महाभारतम्-13-अनुशासनपर्व-055
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भीष्मेण युधिष्ठिरम्प्रति कन्यानां प्रदानकालादिप्रतिपादकनारदमार्कण्डेयसंवादानुवादः।। 1 ।।
`मार्कण्डेय उवाच। | 13-55-1x |
श्रुतं वर्णावरैर्दत्तं हव्यं कव्यं च नारद। सम्प्रयोगे च पुत्राणां कन्यानां च ब्रवीहि मे।। | 13-55-1a 13-55-1b |
नारद उवाच। | 13-55-2x |
कन्याप्रदानं प्रत्राणां स्त्रीणां संयोगमेव च। आनुपूर्व्यान्मया सम्यगुच्यमानं निबोध मे।। | 13-55-2a 13-55-2b |
जातमात्रा तु दातव्या कन्यका सदृशे वरे। काले दत्तासु कन्यासु पिता धर्मेण युज्यते।। | 13-55-3a 13-55-3b |
यस्तु पुष्पवतीं कन्यां बान्धवो न प्रयच्छति। मासिमासि गते बन्धुस्तस्या भ्रौणघ्न्यमाप्नुते।। | 13-55-4a 13-55-4b |
यस्तु कन्यां गृहे रुन्ध्याद्ग्राम्यैर्भोगैर्विवर्जिताम्। अवध्यातः स कन्याया बन्धुः प्राप्नोति भ्रूणहाम्।। | 13-55-5a 13-55-5b |
दूषिता पाणिमात्रेण मृते भर्तरि दारिका। संस्कारं लभते नारी द्वितीये सा पुनः पतौ।। | 13-55-6a 13-55-6b |
पुनर्भूर्नाम सा कन्या सपुत्रा हव्यकव्यदा। अदूष्या सा प्रसूतीषु प्रजानां दारकर्मणि।। | 13-55-7a 13-55-7b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-55-8x |
या तु कन्या प्रसूयेत गर्भिणी या तु वा भवेत्। कथं दारक्रियां भूयः सा भवेदृषिसत्तम।। | 13-55-8a 13-55-8b |
नारद उवाच। | 13-55-9x |
तत्वार्थनिश्चितं शब्दं कन्यका नयतेऽग्नये। तस्मात्कुर्वन्ति वै भावं कुमार्यस्ता न कन्यकाः।। | 13-55-9a 13-55-9b |
ब्रह्महत्यात्रिभागेन गर्भाधानविशोधितः। गृह्णीयात्तां चतुर्भागविशुद्धां सर्जनात्पुनः।। | 13-55-10a 13-55-10b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-55-11x |
कथं कन्यासु ये जाता बन्धूनां दूषिताः सदा। कस्य ते हव्यकव्यानि प्रदास्यन्ति महामुने।। | 13-55-11a 13-55-11b |
नारद उवाच। | 13-55-12x |
कन्यायास्तु पितुः पुत्राः कानीना हव्यकव्यदाः। अन्तर्वत्नयास्तु यः पाणिं गृह्णीयात्स सहोढजः।। | 13-55-12a 13-55-12b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-55-13x |
अथ येनाहितो गर्भः कन्यायां तत्र नारद। कथं पुत्रफलं तस्य भवेदेतत्प्रचक्ष्व मे।। | 13-55-13a 13-55-13b |
नारद उवाच। | 13-55-14x |
धर्माचारेषु ते नित्यं दूषकाः कृतशोधनाः। बीजं च नश्यते तेषां मोघचेष्टा भवन्ति ते।। | 13-55-14a 13-55-14b |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-55-15x |
अथ काचिद्भवेत्कन्या क्रीता दत्ता हृताऽपि वा। कथं पुत्रकृतं तस्यास्तद्भवेद्दषिसत्तम।। | 13-55-15a 13-55-15b |
नारद उवाच। | 13-55-16x |
क्रीता दत्ता हृता चैव या कन्या पाणिवर्जिता। कौमारी नाम सा भार्या प्रसवेदौरसान्सुतान्। न पत्न्यर्थे शुभा प्रोक्ता तत्कर्मण्यपराजिते।। | 13-55-16a 13-55-16b 13-55-16c |
मार्कण्डेय उवाच। | 13-55-17x |
केन मङ्गलकृत्येषु विनियुज्यन्ति कन्यकाः। एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्वेनेह महामुने।। | 13-55-17a 13-55-17b |
नारद उवाच। | 13-55-18x |
नित्यं निवसते लक्ष्मीः कन्यकासु प्रतिष्ठिता। शोभना शुभयोग्या च पूज्या मङ्गलकर्मसु।। | 13-55-18a 13-55-18b |
आकरस्थं यथा रत्नं सर्वकामफलोपगम्। तथा कन्या महालक्ष्मीः सर्वलोकस्य मङ्गलम्।। | 13-55-19a 13-55-19b |
एवं कन्या परा लक्ष्मी रतिस्तोषश्च देहिनाम्। महाकुलानां चारित्रवृत्तेन निकषोपलम्।। | 13-55-20a 13-55-20b |
आनयित्वा स्वकाद्वर्णात्कन्यकां यो भजेन्नरः। दातारं हव्यकव्यानां पुत्रकं या प्रसूयति।। | 13-55-21a 13-55-21b |
साध्वी कुलं वर्धयति साध्वी पुष्टिग्रहे परा। साध्वी लक्ष्मी रतिः साक्षात्प्रतिष्ठा सन्ततिस्तथा।। | 13-55-22a 13-55-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते अनुशासनपर्वणि दानधर्मपर्वणि पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः।। 55 ।। |
13-55-10 चतुर्भागविशुद्धात्स्वजनात्पुनरिति ध.पाठः।।
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