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महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-002

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  270. 270
  271. 271
  272. 272
  273. 273
  274. 274

भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति गार्हस्थ्याश्रयणेनातिथिसत्कारस्य श्रेयःसाधनतायां सुदर्शनोपाख्यानकथनम्।। 1 ।।

युधिष्ठिर उवाच। 13-2-1x
पितामह महाप्राज्ञ सर्वशास्त्रविशारद।
श्रुतं मे महदाख्यानमिदं मतिमतांवर।।
13-2-1a
13-2-1b
भूयस्तु श्रोतुमिच्छामि धर्मार्थसहितं नृप।
कथ्यमानं त्वया किञ्चित्तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।।
13-2-2a
13-2-2b
केन मृत्युर्गृहस्थेन धर्ममाश्रित्य निर्जितः।
इत्येतद्धर्ममाचक्ष्व तत्त्वेनापि च पार्थिव।।
13-2-3a
13-2-3b
भीष्म उवाच। 13-2-4x
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।
यथा मृत्यर्गृहस्थेन धर्ममाश्रित्य निर्जितः।।
13-2-4a
13-2-4b
मनोः प्रजापते राजन्निक्ष्वाकुरभवत्सुतः।
तस्य पुत्रशतं जज्ञे नृपतेः सूर्यवर्चसः।।
13-2-5a
13-2-5b
दशमस्तस्य पुत्रस्तु दशाश्वो नाम भारत।
माहिष्मत्यामभूद्राजा धर्मात्मा सत्यविक्रमः।।
13-2-6a
13-2-6b
दशाश्वस्य सुतस्त्वासीद्राजा परमधार्मिकः।
सत्ये तपसि दाने च यस्य नित्यं रतं मनः।।
13-2-7a
13-2-7b
मदिराश्व इति ख्यातः पृथिव्यां पृथिवीपतिः।
धनुर्वेदे च वेदे च निरतो योऽभवत्सदा।।
13-2-8a
13-2-8b
मदिराश्वस्य पुत्रस्तु द्युतिमान्नाम पार्थिवः।
महाभागो महातेजा महासत्वो महाबलः।।
13-2-9a
13-2-9b
पुत्रो द्युतिमतस्त्वासीद्राजा परमधार्मिकः।
सर्वलोकेषु विख्यातः सुवीरो नाम नामतः।
धर्मात्मा कोशवांश्चापि देवराज इवापरः।।
13-2-10a
13-2-10b
13-2-10c
सुवीरस्य तु पुत्रोऽभूत्सर्वसङ्ग्रामदुर्जयः।
दुर्जयो नाम विख्यातः सर्वशस्त्रभृतांवर।।
13-2-11a
13-2-11b
दुर्जयस्येन्द्रवपुषः पुत्रोऽग्निसदृशद्युतिः।
दुर्योधनो नाम महान्राजा राजर्षिसत्तमः।।
13-2-12a
13-2-12b
तस्येन्द्रसमवीर्यस्य सङ्ग्रामेष्वनिवर्तिनः।
विषये वासवस्तस्य सम्यगेव प्रवर्षति।।
13-2-13a
13-2-13b
रत्नैर्धनैश्च पशुभिः सस्यैश्चापि पृथग्विधैः।
नगरं विषयश्चास्य प्रतिपूर्णस्तदाऽभवत्।।
13-2-14a
13-2-14b
न तस्य विषये चाभूत्कृपणो नापि दुर्गतः।
व्याधितो वा कृशो वाऽपरि तस्मिन्नाभून्नरः क्वचित्।।
13-2-15a
13-2-15b
सुदक्षिणो मधुरवागनसूयुर्जितेन्द्रियः।
धर्मात्मा चानृशंसश्च विक्रान्तोऽथाविकत्थनः।।
13-2-16a
13-2-16b
यज्वा च दान्तो मेधावी ब्रह्मण्यः सत्यसङ्गरः।
न चावमन्ता दाता च वेदवेदाङ्गपारगः।।
13-2-17a
13-2-17b
तं नर्मदा देवनदी पुण्या शीतजला शिवा।
चकमे पुरुषव्याघ्रं स्वेन भावेन भारत।।
13-2-18a
13-2-18b
तस्यां जज्ञे तदा नद्यां कन्या राजीवलोचना।
नाम्ना सुदर्शना राजन्रूपेण च सुदर्शना।।
13-2-19a
13-2-19b
तादृग्रूपा न नारीषु भूतपूर्वा युधिष्ठिर।
दुर्योधनसुता यादृगभवद्वरवर्णिनी।।
13-2-20a
13-2-20b
तामग्निश्चकमे साक्षाद्राजकन्यां सुदर्शनाम्।
स्वरूपं दीप्तिमत्कृत्वा शरदर्कसमद्युति।।
13-2-21a
13-2-21b
सा चाग्निशरणे राज्ञः शुश्रूषाकृतनिश्चया।
नियुक्ता पितृसन्देशादारिराधयिषुः शिखिम्।।
13-2-22a
13-2-22b
तस्या मनोहरं रूपं दृष्ट्वा देवो हुताशनः।
मन्मथेन समादिष्टः पत्नीत्वे यतते मिथः।।
13-2-23a
13-2-23b
भज मामनवद्याङ्गि कामात्कमललोचने।
रम्भोरु मृगशावाक्षि पूर्णचन्द्रनिभानने।।
0
भ्रूलताललितं कान्तमनङ्गो बाधते हि माम्।।
13-2-24a
13-2-24b
13-2-25a तवेदं पद्मपत्राक्षं मुखं दृष्ट्वा मनोहरम्।
13-2-25b
ललाटं चन्द्ररेखाभं शिरोरुहविभूषितम्।
दृष्ट्वा ते पत्रलेखान्तमनङ्गो बाधते भृशम्।।
13-2-26a
13-2-26b
बालातपेन तुलितं सस्वेदपुलकोद्गमम्।
बिम्बाधरोष्ठवदनं विबुद्धमिव पङ्कजम्।
अतीव चारुविभ्रान्तं मदमावहते मम।।
13-2-27a
13-2-27b
13-2-27c
दन्तप्रकाशनियता वाणी तव सुरक्षिता।
ताम्रपल्लवसंकाशा जिह्वेयं मे मनोहरा।।
13-2-28a
13-2-28b
समाः स्निग्धाः सुजाताश्च सहिताश्च द्विजास्तव।
द्विजप्रिये प्रसीदस्व भज मां सुभगा ह्यसि।।
13-2-29a
13-2-29b
मनोज्ञं सुकृतापाङ्गं मुखं तव मनोहरम्।
स्तनौ ते संहतौ भीरु हाराभरणभूषितौ।।
13-2-30a
13-2-30b
पक्वबिल्वप्रतीकाशौ कर्कशौ सङ्गमक्षमौ।
गम्भीरनाभिसुभगे भज मां वरवर्णिनि।।
13-2-31a
13-2-31b
भीष्म उवाच। 13-2-32x
सैवमुक्ता विरहिते पावकेन महात्मना।
ईषदाकम्पहृदया व्रीडिता वाक्यमब्रवीत्।।
13-2-32a
13-2-32b
नलु नाम कुलीनानां कन्यकानां विशेषतः।
माता पिता प्रभवतः प्रदाने बान्धवाश्च ये।।
13-2-33a
13-2-33b
पाणिग्रहणमन्त्रैश्च हुते चैव विभावसौ।
सतां मध्ये निविष्टायाः कन्यायाः शरणं पतिः
13-2-34a
13-2-34b
साऽहं नात्मवशा देव पितरं वरयस्व मे। 13-2-35a
अथ नातिचिराद्राजा कालाद्दुर्योधनस्तदा।
यज्ञसम्भारनिपुणान्मन्त्रीनाहूय चोक्तवान्।
यज्ञं यक्ष्येऽहमिति वै सम्भारान्सम्भ्रियन्तु मे।।
13-2-36a
13-2-36b
13-2-36c
ततः समाहिते तस्य यज्ञे ब्राह्मणसत्तमैः।
विप्ररूपी हुतवहो नृपं कन्यामयाचत।।
13-2-37a
13-2-37b
न तु राजा प्रदानाय तस्मै भावमकल्पयत्।
दरिद्रश्चासवर्णश्च ममायमिति पार्थिवः।
इति तस्मै न वै कन्यां दित्सां चक्रे नराधिपः।।
13-2-38a
13-2-38b
13-2-39c
अथ दीक्षामुपेतस्य यज्ञे तस्य महात्मनः।
आहितो हवनार्थाय वेद्यामग्निः प्रणश्यत।।
13-2-39a
13-2-39b
ततः स भीतो नृपतिर्भृशं प्रव्यथितेन्द्रियः।
मन्त्रिणो ब्राह्मणांश्चैव पप्रच्छ किमिदं भवेत्।
यज्ञे समिद्धो भगवान्नष्टो मे हव्यवाहनः।।
13-2-40a
13-2-40b
13-2-40c
सम्मन्त्रकुशलैस्तैस्तैर्ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
ऋत्विग्भिर्मन्त्रकुशलैर्यज्यतां वा हुताशनः।।
13-2-41a
13-2-41b
अथ ऋक्सामयजुषां ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
वेदतत्वार्थकुशलैस्ततः सोमपुरस्करैः।।
13-2-42a
13-2-42b
गुह्यैश्च नामभिः सर्वैराहूतो हव्यवाहनः।
स्वरूपं दीप्तिमत्कृत्वा शरदर्कसमद्युतिः।।
13-2-43a
13-2-43b
ततो महात्मा तानाह दहनो ब्राह्मणर्षभान्।
वरयाम्यात्मनोऽर्थाय दुर्योधनसुतामिति।।
13-2-44a
13-2-44b
ततस्ते कल्यमुत्थाय तस्मै राज्ञे न्यवेदयन्।
ब्राह्मणा विस्मिताः सर्वे यदुक्तं चित्रभानुना।।
13-2-45a
13-2-45b
ततः स राजा तच्छ्रुत्वा वचनं ब्रह्मवादिनाम्।
अवाप्य परमं हर्षं तथेति प्राह बुद्धिमान्।।
13-2-46a
13-2-46b
अयाचत च तं शुल्कं भगवन्तं विभावसुम्।
नित्यं सान्निध्यमिह ते चित्रभानो भवेदिति।।
13-2-47a
13-2-47b
तमाह भगवानग्निरेवमस्त्विति पार्थिवम्।
ततः सान्निध्यमद्यापि माहिष्मत्यां विभावसोः।।
दृष्टं हि सहदेवेन दिशं विजयता च तत्।
13-2-48a
13-2-48b
13-2-48c
ततस्तां समलङ्कृत्य कन्यामहतवाससम्।
ददौ दुर्योधनो राजा पावकाय महात्मने।।
13-2-49a
13-2-49b
प्रतिजग्राह चाग्निस्तु राजकन्यां सुदर्शनाम्।
विधिना वेददृष्टेन वसोर्धारामिवाध्वरे।।
13-2-50a
13-2-50b
तस्या रूपेण शीलेन कुलेन वपुषा श्रिया।
अभवत्प्रीतिमानग्निर्गर्भं चास्यां समादधे।।
13-2-51a
13-2-51b
तस्याः समभवत्पुत्रो नाम्नाऽग्नेयः सुदर्शनः।। 13-2-52a
सुदर्शनस्तु रूपेण पूर्णेन्दुसदृशोपमः।
शिशुरेवाध्यगात्सर्वं परं ब्रह्म सनातनम्।।
13-2-53a
13-2-53b
अथौघवान्नाम नृपो नृगस्यासीत्पितामहः।
तस्याप्योघवती कन्या पुत्रश्चौघरथोऽभवत्।।
13-2-54a
13-2-54b
तामोघवान्ददौ तस्मै स्वयमोघवतीं सुताम्।
सुदर्शनाय विदुषे भार्यार्थे देवरूपिणीम्।।
13-2-55a
13-2-55b
स गृहस्थाश्रमरतस्तया सह सुदर्शनः।
कुरुक्षेत्रेऽवसद्राजन्नोघवत्या समन्वितः।।
13-2-56a
13-2-56b
गृहस्थश्चावजेष्यामि मृत्युमित्येव स प्रभो।
प्रतिज्ञामकरोद्धीमान्दीप्ततेजा विशाम्पते।।
13-2-57a
13-2-57b
तामेवौघवतीं राजन्स पावकसुतोऽब्रवीत्।
अतिथेः प्रतिकूलं ते न कर्तव्यं कथञ्चन।।
13-2-58a
13-2-58b
येनयेन च तुष्येत नित्यमेव त्वयाऽतिथिः।
अप्यात्मनः प्रदानेन न ते कार्या विचारणा।।
13-2-59a
13-2-59b
एतद्व्रतं मम सदा हृदि सम्परिवर्तते।
गृहस्थानां च सुश्रोणि नातिथेर्विद्यते परम्।।
13-2-60a
13-2-60b
प्रमाणं यदि वामोरु वचस्ते मम शोभने।
इदं वचनमव्यग्रा हृदि त्वं धारयेः सदा।।
13-2-61a
13-2-61b
निष्क्रान्ते मयि कल्याणि तथा सन्निहितेऽनघे।
नातिथिस्तेऽवमन्तव्यः प्रमाणं यद्यहं तव।।
13-2-62a
13-2-62b
तमब्रवीदोघवती तथा मूर्ध्नि कृताञ्जलिः।
न मे त्वद्वचनात्किञ्चिन्न कर्तव्यं कथञ्चन।।
13-2-63a
13-2-63b
जिगीषमाणस्तु गृहे तदा मृत्युः सुदर्शनम्।
पृष्ठतोऽन्वगमद्राजन्रन्ध्रान्वेषी तदा सदा।।
13-2-64a
13-2-64b
इध्मार्थं तु गते तस्मिन्नग्रिपुत्रे सुदर्शने।
अतिधिर्ब्राह्मणः श्रीमांस्तामाहौघवतीं तदा।।
13-2-65a
13-2-65b
आतिथ्यं कृतमिच्छामि त्वयाऽद्य वरवर्णिनि।
प्रमाणं यदि धर्मस्ते गृहस्थाश्रमसम्मतः।।
13-2-66a
13-2-66b
इत्युक्ता तेन विप्रेणि राजपुत्री यशस्विनी।
विधिना प्रतिजग्राह वेदोक्तेन विशांपते।।
13-2-67a
13-2-67b
आसनं चैव पाद्यं च तस्मै दत्त्वा द्विजातये।
प्रोवाचौघवती विप्रं केनार्थः किं ददामि ते।।
13-2-68a
13-2-68b
तामब्रवीत्ततो विप्रो राजपुत्रीं सुदर्शनाम्।
त्वया ममार्थः कल्याणि निर्विशङ्कैतदाचर।।
13-2-69a
13-2-69b
यदि प्रमाणं धर्मस्ते गृहस्थाश्रमसम्मतः।
प्रदानेनात्मनो राज्ञि कर्तुमर्हसि मे प्रियम्।।
13-2-70a
13-2-70b
स तया छन्द्यमानोऽन्यैरीप्सितैर्नृपकन्यया।
नान्यमात्मप्रदानात्स तस्या वव्रे परं द्विजः।।
13-2-71a
13-2-71b
सा तु राजसुता स्मृत्वा भर्तुर्वचनमादितः।
तथेति लज्जमाना सा तमुवाच द्विजर्षभम्।।
13-2-72a
13-2-72b
ततो विहस्य विप्रर्षिः सा चैवोपविवेश ह।
संस्मृत्य भर्तुर्वचनं गृहस्थाश्रमकाङ्क्षिणः।।
13-2-73a
13-2-73b
अथेध्मान्समुपादाय स पावकिरुपागमत्।
मृत्युना रौद्रभावेन नित्यं बन्धुरिवान्वितः।।
13-2-74a
13-2-74b
ततस्त्वाश्रममागम्य स पावकसुतस्तदा।
तां व्याजहारौघवतीं क्वासि यातेति चासकृत्।।
13-2-75a
13-2-75b
तस्मै प्रतिवचः सा तु भर्त्रे न प्रददौ तदा।
कराभ्यां तेन विप्रेण स्पृष्टा भर्तृव्रता सती।।
13-2-76a
13-2-76b
उच्छिष्टाऽस्मीति मन्वाना लज्जिता भर्तुरेव च।
तूष्णींभूताऽभवत्साध्वी विप्रकोपाच्च शङ्किता।।
13-2-77a
13-2-77b
अथ तां किन्विति पुनः प्रोवाच स सुदर्शनः।
क्व सा साध्वी क्व सायाता गरीय किमतो मम।।
13-2-78a
13-2-78b
पतिव्रता सत्यशीला नित्यं चैवार्जवे रता।
कथं न प्रत्युदेत्यद्य स्मयमाना यथापुरम्।।
13-2-79a
13-2-79b
उटजस्थस्तु तं विप्रः प्रत्युवाच सुदर्शनम्।
अतिथिं विद्धि सम्प्राप्तं ब्राह्मणं पावके च माम्।।
13-2-80a
13-2-80b
अनया छन्द्यमानोऽहं भार्यया तव सत्तम।
तैस्तैरतिथिसत्कारैर्ब्रह्मन्नेषा वृता मया।।
13-2-81a
13-2-81b
आत्मप्रदानविधिना मामर्चति शुभानना।
अनूरूपं यदत्रान्यत्तद्भवान्कर्तुमर्हति।।
13-2-82a
13-2-82b
कूटमुद्गरहस्तस्तु मृत्युस्तं वै समन्वगात्।
हीनप्रतिज्ञमत्रैवं वधिष्यामीति चिन्तयन्।।
13-2-83a
13-2-83b
सुदर्शनस्तु मनसा कर्मणा चक्षुषा गिरा।
त्यक्तेर्ष्यस्त्यक्तमन्युश्च स्मयमानोऽब्रवीदिदम्।।
13-2-84a
13-2-84b
सुरतं तेऽस्तु विप्राग्र्य प्रीतिर्हि परमा मम।
गृहस्थस्य हि धर्मोऽग्र्यः सम्प्राप्तातिथिपूजनम्।।
13-2-85a
13-2-85b
अतिथिः पूजितो यस्य गृहस्थस्य तु गच्छति।
नान्यस्तस्मात्परो धर्म इति प्राहुर्मनीषिणः।।
13-2-86a
13-2-86b
प्राणाश्च मम दाराश्च यच्चान्यद्विद्यते वसु।
अतिथिभ्यो मया देयमिति मे व्रतमाहितम्।।
13-2-87a
13-2-87b
निःसन्दिग्धं यथा वाक्यमेतन्मे समुदाहृतम्।
तेनाहं विप्र सत्येन स्वयमात्मानमालभे।।
13-2-88a
13-2-88b
पृथिवी वायुराकाशमापो ज्योतिश्च पञ्चमम्।
बुद्धिरात्मा मनः कालो दिशश्चैव गुणा दश।।
13-2-89a
13-2-89b
नित्यमेव हि पश्यन्ति देहिनां देहसंश्रिताः।
सुकृतं दुष्कृतं चापि कर्म कर्मवतांवर।।
13-2-90a
13-2-90b
यथैषा नानृता वाणी मयाऽद्य समुदीरिता।
तेन सत्येन मां देवाः पालयन्तु दहन्तु वा।।
13-2-91a
13-2-91b
ततो नादः समभवद्दिक्षु सर्वासु भारत।
असकृत्सत्यमित्येवं नैतन्मिथ्येति सर्वतः।।
13-2-92a
13-2-92b
उटजात्तु ततस्तस्मान्निश्चक्राम स वै द्विजः।
वपुषा द्यां च भूमिं च व्याप्य वायुरिवोद्यतः।।
13-2-93a
13-2-93b
स्वरेण विप्रः शैक्षेण त्रींल्लोकाननुनादयन्।
उवाच चैनं धर्मज्ञं पूर्वमामन्त्र्य नामतः।।
13-2-94a
13-2-94b
धर्मोऽहमस्मि भद्रं ते जिज्ञासार्थं तवानघ।
प्राप्तः सत्यं च ते ज्ञात्वा प्रीतिर्मे परमा त्वयि।।
13-2-95a
13-2-95b
विजितश्च त्वया मृत्युर्योऽयं त्वामनुगच्छति।
रन्ध्रान्वेषी तव सदा त्वया धृत्या वशीकृतः।।
13-2-96a
13-2-96b
न चास्ति शक्तिस्त्रैलोक्ये कस्य चित्पुरुषोत्तम।
पतिव्रतामिमां साध्वीं तवोद्वीक्षितुमप्युत।।
13-2-97a
13-2-97b
रक्षिता त्वद्गुणैरेषा पातिव्रत्यगुणैस्तथा।
अधृष्या यदियं ब्रूयात्तथा तन्नान्यथा भवेत्।।
13-2-98a
13-2-98b
एषा हि तपसा स्वेन संयुक्ता ब्रह्मवादिनी।
पावनार्थं च लोकस्य सरिच्छ्रेष्ठा भविष्यति।।
13-2-99a
13-2-99b
अर्धेनौघवती नाम त्वामर्धेनानुयास्यति।
शरीरेण महाभागा योगो ह्यस्या वशे स्थितः।
अनया सह लोकांश्च गन्ताऽसि तपसार्जितान्।।
13-2-100a
13-2-100b
13-2-100c
यत्र नावृत्तिमभ्येति शाश्वतांस्ताननुत्तमान्।
अनेन चैव देहेन लोकांस्त्वमभिपत्स्यसे।।
13-2-101a
13-2-101b
निर्जितश्च त्वया मृत्युरैश्वर्यं च तवोत्तमम्।
पञ्चभूतान्यतिक्रान्तः स्ववीर्याच्च मनोजवः।
13-2-102a
13-2-102b
गृहस्थधर्मेणानेन कामक्रोधौ च ते जितौ।।
स्नेहो रागश्च तन्द्री च मोहो द्रोहश्च केवलः।
तव शुश्रूषया राजन्राजपुत्र्या च निर्जिताः।।
13-2-103a
13-2-103b
13-2-103c
भीष्म उवाच। 13-2-104x
शुक्लानां तु सहस्रेण वाजिनां रथमुत्तमम्।
युक्तं प्रगृह्य भगवान्वासवोप्याजगाम तम्।।
13-2-104a
13-2-104b
मृत्युरात्मा च लोकाश्च जिता भूतानि पञ्च च।
बुद्धिः कालो मदो मोहः कामक्रोधौ तथैव च
13-2-105a
13-2-105b
तस्माद्गृहाश्रमस्थस्य नान्यद्दैवतमस्ति वै।
ऋतेऽतिथिं नरव्याघ्र मनसैतद्विचारय।।
13-2-106a
13-2-106b
अतिथिः पूजितो यद्धि ध्यायते मनसा शुभम्।
न तत्क्रतुशतेनापि तुल्यमाहुर्मनीपिण।।
13-2-107a
13-2-107b
सुदत्तं सुकृतं वाऽपि कम्पयेदप्यनर्चितः।। 13-2-108a
पात्रं त्वतिथिमासाद्य शीलाढ्यं यो न पूजयेत्।
स दत्त्वा तुष्कृतं तस्मै पुण्यमादाय गच्छति।।
13-2-109a
13-2-109b
एतत्ते कथितं पुत्र मयाऽऽख्यानमनुत्तमम्।
यथा हि विजितो मृत्युर्गृहस्थेन पुराऽभवत्।।
13-2-110a
13-2-110b
धन्यं यशस्यमायुष्यमिदमाख्यानमुत्तमम्।
बुभूषताऽभिमन्तव्यं सर्वदुश्चरितापहम्।।
13-2-111a
13-2-111b
इदं यः कथयेद्विद्वानहन्यहनि भारत।
सुदर्शनस्य चरितं पुण्याँल्लोकानवाप्नुयात्।।
13-2-112a
13-2-112b
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि
दानधर्मपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः।। 2 ।।

13-2-15 दुर्गतो दरिद्रः।। 13-2-21 चकमे कामयामास।। 13-2-38 असवर्णः अक्षत्रियः। दित्सां दातुमिच्छाम्।। 13-2-39 प्रणश्यत नादृश्यत।। 13-2-43 दर्शयामासेति शेषः। 13-2-45 कल्यं प्रातः।। 13-2-49 अहतं नवं वासो यस्यास्ताम्।। 13-2-50 वसोर्धारां सन्ततां घृतधाराम्।। 13-2-53 दृशाभ्यां दृग्भ्यां सहितं सदृशं वक्रं तस्मिन् पूर्णेन्दोरुपमा सादृश्यं यस्य पूर्णेन्दुसदृशोपमः।। 13-2-57 गृहस्थश्च गृहस्थ एव।। 13-2-59 आत्मनः शरीरस्य।। 13-2-62 प्रमाणं हितज्ञापकम्।। 13-2-63 किञ्चिन्न कर्तव्यमिति न अपितु कर्तव्यमेव।। 13-2-64 पृष्ठतस्तस्याप्रत्यक्षं गृहेऽन्वगमत्।। 13-2-65 ब्राह्मणस्तद्रूपी मृत्युः।। 13-2-69 एतद्रतप्रदानम्।। 13-2-70 राज्ञि राजकन्ये।। 13-2-71 छन्द्यमानः प्रलोभ्यमानः।। 13-2-77 विप्रकाराच्च शङ्कितेति थ. पाठ।। 13-2-82 अनुरूपं स्त्रीदूषणानुगुणं दण्डम्।। 13-2-83 कूटमुद्गरो लोहदण्डः। हीनप्रतिज्ञं त्यक्तातिथिव्रतम्।। 13-2-89 गुणाः इन्द्रियाणि तदभिमानिन्यो देवता इत्यर्थः।। 13-2-94 शैक्षेण उदात्तादिधर्मवता।। 13-2-100 अर्धेन ओघवती नाम नदी भविष्यतीति शेषः। योगो हीति योगसिद्धेयमतः शरीरद्वयं करिष्यतीत्यर्थः।। 13-2-103 राजन्निति ऋषिराजत्वात् राजजामानृत्वाद्वा संबोधनम्।। 13-2-105 बुद्धिरित्यादावपि जितेत्याद्यनुषङ्गः।। 13-2-111 बुभूषता मिच्छता।।

अनुशासनपर्व-001 पुटाग्रे अल्लिखितम्। अनुशासनपर्व-003