महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-129
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति गोलोकस्य देवलोकस्य देवलोकादप्युपरितनत्वे निमित्तप्रतिपादकब्रह्मशक्रसंवादानुवादः।। 1 ।।
भीष्म उवाच। | 13-129-1x |
ये च गाः सम्प्रयच्छन्ति हुतशिष्टाशिनश्च ये। तेषां सत्राणि यज्ञाश्च नित्यमेव युधिष्ठिर।। | 13-129-1a 13-129-1b |
ऋते दधिघृतेनेह न यज्ञः सम्प्रवर्तते। तेन यज्ञस्य यज्ञत्वमतो मूलं च लक्ष्यते।। | 13-129-2a 13-129-2b |
दानानामपि सर्वेषां गवां दानं प्रशस्यते। गावः श्रेष्ठाः पवित्राश्च पावनं ह्येतदुत्तमम्।। | 13-129-3a 13-129-3b |
पुष्ट्यर्थमेताः सेवेत शान्त्यर्थमपि चैव ह। पयो दधि घृतं चासां सर्वपापप्रमोचनम्।। | 13-129-4a 13-129-4b |
गावस्तेजः परं प्रोक्तमिह लोके परत्र च। न गोभ्यः परमं किञ्चित्पवित्रं भरतर्षभ।। | 13-129-5a 13-129-5b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। पितामहस्य संवादमिन्द्रस्य च युधिष्ठिर।। | 13-129-6a 13-129-6b |
पराभूतेषु दैत्येषु शक्रस्त्रिभुवनेश्वरः। प्रजाः समुदिताः सर्वाः सत्यधर्मपरायणाः।। | 13-129-7a 13-129-7b |
अथर्षयः सगन्धर्वाः किन्नरोरगराक्षसाः। देवासुरसुपर्णाश्च प्रजानां पतयस्तथा। पर्युपासत कौन्तेय कदाचिद्वै पितामहम्।। | 13-129-8a 13-129-8b 13-129-8c |
नारदः पर्वतश्चैव विश्वावसुहहाहुहूः। दिव्यतानेषु गायन्तः पर्युपासत तं प्रभुम्।। | 13-129-9a 13-129-9b |
तत्र दिव्यानि पुष्पाणि प्रावहत्पवनस्तदा। आजह्रुर्ऋतवश्चापि सुगन्धीनि पृथक्पृथक्।। | 13-129-10a 13-129-10b |
तस्मिन्देवसमावाये सर्वभूतसमागमे। दिव्यवादित्रसंघुष्टे दिव्यस्त्रीचारणावृते। इन्द्रः पप्रच्छ देवेशमभिवाद्य प्रणम्य च।। | 13-129-11a 13-129-11b 13-129-11c |
देवानां भगवन्कस्माल्लोकेशानां पितामह। उपरिष्ठाद्गवां लोक एतदिच्छामि वेदितुम्।। | 13-129-12a 13-129-12b |
किं तपो ब्रह्मचर्यं वा गोभिः कृतमिहेश्वर।। देवानामुपरिष्टाद्यद्वसन्त्यरजसः सुखम्।। | 13-129-13a 13-129-13b |
ततः प्रोवाच ब्रह्मा तं शक्रं बलनिषूदनम्। अवज्ञातास्त्वया नित्यं गावो बलनिषूदन।। | 13-129-14a 13-129-14b |
तेन त्वमासां माहात्म्यं न वेत्सि शृणु यत्प्रभो। गवां प्रभावं परमं माहात्म्यं च सुरर्षभ।। | 13-129-15a 13-129-15b |
यज्ञाङ्गं कथिता गावो यज्ञ एव च वासव। एताभिश्च विना विज्ञो न वर्तेत कथञ्चन।। | 13-129-16a 13-129-16b |
धारयन्ति प्रजाश्चैताः पयसा हविषा तथा। एतासां तनयाश्चापि कृषियोगमुपासते।। | 13-129-17a 13-129-17b |
जनयन्ति च धान्यानि बीजानि विविधानि च। ततो यज्ञाः प्रवर्तन्ते हव्यं कव्यं च सर्वशः।। | 13-129-18a 13-129-18b |
पयो दधि घृतं चैव पुण्याश्चैताः सुराधिप। वहन्ति विविधान्भोगान्क्षुत्तृष्णापरिपीडिताः।। | 13-129-19a 13-129-19b |
मुनींश्च धारयन्तीह प्रजाश्चैवापि कर्मणा। वासवाऽकूटवाहिन्यः कर्मणा सुकृतेन च।। | 13-129-20a 13-129-20b |
उपरिष्टात्ततोऽस्माकं वसन्त्येताः सदैव हि। एतत्ते कारणं शक्र निवासकृतमध्य वै। गावो देवोपरिष्टाद्धि समाख्याताः शतक्रतो।। | 13-129-21a 13-129-21b 13-129-21c |
एता हि वरदत्ताश्च वरदाश्चापि वासव। सुरभ्यः पुण्यकर्मिण्यः पावनाः शुभलक्षणाः।। | 13-129-22a 13-129-22b |
यदर्थं गां गताश्चैव सुरभ्यः सुरसत्तम। तच्च मे शृणु कार्स्न्येन वदतो बलसूदन।। | 13-129-23a 13-129-23b |
पुरा देवयुगे तात दैत्येन्द्रेषु महात्मसु। त्रीँल्लोकाननुशासत्सु विष्णौ गर्भत्वमागते।। | 13-129-24a 13-129-24b |
अदित्यां तप्यमानायां तपो घोरं सुदुश्चरम्। पुत्रार्थममरश्रेष्ठ पादेनैकेन नित्यदा।। | 13-129-25a 13-129-25b |
तां तु दृष्ट्वा महादेवीं तप्यमानां महत्तपः। दक्षस्य दुहिता देवी सुरभिर्नाम नामतः।। | 13-129-26a 13-129-26b |
अतप्यत तपो घोरं हृष्टा धर्मपरायणा। कैलासशिखरे रम्ये देवगन्धर्वसेविते।। | 13-129-27a 13-129-27b |
व्यतिष्ठदेकपादेन परमं योगमास्थिता। दशवर्षसहस्राणि दशवर्षशतानि च।। | 13-129-28a 13-129-28b |
सन्तप्तास्तपसा तस्या देवाः सर्षिमहोरगाः। तत्र गत्वा मया सार्धं पर्युपासत तां शुभां।। | 13-129-29a 13-129-29b |
अथाहमब्रवं तत्र देवीं तां तपसाऽन्विताम्। किमर्थं तप्यसे देवि तपो घोरमनिन्दिते।। | 13-129-30a 13-129-30b |
प्रीतस्तेऽहं महाभागो तपसाऽनेन शोभने। वरयस्व वरं देवि दातास्मीति पुरन्दर।। | 13-129-31a 13-129-31b |
सुरभिरुवाच। | 13-129-32x |
वरेण भगवन्मह्यं कृतं लोकपितामह। एष एव वरो मेऽद्य यत्प्रीतोसि ममानघ।। | 13-129-32a 13-129-32b |
ब्रह्मोवाच। | 13-129-33x |
तामेव ब्रुवतीं देवीं सुरभिं त्रिदशेश्वर। प्रत्यब्रवं यद्देवेन्द्र तन्निबोध शचीपते।। | 13-129-33a 13-129-33b |
अलोभकाम्यया देवि तपसा शुचिना च ते। प्रसन्नोऽहं वरं तस्मादमरत्वं दादामि ते।। | 13-129-34a 13-129-34b |
त्रयाणामपि लोकानामुपरिष्टान्निवत्स्यसि। मत्प्रसादाच्च विख्यातो गोलोकः सम्भविष्यति।। | 13-129-35a 13-129-35b |
मानुषेषु च कुर्वाणाः प्रजाः कर्म शुभास्तव। निवत्स्यन्ति महाभागो सर्वा दुहितरश्च ते।। | 13-129-36a 13-129-36b |
मनसा चिन्तिता भोगास्त्वया वै दिव्यमानुषाः। यच्च स्वर्गसुखं देवि तत्ते सम्पत्स्यते शुभे।। | 13-129-37a 13-129-37b |
तस्या लोकाः सहस्राक्ष सर्वकामसमन्विताः। न तत्र क्रमते मृत्युर्न जरा न च पावकः। न दैन्यं नाशुभं किञ्चिद्विद्यते तत्र वासव।। | 13-129-38a 13-129-38b 13-129-38c |
तत्र दिव्यान्यरण्यानि दिव्यानि भवनानि च। विमानानि सुयुक्तानि कामगानि च वासव।। | 13-129-39a 13-129-39b |
ब्रह्मचर्येण तपसा सत्येन च दमेन च। दानैश्च विविधैः पुण्यैस्तथा तीर्थानुसेवनात्।। | 13-129-40a 13-129-40b |
तपसा महता चैव सुकृतेन च कर्मणा। शक्यः समासादयितुं गोलोकः पुष्करेक्षण।। | 13-129-41a 13-129-41b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं मया शक्रानुपृच्छते। न ते परिभवः कार्यो गवामसुरसूदन।। | 13-129-42a 13-129-42b |
भीष्म उवाच। | 13-129-43x |
एतच्छ्रुत्वा सहस्राक्षः पूजयामास नित्यदा। गाश्चक्रे बहुमानं च तासु नित्यं युधिष्ठिर।। | 13-129-43a 13-129-43b |
एतत्ते सर्वमाख्यातं पावनं च महाद्युते। पवित्रं परमं चापि गवां माहात्म्यमुत्तमम्। | 13-129-44a 13-129-44b |
कीर्तितं पुरुषव्याघ्र सर्वपापविमोचनम्। य इदं कथयेन्नित्यं ब्राह्मणेभ्यः समाहितः।। | 13-129-45a 13-129-45b |
हव्यकव्येषु यज्ञेषु पितृकार्येषु चैव ह। सार्वकामिकमक्षय्यं पितॄंस्तस्योपतिष्ठते।। | 13-129-46a 13-129-46b |
गोषु भक्तश्च लभते यद्यदिच्छति मानवः। स्त्रियोपि भक्ता या गोषु ताश्च काममवाप्नुयुः।। | 13-129-47a 13-129-47b |
पुत्रार्थीं लभते पुत्रं कन्यार्थी तामवाप्नुयात्। धनार्थी लभते वित्तं धर्मार्थी धर्ममाप्नुयात्।। | 13-129-48a 13-129-48b |
विद्यार्थी चाप्नुयाद्विद्यां सुखार्थी प्राप्नुयात्सुखम्। न किञ्चिद्दुर्लभं चैव गवां भक्तस्य भारत।। | 13-129-49a 13-129-49b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि एकोनत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 128 ।। |
13-129-20 वासव अकूटवाहिन्यः अमायाव्यवहारिण्यः।। 13-129-21 निवासार्थं कृतं निवासकृतम्।। 13-129-48 कन्या पतिमवाप्नुयादिति क.थ.ध.पाठः।।
अनुशासनपर्व-128 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | अनुशासनपर्व-130 |