ्गायमुनयोर्मध्ये सङ्ग्रामे विनिपातितः।। | 13-8-12a 13-8-12b |
तं तु हत्वा नरपतिं हैहयास्ते महारथाः। प्रतिजग्मुः पुरीं रम्यां वत्सानामकुतोभयाः।। | 13-8-13a 13-8-13b |
हर्यश्वस्य च दायादः काशिराजोऽभ्यषिच्यत। सुदेवो देवसंकाशः साक्षाद्धर्म इवापरः।। | 13-8-14a 13-8-14b |
स पालयामास महीं धर्मात्मा काशिनन्दनः। तैर्वीतहव्यैरागत्य युधि सर्वैर्विनिर्जितः।। | 13-8-15a 13-8-15b |
तमथाजौ विनिर्जित्य प्रतिजग्मुर्यथागतम्। सौदेविस्त्वथ काशीशोदिवोदासोऽभ्यषिच्यत।। | 13-8-16a 13-8-16b |
दिवोदासस्तु विज्ञाय वीर्य तेषां यतात्मनाम्। वाराणसीं महातेजा निर्ममे शक्रशासनात्।। | 13-8-17a 13-8-17b |
विप्रक्षत्रियसम्बाधां वैश्यशूद्रसमाकुलाम्। नैकद्रव्योच्चयवतीं समृद्धविपणापणाम्।। | 13-8-18a 13-8-18b |
गङ्गाया उत्तरे कूले वप्रान्ते राजसत्तम्।। गोमत्या दक्षिणे कूले शक्रस्येवामरावतीम्। | 13-8-19a 13-8-19b |
तत्र तं राजशार्दूलं निवसन्तं महीपतिम्। आगत्य हैहया भूयः पर्यधावन्त भारत।। | 13-8-20a 13-8-20b |
स निष्क्रम्य ददौ युद्धं तेभ्यो राजा महाबलः। देवासुरसमं घोरं दिवोदासो महाद्युतिः।। | 13-8-21a 13-8-21b |
स तु युद्धे महाराज दिनानां दशतीर्दश। हतवाहनभूयिष्ठस्ततो दैन्यमुपागमत्।। | 13-8-22a 13-8-22b |
हतयोधस्ततो राजन्क्षीणकोशश्चक भूमिपः। दिवोदासः पुरीं त्यक्त्वा पलायनपरोऽभवत्।। | 13-8-23a 13-8-23b |
गत्वाऽऽश्रमपदं रम्यं भरद्वाजस्य धीमतः। जगाम शरणं राजा कृताञ्जलिररिंदम्।। | 13-8-24a 13-8-24b |
तमुवाच भरद्वाजो ज्येष्ठः पुत्रो बृहस्पतेः। पुरोधाः शीलसम्पन्नो दिवोदासं महीपतिम्।। | 13-8-25a 13-8-25b |
किमागमनकृत्यं ते सर्वं प्रबूहि मे नृप। यत्ते प्रियं तत्करिष्ये न मेऽत्रास्ति विचारणा।। | 13-8-26a 13-8-26b |
राजोवाच। | 13-8-27x |
भगवन्वैतहव्यैर्मे युद्धे वंशः प्रणाशितः। अहमेकः परिद्यूनो भवन्तं शरणं गतः।। | 13-8-27a 13-8-27b |
शिष्यस्नेहेन भगवंस्त्वं मां रक्षितुमर्हसि। एकशेषः कृतो वंशो मम तैः पापकर्मभिः।। | 13-8-28a 13-8-28b |
तमुवाच महाभागो भरद्वाजः प्रतापवान्। न भेतव्यं न भेतव्यं सौदेव व्येतु ते भयम्।। | 13-8-29a 13-8-29b |
अहमिष्टिं करिष्यामि पुत्रार्थं ते विशाम्पते। वीतहव्यसहस्राणि येन त्वं प्रहरिष्यसि।। | 13-8-30a 13-8-30b |
तत इष्टिं चकारर्षिस्तस्य वै पुत्रकामिकीम्। अथास्य तनयो जज्ञे दैवोदासः प्रतर्दनः।। | 13-8-31a 13-8-31b |
स जातमात्रो ववृधे समाः सद्यस्त्रयोदश। वेदं चापि जगौ कृत्स्नं धनुर्वेदं च भारत।। | 13-8-32a 13-8-32b |
योगेन च समाविष्टो भरद्वाजेन धीमता। कृत्स्नं हि तेजो यल्लोके तदेतद्देहमाविशत्।। | 13-8-33a 13-8-33b |
ततः स कवची धन्वी स्तूयमानः सुरर्षिभिः। बन्दिभिर्वन्द्यमानश्च बभौ सूर्य इवोदितः।। | 13-8-34a 13-8-34b |
स रथी बद्धनिस्त्रिंशो बभौ दीप्त इवानलः। प्रययौ स धनुर्धुन्वन्विवर्षिषुरिवाम्बुदः।। | 13-8-35a 13-8-35b |
तं दृष्ट्वा परमं हर्षं सुदेवतनयो ययौ। मेने च मनसा दग्धान्वैतहव्यान्स पार्थिवः।। | 13-8-36a 13-8-36b |
ततोसौ यौवराज्ये च स्थापयित्वा प्रतर्दनम्। कृतकृत्यं तदाऽऽत्मानं स राजा प्रत्यपद्यत।। | 13-8-37a 13-8-37b |
ततस्तु वैतहव्यानां वधाय स महीपतिः। पुत्रं प्रस्थापयासास प्रतर्दनमरिंदमम्।। | 13-8-38a 13-8-38b |
सरथः स तु संतीर्य गङ्गामाशु पराक्रमी। प्रययौ वीतहव्यानां पुरीं परपुरंजयः।। | 13-8-39a 13-8-39b |
वैतहव्यास्तु संश्रुत्य रथघोषं समुद्धतम्। निर्ययुर्नगराकारै रथैः पररथारुजैः।। | 13-8-40a 13-8-40b |
निष्क्रम्य ते नरव्याघ्रा दंशिताश्चित्रयोधिनः। प्रतर्दनं समाजग्मुः शरवर्षैरुदायुधाः।। | 13-8-41a 13-8-41b |
शस्त्रैश्च विविधाकारै रथौघैश्च युधिष्ठिर। अभ्यवर्षन्त राजानं हिमवन्तमिवाम्बुदाः।। | 13-8-42a 13-8-42b |
अस्त्रैरस्त्राणि संवार्य तेषां राजा प्रतर्दनः। जघान तान्महातेजा वज्रानलसमैः शरैः।। | 13-8-43a 13-8-43b |
कृत्तोत्तमाङ्गास्ते राजन्भल्लैः शतसहस्रशः। अपतन्रुधिरार्द्राङ्गा निकृत्ता इव किंशुकाः।। | 13-8-44a 13-8-44b |
हतेषु तेषु सर्वेषु वीतहव्यः सुतेष्वथ। प्राद्रवन्नगरं हित्वा भृगोराश्रममप्युत।। | 13-8-45a 13-8-45b |
ययौ भृगुं च शरणं वीतहव्यो नराधिपः। अभयं च ददौ तस्मै वीतहव्याय भार्गवः। आसनं शिष्यमध्ये च भृगुरन्यत्समादिशत्।। | 13-8-46a 13-8-46b 13-8-46c |
अथानुपदमेवाशु तत्रागच्छत्प्रतर्दनः। स प्राप्य चाश्रमपदं दिवोदासात्मजोऽब्रवीत्।। | 13-8-47a 13-8-47b |
भोभो केऽत्राश्रमे सन्ति भृगोः शिष्या महात्मनः। द्रष्टुमिच्छे मुनिमहं तस्याचक्षत मामिति।। | 13-8-48a 13-8-48b |
स तं विदित्वा तु भृगुर्निश्चक्रामाश्रमात्तदा। पूजयामास च ततो विधिना नृपसत्तमम्।। | 13-8-49a 13-8-49b |
उवाच चैनं राजेन्द्र किं कार्यं ब्रूहि पार्थिव। स चोवाच नृपस्तस्मै यदागमनकारणम्।। | 13-8-50a 13-8-50b |
राजोवाच। | 13-8-51x |
अयं ब्रह्मन्नितो राजा वीतहव्यो विसर्ज्यताम्। अस्य पुत्रैर्हि मे कृत्स्नो ब्रह्मन्वंशः प्रणाशितः।। | 13-8-51a 13-8-51b |
उत्सादितश्च विषयः काशीनां रत्नसञ्चयः। एतस्य वीर्यदृप्तस्य हतं पुत्रशतं मया। अस्येदानीं वधादद्य भविष्याम्यनृणः पितुः।। | 13-8-52a 13-8-52b 13-8-52c |
तमुवाच कृपाविष्टो भृगुर्धर्मभृतांवरः। नेहास्ति क्षत्रियः कश्चित्सर्वे हीमे द्विजातयः।। | 13-8-53a 13-8-53b |
एतत्तु वचनं श्रुत्वा भृगोस्तथ्यं प्रतर्दनः। पादावुपस्पृश्य शनैः प्रहृष्टो वाक्यमब्रवीत्।। | 13-8-54a 13-8-54b |
एवमप्यस्मि भगवन्कृतकृत्यो न संशयः। य एष राजा वीर्येण स्वजातिं त्याजितो मया।। | 13-8-55a 13-8-55b |
अनुजानीहि मां ब्रह्मन्ध्यायस्व च शिवेन माम्। त्याजितो हि मया जातिमेव राजा भृगूद्वह।। | 13-8-56a 13-8-56b |
ततस्तेनाभ्यनुज्ञातो ययौ राजा प्रतर्दनः। यथागतं महाराज मुक्त्वा विषमिवोरगः।। | 13-8-57a 13-8-57b |
भृगोर्वचनमात्रेण स च ब्रह्मर्षितां गतः। वीतहव्यो महाराज ब्रह्मवादित्वमेव च।। | 13-8-58a 13-8-58b |
तस्य गृत्समदः पुत्रो रूपेणेन्द्र इवापरः। शक्रस्त्वमिति यो दैत्यैर्निगृहीतः किलाभवत्।। | 13-8-59a 13-8-59b |
ऋग्वेदे वर्तते चाग्र्या श्रुतिर्यस्य महात्मनः। यत्र गृत्समदो राजन्ब्राह्मणैः स महीयते।। | 13-8-60a 13-8-60b |
स ब्रह्मचारी विप्रर्षिः श्रीमान्गृत्समदोऽभवत्। पुत्रो गृत्समदस्यापि विप्रः सावैनसोऽभवत्।। | 13-8-61a 13-8-61b |
सावैनसस्य पुत्रो वै वितस्त्यस्तस्य चात्मजः। वितस्त्यस्य सुतस्तस्य शिवस्तश्चात्मजोऽभवत्।। | 13-8-62a 13-8-62b |
श्रवास्तस्य सुतश्चर्षिः श्रवसश्चाभवत्तमः। तमसश्च प्रकाशोऽभूत्तनयो द्विजसत्तमः।। | 13-8-63a 13-8-63b |
प्रकाशस्य च वागिन्द्रो बभूव जयतांवरः। तस्यात्मजश्च प्रमितिर्वेदवेदाङ्गपारगः।। | 13-8-64a 13-8-64b |
घृताच्यां तस्य पुत्रस्तु रुरुर्नामोदपद्यत। प्रमद्वरायां तु रुरोः पुत्रः समुदपद्यत। शुनको नाम विप्रर्षिर्यस्य पुत्रोऽथ शौनकः।। | 13-8-65a 13-8-65b 13-8-65c |
एवं विप्रत्वमगमद्वीतहव्यो नराधिपः। भृगोः प्रसादाद्राजेन्द्र क्षत्रियः क्षत्रियर्षभ।। | 13-8-66a 13-8-66b |
एष ते कथितो वंशो राजन्गार्त्समदो मया। विस्तरेण महाराज किमन्यदनुपृच्छसि।। | 13-8-67a 13-8-67b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि अष्टमोऽध्यायः।। 8 ।। |
13-8-7 शय्यातिरिति विश्रुत इति ट.घ.पाठः।।
13-8-10 ते चेति शेषः।।
13-8-12 वीतहव्यदायादैः। हैहयस्यैव नामान्तरं वीतहव्य इति तत्पुत्रैः।।
13-8-13 वत्सानां वत्सवंश्यानां राज्ञाम्।।
13-8-19 वप्रान्ते तटसमीपे।।
13-8-22 दशतीर्दश सहस्रमित्यर्थः।।
13-8-27 परिद्यूनः सर्वतोनिरस्तः।।
13-8-32 सद्यो ववृधे त्रयोदशवार्षिकोऽभूत् सद्यश्च वेदान् जगौ।।
13-8-33 योगेन योगबलेन।।
13-8-48 तस्य तंप्रति मां आगतं आचक्षत कथयत।।
13-8-58 आख्यायिकातात्पर्थमाह भृगोरिति।।
13-8-60 यत्र गार्त्समदं ब्रह्म ब्राह्मणैः समुदाहृतम्। इति ध.पाठः।।
13-8-61 पुत्रो गृत्समदस्यापि सुचेता अभवद् द्विजः।
वर्चाः सुचेतसः पुत्रो विहव्यस्तस्य चात्मजः।।
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